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कहानी- प्यार किया नहीं जाता… (Short Story- Pyar Kiya Nahi Jata…)

 
“अगर बच गई का मतलब? वो मेरी बेटी है डॉक्टर! मेरी बेटी है वो. हमारे दिल की धड़कन. आप उसे बचाने की हर संभव कोशिश कीजिए.” उनके स्वर में ढेर सारी चिंता घुली थी. मेरी आंखें आश्‍चर्य और ख़ुशी से फैलती गईं. ये वही देव थे, जिन्होंने बरसों इस सोच में गुज़ार दिए कि शायद वो किसी और के अंश को प्यार कभी न दे सकेंगे और चंद घंटों में… शायद इसीलिए कहा जाता है कि बाल रूप भगवान होता है.

शादी के छह महीने बाद ही एक रिश्ते की भाभी के यहां शिशु का जन्म हुआ था. बिटिया पालने में सो रही थी. मैंने उसे देखा- जैसे कोई गुड़िया जीवंत हो उठी हो, उसकी नन्हीं उंगलियां, नन्हे पैर, पतले-से होंठ हर अंग की तुलना केवल सुबह की ओस से नहाए गुलाबी गुलाब से ही की जा सकती थी. तभी उसने आंखें खोल दीं और मुंह रोने के लिए थोड़ा-सा तिरछा किया जैसे हमारी शक्ल अच्छी न लगी हो. इससे उसकी मासूमियत और निखर आई. मेरे पति बोले, “अरे! ये तो आंखें अभी से खोलती है, बिल्ली के बच्चे तो…”
“च्च आप भी…” मैं इन्हें मीठी झिड़की देते हुए उसे बहलाने का प्रयत्न करने लगी. पर उसने रोना शुरू कर दिया. मैंने बहुत संभाल कर उसे गोद में उठाया. मेरी गोद में आते ही वो चुप हो गई और मेरे सीने में मुंह सटाने की कोशिश करने लगी. वो एहसास इतना सुखद था कि मेरे पूरे बदन में एक झुरझुरी सी दौड़ गई. लगा जैसे मेरे भीतर कोई ग्लेशियर पिघलने लगा है.
उस दिन मैं बारिश की पहली बूंद में भीगी मिट्टी सी सोंधी होकर घर लौटी. रात में जब देव के सीने पर सिर रखकर लेटी तो अनायास ही मुंह से निकल गया, “हम कब?..” देव उठकर बैठ गए और मेरा चेहरा अपने हाथों में लेकर बोले, “क्या कहा तुमने? तुमने ही तो कहा था साल दो साल…”
“हां, पर आज मुझे लालच आ गया.” मैंने शरमा कर पलकें झुका लीं. देव का स्वर भावुक हो गया, “जब तुम मेरे अंश को आकार दोगी, तब हम सही मायने में दो जिस्म एक जान हो जाएंगे. मुझे एक नन्हीं सी परी चाहिए. मेरी परी, मेरी रचना, मेरा अंश, मेरा प्यार तुममें आकार लेगा. कितना सुखद क्षण होगा.” उनकी पलकें भीग गईं.
मुझे तो उसी महीने उल्टियों की प्रतीक्षा होने लगी थी, पर…
डॉक्टर वालिया के होंठों पर मुस्कान आ गई. “बस नौ महीने हुए हैं शादी के और तीन महीने प्रकाशन छोड़े हुए? देख बेटा, तुम दोनों की प्रारंभिक जांच मैंने करा ली है. उसमें सब कुछ ठीक है. आगे के टेस्ट बहुत महंगे और असुविधाजनक हैं. मैं ओव्यूलेशन डे की जानकारी और कुछ आयुर्वेदिक दवाएं दे रही हूं. छह महीने और प्रतीक्षा कर लो. और हां, कोशिश करना कि तनावमुक्त रहो.”
