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कहानी- फलीभूत (Short Story- Phaleebhoot)

प्रीति सिन्हा

मैं गिर पड़ी थी. होश खो बैठी इस कारण उठ नहीं पाई. उसके बाद वह अन्य सभी को बचाने के लिए दौड़ पड़ा था… फिर क्या हुआ पता नहीं… जब तक होश आया, तब तक सब कुछ राख हो चुका था. और मयंक के जिस ऑफिस को जलाया गया था, वहां से मयंक पहले ही निकल गया था. शायद इसी आशीर्वाद को फलीभूत करने के लिए…”

“आंटी इनसे मिलिए ये दादीजी हैं, हमारे पड़ोस में रहती हैं.”
झुकी थी तरन्नुम… पांव स्पर्श किया…
“सदा सुहागन रहो बेटी, आज करवा चौथ है, सुहाग तेरा बना रहे.”
“दादीजी इनके यहां करवा चौथ नहीं होता है.”
एक पल में तरन्नुम का पूरा शरीर कांप उठा. कमरे के फ़र्श, दीवार मानो सभी कुछ  थरथरा रहे थे. वह अपना आपा खो बैठी. बगल में रखी कुर्सी पर वह किसी तरह बैठ गई.
बीस साल बाद..?
चश्मा पर्स में था, इसलिए चेहरा ठीक से देख नहीं पाई थी, पर आवाज़..? यह तो वही आवाज़ थी… उस आवाज़ पर बुढ़ापे की खोल ज़रूर चढ़ चुकी थी, किंतु एक क्षण भी नहीं लगा उसे पहचानने में. रश्मि ने घबराकर तरन्नुम का हाथ पकड़ लिया.
“क्या बात है आंटी? आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही है. चलिए चलकर कमरे में लेट जाइए. शायद सफ़र के कारण आपको थकान हुई होगी.”
तरन्नुम ने आंखें खोली. उसके कंठ सूख गए थे. किसी तरह उसने अपने आपको संभाला और कांपते आवाज़ में पूछा, “वह कहां हैं?”
“कौन?”
“जिनके मैंने पांव छुए.”
“दादीजी? वह तो चली गईं. पड़ोस में ही रहती हैं. वह देखिए सामने वाला घर है.”
खिड़की से उसने दिखाया. उसकी धड़कन बढ़ती जा रही थी.
“कौन हैं वो लोग?”
रश्मि ने उसे विस्मय से देखा.
“कुछ सालों से यहां रह रहे हैं ये लोग. पहले लखनऊ में रहते थे. मोहल्ले में लोगों ने बताया कि किसी हादसे में दादीजी के पति, दो बेटे और बहू मारे गए. स़िर्फ बड़ा बेटा और दादीजी ही बच पाए. बड़े बेटे की नई-नई शादी हुई थी. बहुत दिनों तक तो विक्षिप्त हालत में रहे वे लोग. किंतु दादीजी की दृढ़ता और मज़बूती ने स्वयं और बेटे दोनों को संभाल लिया.
बड़े बेटे ने मानसिक संतुलन खो दिया था, इसलिए दादीजी शहर दर शहर भटकती रहीं उनके इलाज के लिए. दूसरों के घर में काम करके उन्होंने ज़िंदगी चलाया. धीरे-धीरे वे ठीक हुए. वो कहते हैं ना जीवन, तो जीवन है किसी तरह निकल ही जाता है. ठीक होने पर वे ख़ुद कमाने लगे और मां का काम छुड़वा दिया. कितने ही ज़ख़्म हो ज़िंदगी उन्हें रौंद ही देती है और आगे बढ़ जाती है.” यह कहकर रश्मि चुप हो गई.

