"पगली, यही तो प्यार है. उम्र आने पर हर इंसान प्यार में पड़ ही जाता है." दादी ने समझाते हुए कहा, तो सारा ने शरारत से पूछा, "तो क्या आप भी कभी प्यार में पड़ी थीं?"
"अरे, मैं तो कई बार पड़ी थी."
बाहर से मां नाश्ते के लिए पुकारने लगीं, तो दादी तुरंत बाहर निकल गईं. सारा हतप्रभ विस्फारित नेत्रों से उन्हें जाते देखती रही. दादी की स्वीकारोक्ति से उसे गहरा झटका लगा था.
"यह अभी तक सोने नहीं आई?" दादी सारा की जगह खाली देख बोलीं, तो प्रत्युत्तर में साशा धीमे से हंसने लगी लगी.
दादी, "इसमें हंसने की क्या बात है?"
साशा ने बमुश्किल अपनी हंसी रोकी, "आप किसी को बताएंगी तो नहीं? दीदी को तो हरगिज़ ही नहीं, वरना वो मुझे ज़िंदा गाड़ देगी."
"कुछ बताएगी भी या पहेलियां ही बुझाती रहेगी?" दादी अब थोड़ी नाराज़ सी हो चली थीं.
"दीदी प्यार में है." साशा फुसफुसाई.
"क्या?" दादी चिल्ला उठीं.
"शश्शश… कहा था ना चिल्लाना नहीं." साशा ने तुरंत दादी के मुंह पर अपनी हथेली रख दी.
"किससे, कब, तूने बताया क्यों नहीं, तेरे पापा-मम्मी को पता है..?" दादी ने एक सांस में ही सैकड़ों सवाल कर डाले.
"रिलैक्स दादी! मुझे ख़ुद थोड़े दिन पहले ही पता चला है. फिर अभी तो दीदी ख़ुद ही श्योर नहीं है." साशा स्वर को भरसक धीमा बनाए रखे थी, फिर भी कमरे में घुसती सारा को अपने नाम की भनक लग ही गई.
"क्यों भई, मुझे लेकर दादी-पोती में क्या खुसर-पुसर चल रही?"
"कुछ नहीं दीदी, मैं दादी को बता रही थी कि दीदी के एग्जाम समीप है, इसलिए वे रात देर तक पढ़ेंगी."
"हां, सोचा तो यही था, पर बहुत तेज नीद आ रही है. दादी, मुझे सवेरे जल्दी उठा देना गुड नाइट." सारा चादर ओढ़कर दादी के दूसरी तरफ़ सो गई, तो साशा और दादी ने राहत की सांस ली और सोने का प्रयास करने लगीं. दोनों पोतियो दादी की ज़िंदगी थीं. उन्हें अगल-बगल लिटाए चिपटाए न दादी को नींद आती थी, न पोतियों को.
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सवेरे सारा को जल्दी उठाकर, दूध पकड़ाकर दादी ने उसे पढ़ने बैठा दिया और फिर साशा को हिलाने लगी. दादी के साथ जान-बूझकर दोनों छोटी बच्चियां बन जाती थी.
"अभी कॉलेज जाने में देर है दादी, थोड़ा और सो लेने दो." साशा ने आंखें मिचमिचाई, पर दादी के लिए अब ख़ुद को रोकना असंभव होता जा रहा था.
"नहीं, तू अब उठ जा और मुझे पूरी बात बता. मैं रातभर सो नहीं पाई."