छह महीने बाद शुरू हुआ सिलसिला लंबी, ख़र्चीली और असुविधाजनक जांचों, फिर इलाजों, फिर प्रयोगों, फिर नाकामियों का. ससुराल वालों की दिल बेध देने वाली कटूक्तियों, संवेदनहीन पड़ोसियों और रिश्तेदारों की व्यंग्य में डूबी दिखावटी सहानुभूति और संवेदनशील मित्रों की दर्द बांटने की प्यारी कोशिशों की सहभागिता बनी रही. अपनी खाली झोली फैलाए उस ऊपरवाले को कहां नहीं ढूंढ़ा, किस देवता के चरण आंसुओं से नहीं पखारे, मगर सब बेकार.


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जब कभी किसी गर्भवती स्त्री को देखती, देखती कि कैसे घरवाले उसके नखरे उठा रहे हैं, तो रुलाई आ जाती. नवजात शिशु, यूनिफॉर्म पहनकर इठलाते हुए स्कूल जाते बच्चे, किसी की गोद में बड़ी-बड़ी आंखें, ढेर सारा कौतूहल लिए इधर-उधर लपकते बच्चे बहुत ललचाते, मगर अपने आंसुओं पर पहरा बैठाना पड़ता, क्योंकि बेदर्द ज़माने की रीति जीवन की इस कमी ने सिखा जो दी थी.
एक ओर देव विज्ञान की सारी खोज, हर प्रसिद्ध डॉक्टर और पैथी आज़मा लेना चाहते थे. उनकी विफलताएं मुझे इतनी टीस देने लगी थीं कि मैं उन्हें आज़माना नहीं चाहती थी. दूसरी ओर शुभचिंतकों ने गोद लेने का विकल्प सुझाना शुरू कर दिया था. गोद… सोचती तो दिल बैठ जाता. अब वो घड़ी कभी नहीं आएगी जब मैं एक संसृति गढ़कर नारी के विधाता रूप की श्रेणी में आऊंगी. मेरे स्त्रीत्व को पूर्ण होने का गौरव कभी नहीं मिलेगा? मेरे सामने दोनों देवरों की शादियां हुईं, बच्चे हुए. मैंने पूरे घर को उनकी गर्भावस्था में उनके नखरे उठाते देखा. एक बार तो छोटे देवरजी रात को बारह बजे टिक्की ढूंढ़ने निकले. नहीं मिली तो रात के एक बजे सासू मां ने उसके लिए टिक्की बनाई. सौर में सासू मां का पगे मेवे खिलाना, सातवें महीने होने वाली गोद भराई की पूजा… किस अपराध के दंड स्वरूप विधाता ने मुझे इन गौरवपूर्ण सुखों से वंचित किया?
कैसे उस ख़ुशी को देखकर हर्ष से आंदोलित हो पाएगा मन जिसके इंतज़ार में नौ महीने एक मीठी पुलक में नहीं बिताए. जिसके पहले स्पंदन की ख़ुशी नहीं महसूस की, देव का सिर अपने पेट पर रखकर जिसकी धड़कन नहीं सुनाई. एक दिन मम्मी के साथ अपनी व्यथा बांटी तो प्यार से गोद में लिटाकर बोली, “अरे बुद्धू, तूने गाना नहीं सुना ‘प्यार किया नहीं जाता हो जाता है’ और ये तो दुनिया का सबसे पवित्र प्यार है. इसे करने की ज़रूरत कैसे पड़ेगी? याद है, जब तेरी देव से शादी तय हो रही थी तो तू उदास थी. हर कुंवारे मन की तरह तेरा भी सपना था कि कोई मिले, उससे प्यार हो जाए तब शादी हो, लेकिन देख, दो-चार महीनों में ही देव तेरे दिल की धड़कन बन गए कि नहीं? जबकि वयस्क इंसान में तो कई कमज़ोरियां भी होती हैं, हमारे मतभेद भी होते हैं. पर बच्चा तो इतना मासूम होता है कि…”
मेरी बड़ी बहन ने सुना तो दार्शनिक हो गई, “गर्भावस्था के दिन केवल सुखद स्मृतियों का ख़ज़ाना होते हैं, तूने कैसे सोच लिया? मेरे तो उफ्फ्! उल्टियों ने नाक में दम कर दिया था. और प्रसव के समय केस बिगड़ जाने के कारण मृत्यु को इतने समीप से देखा कि आज भी याद करके रुह कांप जाती है. और फिर सोच! तेरी क़ीमती सोने की चेन अगर आधी टूटकर गिर जाए तो क्या तू बाकी की भी फेंक देगी? नहीं ना? उसी तरह स़िर्फ नौ महीने की ख़ुशियां न मिल सकने के कारण बाकी पूरी ज़िंदगी की ख़ुशियों की तिलांजलि क्यों देना?”