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बहुत मुश्किल से उसने पूछा, “और बड़े बेटे का नाम?”
“उनका नाम मयंक है. लोगों ने बहुत कहा, किंतु उन्होंने विवाह नहीं किया. मां-बेटे अकेले ही रहते हैं.”
तरन्नुम ने आंखें बंद कर ली, मानो वह गहरी नींद में सोना चाहती थी. पर वह सो कहां पाई… अतीत के असंख्य पन्नों की फड़फड़ाहट की आवाज़ लगातार उसके कानों से टकरा रही थी.
सुबह से सुनयना व्यस्त थी. करवा चौथ की तैयारी चल रही थी. सज-धज कर जब उसने सास के पांव छुए, तो सास ने ढेर सारा आशीर्वाद दिया, “जुग-जुग जियो बिटिया… सदा सुहागन रहो…”
सुनयना और उसकी सास दोनों ने उपवास रखा था. लाल साड़ी में सजी-धजी सुनयना को देख सास ने कई बार बलैया ली थी कि नज़र ना लगे. पूजा की तैयारी चल रही थी. मयंक यह कहकर ऑफिस चला गया था कि चांद निकलने से पहले वह घर आ जाएगा. अचानक…
जीवन का वह विभत्स रूप… भीषण शोर-शराबा, हथियार-बंदूक, खून, आग… पूरा घर आग की लपटों में समा गया था. आग की लपटों में उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. उसकी सांसें घुट रही थीं… फिर भी उसने अपने आप को संभाला और वह घर में सभी को ढूंढ़ने के लिए दौड़ी. किंतु प्रचंड लपटों ने उसे घेर लिया. वह चीखती रही, क्योंकि पूरा परिवार घर के भीतर था.
अर्ध बेहोशी की हालत में वह बाहरी दरवाज़े की तरफ़ आई. दंगाइयों ने जैसे ही उसे देखा, गिद्ध की तरह झपट पड़े. उसने घर के भीतर फिर जाना चाहा था, किंतु आग की लपटों ने उसे जाने से रोक दिया.
एक तरफ़ आग की लपटें दूसरी तरफ़ दंगाई… उसकी सांसें घुटती जा रही थीं. वह बाहर निकलना चाहती थी… उसी समय दंगाइयों में से एक व्यक्ति उसके ऊपर झपटा और उसे घसीटता हुआ बाहर निकाल लिया. पता नहीं उस व़क्त उसमें कहां से इतनी प्रचंड शक्ति आई और वह अपना हाथ झटके से छुड़ाते हुए दौड़ पड़ी… वे सभी उसके पीछे दौड़ पड़े…वह भागती रही, चीखती रही… अंत में सामने देखा… उसे पल भर भी नहीं लगा और वह गोमती में कूद पड़ी.
आंख खुली तो उसकी दुनिया ही बदल चुकी थी. बाद में पता चला था हफ़्तों वह अर्धचेतना में थी. जब चेतना में आई, तो विक्षिप्तावस्था में चली गई. चिखती-चिल्लाती रही. लंबे समय तक इलाज कराया था शकील अहमद ने. सही-सही वह अपने बारे में कुछ बता नहीं पाती थी. जब उसे अपना नाम याद आया, तब तक उसका नाम तरन्नुम हो चुका था.
जब वह सामान्य हुई, तो शकील अहमद ने उससे पूछ कर उसके परिवार को बहुत ढूंढ़ने की कोशिश की, परंतु पता चला कि पूरा घर जल चुका था. परिवार का एक भी सदस्य बचा नहीं था. मयंक के बारे में बहुत पता करना चाहा था. पुलिस की मदद ली, परंतु यही पता चला कि मयंक जिस ऑफिस में काम करता था उस ऑफिस को भी जला दिया गया था, एक स्टाफ भी नहीं बचा था.

पूरे शहर में दंगा फैला था. शकील अहमद की पत्नी और बेटी की मृत्यु भी इसी घटना के दौरान हुई थी. उन्हें ढूंढ़ने के क्रम में ही सुनयना उन्हें मिली थी. गोमती से हज़ारों लाशों की छानबीन हुई थी. सुनयना की चंद सांसें अटकी पड़ी थीं. उसे सरकारी विभाग के द्वारा अस्पताल लाया गया था. उसी अस्पताल में शकील अहमद भी अपनी जली हुई बेटी और पत्नी का इलाज करा रहे थे. उनकी पत्नी की बगल वाली बेड पर ही वह थी.
समय ने दांव खेला वह ज़िंदा बच गई, लेकिन उनकी पत्नी और बेटी ने दुनिया से विदा ले लिया. उसकी विक्षिप्त स्थिति के कारण सरकार के द्वारा उसे किसी मानसिक अस्पताल में भेजने की बात चल रही थी. उस दिन अचानक शायद व़क्त कुछ निर्णय लिया था. शकील अहमद का आठ साल का बेटा सुनयना के बिस्तर के पास आया और हाथ पकड़ कर कहा, “आपा घर चलो. उसके बाद उसने हाथ छोड़ा ही नहीं. कई दिनों तक रोता रहा. विवश हो शकील अहमद सरकारी औपचारिकता पूरा कर उसे घर ले आए.

