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कहानी- पारदर्शिता (Short Story- Pardarshita)

“अभिनव मैं चाहती हूं तुम बोलो और खुलकर बोलो. मैं इस रिश्ते को कभी बोझ नहीं बनने दूंगी और यदि तुम्हारी इच्छा होगी कि मैं तुम्हें छोड़कर चली जाऊं, तो मैं ज़रूर चली जाऊंगी. किंतु पहले इस भटके हुए अभिनव को सही राह पर लेकर आऊंगी. मैं हमेशा तुम्हें उसी रूप में देखना चाहती हूं, जिस रूप से मैंने प्यार किया था… निर्दोष… ईमानदार… निर्मल…” अभिनव ने उसके होंठों पर उंगली रख दी.

गाड़ी ड्राइव करती हुई श्रेया बाहर के दृश्यों को देख रही थी. अभिनव के साथ कई बार वह इस रास्ते से गुज़री थी. किंतु आज ये रास्ते उसे इतने अनजाने और बदले से क्यों लग रहे थे. सुबह का समय था. सड़क बिल्कुल खाली थी. गाड़ी की रफ़्तार तेज़ थी. सड़क के किनारे पेड़-पौधे सभी पीछे की ओर भागते से प्रतीत हो रहे थे. श्रेया का मन भी पीछे की ओर लौट रहा था.
डबडबाई आंखों में श्रेया ने आंसुओं को रोक कर रखा था. किंतु ये आंसू भी बड़े ज़िद्दी होते हैं. बेताब थे बाहर निकलने को. श्रेया ने गाड़ी रोकी, गाड़ी से बाहर उतरी, आंखों को पोंछा और मन में दृढ़ निश्‍चय किया.
‘नहीं, मुझे रोना नहीं है. परिस्थितियों का सामना करना है. अपने जीवन को मैं बिखरने नहीं दूंगी. आंसू व्यक्ति को कमज़ोर बनाते हैं.’
वह फिर से गाड़ी में बैठी और चल पड़ी. आंसुओं को तो उसने रोक लिया, किंतु मन का क्या..? उसे कैसे रोके?
अतीत में खोती चली गई वह.
श्रेया जब कॉलेज में थी, उस समय अभिनव उसके जीवन में आया था और कब वह उसके जीवन का हिस्सा बन गया उसे पता तक नहीं चला. स्वभाव से बिल्कुल सपाट, अंतर्मुखी और प्रेम-प्यार जैसे शब्दों के प्रति उदासीन श्रेया ने अभिनव को देखकर जाना कि किसी से प्रेम करना कितना ख़ूबसूरत होता है. और जिस दिन श्रेया ने अपने सारे दायरे तोड़कर अभिनव के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो अभिनव सहर्ष तैयार हो गया.

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किंतु इस ख़ूबसूरत दुनिया से श्रेया और अभिनव कठोर धरातल पर तब आए, जब उन्हें अपने-अपने परिवारों का सामना करना पड़ा. उन्होंने मन में ठानी कि बिना माता-पिता के आशीर्वाद के वह विवाह नहीं करेंगे. उनकी सहमति के लिए उन्होंने कठोर संघर्ष किया. तीन साल बीत गए तब जाकर उनकी तपस्या पूरी हुई.
अभिनव का श्रेया के जीवन में आना मानो प्रेम के समंदर में बह जाने जैसा ही था. उसकी बांहें श्रेया की पूरी दुनिया बन चुकी थी. विचित्र सा बदलाव आया था श्रेया के व्यक्तित्व में. एक पल के लिए भी अभिनव से दूरी वह बर्दाश्त नहीं कर पाती थी. किंतु जीवन तो जीवन है. समतल राह उसे कहां भाता है. समय और परिस्थितियां हमेशा भावनाओं से अपने आप को बड़ा साबित करने में लगी रहती हैं.
श्रेया के प्रेम के समंदर में बहुत सारी ज़िम्मेदारियों ने टापुओं की तरह अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया था. श्रेया तीन जीवन एक साथ जी रही थी- पहला उसका ससुराल और दांपत्य जीवन. दूसरा उसकी नौकरी और तीसरा उसका मायका. विवाह के तुरंत बाद पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उसने मां और छोटी बहन के देख-रेख की ज़िम्मेदारी ले ली थी. इन सबके बीच अभिनव का सहयोग और प्रेम ही उसमें ऊर्जा का प्रस्फुटन करता रहा और इसी कारण वह इन सब में सामंजस्य बैठाते हुए अपनी हर ज़िम्मेदारियों में खरी उतरती चली गई.
