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कहानी- प्रस्थान बिंदु (Short Story- Prasthan Bindu)

सुषमा मुनीन्द्र

"पापा पापा… आज ममा ने बाबू को और मुझे पीटा. पापा, आप ममा को उनके घर पहुंचा दो. यहां मैं, आप और बाबू रहेंगे. या फिर मुझे और बाबू को हॉस्टल भेज दीजिए." हिचकियों में उलझे शुभि के शब्द भेद खोले दे रहे थे.
"हां पापा, हम दोनों ने फ़ैसला किया है कि हम हॉस्टल में रहेंगे." बाबू ने अनुमोदन किया.
सदानंद देर तक बच्चों के कमरे में रहा. इधर नारायणी यह सोचकर रसोई में व्यर्थ व्यस्त रहते हुए पीड़ित थी कि सदानंद कोई विस्फोट करेगा.

'विचार जब तक आचरण के रूप में प्रगट नहीं होता, तब तक वह पूर्ण नहीं होता. आचरण आदमी के विचार को मर्यादित करता है. जहां विचार और आचारण के बीच मेल होता है, वहीं जीवन पूर्ण और स्वाभाविक बनता है' - महात्मा गांधी… और नारायणी ने शिथिल पड़ कर पुस्तक एक ओर सरका दी और तकिए में सिर टिका चित लेट गई. आंखें मूंद लीं. कुछ क्षण इसी तरह पड़ी रही, और फिर मुंदी हुई आंखों को और ज़ोर से मुंद लिया, ताकि आंखों की झिरी से यथार्थ भीतर घुसने न पाए. इस तरह वह छूट जाएगी? दोष मुक्त हो सकेगी? गांधीजी का कथन उसे अपने व्यवहार की पुष्टि करता क्यों प्रतीत हो रहा है? नारायणी जब भी ध्यानस्थ हो अपने स्वभाव का विश्लेषण करती है, किन्हीं बिंदुओं पर स्वयं को दोषी पाती है, फिर भी अपने स्वभाव को बदल नहीं पा रही है.
पर उसका स्वभाव यह नहीं था. वह तो शुभि को ख़ूब प्यार करती रही है. आज भी चाहती है- शुभि को पुत्रीवत स्नेह करे, कम से कम अपनी खीझ, असंतोष, तिरस्कार को व्यक्त न होने दें, किंतु… किंतु इस नौ-दस वर्षीया बच्ची को देखते ही मस्तिष्क पर दबाव पड़ता है. यह उसकी संतान नहीं है. उसकी एकमात्र संतान बाबू है. आयु, अस्तित्व, वर्चस्व, दायित्व में एक बड़ा फ़ासला होने के बावजूद वह शुभि से प्रतिस्पर्धा करती है. लगता है शुभि उसकी एकाकी प्रभुता को चुनौती दे रही है. स्थिति यह हो गई है कि शुभि सामने नहीं होती, तो लगता है इससे असुविधा या कष्ट क्यों होना चाहिए और सामने होती है, तो लगता है इसे बर्दाश्त करना संभव नहीं. उसे देखते ही नारायणी की आंखें प्रत्यंचा सी खिंच जाती हैं. चेहरे पर तनाव की बारीक़ बेतरतीब रेखाएं उभर आती हैं.
जीवन के समुद्र में जब तूफ़ान आता है, तब हमें मालूम नहीं होता कि फनफनाती लहरों की उखाड़-पछाड़ हमें कहां फेंकेंगी. पर नारायणी को तो पता है, वह कहां आई है, क्यों आई है. अर्सा नहीं हुआ. मात्र तीन वर्ष. इसी बिरला एरिक्सन ऑप्टिकल लिमिटेड में सदानंद के साथ नारायणी का पति रत्नाकर काम करता था. दोनों सेल्स डिपार्टमेंट में थे. रत्नाकर के रौद्र स्वभाव को देख कोई भी उससे घनिष्ठता नहीं रखता था, पर सदानंद से उसका अच्छा मेलजोल था. लोग उसे वहशी समझते थे. तुष्ट हो जाए, तो जान कुर्बान कर दे, रुष्ट हो जाए, तो जान लेने पर आमादा. नारायणी को कभी मेवा-मिष्ठान खिलाए बिना दम न ले, तो कभी शराब में धुत हो नृशंसता से पीटे.