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कई बार उसने आत्महत्या करने की कोशिश की, पर शकील अहमद ने उसे बचा लिया. तरन्नुम नाम पर जब उसने विरोध किया, तब उन्होंन कहा, “जब मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानता था, तब मुझे समझ में नहीं आता था कि तुम्हें क्या कहूं. मेरी बड़ी बेटी का नाम तरन्नुम था जो इस दुनिया में नहीं थी और मुझे लगा कि मेरी तरन्नुम मुझे मिल गई, इसलिए मैं तुम्हें तरन्नुम कहने लगा.”
इकबाल की मासूमियत ने उसे जीवन का आधार दिया. समय गुज़रा शकील अहमद नही रहे और सुनयना ने इकबाल की पूरी ज़िम्मेदारी उठा ली. बीस साल गुज़र गए. इकबाल अठाइस साल का हो चुका था. सुनयना की ज़िम्मेदारी तब पूरी हुई, जब इकबाल को अच्छी कंपनी में नौकरी मिली. उसी कंपनी में कार्यरत जिस लड़की को इकबाल ने पसंद किया, उससे सुनयना ने उसका निकाह करा दिया.
उस दिन जब इकबाल ने अपना फ़रमान सुनाया, तो वह इतनी विचलित हो गई कि उसके हाथ-पांव ठंडे पड़ने लगे और उसने  इनकार करते हुए कहा, “इकबाल तुम सना को लेकर चले जाओ, मैं नहीं जा पाऊंगी. मेरी तबीयत ठीक नहीं है.
किंतु इकबाल नहीं माना. तरन्नुम ने जब दिल्ली केस्टेशन पर पांव रखा, तो अतीत ने उस पर प्रहार करना शुरू कर दिया. आज बरसों बाद लाहौर से उसने बाहर कदम रखा था. शकील अहमद लखनऊ छोड़कर लाहौर के अपने पुश्तैनी घर में जब आए, तब से वह वहीं थी. भीतर एक अजीब सी बेचैनी थी. उदासी… वेदना… घबराहट… जाने इस तरह के कितने तंतुओं ने उसे घेर रखा था, जिसे उसने वर्षों पहले हृदय के किसी कोने में दबा दिया था.
इकबाल को कंपनी के काम से दिल्ली आना था. सना की बचपन की दोस्त रश्मि दिल्ली में ही रहती थी. इकबाल का जब काम ख़त्म हो गया, तो उसने अपनी दोस्त से मिलने की ज़िद की. वे तीनों जब वहां पहुंचे, तो रश्मि की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. उसने उन लोगों को दो-तीन दिनों के लिए रोक लिया. भरा-पूरा परिवार था. तरन्नुम की उसकी सास से बहुत जल्दी दोस्ती हो गई. तीन दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला. आज लाहौर लौटने का दिन था.
“आप लोग एक दिन और रुक जाते तो पड़ोस में दादीजी के यहां हम लोग चलते. करवा चौथ की पूजा के कारण  हम लोग कहीं जा नहीं पाए…”
तरन्नुम के मस्तिष्क के सारे तार एक साथ झंकृत हुए थे. मानो पूरे शरीर ने जवाब दे दिया था. उसके पांव को जैसे किसी अदृश्य ताक़त ने जकड़ लिया था. वह ठीक से खड़ी नहीं हो पा रही थी. इकबाल चिंतित था.
“अचानक आपको क्या हो गया? आईं थीं, तो आप अच्छी-भली थीं.”
बाहर गाड़ी लगी थी. सभी से विदा ले इकबाल तरन्नुम को सहारा देते हुए बाहर लाया. सामान गाड़ी में रखा जा चुका था. सना बैठ गई. किंतु तरन्नुम के पांव उठ ही नहीं रहे थे और अचानक… पड़ोस वाले घर में उसने उस छाया को देखा… बदहवास सी तरन्नुम दौड़ पड़ी. सभी भौंचक्के रह गए… इकबाल दौड़ा, “आपा… तब तक तरन्नुम  उस घर के अहाते के गेट को खोलकर बरामदे में पहुंच चुकी थी. कुर्सी पर बैठा पुरुष अचानक खड़ा हो गया. उसके मुख से चीखें निकली.
“मयंक मैं तुम्हारी सुनयना…” और पल भर में वह उस पुरुष को झकझोरती हुई मूर्छित हो गिर पड़ी.
दो दिन हो चुके थे अस्पताल में सुनयना और मयंक को अभी तक होश नहीं आया था. सुनयना को देख मयंक भी होश खो बैठा था. पूरा परिवार मौन था. जिसको जो जानना था जान चुका था… जो समझना था समझ चुका था. अतीत की सारी परतें उघड़ चुकी थीं. बस इंतज़ार था दोनोें के होश में आने का. आज वह कमज़ोर और वृद्ध काया, जो इतने सालों से मज़बूती से ज़िंदगी से लड़ती आई थी, बहू को देख सुन्न पड़ चुकी थी. व़क्त मूक और स्तब्ध था. एक-एक लम्हा सभी के लिए इतना भारी था कि उसका बोझ उठाना मुश्किल होता जा रहा था.
समय के दांव से नियति भी स्तब्ध थी. तरन्नुम  होश में आ चुकी थी. एक तरफ़ वर्तमान और दूसरी तरफ़ अतीत दोनों के पलड़ों को तौलती भविष्य को आंक रही थी तरन्नुम. प्रेम… मोह… दुविधा… के डोर से बंधी मानसिक संघर्षों से जूझ रही थी वह. एक-दूसरे की परिस्थितियों को सभी समझ-बुझ रहे थे, किंतु आख़िरी निर्णय किसी ने नहीं लिया.

