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कहानी- पतझड़ में मधुमास (Short Story- Patjhad Mein Madhumas)

 
"…‌ मैंने उन्हें ध्यान से देखा है, उनमें ग़म में भी ख़ुशी तलाशने वाली अद्भुत इच्छाशक्ति है. अपने सद्प्रयासों से हर्षिता जी को वो पतझड़ में भी मधुमास का अनुभव करा देंगे. ऐसे सकारात्मक वातावरण में कोई रोग भला कैसे टिकेगा.” कहती हुई सुकन्या कसौली की ख़ूबसूरती में खो गई. सुकन्या की विचाराभिव्यक्ति एक नई सुकन्या से उसका परिचय करा रही थी.

“तुम बिल्कुल भी नहीं बदले अंशुल…”
“तुम भी कहां बदली हर्षिता, आज भी वैसी ही हो जैसी पंद्रह साल पहले थी.” अंशुल के मुंह से बेसाख़्ता निकला.
“अच्छा, तुम्हें कैसे पता?” उसने हंसते हुए अंशुल से पूछा, तो वह कुछ खोया सा मन ही मन बोला, “बस, मन की आंखों से देख लिया.” सहसा लगा हर्षिता साकार सामने बैठी उसकी आंखों में मन में उठे भाव पढ़ती विस्मय से कह उठी, “अच्छा..!” और फिर आहिस्ता से अपने गालों पर गिर आई लटों को अदा से कान के पीछे करती हुई ज़ोर से हंसते हुए बोली, “मन की आंखों से देखा सदा सच नहीं होता, जो खुली आंखों से देखा जाए वही प्रामाणिक, वही सत्य है.” उस दिन भी वह इत्मीनान से चाय का घूंट भरती कह रही थी, “तुमने देर कर दी. थोड़ा पहले प्रपोज़ करते तो यक़ीन मानो मैं तुम्हें हां कह देती, पर अब नहीं.” 
“ज़िंदगी दोबारा सोचने का एक मौक़ा देती है, सोच लो…” अंशुल के कहने पर वह मस्ती में बोली, “जो सोच-समझकर किया जाए वो प्यार कहां…”
“एक बार मेरे लिए…” उसकी आशा भरी नज़रें नज़रअंदाज़ करते हुए हर्षिता बोली, “चलो, तुम्हारे कहने पर दोबारा भी सोच लेती हूं…” कुछ पल के मौन के बाद आंखें मूंदी हर्षिता से उसने पूछा, “तो क्या नतीज़ा निकला?” उन्मुक्तता से हर्षिता दोनों बांहें फैलाए कह रही थी, “अंशुल, तुम मेरे सबसे अच्छे दोस्त और विवेक मेरा पहला और आख़िरी प्यार…” वह पल और मौन…
“अरे, बोलो ना… तुम्हें कैसे पता चला कि मैं अभी भी वैसी ही हूं?” हर्षिता की आवाज़ पर अंशुल हड़बड़ा गया. ये क्या, वो अतीत में पहुंच गया जब उसने हर्षिता को प्रपोज़ किया था. उस मुलाक़ात का एक-एक पल उसकी आंखों के सामने जस का तस ऐसा तैरा कि वह भूल ही गया कि वह हर्षिता से फोन पर बात कर रहा है. अंशुल हड़बड़ाकर बोला, “तुम्हारी प्रोफाइल फोटो देखकर अंदाज़ा लगाया. तुम फोटो में तो बिल्कुल पहले जैसी लग रही हो. कहीं कोई परिवर्तन नहीं नज़र आता. सच में ऐसा है या कोई पुरानी फोटो है.” अंशुल की बात पर हर्षिता हंसते हुए बोली, “ये जानने के लिए तो तुम्हें घर आना पड़ेगा. वैसे विवेक कहते हैं कि मैं बिल्कुल पहले जैसी हूं. अब बाकियों का मुझे नहीं पता. सोशल साइट का एक फ़ायदा तो हुआ कि तुमने मुझे ढूंढ़ लिया.”