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भाभी ने सुना तो हंस पड़ी, “अरे, प्रसव के समय तो अधिकतर लोग बेहोश होते हैं. मैं भी बेहोश ही तो थी. होश में आने पर जिसे डॉक्टर ने गोद में दे दिया वही मेरे जिगर का टुकड़ा हो गया. आप भी यही सोच लेना कि आप बेहोश थीं और डॉक्टर ने आपको आपका बच्चा पकड़ाया है.”
आत्मीयजनों के प्रयासों से धीरे-धीरे स्वार्थ की धूल हटती गई. मुझे अपने मन-दर्पण में अपनी गरिमामयी तस्वीर साफ़ नज़र आने लगी जो किसी भी अंकुर को अपनी ममता के जल से सींचकर पल्लवित कर सकती थी.
आख़िर एक प्यारी सी रात को मैंने देव के सीने पर सिर रखकर बात छेड़ ही दी. ये सुनकर उन्होंने फिर उसी रात की तरह मेरा चेहरा अपने हाथों में ले लिया जिस रात पहली बार हमने ये बात की थी, लेकिन इस बार उनकी आंखों की स्याही कुछ और गहरा गई थी. वो कुछ बोले नहीं, पर मैं उनकी आंखों में उस टूटे सपने की किरचें साफ़ देख सकती थी, “मेरा अंश, मेरे प्यार में, मतलब तुम्हारे शरीर में आकार लेगा…” समझ सकती थी कि ये फ़ैसला उस सपने के टूटने की मुहर है इसीलिए उनके लिए ये फ़ैसला लेना आसान नहीं है. उन्होंने बिना कुछ कहे मेरा सिर दोबारा अपने सीने पर रख लिया. मुझे लगा उनकी पलकें फिर भीग गई हैं.
मैं जब भी, जिस भी तरह से देव से ये बात छेड़ती उनकी आंखों की उदासी कुछ और गहरी हो जाती. उस नाकाम ख़ामोशी में एक धुंधली सी इबारत लिखी होती कि ‘एक वैज्ञानिक होकर कैसे मैं विज्ञान की हार को स्वीकार कर लूं? मैं अभी नाउम्मीद नहीं हुआ हूं’ और मेरे मन में ये वाक्य उमड़-घुमड़ कर सो जाता कि ‘मैं अब विज्ञान की विफलताएं सहन नहीं कर सकती. मन टूटता है मेरा.’ आख़िर एक दिन मैंने अपना दर्द स्पष्ट शब्दों में देव के सामने रखकर गोद लेने के विकल्प पर अपनी तीव्र इच्छा की मुहर लगा ही दी. तब देव ने भी स्पष्ट शब्दों में स्वीकार कर लिया कि उन्हें लगता है कि वो किसी और के अंश को वो प्यार नहीं दे सकेंगे जिसका वो हक़दार होगा, इसलिए ये विकल्प उन्हें मंज़ूर नहीं. बात प्यार की थी इसलिए मैंने दबाव डालना कतई उचित न समझा.
