शायद पुनर्विवाह नारी के लिए एक दुखद पहलू ही है. हो सकता है इसके पीछे सोच अच्छी रही हो. नारी को असहाय समझते हुए सहारा देने की अवधारणा इसके पीछे रही हो. लेकिन जब सहारा एहसान सा दिखने लगे और नारी मन को ओछी मानसिकता के चलते घर-बाहर सब जगह दूसरे दर्जे का स्थान मिले वह भी ज़िंदगीभर तानों के साथ, तो इससे अच्छा यह है कि रास्ते ही बदल दिए जाए…
"मनु तुम तो सुहागरात के मामले में अनुभवी हो, अपन तो इस मामले में बिल्कुल अनाड़ी है." कहते हुए संदीप नशे में झूमता हुआ पलंग पर औंधे मुंह गिर पड़ा. मान्या ने दिल में लगनेवाले इस तीर को सहते हुए संदीप को सहारा दे कर सीधा किया और फिर गुमसुम सी बैठ गई. थोड़ी देर में संदीप गहरी नींद में सो गया था. लेकिन मान्या की आंखों में नींद कोसों दूर थी.
वह अभी भी विधाता के खेल को नहीं समझ पा रही थी कि उसने मान्या के साथ इंसाफ़ किया था या नाइंसाफ़ी की थी. चांद जैसे-जैसे आसमान पर चढ़ता जा रहा था, मान्या के दिल का ज़ख़्म नासूर सा बनता जा रहा था. पुरानी यादें चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूमने लगीं .
"रुपेश में तो अब थक गई हूं, चलो वापस होटल चलते हैं." मान्या ने हांफते हुए कहा था. तब रूपेश ने शरारत से उसे गोद में उठा लिया था और कहा था, "मान्या, अभी तो हमारी ज़िंदगी की शुरुआत है. इसमें ही तुम थक गई, तो इतनी लंबी ज़िंदगी कैसे काटोगी?"
मान्या ने फिर बच्चों की तरह मचलते हुए कहा था, "रूपेश, तुम भी थक जाओगे, बस बहुत हो गया. कल फिर आएंगे, अभी तो होटल वापस चलो." रूपेश ने मान्या का सिर अपने कंधे पर रख कर सहारा दिया और दोनों गुमसुम से होटल लौटने लगे.
थोडी दूर चलने पर मान्या ने फिर कहा, "रूपेश, में ख़ुद को दुनिया की सबसे भाग्यशाली पत्नी मानती हूं, जो तुम्हारे जैसा पति मुझे मिला. इतना प्यार करनेवाले मम्मी-पापा, बंगला, पैसा, तुम्हारा इतना बड़ा कारोबार क्या ये सब कुछ मुझे सहज ही नहीं मिल गया, तुमसे शादी करके!"
"और मैं क्या कम क़िस्मतवाला हूं, जो तुम्हारे जैसी सुंदर, सुशील, पढ़ी-लिखी लड़की मुझे मुफ़्त में मिल गई." दोनों के हंसने की सम्मिलित आवाज़ घाटी में दूर तक फैल गई थी.
अपने कमरे में आकर रूपेश ने हीटर जला दिया और इंटरकॉम पर खाने का ऑर्डर देकर फ्रेश होने बाथरूम में चला गया. मान्या फिर खिड़की के पास आकर मसूरी की अंधेरी गहरी खाइयों को देख रही थी. यदि खुदा ना खास्ता वह इन खाइयों में गिर गई, तब उसे कौन बचाएगा… ये तो इतनी गहरी और घनी है कि वह 'रूपेश रूपेश' चिल्लाएगी तब भी आवाज़ ऊपर तक नहीं आएगी. और तब वह वहां रूपेश की याद में घुट-घुट कर मर जाएगी… यह सोचते हुए उसका बदन पसीने से तरबतर हो गया. तभी रूपेश ने उसे पीछे से अपनी बांहों में जकड़ लिया था.
फिर एकदम से अलग होते हुए बोला, "अरे मान्या, तुम तो पसीने से तरबतर हो रही हो. माथा भी गरम हो रहा है. तबियत तो ठीक है ना?" कहते हुए रुपेश डॉक्टर का पता लेने कमरे के बाहर जाने लगा, तब मान्या ने उसे रोकते हुए कहा, "रूपेश, तुम जैसा सोच रहे हो, वैसा कुछ नहीं है. मैं तो यहां की गहरी खाइयों को देखकर डर गई थी."
तब रूपेश ने हंसते हुए कहा था, "मान्या, अब मैं तुम्हारे साथ हूं, डर की बात मन से निकाल दो और फिर मैं रहूं या न रहूं, तुम हमेशा हंसती-मुस्कुराती रहो, यही मेरी तमन्ना है."
अब माहौल थोड़ा हल्का हो गया था. वेटर खाना लगा गया था. खाना खाकर रूपेश टीवी देखने लगा और मान्या अपने सास-ससुर से फोन पर बात करने लगी थी. हनीमून के १५ दिन कैसे गुज़र गए, मालूम ही नहीं हुआ. दोनों वापस दिल्ली आ गए थे और रूपेश फिर अपने कारोबार में लग गया.