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“हूं… देखो कब मिलते हैं.”
अंशुल की प्रतिक्रया पर हर्षिता उत्साहित हो बोली, “इसी वीकेंड आ जाओ. तुम चंडीगढ़ में हो मुझे पता ही नहीं था. कसौली बहुत सुंदर जगह है. तुम्हें अच्छा लगेगा. रखती हूं फोन. ओके बाय.” फोन कट चुका था, पर हर्षिता की अनुभूति अभी भी पन्द्रह साल पहले जैसी थी… मानो अभी ही उसने कहा हो, “अंशुल, विवेक और मैं क़रीब दो साल पहले मिले थे. एक बार में प्यार हो ऐसी कोई अनुभूति नहीं थी. फिर लगा हम दोनों के बीच प्लेटोनिक लव है. पर धीरे-धीरे मैंने उसके अंदर के पौरुष और कोमल मन को जाना और बस प्यार हो गया. मेरे मन में तुम्हारी जगह एक दोस्त से बढ़कर कुछ नहीं.” उस वक़्त कहे शब्द आज भी नश्तर की तरह चुभते हैं.
कहीं न कहीं ये टीस उठ ही जाती है कि वो होती तो कैसा होता… पर वो कैसे होती, एक तरफ़ विवेक था तो दूसरी तरफ सुकन्या थी. वो अलग बात है कि हर्षिता के लिए विवेक ही सब कुछ था, जबकि वो सुकन्या से अच्छा विकल्प हर्षिता में देख रहा था. हर्षिता का फोन क्या आया बीता समय आंखों के सामने ही तैर गया. नई नौकरी की नई उड़ान थी.
“इसके लिए कोई लड़की बताओ.” ये शब्द हर मिलने-जुलने वालों के मुंह से निकलते. उन्हीं दिनों चचेरे भाई की शादी में दूर की रिश्तेदार की बेटी सुकन्या से मुलाक़ात हुई. रूपसी नहीं तो साधारण भी नहीं थी सुकन्या.
शादी के फंक्शन में गोलगप्पे खाती लड़कियों के हावभाव कैमरे में क़ैद कर रहा था अंशुल. उसी को लेकर हंसी-मज़ाक चल रहा था. सबसे बुरी तस्वीर सुकन्या की थी. शायद पानी बहुत तीखा था. उसकी वो तस्वीर डिलीट करने की एवज में शादी में उससे ख़ूब काम करवाया अंशुल ने. मसलन, कॉफी बनाकर लाओ, किसी के सिर के नीचे से तकिया निकाल लाओ, मच्छर मारने वाली मशीन का जुगाड़ करो, जब भी बोलूं एक कप चाय हाज़िर इत्यादि.
नीरज भैया की जूता चुराई रस्म में जूते की सुरक्षा की कवायद में जूता सुरक्षित हो पाया या नहीं याद नहीं, हां उसका दिल चोरी हो गया. सुकन्या की ओर उसके झुकाव को देख मम्मी ने उससे उसकी रज़ामंदी पूछी और उसने हां कर दी. सुकन्या के माता-पिता बेटी के लिए इंजीनियर लड़का पाकर धन्य थे. कहीं कोई रुकावट नहीं थी. सुकन्या ग्रैज्युएशन कर ले और तब तक अंशुल भी सेटल हो जाए ये सोचकर सगाई करके शादी डेढ़ साल के लिए टाल दी गई. क़रीब सालभर बाद उसे अपनी सोच और विचारों में परिवर्तन नज़र आया. सुकन्या की कोई प्रोफेशनल डिग्री नहीं थी. करियर को लेकर उसका कोई विज़न नहीं था. जहां उसके कलीग्स नौकरीपेशा लड़कियों का चयन कर रहे थे, वहीं  सुकन्या को लेकर मन में दुविधा ने जन्म लेना शुरू कर दिया.