आख़िर सासू मां ने देव को समझाने की ज़िम्मेदारी संभाली. देव की प्रारंभिक परवरिश गांव में अपने दादाजी के पास हुई थी. वो एक समाज सेवक थे और देव के बचपन में ही उसे समाज सेवक बनाने का सपना लेकर गुज़र गए थे. सासू मां ने देव के संस्कारों में भरी इंसानियत को कुरेदा और दादाजी की क़सम देते हुए उन्हें ये कहकर मना लिया कि ये एक समाज सेवा होगी और इससे तुम्हारे दादाजी की इच्छा आंशिक रूप से पूरी हो जाएगी.
अनाथाश्रम की ओर दौड़ती कार की तरह मेरे मन में फिल्मों के दृश्य दौड़ रहे थे. दंपति अनाथाश्रम जाते हैं, अध्यक्ष उन्हें आदर के साथ एक हॉल में ले जाते हैं. बहुत से बच्चे पालने में लेटे हैं. उनसे एक बच्चा चुनने को कहा जाता है. मैं तो सबसे छोटा बच्चा चुनूंगी. वो मेरी गोद में आकर मेरे सीने में…
“आप बच्चा क्यों गोद लेना चाहते हैं?” एक सात्विक मुस्कान वाली अध्यक्षा का बड़े ही मृदुल स्वर में पूछा गया पहला प्रश्‍न था ये.
“मुझे बच्चे खिलाने का बड़ा शौक़ है.”
“किसी वंचित को अच्छा जीवन देने के लिए.”
हम दोनों एक साथ दो अलग वाक्य बोले.
अध्यक्षा ने हम दोनों को अलग-अलग अपनी पैनी और पारखी लगने वाली निगाहों से तौला. उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई. पहले वो देव की ओर मुख़ातिब हुईं, “समाज सेवा तो आप हमारे साथ जुड़कर यूं भी कर सकते हैं. हमारे यहां बहुत सारे लोग श्रम और धन का दान करते हैं.”
फिर मुझे देखकर बोलीं, “और शौक के भाव तो कभी स्थाई नहीं होते.” उनके शब्द मायूस कर देने वाले थे, पर चेहरे पर भाव कोमल और परीक्षापरक. जाने क्यों और कैसे मैं फूट पड़ी, “मेरा जीवन ठहर सा गया है. मैं भी बच्चे के लिए सुंदर कपड़े ख़रीदना चाहती हूं. उसकी हंसी में हंसना चाहती हूं, रात में जगकर उसे दूध पिलाना चाहती हूं, उंगली पकड़कर चलना सिखाना चाहती हूं. पार्क में ले जाकर झूला झुलाना चाहती हूं. उसे यूनिफॉर्म पहनाकर स्कूल छोड़ने जाते समय उसकी मीठी बातें सुनना चाहती हूं. मैं मातृत्व का गौरव पाना चाहती हूं…” मेरी आवाज़ पनीली हो गई और अध्यक्षा के चेहरे पर एक गरिमामयी मुस्कान तैर गई, “बस, मैं यही सुनना चाहती थी, जो आपने आख़िर में कहा. आप पाना चाहती हैं. याद रखिए, हमारे बच्चे अनाथ ज़रूर हैं, पर वंचित और बेसहारा नहीं. इन्हें माता-पिता सिर्फ़ इसलिए चाहिए कि ये ढेर सारी ख़ुशियां ले और दे सकें. इन्हें समुचित जीवन मिलेगा, तो ये भी आपके खालीपन को भरकर आपके जीवन को समृद्ध करेंगे. ये फॉर्म ले जाइए. इसे भरकर सारे अटैचमेंट्स लगाकर लेकर आइए.
“क्या हम बच्चे देख सकते हैं?” मुझसे अपनी व्यग्रता नहीं रोकी जा रही थी.