एक रात उसे साइलेंट हार्ट अटैक आया और क्षणों में वह शेष हो गया. नारायणी को कंपनी के प्रबंधकों ने बिरला विकास विद्यालय में शिक्षिका पद पर रख लिया. नारायणी ने कभी सोचा भी न था कि सदानंद के सहयोग का प्रतिफल विवाह के रूप में सामने आएगा. दो घर, दो परिवार, दो संसार, दो लोगों की पीड़ाएं विलय होंगी. सदानंद की मातृहीना पुत्री शुभि, बाबू के साथ खेलते हुए नारायणी को मां के रूप में देखने लगेगी. शुभि एक तरह से पूरा दिन बाबू के साथ बिताती थी. नारायणी बाबू और शुभि की बातें सुनती तो चकित होती.
शुभि कहती, "बाबू, तुम्हारी ममा बहुत अच्छी हैं."
बाबू पूछता, "शुभि, तुम्हारी ममा कहां गई?"
"भगवान के घर."
"मेरे पापा भी भगवान के घर चले गए. मुझे और ममा को मारते थे. गंदे थे. तुम्हारे पापा बहुत अच्छे हैं."
"मेरे पापा सबसे अच्छे हैं. मेरे लिए अच्छी सी ममा लानेवाले हैं."
"मेरी ममा जैसी?"
"हां, तुम भी ममा से कहो न तुम्हें अच्छे पापा चाहिए."
"तुम्हारे पापा जैसे?"
"मेरे पापा जैसा अच्छा पापा और कोई हो नहीं सकता. मेरे पापा सबसे अच्छे है."

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"हां, तुम्हारे पापा सबसे अच्छे हैं. शराब नहीं पीते, तुम्हें मारते नहीं, बहुत प्यार करते हैं. शुभि मुझे तो पता ही नहीं था कि पापा लोग बच्चों को इतना प्यार करते हैं." "नहीं, ममा बच्चों को अधिक प्यार करती हैं. देखो न तुम्हारी ममा तुम्हें कितना प्यार करती हैं."
सुनकर नारायणी की आंखें भर आतीं. शुभि बहुत मासूम, नाज़ुक है. बहुत हल्के स्पर्श से इसकी सार संभार करनी होगी. यह तनिक भी दबाव बर्दाश्त नहीं कर सकती. फिर यह जद्दोज़ेहद क्यों? स्वस्थ वृत्ति में विकृत्ति क्यों?
बाबू और शुभि ने आपसी स्नेह, सामंजस्य, सानिध्य के आधार पर इस नवल नाते को तत्परता से स्वीकार कर लिया. शुभि ने बाबू को अपना कमरा दिखाया और बाबू ने साधिकार उसमें अपना सामान ठूंस कर मानो उसे पंजीकृत करा लिया.
सदानंद भावुक था, "बच्चे अबोध और सरल होते हैं, शायद इसलिए उन्हें नई स्थिति को ग्रहण करने में आसानी होती है. नारायणी मैं आशा करता हूं कि तुम भी इसी सरलता से इस घर को ग्रहण करोगी."
"हां, इस घर से मेरी पुरानी पहचान है."
सदानंद को यह आश्वासन थमाते हुए नारायणी ने सोचा भी नहीं था कि शुभि की उपस्थिति, विपत्ति बन जाएगी.
मनुष्य अपनी जगह बनाने के लिए अपने मेनीफेस्टो में जिस सजगता, निष्ठा, संकल्प, चेष्टा, आदर्श का उल्लेख करता है, जगह निश्चित हो जाने पर उस मेनीफेस्टो की योजनाएं एवं कार्यक्रम पता नहीं क्यों याद नहीं रखता. मनुष्य भूल जाता है कि जगह पा लेना किसी हद तक आसान है, पर उसकी गरिमा बनाए रखना आसान नहीं होता. उसके लिए त्याग, श्रम, विनय, ईमानदारी और बड़प्पन की ज़रूरत होती है. ख़ुद को सबके साथ बांटना होता है. नारायणी इस घर में अपनी उजली छवि लेकर आई थी.