उसे अपने भीतर परिवर्तन दिखा. परिवर्तन की वजह उसकी कंपनी में आई नई एंप्लॉई हर्षिता थी. हर्षिता की दोस्ती में पड़कर उसका दिल फिर धड़का. अब उसके विचार जीवनसाथी के प्रति बदल चुके थे. नौकरीपेशा लड़की ही स्टेटस को बढ़ा सकती है. कदम से कदम मिलाकर चल सकती है. अकेले जॉब करके गृहस्थी सिर्फ़ घसीटी ही जा सकती है. अपने साथियों के मुंह से सुने इन चंद जुमलों ने हर्षिता के बारे में उसे गंभीरता से सोचने पर विवश कर दिया. अब उसे सुकन्या के साथ बिताए समय में उम्र विशेष में होने वाला इंफेचुएशन नज़र आता, जो उस उम्र में स्वाभाविक था. “सुनो, चाय पियोगे क्या?” सुकन्या की आवाज़ ने उसे अतीत से बाहर खींचा.

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“हां-हां.” चौंकते हुए उसकी अपने वर्तमान के हुलिए पर नज़र पड़ी.
“कल से स्कूल में स्टेबैक कर दिया है. कल्चरल वीक की तैयारी हो रही है. सच, बहुत थक जाती हूं.” सुकन्या के कहने पर कुछ ऊब से भरे भाव से उसने उसे देखा. हर्षिता की सोशल साइट पर उसकी प्रोफाइल पिक्चर के साथ एच.आर. मैनेजर लिखा था. उसी आधार पर कॉरपोरेट कंपनी की एच.आर. मैनेजर की तुलना वह प्राइमरी स्कूल टीचर से करने लगा.  
“सुनो, मिहिका का टेंथ है, सोच रही हूं कुछ समय के लिए ब्रेक ले लूं. छोड़ दूं जॉब?”
“प्राइमरी स्कूल की जॉब है, कोई मल्टीनेशनल कंपनी नहीं जो इतना सोचा जाए. छोड़ना चाहती हो तो छोड़ दो.” अंशुल की तल्खी ना चाहते हुए भी आवाज़ में उतर आई.
“तुम मुझे कभी मत समझना.” यह कहकर सुकन्या वहां से चली गई. वह उसे रोकना भी नहीं चाहता था. शायद एकांत में एक बार फिर हर्षिता के ख़्यालों में ग़ुम होने की इच्छा ने सुकन्या की उपेक्षा की. वैसे भी उसे क्या सुने और समझे. चिढ़ होती है अंशुल को सुकन्या का स्वभाव देखकर, कोई महत्वाकांक्षा नहीं. उसके ख़्याल को मन से निकालकर वह फिर हर्षिता के साथ अतीत में ग़ुम हो गया.
“बुरा मत मानो अंशुल, पर विवेक मेरा पहला प्यार है.”
“तुम भी तो मेरा पहला प्यार हो.” इतना बड़ा झूठ भी वह बोल गया. सुकन्या और उसकी सगाई की बात से हर्षिता अनजान थी. विवेक बीच में नहीं होता, तो वह शायद हर्षिता को सच बताकर मना भी लेता, पर यहां भी शायद की भूमिका मुख्य थी. उसका पलड़ा यहां हल्का था, इसलिए क़दम पीछे हटाना मुनासिब लगा. उसकी और हर्षिता की राहें अलग हो गईं. सुकन्या उसकी नियति बन गई. शादी के बाद लाख कोशिशों के बाद भी वह सुकन्या को कोई प्रोफेशनल ट्रेनिंग के लिए तैयार नहीं कर पाया. हां, उसकी इच्छा का मान रखते हुए सुकन्या पास के ही स्कूल में प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका बन गई.