"लड़के का नाम विपुल है. दीदी के साथ ही मेडिकल में है. एक दिन दीदी को छोडने आया था. दोनों गेट पर ही काफ़ी देर बातें करते रहे. मैं तब छत पर थी. उनकी बातें तो नहीं सुन पाई, पर दीदी की मद्धिम मुस्कुराहट, हौले-हौले शर्माना मुझे अजीब लग रहा था. जब दीदी अंदर आई, तो मैंने मज़े लेने के लिए दीदी को छेड़ना आरंभ किया और दीदी ने ख़ुद ही सब उगल दिया कि कैसे एक-दूसरे की पढ़ाई में मदद करते-करते वे एक-दूसरे को पसंद करने लगे हैं और साथ समय बिताने के बहाने खोजने लगे हैं, लेकिन दीदी ख़ुद ही अभी श्योर नहीं हैं कि यह सब दोस्ती है या उससे कहीं ज़्यादा कुछ, मतलब प्यार वगैरह है. और अगर है तो आगे इसका क्या अंज़ाम होगा? अभी किसी ने ऐसा कुछ नहीं कहा है. अभी तो दोनों का मुख्य लक्ष्य डॉक्टर बनना है, और हां, दीदी ने साफ़ शब्दों में चेतावनी दी है कि मैं अभी घर में किसी को कुछ नहीं बताऊं, वक़्त आने पर वे ख़ुद सब बता देगी. पर दादी, मुझे आजकल दीदी थोड़ी बदली बदली सी लगने लगी हैं. अकेले में जाने क्या सोचती रहती हैं और फिर ख़ुद ही मुस्कुराने लग जाती हैं."
"पगली, यही तो प्यार है. उम्र आने पर हर इंसान प्यार में पड़ ही जाता है." दादी ने समझाते हुए कहा, तो सारा ने शरारत से पूछा, "तो क्या आप भी कभी प्यार में पड़ी थीं?"
"अरे, मैं तो कई बार पड़ी थी."
बाहर से मां नाश्ते के लिए पुकारने लगीं, तो दादी तुरंत बाहर निकल गईं. सारा हतप्रभ विस्फारित नेत्रों से उन्हें जाते देखती रही. दादी की स्वीकारोक्ति से उसे गहरा झटका लगा था. वह तो हमेशा से यही सोचती आई थी कि दादी की जिंदगी में एकमात्र पुरुष दादू ही थे. वह तो बचपन से ही दोनों में कितना प्यार और अपनापन देखती आई है. दादी बाहर गई होती थी, तो दादू इंतज़ार करते रहते थे. उनके लौटने पर ही खाना खाते थे. दादू अपनी डायबिटीज़ की दवा लेना भले ही भूल जाएं, लेकिन मजाल है कि दादी को बीपी की दवा देने में कभी देर हुई हो. दादी भी उनकी सेवा-टहल में कोई कसर बाकी नहीं रखती थीं. दादू को समय से दूध-फल देना वे कभी नहीं भूलती थीं. उनके सुबह की सैर के कपड़े, रात का कुर्ता-पायजामा सब वक़्त पर घुले, प्रेस किए तैयार मिलते थे. हर पारिवारिक समारोह में दोनों साथ आते-जाते थे. अभी पिछले बरस जब दादू गुज़रे, तो दादी कितना फूट-फूटकर रोई थीं. उन्हें जल्द से जल्द सहज बनाने के लिए घरवालों ने अपने आंसू पोंछ डाले थे. सारा और साशा ने हर वक़्त उनके इर्दगिर्द रहना शुरू कर दिया था और यहां दादी कह रही हैं कि छी। साशा को वितृष्णा सी होने लगी, तो वह उठकर बाथरूम में घुस गई.
तब से साशा दादी से खिची-खिची सी रहने लगी थी.
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कहा तो पहले रात को जब तक दादी उसे अपने से सटाकर उसके बालों में उंगलियां नहीं फिराती थी, तब तक वह सो ही नहीं पाती थी और अब दादी के सो लेने का इत्मीनान कर लेने के बाद ही वह बिस्तर में घुसती थीं. और सबेरे उनके उठकर नहा-धोकर पूजा में बैठ जाने के बाद बिस्तर से निकलती थी. उनके पूजा से उठने से पहले वह कॉलेज निकल जाती थी. उसके इस लुका-छिपी के खेल को सबसे पहले सारा ने नोटिस किया. बड़ी बहन के टोकने पर साशा खीज उठी थी, "क्यूं, क्या आपकी ही पढ़ाई और परीक्षाए महत्वपूर्ण है, मेरी नहीं? मेरी भी परीक्षाएं समीप हैं. फालतू बातों के लिए मेरे पास वक़्त नहीं है."