शुभि पूरे समय नारायणी को घेरे रहती. उस उजली छवि से चमत्कृत, "ममा, मेरी चोटी बना दो."
नारायणी बड़ी रुचि से कोई नया स्टाइल बना देती.
"ममा, तुम ऐसा स्टाइल बना देती हो, तो मेरी फ्रेंड्स कहती हैं कि मैं ब्यूटीफुल लगती हूं."
शुभि आती, "सॉरी ममा, मेरे कारण बाबू को डांट पड़ी."
"अच्छा अच्छा. जूठी कटोरी सिंक में रखो. एटीकेट सीखो."
शुभि कातर भाव से नारायणी को देखती और फ्रॉक से अधर पोंछती हुई ठिठके पैरों से लौट जाती. शुभि की चाल में कभी खरगोश की सी तेजी और चपलता हुआ करती थी, अब वह चाल मंद पड़कर क्षीण हो गई है.
फिर शुभि, नारायणी से दूर होती गई. उससे प्रयोजन न रखती. अपने काम स्वयं कर लेती. सुबह उठ जाती, नहा लेती, स्कूल के लिए तैयार हो जाती, अपने और बाबू के जूतों में पॉलिश कर लेती, अपना खाना परोस लेती, पुस्तकें, बिस्तर, वस्त्र व्यवस्थित रखती, दत्त चित्त हो पढ़ाई करती. उसका नारायणी से ज़रूरत भर का ही संवाद होता.
नारायणी, सदानंद की उपस्थिति में शुभि के प्रति भेदभाव न बरत पाती. यह कार्य-व्यापार शुभि समझने लगी. अब उसे जो भी मांग रखनी होती, सदानंद की
उपस्थिति में ही रखती. बाबू अनुमोदन के लिए जैसे तत्पर ही रहता.
"पापा, आज हमें विन्ध्य व्यापार मेला ले चलिए. मैं और बाबू ढेर सारी चीज़ें ख़रीदेंगे." शुभि सदानंद की गोद में बैठ जाती.
"क्या ख़रीदोगी?" सदानंद दुलार से पूछता.
नारायणी सदानंद को शुभि से लाड़ लड़ाते देखती, तो द्वेष से भर उठती. बाप-लड़की का बहुत साहस बढ़ गया है. और ये बाबू कितना बेवकूफ़ है. 'ताहि अहीर की छोकरिया, छछिया भर छाछ पे नाच नचावे', हुंह.
"नारायणी, बच्चे तुम्हारी शिकायत कर रहे हैं." सदानंद कहता.

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नारायणी तुनक जाती, "इनके मन का न करूं, तो मैं बुरी, मैं बुरी ही ठीक."
"ये कौन होते हैं तुम्हें बुरा साबित करनेवाले? घर तुम्हारा, बच्चे तुम्हारे, मैं तुम्हारा, हमें जिस तरह उठाओ-बैठाओ, तुम्हारी मर्ज़ी."
सदानंद इस तरह की बातों में संतुलन बनाए रखने का भरसक प्रयास करता, पर सफल न हो पाता. फिर नारायणी, सदानंद के अनुरोध पर भी मेला नहीं गई. सदानंद बाबू और शुभि को लेकर चला गया. नारायणी लक्ष्य करती है कि जब वह साथ नहीं जा रही होती, तो सदानंद और बाबू के साथ शुभि बड़े प्रफुल्ल भाव से जाती है.
शुभि, नारायणी को उपेक्षित, बल्कि लगभग नज़रअंदाज़ करने लगी है. यह देख नारायणी को दुख होता है. वह शुभि को तिरस्कृत, उपेक्षित करती है, फिर भी चाहती तो है. लेकिन शुभि उसे बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ कर देती है. यह देख नारायणी की इच्छा होती कि शुभि का कान उमेठकर कहे, शुभि मेरे घर में रहना है तो मुझे पूरा सम्मान और महत्व देना होगा.
मगर शुभि से पहले बाबू बोल पड़ेगा, "ममा, घर तो शुभि का है और देखो न शुभि कितनी अच्छी है. हमें अपने घर में रहने देती है."
"ओह… बाबू तुम इतने नादान क्यों हो?" नारायणी की नसों का खिचाव बढ़ जाता.