समय के साथ पत्नी के वर्किंग वुमन ना होने की चुभन कम हुई, मन में पड़ी गांठ भी ढीली हुई थी. सुकन्या एक सुलझी हुई पत्नी साबित हुई. बावजूद इसके जब-जब वह अपने साथियों की पत्नियों के चढ़ते करियर ग्राफ को देखता उसकी कल्पना में हर्षिता उतर आती. एक अफ़सोस के साथ वह सोचता, काश! सुकन्या के बारे में इतनी जल्दी निर्णय ना लेता, तो उसके जीवन में कोई ऐसा होता जो उसके अर्थभार को साझा करता. इस बार वीकेंड मानो लंबे अंतराल बाद आया हो.
हर्षिता का मैसेज आ गया, दिए पते पर सुकन्या के साथ अंशुल कसौली पहुंचा. वहां की ख़ूबसूरती और ठंडक में दिली सुकून के साथ हर्षिता को महसूस किया. छोटे से ख़ूबसूरत सरकारी कॉटेज के गेट पर ही विवेक रिसीव करने पहुंचा. आबनूसी रंग के लगभग गंजे हो चुके अति साधारण व्यक्तित्व और हर्षिता के पहले प्यार से वो पहली बार परिचित हो रहा था. स्वयं के आकर्षक व्यक्तित्व से मिलान किया, तो अपने अहं को तुष्टि मिली थी.
“आज धूप अच्छी खिली है. आइए, यहीं बैठते हैं.” कहते हुए विवेक उनको लॉन की ओर ले गया. सामने धूप में हर्षिता बैठी हुई थी. जींस कुर्ती पहने हर्षिता ने स्कार्फ से सिर और चेहरे को ढंक रखा था. आंखों में बड़ा सा सनग्लास लगाए हर्षिता को दूर से देखकर एकबारगी अंशुल का दिल धड़का. हर्षिता ईज़ी चेयर से उठकर आत्मीयता से मिली. आपसी बातचीत और मेहमांनवाज़ी के बीच अंशुल ने हर्षिता को ध्यान से देखा, कुछ अजीब-सी लगी वह.
“तुम ठीक तो हो ना?”
“बिल्कुल ठीक हूं.” अंशुल के पूछने पर हर्षिता ने मुस्कुराते हुए कहा. उसी समय सुकन्या बोल पड़ी, “विवेक जी बता रहे थे कि इन फूलों की देखभाल आप ही करती हैं. आपने लॉन को बहुत मेंटेन किया है.” हरे-भरे पेड़-पौधों और रंग-बिरंगी क्यारियों को देख सुकन्या प्रभावित थी.


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“पर ख़ुद को ज़रा भी मेंटेन नहीं किया.” बेसाख़्ता अंशुल के मुंह से निकल गया, तो सुकन्या असहज हो गई, पर हर्षिता ने मुस्कुराकर कहा, “ये बात विवेक के सामने मत कह देना.” सबके लिए कॉफी लाते विवेक को आते देख भावुक हुई हर्षिता अब भी बोल रही थी. “बहुत भाग्यशाली हूं मैं जो विवेक जैसे पति मिले. धीरे-धीरे ही सही, पर ठीक हो रही हूं, वरना मुझे कैंसर है इस ख़बर ने तो तोड़ ही दिया था. पुनर्जीवन दिया है विवेक ने मुझे.”
“कैंसर..!” स्तब्ध अंशुल के मुंह से निकला. अब वह स्कार्फ से ढंके और सनग्लास चढ़े चेहरे की सच्चाई को समझ, “ओह सारी…” बस इतना कह पाया.
“भौंहे और सिर के बाल झड़ गए हैं कीमोथेरेपी से…” कहते हुए हर्षिता ने चश्मा हटा दिया. अंशुल विचलित था. पर विवेक बड़े प्यार से उसे कॉफी पकड़ा रहा था. “तुमने बताया नहीं.” अंशुल अस्फुट शब्दों में बोला. “इसमें बताने जैसा क्या है. कैंसर ही तो है, ठीक हो जाएगा.” विवेक के विश्‍वास को देख अंशुल अवाक् था. हर्षिता की जिस पुरानी छवि से वो अब तक बंधा रहा उसे यूं तार-तार देख उसे दुख हुआ.