“सारे बच्चे नहीं दिखाए जाते.” मेरे चेहरे पर क्यों का प्रश्‍न पढ़कर वो आगे बोलीं, “जब कोई गुड़िया ख़रीदने बाज़ार जाता है तो देखभाल कर अच्छी से अच्छी ख़रीदने का भाव होता है ना? और जब प्रसव के बाद डॉक्टर आपके हाथ पर बच्चा रखती है तो? तो मन में बस ईश्‍वर के उस आशीर्वाद को लपक कर माथे से लगा लेने का भाव होता है. है ना? और जब आप उसे ईश्‍वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करेंगे, तो उस क्षण से आपको उससे प्यार हो जाएगा. नहीं तो घर जाकर द्वंद्वग्रस्त रहेंगे कि वो ज़्यादा सुंदर थी या हमने ग़लती की. इसलिए हम ख़ुद दंपति की शक्ल से मिलान कर उसके लिए बच्चा चुनते हैं.”


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“मुझे नवजात शिशु मिल जाएगा?” मेरा ये प्रश्‍न सुनकर उनकी मुस्कुराहट हंसी में बदल गई.
“जब कोई बच्चा आश्रम में आता है, तो हमें पुलिस थाने में ख़बर करके तीन महीने प्रतीक्षा करनी होती है कि कहीं किसी ने किसी का बच्चा चुराकर तो नहीं डाल दिया. इसीलिए तीन महीने से छोटा बच्चा नहीं मिल पाएगा.”
मैंने एक मायूस सी नज़र उन पर डालकर कहा, “तो फिर हमें वही बच्चा दिखा दीजिए जो आपने हमारे लिए…” उनके चेहरे पर आए असमंजस को देखकर देव ने मेरा हाथ पकड़ा और नमस्ते कर मुड़ गए. कार तक पहुंचे थे कि उन्होंने पुकारा. “हमारे यहां एक बच्ची है जिसकी आंखें आपकी तरह ही बड़ी और गहरी सी हैं, उनमें सच्चाई और भावुकता भी मुझे आपसी ही दिखती है. मैंने उसे आपके लिए सोचा है.” उनके इशारे पर आया ने एक बच्ची को मेरी गोद में डाला, तो मुझे लगा बरसों से मेरे दिल पर ग्लेशियर सी जमी पीर आंखों में इकट्ठा हो गई है. वही मासूम चेहरा जो मैं अक्सर सपनों में देखा करती थी, वही नन्हीं-नन्हीं उंगलियां, जैसे गुड़िया जीवंत हो उठी हो, आंखों में ढेर सारे कौतूहल के साथ प्रतिबिंब दिखाई दे रहा था. तभी उसने रोने के लिए मुंह तिरछा कर दिया. “क्या कर रही हो, तुम्हें रोता देखकर वो भी रोने लगेगी. लाओ, मुझे दो. मगर रुको, डाइपर पहने हैं या नहीं?” देव की इस बात पर मुझे हंसी आ गई.
वो डाइपर पहने थी तो मैंने उसे देव को दे दिया. देव ने उसे थोड़ा-सा पुचकारा तो वो खिलखिलाकर हंस पड़ी, फिर खांसने लगी. वो निश्छल हंसी हमारी आत्मा में तैरती चली गई. मैंने उसे ले लिया. थोड़ी देर में वो मेरे सीने में दुबकने लगी.
“इसे भूख लगी है और दवाई का भी समय हो गया है.” कहकर आया ने उसे ले लिया. वो खांसती जा रही थी.
फॉर्म के साथ जो अटैचमेंट्स लगाने थे उनकी सूची बहुत लंबी थी, पर मैंने ज़िद करके देव को छुट्टी दिलाकर दो दिन में सब कर लिए. मुझे सोती आंखों से सपने में और खुली आंखों से ख़्वाब में उसके अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता था.
उठते-बैठते मन में एक ही चिंता रहती थी कि उसे खांसी आ रही थी. पता नहीं कैसी होगी?