आज भी नारायणी, बाबू की सीख दे रही थी, "बाबू, तुम शुभि के पीछे पागल बने न फिरो. उसकी चालाकी समझो. पढ़ने में चित्त लगाओ. उसकी बातों में समय नष्ट करते हो और वह पढ़ने में लगी रहती है."
"शुभि चालाक नहीं है ममा, वह तो ख़ुद मुझे पढ़ने के लिए कहती है. बहुत अच्छी लड़की है, मेरी बहन है, देखो न मेरी कितनी केयर करती है."
"कुछ नहीं करती. तुम बेवकूफ़ हो."
"ममा, तुम शुभि को टीज़ क्यों करती हो?" बाबू ने अनजाने में बात को नया मोड़ दे दिया.
नारायणी नियंत्रण खोने लगी, "मैं उसे टीज़ करती हूं?"
"मुझे ऐसा लगता है. उस बेचारी ने हमें घर में रखा और तुम… वह हमें अपने घर से भगा देगी तो?"
"बाबू…" नारायणी भभक उठी, "तुम यह बात दिमाग़ से निकाल दो. शुभि तुम्हें इस घर से नहीं भगा सकती. यह घर हमारा भी है. तुम भोंदू हो, इसलिए वह तुम्हें धमकाती है."
"शुभि नहीं धमकाती, वह तो कहती है बाबू, तुम इस घर से कभी मत जाना. तुम रहते हो तो मुझे अच्छा लगता है. वह कहती है, उसे पता होता कि तुम उसे टॉर्चर करोगी, तो वह तुम्हें अपनी ममा न बनाती. बस मुझे अपना भाई बना लेती,"
"तो शुभि तुम्हें पाठ पढ़ा रही है और तुम उसके शागिर्द बने हो."
"ममा, तुम शुभि को टॉर्चर मत करो… प्लीज़…" बाबू ने हाथ जोड़ दिए.
"मैं… टॉर्चर… बाबू दोगले." और न जाने किस उन्माद में नारायणी ने बाबू को पीट दिया,
बाबू का रोना सुन शुभि अपने कमरे से निकल आई. बाबू का बचाव करते हुए पूरी ताक़त से चीखी, "क्यों मारा मेरे भाई को? छोड़ो… छोड़ो… तुम गंदी ममा हो…" प्रतिद्वंद्वी ऐन सामने थी. नारायणी बिलबिला उठी. उसने शुभि को भी अच्छी तरह धुन दिया. फिर उफनती हुई अपने कमरे में आ गई. देर तक उफनती रही. बेचैनी और उत्तेजना कम न हुई तो बिस्तर पर पड़ी पुस्तक उठाकर वह पन्ने पलटने लगी. सामने गांधी के विचार थे. उसने शिथिल पड़ कर पुस्तक सरका दी और चित्त लेट कर आंखें मूंद लीं.
बाबू और शुभि को क्रूरता से मारा गया था. दोनों रोते-रोते न जाने कब सो गए. शुभि का अंतर्मन चोटिल हुआ था. वह तमाम दिन ज्वर से तपती रही. सदानंद सांझ ढले जब फैक्टरी से लौटा तब नारायणी को चेत आया, आज उसने क्या नृशंसता ढाई है.
सदानंद, बाबू और शुभि के कमरे में गया तो देखा शुभि लेटी हुई है और बाबू पुस्तक खोले पढ़ने का नाटक कर रहा है.
"शुभि… बाबू…."
और पिता की उपस्थिति में स्वयं को सुरक्षित पाकर शुभि का अवरुद्ध रूदन फूट पड़ा. वह झटके से उठी और दौड़ कर सदानंद से लिपट गई.


"पापा पापा… आज ममा ने बाबू को और मुझे पीटा. पापा, आप ममा को उनके घर पहुंचा दो. यहां मैं, आप और बाबू रहेंगे. या फिर मुझे और बाबू को हॉस्टल भेज दीजिए." हिचकियों में उलझे शुभि के शब्द भेद खोले दे रहे थे.
"हां पापा, हम दोनों ने फ़ैसला किया है कि हम हॉस्टल में रहेंगे." बाबू ने अनुमोदन किया.
सदानंद देर तक बच्चों के कमरे में रहा. इधर नारायणी यह सोचकर रसोई में व्यर्थ व्यस्त रहते हुए पीड़ित थी कि सदानंद कोई विस्फोट करेगा.