दोनों ने अपनी आपसी सहमति से पांच साल तक घर में कोई मेहमान नहीं लाने की योजना बनाई थी. एक-दो बार जब मान्या की सास ने इस बारे में बात की, तब मान्या की कुटिल हंसी से समझ गई कि अब उनका पुराना ज़माना नहीं रहा कि इधर शादी हुई और उधर बच्चों की लाइन लगनी शुरू हो गई. और यदि बच्चे नहीं हुए तो बहू पर लांछन लगाने शुरू हो गए.
चांद अब उतार पर आ गया था, लेकिन मान्य की पथराई सी निगाहें बंद कमरे की दीवारों पर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रही थीं. जीवन कितना क्षणभंगुर है, इसका एहसास उसे तब हुआ, जब लंदन से वापस आनेवाली फ्लाइट के क्रैश हो जाने से रूपेश उससे बिछड़ गया था. सब कुछ जैसे रूपेश के साथ चला गया. बड़ा घर, सुविधा-आराम की सब चीज़ें मान्या को काटने दौड़ती थीं.
एक दिन रूपेश के पिताजी देवेन्द्र खन्ना ने मान्या से कहा, "बेटी, ये ज़िंदगी बहुत लम्बी है. तुम्हें में आंसू बहाते देखता हूं, तो मेरा कलेजा मुंह को आ जाता है. मैं चाहता हूं कि तुम्हारी शादी करके हम तुम्हारे जीवन को फिर से ख़ुशियों से भर दें." लेकिन मान्या इस स्थिति को स्वीकारने के लिए दिल से तैयार नहीं थी. वह चाहती थी कि रूपेश की याद के सहारे पूरी ज़िंदगी काट दे.
एक दिन सुबह-सुबह मान्या अपने ससुर के लिए चाय ले कर जा रही थी कि कमरे से आती आवाज़ पर उसके पांव दरवाज़े के बाहर थम गए. कम्पनी के वकील कह रहे थे, "खन्ना साहब, क़ानूनी तौर पर आपकी पुत्रवधू इस कारोबार और सम्पत्ति की हक़दार है. यदि आप चाहते है कि आपके लड़के के नहीं रहने पर मान्या क़ानूनी तौर पर सम्पत्ति और कारोबार की हक़दार नहीं रहे, तो मान्या की शादी कर दें." इस पर खन्ना साहब बोले, "वकील साहब, मैं भी यही चाहता हूं कि मान्या की शादी कर दूं. इससे समाज में मेरा नाम भी हो जाएगा कि मैंने अपनी पुत्रवधू को पुत्री के समान समझते हुए उसका घर बिना किन्हीं पूर्वाग्रहों के बसाया." फिर दोनों की ज़ोर से हंसने की आवाज़ बाहर आयी.
खन्ना साहब अब रोज़ मान्या को अतीत की याद दिलाकर, भविष्य सुधारने के लिए उकसाते. इधर मान्या की सास सब कुछ समझते हुए भी मान्या को ताने देते हुए कहती, "अरे तीन साल में एक बच्चे को भी इस घर में नहीं लाई, उसी के सहारे ये बुढ़ापा हंसते-खेलते गुज़र जाता. कैसी मनहूस लड़की से मैंने रूपेश की शादी की थी." रूपेश के जाने के साथ ही रूपेश के माता-पिता का व्यवहार मान्या के प्रति बेगाना सा हो गया था. और फिर कम्पनी के वकील के साथ खन्ना साहब की बात मे मान्या डर गयी थी.
मान्या ने एक दिन अपने मायके जाकर वहीं रहने का अनुरोध अपने सास-ससुर से किया, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं हुए. आख़िर सब तरफ़ में हार कर मान्या न खन्ना साहब को अपनी दूसरी शादी की सहमति दे दी और एक साद समारोह में मान्या की शादी संदीप के साथ हो गई.
सुबह की लाली आसमान पर छाने लगी थी. मान्या की पूरी रात जागते हुए बीती. संदीप ने करवट बदलते हुए फिर कहा, "मनु, तुमने तो पूरी रात ही बेकार कर दी. अरे थोड़ी देर के लिए मुझे रूपेश ही समझ लेती."
"मैं आपके लिए चाय लेकर आती हूं." कहते हुए मान्या कमरे से बाहर निकल गयी.
मान्या अभी किचन में जाकर चाय के लिए पानी गैस पर चढ़ाया ही था कि उसे संदीप की मां की आवाज़ सुनाई दी, "अरे, उस घर भले ही तू कुछ भी करती हो उससे मुझे मतलब नहीं, लेकिन इस घर में तुझे नहा-धोकर ही किचन में आना होगा." बिना किसी प्रतिवाद के मान्या ने उनकी बात मान ली थी.