फॉर्म और अटैचमेंट्स को अच्छी तरह से चेक करने के बाद उन्होंने बच्ची को बुलवाया.
“आप इसे ले जाएं और अपने डॉक्टर से इसका परीक्षण करा लें. शाम होने से पहले वापस ले आइएगा. वैसे बच्चों के आने के बाद सबसे पहले उनकी रक्त जांच ही कराई जाती है. हमारे पास रिपोर्ट है. फिर भी ये अधिकार हम अभिभावकों को देते हैं.”
आया ने उसे मेरी गोद में दिया और देव को कुछ दवाइयां और दूध की शीशी और एक डॉक्टर का परचा दिया.
“इसे खांसी आ रही है इसलिए इसका टोपा-मोजा उतारिएगा नहीं.”
कार चली तो वो सिर घुमाकर बड़े कौतूहल से बाहर का दृश्य देखने लगी. सबसे पहले मैंने अपनी फेवरेट किड्स शॉप में चलने की ज़िद की. जब वातानुकूलित शोरूम में गई तो वो छींक पड़ी.
“इतने छोटे बच्चे की छींक भी कितनी प्यारी होती है.” मैं बोली. मेरे उत्साह की सीमा न थी. रास्ते में मेरा प्रिय पार्क पड़ा. देव के दोबारा मना करने के बावजूद मैंने कार रुकवा दी. मैं उसे लेकर झूले पर बैठ गई और देव धीरे-धीरे झुलाने लगे. जाड़े की प्यारी धूप हमें दुलरा रही थी. वो अपना टोपा अपने नन्हें हाथों से नोंचकर उसे उतारने की ज़िद करने लगी. मैं तो जैसे इंद्रधनुष के झूले पर सवार थी. आसमान मेरे क़दमों तले था. मैंने उसका टोपा-मोजा उतार दिया. पता ही नहीं चला कि पार्क में लगे पानी के फव्वारे की बूंदें हमें सराबोर करती रहीं. क्लीनिक पहुंचे, तो डॉक्टर जांच करके बोले, “इसे तो बुखार है और खांसी भी. हमने उन्हें दवाइयां दिखाई तो वे बोले इसकी तबीयत ज़्यादा ख़राब हो गई है. अब इन दवाओं से काम नहीं चलेगा. मैं दूसरी लिख रहा हूं. इसे रोज़ दो बार नेबुलाइज़ करवाने के लिए भी लाना होगा और बहुत सी बातों का ध्यान रखना होगा.”
आश्रम पहुंचकर बच्ची देव की गोद में देकर मैं डॉक्टर की नई दवाइयां और ध्यान रखने योग्य बातें आया को समझाने लगी. वो मुस्कुरा उठी, “पर्चा है ना? पर्चा और बच्चा दे दीजिए. बाकी हम सब जानते हैं.” कहते हुए उसने देव की गोद से उसे एक हाथ में टांग लिया, जिसमें पहले से एक बच्चा था. बच्ची ने देव को शिकायत और आश्‍चर्य भरी नज़रों से देखते हुए मुंह रोने के लिए तिरछा किया. ज़ाहिर था कि वो इतनी नेहभरी, सुविधाजनक गोद छोड़कर जाना नहीं चाह रही थी. आया मुड़कर चली तो एक झटका सा लगा. वो अपने नन्हें हाथों से इनकी शर्ट कसकर पकड़े थी. आया ने उसे छुड़ाया तो मुझे लगा कोई मेरी वर्षों की पूंजी ले जा रहा है. जैसे मेरे भीतर से ऐसा कुछ निकाल लिया गया है कि मैं बिल्कुल खाली हो गई हूं. एकाएक वो बुरी तरह खांसने लगी और मुझे लगा उसकी खांसी से मेरे सीने में दर्द उठ गया है.