"नारायणी…" आशंका के विपरीत सदानंद का स्वर संतुलित था. सदानंद ऐन नारायणी के सामने आकर खड़ा हो गया. बड़े धैर्य से पूछा "उदास हो. कोई बात है?.. मालूम होता है आज तुम्हें बच्चो ने कुछ अधिक थका डाला है, वरना मार-पीट करना तुम्हारा स्वभाव नहीं है. मैं जानता हूं."
नारायणी नहीं समझ पाई कि यह व्यक्ति इन परिस्थितियों में भी इतना संयमित और नियंत्रित कैसे रह पाता है.
"आज चलो कुछ डिसकस किया जाए. देखो नारायणी, सामान्य और सहन परिस्थितियों में सभी निभा लेते है, पर आदर्श इंसान वह है, जो असामान्य परिस्थितियों में निभा सके. हमारी सारी कोशिश मशक्कत आख़िर इसीलिए होती है कि हम नेक और समझदार इंसान के रूप में जाने जाए. हमने यह जो बंधन बांधा है. बच्चों को सुरक्षा, स‌द्भाव, स्नेह देने के विकल्प के तौर पर बांधा है. और अब देख रहा हूं शुभि को सहन करने में तुम्हें दिक़्क़त हो रही है. तुम क्या सोचती हो, तुम्हें स्वीकार करने में शुभि को कोई दिक़्क़त न आई होगी? बच्चे किसी बाहरी व्यक्ति को आसानी से स्वीकार नहीं करते. वे इसके लिए ख़ुद को तैयार करते है. शुभि और बाबू ने हम दोनों को सहयोगी वृत्ति का पाया, इसलिए आसानी से स्वीकार कर लिया. अब तुम्हारे असहयोग का बच्चों पर क्या असर पड़ेगा?"


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सदानंद ने‌ साभिप्राय शुभि का नाम नहीं लिया.
"शुभि ने तुम्हें इस आशा से स्वीकार किया है कि तुम उसे बहुत प्यार करोगी. तुम उसके साथ पक्षपात करोगी, तो वह तुम्हें स्वीकार क्यों करेगी? मैं तो हैरान हूं इस बच्ची की सहनशक्ति देखकर. पहले यह बड़े अधिकार भाव से तुमसे अपने काम करने को कहती थी, फिर दबाव डालने लगी कि तुम उसके काम करो, फिर अपने काम ख़ुद करने लगी, फिर तुमसे मतलब रखना छोड़ दिया, फिर तुम्हें नज़रअंदाज़ करने लगी और अब…. अब कहती है कि वह तुम्हारे साथ नहीं रह सकती, उसे हॉस्टल भेज दिया जाए. तुम समझ सकती हो, वह कितनी मानसिक यातना सह कर आज इस फ़ैसले तक पहुंची होगी. नारायणी ज़िंदगी बहुत छोटी है, हम उसे बेहतर बनाने की कोशिश करें तो बाद में पछताना नहीं पड़ेगा कि हमें ज़िंदगी के साथ निभाना नहीं आया.
बाबू के साथ सामंजस्य बैठाने में मुझे भी असुविधा हुई है. बेटे और बेटे जैसे में लंबा फ़ासला है. पर जब मैंने देखा कि बाबू मुझ पर भरोसा करना चाहता है, तो मैंने उसके भरोसे को कायम रखना ज़रूरी समझा कि पापा नामधारी रिश्ता क्रूर नहीं, सुंदर भी हो सकता है. और एक दिन मैंने पाया कि मैं बाबू के भरोसे को कायम रखने के लिए सचेत नहीं हूं, बल्कि उससे प्यार करने लगा हूं. समस्या बस स्वीकार-अस्वीकार की है. स्वीकार कर लो, तो समस्या हल हो जाती है." सदानंद पहली बार बातों को इस तरह परत दर परत खोल रहा है.
नारायणी नज़रें झुकाए अपराधिनी सी बैठी है.