छोटी बहन के तेवर देख सारा सहम गई थी.
वह यह पूछने का साहस भी नहीं कर सकी कि फालतू बातों से उसका अभिप्राय किन बातों से है उसके प्यार में पड़ जाने से या दादी से. इंसान के अपने मन में चोर हो, तो आगे बढ़कर सवाल उठाने में हिचकिचाहट होना स्वाभाविक है, लेकिन क्या दादी साशा के व्यवहार में आई अस्वाभाविकता और खिंचाव महसूस नहीं कर पा रही थीं? फिर वे क्यों अप्रत्याशित रूप से शांत बनी हुई थीं? साशा को इंतज़ार था कब दादी सवाल उठाए और वह उन्हें कठघरे में खड़ा करे. आख़िर दादी ने ही तो उन्हें सिखाया है कि ग़लत बात के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में कभी हिचकिचाना नहीं चाहिए, फिर भले ही सामने बाला पद या उम्र में कितना ही बड़ा क्यों न हो? पर दादी तो आजकल जाने कहां व्यस्त हो गई थीं? कॉलेज से लौटने पर अक्सर साशा को वे घर से नदारद मिलतीं. शीघ्र ही उसे कारण भी मालूम हो गया, मां ने बताया कि दादू की बरसी आने बाली है. दादी इस अवसर पर ब्राह्मण भोज और भजन-कीर्तन की बजाय कुछ और करना चाहती हैं. मसलन, नगर के वृद्धाश्रम और महिलाश्रम में कुछ सुविधाओं का इंतज़ाम, दादू के नाम से एक पब्लिक लाइब्रेरी की स्थापना…
"हुंह. सब ढोंग!" साशा बुदबुदाई उसकी बुदबुदाहट से अनजान मां ने बोलना जारी रखा, "वे आजकल इन्हीं सब प्रबंधों में व्यस्त हैं. वृद्धाश्रम और महिलाश्रम जाकर पता लगा रही हैं कि उन्हें किन मूलभूत सुविधाओं की सर्वाधिक आवश्यकता है. कल तुम्हारे पापा के साथ जाकर पब्लिक लाइब्रेरी की जगह भी फाइनल कर आई हैं. ब्राह्मण भोज तो नहीं करेंगे, पर इस अवसर पर जो बहन-बेटियां मिलने आएंगी उनके भोजन आदि का प्रबंध भी देखना होगा."
"हू." साशा के दिल में दादी के प्रति फिर कोमल भावनाएं सिर उठाने लगी थीं.
"घर से नेक कार्य करने का उत्साह लेकर तुम्हारी दादी के संग निकलते हैं, पर बार-बार तुम्हारे दादू का प्रसंग और उनकी स्मृतियां सबका मन भारी कर देती हैं. दादी तो इतनी विह्वल हो जाती हैं कि कई बार काम अधूरा छोड़कर बीच में ही घर लौटना पड़ता है. जिसके संग इतने बरस सुख और प्यार से बिताए हों उसकी यादों को एक ही बरस में कैसे भुलाया जा सकता है?" कहते-कहते मां खुद ही भावुक हो गईं. साशा को समझ नहीं आया ऐसे में वह मां को क्या बताए?
बरसी और उसके अगले दिन तक घर में मेहमानों का जमावड़ा रहा. आसपास आत्मीयजनों विशेषतः बेटियों और बहनों की उपस्थिति में दादी की आंखें बार-बार भर आती थी. साशा के लिए उस समय यह अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता था कि ये आंसू कितने सच्चे हैं?
रिश्तेदारों के जाते ही घर में सन्नाटा सा पसर गया था. दोनों बहनें फिर से पढ़ाई में लग गई थीं.