“उसकी तबीयत ठीक नहीं है. उसे व्यक्तिगत देखभाल की ज़रूरत है. हम उसे अभी ले जाएं?” मैंने अध्यक्षा से पूछा.
“अभी तो बहुत सी औपचारिकताएं बाकी हैं. सबसे बड़ी बात तो ये कि उसे यहां आए अभी दो महीने ही हुए हैं. एक महीने तो हम उसे क़ानूनन नहीं दे सकते. वैसे आप चिंता न करें, छोटे बच्चों को ये सारी समस्याएं लगी ही रहती हैं. फिर भी आपकी ज़रूरत हुई तो हम आपको बुला लेंगे.”
नींद मेरी आंखों में भी नहीं थी और देव की करवटें बता रही थीं कि नींद उनकी आंखों का भी साथ छोड़कर जा चुकी थी. सुबह क़रीब तीन बजे मोबाइल की घंटी बजी, तो दोनों ने एक साथ झपटकर फोन उठाया. पांच मिनट के अंदर कार अनाथाश्रम की ओर दौड़ने लगी थी.
“इसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ेगा.” अध्यक्षा की अनुमति मिलते ही मैंने झपटकर उसे गोद में ले लिया.
आई.सी.यू. के शीशे से हम उस नन्हीं सी जान को देख रहे थे. तभी डॉक्टर उसकी रिपोर्ट्स लेकर आ गए. “डबल निमोनिया है और बहुत कमज़ोरी भी. वैसे क्या सीवियर अस्थेमेटिक टेंडेंसी आपकी हेरिडिटी में रही है?”
“पता नहीं. इसे अनाथाश्रम से…” मेरे बोलते ही डॉक्टर जैसे रिलैक्स हो गए, “ओह! फिर चिंता की बात नहीं है. अगर बच भी गई, तो आप इसे गोद मत लीजिएगा. इस टेंडेंसी के बच्चों के साथ समस्याएं…”
देव ने उत्तेजना और क्षोभ के साथ उनकी बात काट दी, “अगर बच गई का मतलब? वो मेरी बेटी है डॉक्टर! मेरी बेटी है वो. हमारे दिल की धड़कन. आप उसे बचाने की हर संभव कोशिश कीजिए.” उनके स्वर में ढेर सारी चिंता घुली थी. मेरी आंखें आश्‍चर्य और ख़ुशी से फैलती गईं. ये वही देव थे, जिन्होंने बरसों इस सोच में गुज़ार दिए कि शायद वो किसी और के अंश को प्यार कभी न दे सकेंगे और चंद घंटों में… शायद इसीलिए कहा जाता है कि बाल रूप भगवान होता है.
आई.सी.यू. के सामने की बेंच पर मैं आंखों में ममता की तरल निशानी लिए देव के कंधे पर सिर रखकर बैठी थी. देव ने एक हाथ मेरे कंधे पर रख लिया और सांत्वना देने लगे. कितने साल हमने इस सोच में बिता दिए थे कि पराए बच्चे से प्यार कैसे होगा. जो कुछ हमने ‘अपने’ की आस में ख़र्च किया, आज सब व्यर्थ लग रहा था.
सुबह की पहली किरण के साथ जब नर्स ने संदेश दिया कि बच्ची अब ख़तरे से बाहर है तो मेरी आकुल ममता एक सेकंड न रुक सकी. मैं भागते हुए अंदर पहुंची और उसे गोद में उठा लिया. उसने एक संतुष्ट मुस्कान एक-एक करके हमारे चेहरे पर डाली और मेरे कंधे पर सिर रख दिया.
“बहुत थक गई है ना मेरी परी! अब तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी. तुम अपने मम्मी-पापा के पास जो आ गई हो.” कहते हुए देव उसके सिर पर हाथ फेर रहे थे और मेरे मन में मम्मी का वाक्य गूंजता जा रहा था “प्यार किया नहीं जाता…”

भावना प्रकाश

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