समय पहले की तरह नहीं था. दोनों घंटों बातें नहीं कर पाते थे. किंतु छुट्टी के दिन एक-दूसरे के लिए समय निकाल ही लेते थे. कहत हैं मानव जीवन जब शांत हवाओं की तरह बहने लगता हैं, तब नियति विचलित होकर कोई ना कोई पेंच अवश्य लगा देती है, ताकि शांत हवाओं में उथल-पुथल होना शुरू हो जाए.
उस दिन श्रेया मायके से लौटी, तो घर में ढेर सारे बेसन के लड्डू देखकर चौंक पड़ी. अभिनव को बेसन के लड्डू बहुत ही पसंद थे.
“इतने सारे लड्डू?” हंसते हुए श्रेया ने पूछा था.
“भाभीजी ने भेजे हैं.”
श्रेया विस्मित हो उसे देखने लगी. आंखों में सवाल थे.
“कौन सी भाभीजी?”
अभिनव ने उसे बताया, “मेरे बचपन के दोस्त की पत्नी. लंबे अरसे से मैं अपने दोस्त से नहीं मिला था. उस दिन अचानक रास्ते में वह मिला. पता चला कि उसका ट्रांसफर इसी शहर में हो गया है. तुम अपने मायके गई हुई थी. उसी समय उसने मुझे अपने घर में बुलाया था. बहुत अपनापन लगा वहां. उसकी पत्नी से मैं पहली बार मिला, लगा ही नहीं कि मैं पहली बार उनसे मिला हूं. बहुत मिलनसार हैं. उस दिन के बाद से अक्सर मेरा हाल-चाल पूछा करती हैं. तुम नहीं रहती हो, तो मेरा बहुत ही ख़्याल रखती हैं.”
अभिनव की बातों को सुनकर श्रेया एक तरफ़ बहुत ही प्रभावित हुई, किंतु दूसरी तरफ़ उसे कुछ विचित्र सा लगा की छोटी सी छोटी बातें भी अभिनव उसे बिना बताए नहीं रहता था. किंतु उसने इस बात को क्यों नहीं बताया.

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एक तरफ़ भाभीजी का आना-जाना और उनके मिठाइयों और उपहारों की संख्या बढ़ने लगी दूसरी तरफ़ अभिनव के व्यवहार में आकस्मिक परिवर्तन होने लगा. बात-बात पर भाभीजी की तारीफ़ करना, उनकी सुंदरता और गुणों का बखान बड़ी दिलचस्पी लेकर करना, रात में सोते समय श्रेया पर कम, फोन पर अधिक ध्यान देना, भाभीजी का फोन आने पर दूसरे कमरे में चले जाना, सुबह चार बजे उठकर मैसेज करना वगैरह-वगैरह… उसकी दिनचर्या में शामिल हो गई थी.
अक्सर ऐसा होता था कि जब श्रेया नहीं होती थी, तभी भाभीजी का उसके घर आना-जाना होता था. भाभीजी से श्रेया भी मिली, किंतु उसे भाभीजी में वैसी कोई बात नहीं दिखाई दी जितना अभिनव बताया करता था. फिर भी उसने अभिनव की सारी बातें आंख मूंद का स्वीकार कर ली यह सोच कर कि हो सकता है मुझे भाभीजी को पहचानने में भूल हुई हो.
प्रेम अंधा होता है. इस कथ्य को चरितार्थ करते हुए श्रेया इन सब बातों को दरकिनार कर ज़िंदगी बड़े आनंद से जीती चली जा रही थी. अभिनव के प्रेम और विश्‍वास के कारण वह कुछ देख हीं नहीं पा रही थी.
‘छुट्टी’ शब्द एक महकते बगीचे की तरह होता है. वह चाहे स्कूल-कॉलेज में पढ़ते हो तब की छुट्टी हो, चाहे नौकरी करते हो तब की छुट्टी हो. श्रेया को पता चला कि कल ऑफिस में छुट्टी है, तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था. एक पल में उसने पूरी छुट्टी का प्लान कर लिया. उड़ते कदमों से वह घर पहुंची. घर के सारे कामों को निपटाते हुए थक-हारकर जब वह बिस्तर पर आई, तो रात के ग्यारह बज रहे थे. अभिनव सो चुका था. सोते हुए अभिनव को वह मंत्रमुग्ध हो देख रही थी. कितना निर्मल… कितना निर्दोष… बिल्कुल फ़रिश्ते की तरह.