"शुभि कहती है ममा को उनके घर भेज दो, पर में बाबू को नहीं जाने दूंगी. क्यों? क्योंकि उसने बाबू को सदा सहयोगी, निष्ठावान और भरोसेमंद पाया है. शुभि और बाबू आपस में सामंजस्य बैठाते हैं. मैं तो डरता हूं नारायणी कि तुम बाबू की दृष्टि में भी अपना स्थान कम न कर बैठो. जानती हो, हॉस्टल जाने की इच्छा अकेले शुभि की नहीं है, बाबू की भी है, क्योंकि उसे तुम्हारा ढंग उचित नहीं लगता,"
नारायणी शिथिल है. बिना उतार-चढ़ाव के यह किस सरलीकरण के साथ अपनी बात कह रहा है.
"नारायणी, जो चीज़ें हमें अच्छी लगती हैं, उनके साथ वे चीज़ें भी स्वीकारनी पड़ती हैं, जो हमें अच्छी नहीं लगती. फिर तुम तो स्थिति का सामना बड़ी बहादुरी से करती आई हो, अब कैसे घबरा गई? वह भी इतनी छोटी-सी बच्ची से?
अरे शुभि का क्या है, एक दिन ब्याह कर दूसरे घर चली जाएगी. शुभि के साथ तुम्हें निभाना ही कितना है. अधिक से अधिक दस-बारह साल, जबकि मुझे बाबू के साथ ज़िंदगीभर निभाना है. पर मैं विचलित या आतंकित नहीं हूं, क्योंकि मैं उसे स्वीकार कर चुका हूं. आज सोचता हूं, तो लगता है मुझसे ही कोई कमी, चूक हो गई, जो यह स्थिति बनी. तुमसे आग्रह है, मुझे जो चाहे सज़ा दे लो, पर शुभि मासूम है, उसके विश्वास को मत तोड़ो. वह इतनी मासूम है कि आज की मार-पीट से उसे दहशत हो गई है और उसे ज्वर हो आया है."
"शुभि को ज्वर है?" सदानंद चला गया. नारायणी काठ बनी अपनी जगह पर बैठी रही.
सदानंद की बातें प्रतिध्वनित होती रहीं. सदानंद ठीक कहता है, समस्या स्वीकार-अस्वीकार की है. स्वीकार कर लो, जीना आसान हो जाएगा. वरना कलह होगी, उसे ख़ुद को बदलना होगा. शुभि को अस्वीकार कर वह भी सुखी कहां? सब कुछ होते हुए भी रिक्ति, निस्संगता, खालीपन का बोध होता है. बेचैनी सी है.
उसमें सदानंद का सामना करने की हिम्मत तो नहीं है, फिर भी वह उठी कि आज न उठी तो फिर कभी नहीं उठ पाएगी. वह ख़ुद को ठेलते हुए शुभि के कक्ष में ले गई. देखा बिजली बुझाई नहीं गई है. सदानंद आंखों को बांह से घेरे हुए चित्त पड़ा है और उसकी बगल में लेटी हुई शुभि का हाथ उसके पेट पर है. पता नहीं आत्म-विवेचना का अथवा सदानंद द्वारा किए गए विश्लेषण का प्रभाव है कि नारायणी को सोई हुई शुभि बड़ी अबोध प्रतीत हुई. कभी इसका पूरे घर में वर्चस्व रहा होगा, फिर भी इसने अपने घर को किस तरह सबके साथ बांट लेना चाहा. यह छोटी होकर बड़प्पन निभाती रही और उसे बड़े होने का बड़प्पन याद नहीं रहा. नारायणी चुपचाप आकर सदानंद के पैताने बैठ गई. सदानंद जाग रहा था, चौंका, "तुम? सोई नहीं?"
"तुम भी तो नहीं सोए."
"बहुत रात हो गई है, सो जाओ. सुबह तुमको घर के काम निपटाने होते हैं. स्कूल जाना होता है."
"जाओ बाबू के पास सो जाओ. शुभि को मैं देख लूंगी. प्लीज़, प्लीज़."
कुछ है नारायणी के स्वर में. शायद भीतर की जड़ता पिघलने की आवाज. यह इस वक़्त ज़बर्दस्त परिवर्तन से गुज़र रही है. इसे परिवर्तन से गुज़रने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए. शायद यही इसका प्रस्थान बिंदु हो.
"ठीक है, तुम यहां सो जाओ." सदानंद उठ गया.

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