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वर्षों के टूटे तार आपस में जुड़ने का प्रयास तो कर रहे थे, किन्तु नए तारों के झंझावात से शिथिल पड़ रहे थे. एक तरफ़ वर्षों का खोया पति… दूसरी तरफ… जिसे पुत्र की तरह पाला था, उसका मोह… दोनों जंजीरों ने उसे जकड़ रखा था. किंतु अंततः नया तार प्रबल हुआ… इकबाल तरन्नुम के क़रीब आया और बोला, “आपा, बचपन से मैंने आपको अम्मी की तरह समझा. अब्बा नहीं रहे, फिर भी आपने मुझे दोनों का प्यार दिया. आपने मुझे परिवार दिया… ज़िंदगी दी… आज मैं भी… बेटा कह लें या छोटा भाई… अपना फर्ज़ निभाना चाहता हूं. आपको भी मैं परिवार देना चाहता हूं… ज़िंदगी देना चाहता हूं… आप कहीं भी रहें आपका स्थान कोई नहीं ले सकता. आप तो मेरे रूह में बसती हैं, फिर तो दूरियों का सवाल ही नहीं…”
सभी आंखों में नमी लिए मौन थे. उस मौन को तोड़ा सना ने, “अरे हां, अब एक परिवार की जगह दो परिवार हो गया हम लोगों का. अब तो लाहौर और दिल्ली दोनों की ठंडी हवा का हम आनंद उठाएंगे. अनायास ही अतीत और वर्तमान सभी आपस में घुल-मिल गए…” सभी के होंठों पर मुस्कान फैल गई.
इकबाल सना को लेकर लाहौर चला गया, यह कहकर कि वह हमेशा मिलने आता रहेगा. मयंक ने भी आश्‍वासन दिया था, “मैं भी सुनयना को लेकर आता रहूंगा.”
रात हो चुकी थी बिस्तर पर सुनयना सास के पांव के पास बैठी थी. उनके पांव को स्पर्श करते हुए कहा, “आपके आशीर्वाद में कितनी शक्ति है… उस दिन भी सुबह में आशीर्वाद दिया था- सदा सुहागन रहो… और बीस साल बाद भी आपने वही आशीर्वाद देकर मेरे पति को लौटा दिया.”
सास ने सुनी आंखों से दीवार की तरफ़ देखते हुए कहा, “उस दिन छोटे बेटे ने मुझे बचाने के लिए रसोईघर के पिछले दरवाज़े से बाहर की ओर धक्का दे दिया था… मैं गिर पड़ी थी. होश खो बैठी इस कारण उठ नहीं पाई. उसके बाद वह अन्य सभी को बचाने के लिए दौड़ पड़ा था… फिर क्या हुआ पता नहीं… जब तक होश आया, तब तक सब कुछ राख हो चुका था. और मयंक के जिस ऑफिस को जलाया गया था, वहां से मयंक पहले ही निकल गया था. शायद इसी आशीर्वाद को फलीभूत करने के लिए…”
एक अजीब सा सन्नाटा पूरे घर में फैल चुका था. दरवाज़े पर खड़ा मयंक चुपचाप सुन रहा था. अपनी पदचापों से उसने सन्नाटे को तोड़ा. नम आंखों को पोंछते हुए वह कमरे के भीतर आया. पलभर में मां और पत्नी दोनों को उसने अपनी बांहों में भर लिया.
“किंतु व़क्त? वह तो असमंजस में था, इस मिलन को देखकर. ना रो पाया… ना हंस पाया… अतीत दूर खड़ा मौन था. लम्हों ने झकझोरा था व़क्त को… देखा, सामने वर्तमान खड़ा मुस्कुरा रहा था. वर्तमान को मुस्कुराते हुए देखकर उसने मुस्कुराने की कोशिश ज़रूर की.

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