हाथ मिट्टी से सने थे, अतः धोना आवश्यक था और वह नदी की ओर चल दिए.
राह में सोचने लगे- 'जीवनभर मैंने एक से बढ़कर एक बढ़िया पकवान खाए हैं, जो भी मन चाहा, वही खाया है. क्या अभी तक मेरा मन तृप्त नहीं हुआ? क्या मेरा स्वयं पर इतना भी नियंत्रण नहीं? आज मैंने मिट्टी खोदी, ईंटें ढोई. किसलिए? इन जलेबियों के लिए न?’
उन्हें स्वयं पर बहुत क्रोध आया.
उज्जयिनी के महा प्रतापी राजा भर्तृहरि का नाम हम सब ने सुना है. अनेक वर्षों तक राज्य करने के बाद उन्होंने तप करने की ठानी और बाबा गोरखनाथ से दीक्षा ली. एक दिन वह किसी गांव से गुज़र रहे थे कि हलवाई की दुकान पर गर्मागर्म जलेबियां बनती देख उनका मन ललचा उठा.
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उन्होंने हलवाई से जलेबियां मांगी, तो उसने डांट कर कहा, “मुफ़्त में खाने के लिए साधु बने हो? पहले काम-धंधा करो फिर आना जलेबी खाने.”
राजा आगे बढ़े, तो वहां एक मकान बन रहा था. कारीगर तो थे नहीं कि कोई अच्छा-सा काम मिलता. सो पूरा दिन उन्होंने मिट्टी खोदी, ईंटें ढोई, तब जाकर शाम को दो टके मिले. वह तुरंत जलेबीवाले की दुकान पर पहुंचे और जलेबियां ख़रीदीं.
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हाथ मिट्टी से सने थे, अतः धोना आवश्यक था और वह नदी की ओर चल दिए.
राह में सोचने लगे- 'जीवनभर मैंने एक से बढ़कर एक बढ़िया पकवान खाए हैं, जो भी मन चाहा, वही खाया है. क्या अभी तक मेरा मन तृप्त नहीं हुआ? क्या मेरा स्वयं पर इतना भी नियंत्रण नहीं? आज मैंने मिट्टी खोदी, ईंटें ढोई. किसलिए? इन जलेबियों के लिए न?’
उन्हें स्वयं पर बहुत क्रोध आया. अपने भिक्षा पात्र में गोबर भर वह नदी की ओर चल दिए. उन्होंने हाथ धो कर जलेबी उठाई और मुंह के पास ले जाकर स्वयं से कहा, “खा, जलेबी खा.” पर ऐसा बोलकर उन्होंने अपने मुख में गोबर डाल दिया और एक जलेबी दरिया में फेंक दी.
फिर दूसरी जलेबी उठाकर बोले, “राजपाट छोड़ा, परिवार छोड़ा, सगे-संबंधी छोड़े और आज इन जलेबियों ने मन भरमा दिया." यह बोलकर मुख में फिर गोबर डाला और एक जलेबी जल में डाल दी.
कहते हैं, इसके बाद उनका मन कभी नहीं भटका और उन्होंने पूरे मन से भक्ति की.
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अर्थात्
जब मन भटकने लगे, तो उसे जबरन राह पर लाना अति आवश्यक है. यही एकमात्र उपाय है. ज़रा-सी भी ढील दोगे, तो वह हाथ से निकल जाएगा और आपको पता भी नहीं चलेगा.
- उषा वधवा
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