एक रात साशा आकर बिस्तर पर लेटी ही थी कि उसे लगा दीदी धीमी आवाज़ में किसी से फोन पर बतिया रही हैं. साशा दबे पांव उठी और छुपकर सुनने लगी. बात करते-करते सारा अचानक पलटी तो साशा को छुपकर कान लगाए देख स्तब्ध रह गई. उसने तुरंत बहाना बनाकर फोन काट दिया. "साशा, तुमसे मुझे यह उम्मीद नहीं थी. मेरे और विपुल के संबंधों के बारे में जानते हुए भी तुमने ऐसी शर्मनाक हरकत की?"
"मैं सिर्फ़ यह जानने की कोशिश कर रही थी कि आप अभी तक विपुल के ही प्यार में हैं या दादी की तरह आप भी पार्टनर बदल रही हैं?"
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"क्या बकवास कर रही है तू?" सारा लगभग चीख ही पड़ी थी. उसने साशा को इशारा किया. साशा पलटी तो पीछे दादी को खड़ा देख एकबारगी तो हतप्रभ रह गई, पर तुरंत उसने साहस संजोया. एक न एक दिन तो आमने-सामने होना ही था तो क्यूं न आज ही सही.
"हां, दादी ने ख़ुद मुझे बताया है कि वे एक बार नहीं कई-कई बार प्यार में पड़ चुकी हैं." साशा का स्वर ठंडा था. मानो दादी से ज़्यादा उसे इस बात की ग्लानि हो रही है. सारा भौंचक्की सी यह सब देख रही थी. ख़ुद दादी भी एक पल को तो हक्की-बक्की रह गईं, फिर संयत होकर बोलने लगी, "मैंने और तुम्हारे दादा ने एक-दूसरे को पहली बार शादी के बाद ही देखा. नाम के अलावा हम एक-दूसरे के बारे में कुछ नहीं जानते थे. ऐसे में प्यार का तो कहीं नामोनिशान ही नहीं था. अपने संस्कारवश मेरे प्रति उनके मन में मात्र एक ज़िम्मेदारी का भाव था, तो मेरे मन में उनके प्रति मात्र एक पत्नीव्रता का. शादी की पहली रात ही मुझे भारी जोड़े और गहनों से लदी, भयंकर उमस में पसीना-पसीना होते देख ये पसीज उठे थे.
"सब लोग छत पर सोए हैं. तुम ये सब उतारकर आरामदेह कपड़ों में सो सकती हो. मैं खिड़कियां भी खोल देता हूं." मैं कपड़े बदल कर आई, तो ये दो ग्लास ठंडा शरबत लिए मेरा इंतज़ार कर रहे थे. ठंडे शरबत का एक-एक घूंट मेरे मन को प्रेमरस से आप्लावित करता गले के नीचे उतर रहा था. तन को छूने से पहले ही तुम्हारे दादू ने मेरे मन को छू लिया था. मैं उनके प्यार में पड़ गई थी." दोनों बहनें स्तब्ध, भावविभोर दादी को देख-सुन रही थीं. "सारी रात खड़े ही रहने का इरादा है क्या?" दादी ने टोका, तो दोनों की तंद्रा भंग हुईं, तीनों आकर बिस्तर में घुस गई.
"मेरे मायके में प्याज़-लहसुन सब चलता था, लेकिन ससुराल में इनका नाम लेने की भी मनाही थी. मैं यहां के रंग में ढलने का प्रयास करने लगी, लेकिन जब तुम्हारी बड़ी बुआ मेरे गर्भ में आई तो आसपास के घरों से आती प्याज़ के छौंक की सुगंध से मेरा मन मचल उठता. तुम्हारे दादू बिना कहे ही मेरी मनःस्थिति भांप गए और एक दिन चुपके से अपने दोस्त के घर से प्याज़-लहसुन वाली सब्ज़ी बनवाकर मेरे लिए लाए. रात के अंधेरे में उस सब्ज़ी का चटपटा स्वाद मेरी स्वादेन्द्रिय को तृप्त करता रहा और उधर बाहर रखवाली करते तुम्हारे दादू का मन परितृप्त होता रहा. मैं उस दिन एक बार फिर से तुम्हारे दादू के प्यार में पड़ गई थी."