उसने धीरे से अभिनव को चूमते हुए सोचा… कल का पूरा दिन इस फ़रिश्ते के नाम होगा. कल तुम्हारे पसंद की साड़ी पहनूंगी, तुम्हारे पसंद का ही खाना बनेगा, तुम्हारे ऑफिस से लौटने के बाद तुम्हारी पसंदीदा जगह घूमने जाऊंगी और तुम्हारे ही पसंद के किसी होटल में रात का डिनर लेकर हम लोग घर लौटेंगे… सोचती हुई श्रेया को एक तरफ़ नींद ने जकड़ा और दूसरी तरफ़ नियति ने अट्टहास किया.
सुबह में अभिनव का हड़बड़ी में ऑफिस निकल जाना, फोन का छूट जाना, मैसेज के रिंगटोन पर श्रेया का ध्यान जाना और पूरे मैसेज को पढ़कर श्रेया का जीवन ख़त्म होने जैसा महसूस होना… यह सब इतनी जल्दी हुआ मानो किसी फिल्म के लिए जल्दी में लिखी गई कोई स्क्रिप्ट हो. अभिनव के पसंद का डिश बनाते हुए इतना कुछ हो गया. रसोई घर के फ़र्श पर बेजान सी बैठी श्रेया जाने कब तक शून्य में देखती रही.
घर में फोन छूट जाने पर भय और संशय के कारण रोहित ऑफिस से छुट्टी लेकर भागा हुआ घर आया. पूरे रास्ते अभिनव के मन में हज़ारों ख़्याल आ रहे थे. भीतर कंपन और घबराहट थी. ऑफिस से लेकर घर के रास्ते तक मानो उसने एक युग जी लिया था. रास्ते उसे बहुत ही लंबे लग रहे थे. ज़िंदगी उसके हाथों से फिसलती महसूस हो रही थी. व्यक्ति जब किसी आनंद या स्वार्थ की पूर्ति के लिए कुछ ग़लत करता है, तो उसे उस समय उसका एहसास नहीं होता है. किंतु जब उसे पकड़े जाने का भय होता है, तो वह सूक्ष्मता से उसका निरीक्षण करने लगता है कि उससे कहां और कैसे चूक हुई. वह पूरा समय उसे एक डरावने सपने की तरह लगा था. ऐसा सपना, जिसमें श्रेया हमेशा के लिए उसके जीवन से जा चुकी हो.
मानो वह गहरी नींद से अभी जागा हो. यह क्या किया मैंने? अपने प्यार के साथ धोखा..? सीधी-सादी और निर्दोष श्रेया के साथ मैंने बहुत बड़ा छल किया. स़िर्फ कुछ क्षण के आनंद के लिए?

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बेसुध सा अभिनव घर पहुंचा और जब घर में उसने श्रेया को देखा, तो होशोहवास खो कर उससे इस कदर लिपट गया मानो श्रेया उसे बरसों बाद मिली हो,
श्रेया को कसमसाहट हुई. उसे ऐसा लगा मानो किसी पराए मर्द ने उसे स्पर्श किया हो. किसी तरह अपने आप को छुड़ाते हुए चुपचाप वह कमरे में चली गई. अभिनव सशंकित हुआ. डर और घबराहट में वह श्रेया के पीछे-पीछे कमरे में आया और पूछा, “क्या बात है श्रेया?”
श्रेया ने मलिन आवाज़ में जवाब दिया, “तबीयत ठीक नहीं है.” अभिनव ने अपने आप को किसी तरह से नियंत्रित किया और अपनी धड़कनों को काबू में करते हुए कहा.
“सोचा तुम्हारी छुट्टी है, तो मैं भी छुट्टी ले लूं.”
फोन का ज़िक्र ना श्रेया ने किया, ना ही अभिनव ने. अभिनव चुपचाप गया, देखा जहां पर उसने फोन छोड़ा था वहीं पड़ा था.
थैंक गॉड! श्रेया ने नहीं देखा. सोचते हुए उसने गहरी सांस ली.
एक सप्ताह बीत चुका था. श्रेया की ख़ामोशी और अभिनव से उसका खींचा-खींचा सा रहना अभिनव को विचलित करके रख दिया था. उसके मन में द्वंद चल रहा था.
क्या श्रेया सब कुछ जान गई है या फिर सचमुच में उसकी तबीयत ख़राब है?