“जानते हो अंशुल, शुरू-शुरू में कीमोथेरेपी से मेरे झड़े बाल और बदसूरत शक्ल देखकर घर में कोई काम करने नहीं आता था, उस वक़्त विवेक ने सारे काम ख़ुद किए, मुझे संभाला. जो लोग मुझे देख संवेदना प्रकट करें उन्हें तो विवेक पास भी फटकने नहीं देते हैं.” हर्षिता के कहते ही अंशुल विस्मय से बोला, “ऐसी हालत में तुम काम कर रही हो. तुम्हारे प्रोफाइल में एच.आर मैनेजर लिखा है ना?” उसकी दुविधा दूर करते हुए विवेक ने कहा, “कुछ समय के लिए इन्होंने विराम लिया है. एच.आर मैनेजर इनका पुराना अपडेट है, उसे बदला नहीं, क्योंकि ठीक होने के बाद वहीं से शुरुआत करनी होगी.”
“हर्षिता को काम छोड़ने पर दुख हुआ होगा.” अंशुल के कहने पर विवेक बोला, “दुख उन्हें होना चाहिए जो उम्मीद छोड़ देते हैं. वर्तमान से हारकर जॉब-करियर, भविष्य की बातें बेमानी हैं. असल जीत तो वर्तमान को जीकर हासिल करनी चाहिए. मुझे गर्व है हर्षिता पर जिसने अपने वर्तमान को जीता.” विवेक की बात पर हर्षिता एकटक उसे देखती हुई बोली, “तुम हो तो वर्तमान जी पा रही हूं.” एक-दूसरे के प्रति इतना विश्‍वास और आपसी समझ देख अंशुल हैरान था. दोनों यूं एक-दूसरे में डूबे बातें कर रहे थे मानो विवेक कहीं का राजकुमार और हर्षिता प्रिंसेस हो. एक-दूसरे को शुभकामनाओं के साथ अंशुल और सुकन्या ने विदा ली. रास्ते भर अंशुल सोचता रहा कि हर्षिता का फ़ैसला सही था. प्यार सच्चा था तभी उसे ऐसा जीवनसाथी मिला, जो इन परिस्थितियों में उसका साथ निभा रहा है. उसे अपना व्यक्तित्व विवेक के सामने बौना लगा.
रास्ते में चाय पीने के लिए वह रुके, तो अंशुल को उदास देख सुकन्या ने कहा, “क्या हुआ… तुम हर्षिता जी की हालत से दुखी हो?” अंशुल एक फीकी मुस्कान के साथ मौन था. वह फिर बोली, “उनके साथ विवेक जी हैं. देखना वो इन परिस्थितियों से बड़ी जल्दी बाहर आएंगे, वो भी स्वस्थ हर्षिता जी के साथ. मैंने उन्हें ध्यान से देखा है, उनमें ग़म में भी ख़ुशी तलाशने वाली अद्भुत इच्छाशक्ति है. अपने सद्प्रयासों से हर्षिता जी को वो पतझड़ में भी मधुमास का अनुभव करा देंगे. ऐसे सकारात्मक वातावरण में कोई रोग भला कैसे टिकेगा.” कहती हुई सुकन्या कसौली की ख़ूबसूरती में खो गई. सुकन्या की विचाराभिव्यक्ति एक नई सुकन्या से उसका परिचय करा रही थी.
विवेक, हर्षिता और सुकन्या परिस्थितियों के विपरीत होने पर भी सुखी थे, क्योंकि इन सबमें किसी को कुछ देने के सदभाव थे. सुख का आकांक्षी होने से पहले उसे भी देना सीखना होगा, उसे भान हुआ. जिस सुकन्या को वह अक्सर अनसुना करता आया, वह सुकन्या दुर्लभ संयोग है जिसकी प्राप्ति उसे क़िस्मत से हुई है. कुदरती ख़ूबसूरती में डूबी सुकन्या को वह आज सुनना, जानना और समझना चाहता था.

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