संदीप तैयार होकर ऑफिस चला गया दोपहर को उसकी कुछ सहेलियां मिलने आईं. उनमें से तुली ने मान्या से कहा, "मान्या, कुछ भी कह, तू है क़िस्मतवाली, पहले रूपेश था और अब संदीप. सच में, हम तो एक से ही बंधे हैं." मान्या ने महसूस किया कि वह जहां से गुज़रती है लोगों की अजीब सी निगाहों का सामना करना पड़ता है उसे.
उसे एहसास होने लगा कि पुनर्विवाह एक दो धारी तलवार की तरह है. लोग इसका एक पहलू देखते हैं, लेकिन दूसरा पहलू जिसे नारी भुगतती है, उसकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता. अतीत, वर्तमान और भविष्य के चक्रव्यूह में नारी फंस जाती है.
एक बार रात में संदीप अपने दोस्तों के साथ बैठा बात कर रहा था. उसके दोस्त कह रहे थे, "संदीप, तूने रूपेश की जूठन को क्यों स्वीकार किया. अरे तुझे तो एक से एक लड़कियां मिल जातीं." तब संदीप जो नशे में हो चुका था बोला, "खन्ना ने इस शादी के लिए पांच लाख रुपए दिए हैं. इतनी बड़ी रकम के एवज में मान्या से शादी करना क्या बुरा है..." और इसी के साथ सब हंसने लगे.
अब तक मान्या सभी पहलुओं से परिचित हो चुकी थी. समय अबाध गति से गुज़र रहा था. मान्या जितनी सामान्य होने की कोशिश करती, रोज़ ही कोई न कोई ऐसी घटना घट ही जाती, जिससे उसके अहं को चोट पहुंचती थी. संदीप बात-बात में उसे उसका अतीत याद दिलाता और ताने देता रहता था. मान्या सोचती कि क्या पुनर्विवाह करनेवाली हर नारी को इस तरह की दोहरी मानसिकता में रहना पड़ता है.
एक दिन जब संदीप सुबह उठा, तब कमरे में उसे मान्या नहीं दिखी. बिस्तर पर एक चिट्ठी रखी थी, जिसमें मान्या ने लिखा था-
संदीप,
शायद पुनर्विवाह नारी के लिए एक दुखद पहलू ही है. हो सकता है इसके पीछे सोच अच्छी रही हो. नारी को असहाय समझते हुए सहारा देने की अवधारणा इसके पीछे रही हो, लेकिन जब सहारा एहसान सा दिखने लगे और नारी मन को ओछी मानसिकता के चलते घर-बाहर सब जगह दूसरे दर्जे का स्थान मिले वह भी ज़िंदगीभर तानों के साथ, इससे अच्छा तो यह है कि रास्ते ही बदल दिए जाए… मैं ही तुम्हारी ज़िंदगी से हट जाऊं, इसलिए मैं अपने मायके जा रही हूं. तुम अपनी ख़ुशी के लिए सुविधानुसार तलाक़ के काग़ज़ात भेज देना, मैं दस्तख़त कर दूंगी.
मान्या
चिट्ठी पढ़ कर संदीप एक बार तो सोच ही नहीं पाया कि यह क्या हो गया. साथ ही उसे मान्या की अन्तःपीड़ा का भी एहसास हुआ. जिसे उसने समझा ही नहीं था. पुनर्विवाह पुरुष के लिए भले ही सहज होता हो, परंतु नारी के लिए उतना ही कष्टप्रद हो सकता है, जब उसे उसका पति ही सही परिप्रेक्ष्य में न ले. संदीप ने तो सोचा था कि उसने मान्या से शादी करके उसके ऊपर बड़ा एहसान किया है. अब वह ज़िंदगीभर संदीप के एहसान तले जीती रहेगी. लेकिन मान्या ने जल्दी ही वास्तविकता से उसे परिचित करा दिया था. संदीप संताप की आग में जल रहा था.
अगले ही दिन वह मान्या के मायके गया. उसे लगा मान्या ने ये सब बातें घर में भी बता दी होगी, जिससे उसे मान्या के माता-पिता और मान्या के कोप का भाजन बनना पड़ेगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, क्योंकि हालात ने मान्या को इतना कठोर बना दिया था कि मानो उसे ज़हर का प्याला पीने की आदत हो गई थी.
मान्या ने सहज ही सदीप में पूछा, "अब क्या लेने आए हो?" संदीप ने शर्म से सिर झुकाते हुए कहा, "मैं तुम्हें लेने आया हूं. तुम्हारी पीड़ा, तुम्हारा दर्द समझने में मुझे थोड़ी देर लगी, लेकिन अब समझ में आ रहा है कि मैं तुम्हें ज़िंदगीभर नहीं छोड़ सकता. मुझे माफ़ कर दो मान्या. अतीत के दरवाज़े आज से तुम्हारे लिए बंद हो गए है. अब तुम और मैं केवल भविष्य की ओर बढ़ेंगे."
पूर्व की तरह मान्या बिना कोई प्रतिवाद किए अपना सामान बांधने लगी. संदीप के साथ जाने के लिए... यह सोचते हुए कि शायद इसी तरह लोगों की सोच पुनर्विवाह के मामले में बदलेगी.
- संतोष श्रीवास्तव
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