सारा से ज़्यादा साशा चौंक उठी थी. "आपका कई-कई बार प्यार में पड़ने का मतलब बार-बार दादू के प्यार में पड़ने से तो नहीं था?"
लेकिन दादी का प्रतिप्रश्न तो और भी चौंकाने वाला था.
"क्या शादी का गठबंधन ज़िंदगीभर एक ही इंसान के प्यार में पड़े रहने का बंधन है?"
"नहीं, वरना इतने तलाक़, पुनर्विवाह, बहुविवाह आदि क्यों होते?" सारा का तर्क था.
"बिल्कुल ठीक, लेकिन जब उस इंसान से समय-समय पर ढेर सारा प्यार, सम्मान और अपनापन मिलता रहे, तो मन भटकने ही नहीं पाता. वह बार-बार उसी इंसान के प्यार में डूबता चला जाता है. मेरे साथ भी यही हुआ."
"फिर तो ऐसा दादू के साथ भी हुआ होगा?"
"बेहतर तो वे ही बता पाते." कहते हुए दादी का स्वर थोड़ा भीग गया था.
"पर अनुमान से कुछ अवसर मैं बता सकती हूं जब निश्चित ही मैंने उनके दिल को छुआ था और उन्हें अपने प्यार में पड़ने पर मजबूर कर दिया था. तुम्हारे दादू के अंग्रेज़ अफसर पहली बार घर दावत पर आने वाले थे. उनकी आवभगत को लेकर ये बहुत सशंकित थे. मैंने अपनी पाककला का जौहर दिखाते हुए अंग्रेज़ी व्यंजनों को भी देशी तड़का लगाकर परोसा. अफसर इतने ख़ुश हुए कि तुम्हारे दादू को तरक़्क़ी दे दी. उस रात तुम्हारे दादू इतने ख़ुश थे, जितना मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था."
"और यह ज़रूर छोटी बुआ के जन्म वाले वर्ष की बात होगी." साशा ने शरारत से आंखे मटकाई, उसका मंतव्य समझ दादी ने उसे डपट दिया, "चुप शैतान!"
फिर वे गंभीर हो गईं. "मेरी बच्चियों, यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप कब-कब प्यार में पड़े? हमारे समय में यह सब शादी के बाद हो पाता था और आजकल यह सब शादी के पहले ही हो जाता है." दादी ने अर्थपूर्ण नज़रों से सारा को देखा, तो उसने शर्माकर नज़रें झुका लीं, "महत्वपूर्ण यह है कि आपका प्यार सच्चा बना रहे. ऐसे अवसर आते रहे कि आपका साथी बार-बार आपके प्यार में पड़ने पर मजबूर हो जाए. उसका मन आपसे कभी भटकने ही न पाए." इस बार अर्थपूर्ण नज़रों का केन्द्र साशा थी. साशा ने ग्लानि और अपराधबोध से नज़रें झुका लीं.
"सॉरी दादी, मैंने आपको ग़लत समझा."
"कोई बात नहीं. इस बहाने ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण सच तुम्हें समझाने का अवसर मिल गया. एक बार किसी के प्यार में पड़ जाना या शादी हो जाना जन्म-जन्मांतर के संबंधों की गारंटी नहीं है, न तब थी और आज तो बिल्कुल भी नहीं है. इसके लिए उस प्यार में निरंतरता और नवीनता का होना बहुत ज़रूरी है. एक बार प्यार में पड़ना पर्याप्त नहीं है. बार-बार प्यार में पड़ना न केवल प्यार में निखार लाएगा, बल्कि बंधन को और भी मज़बूत बनाएगा."
"दादी, आपकी आज की सीख से हम एक बार फिर आपके प्यार में पड़ गई हैं." दोनों बहनें सस्वर बोल उठीं, तो दादी ने दोनों को अपने बाहुपाश में कस लिया.
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