आशंकित और अनमना सा अभिनव उस दिन श्रेया को ज़बरदस्ती समंदर के किनारे ले गया. शाम ढलने को थी. सूरज की लालिमा और समंदर की लहरों को चट्टानों से टकराते हुए देखती श्रेया बिल्कुल शांत, अभिनव से कुछ दूरी पर बैठी थी. अभिनव उसके क़रीब आया और लगभग श्रेया को झकझोरते हुए कहा, “श्रेया, अपनी चुप्पी तोड़ो. मुझे जो सज़ा देनी है दो, लेकिन कम से कम कुछ तो बोलो.”
श्रेया ने अभिनव की तरफ़ बिना देखे चुप्पी तोड़ी, “अभिनव, प्रेम शब्द का अस्तित्व मेरे जीवन में तुम्हारे कारण ही आया और जीवन इतना ख़ूूबसूरत लगने लगा जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. विवाह के बाद एक ही छत के नीचे मैं अधिक कठिनाइयों से गुज़र रही थी. फिर भी सारी विपरीत परिस्थितियों को मैं आराम से झेलती चली गई. जानते हो क्यों? क्योंकि मेरे साथ तुम थे.”
अभिनव विस्मित हो उसे देख रहा था. श्रेया ने फिर कहा, “एक बात पूछूं अभिनव, तुम्हें ऐसा कब लगने लगा कि तुम अकेले हो मैं तुम्हारे साथ नहीं हूं?”
अभिनव चौंका.
“… और तुम्हें भाभीजी की ज़रूरत पड़ गई. उसने रुकते हुए फिर कहा, “नहीं, भाभीजी नहीं, ‘भाभी’ शब्द तो बहुत पवित्र होता है. मुझे यह कहना चाहिए कि तुम्हें दूसरी स्त्री की ज़रूरत पड़ गई.”
अभिनव अचंभित था. वह सब कुछ समझ गया. “अभिनव मैं चाहती हूं तुम बोलो और खुलकर बोलो. मैं इस रिश्ते को कभी बोझ नहीं बनने दूंगी और यदि तुम्हारी इच्छा होगी कि मैं तुम्हें छोड़कर चली जाऊं, तो मैं ज़रूर चली जाऊंगी. किंतु पहले इस भटके हुए अभिनव को सही राह पर लेकर आऊंगी. मैं हमेशा तुम्हें उसी रूप में देखना चाहती हूं, जिस रूप से मैंने प्यार किया था… निर्दोष… ईमानदार… निर्मल…”
अभिनव ने उसके होंठों पर उंगली रख दी.
“छोड़ने की बात कभी मत कहना श्रेया. मुझे माफ़ कर दो. मैं परिस्थितियों का शिकार हो गया था और कमज़ोर पड़ गया था. तुम्हारे पास तो मेरे लिए समय ही नहीं है, घर-गृहस्थी, तुम्हारी नौकरी और तुम्हारा मायका. इन सबके बीच तुम्हारे पास मेरे लिए समय कहां है? तुम तो नौकरी भी अपनी मां और बहन के लिए करती हो. तुम्हारे जीवन में मैं कहां हूं? इन सब के बीच में भाभीजी का अपनापन, मेरी परेशानियों को बांटना और मेरे लिए अपने घर-परिवार को छोड़कर वह मेरे पास आती थीं. उनका अपनापन ही मुझे उनके क़रीब ले गया. मुझे तो बस यही लगता था कि तुम्हारा मक़सद स़िर्फ मुझसे शादी करना था. शादी हो गई, तुम्हारा मक़सद ख़त्म हो गया. फिर तुम अपनी दुनिया में रम गई.”
“मेरी दुनिया..?” चौंक पड़ी श्रेया.
“हम दोनों के बीच में यह मेरी-तुम्हारी कब से आ गई. जिस घर-गृहस्थी की बात कर रहे हो वह स़िर्फ अकेली पत्नी की नहीं होती, पति और पत्नी बराबर के हिस्सेदार होते हैं. दोनों के सहयोग से ही गृहस्थी चलती है. रही बात मेरी नौकरी और मेरा मायका, तो एक बात बताओ, मेरी जगह पर तुम रहते तो क्या करते? अपने परिवार को छोड़ देते? एक स्त्री जब अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है अपने पति के परिवार पर और उस परिवार को अपना लेती है, तब पति क्या इतना भी सहयोग नहीं कर सकता है?
विवाह के बाद तुम भी तो अपनी नौकरी, अपने परिवार, अपने दोस्तों, रिश्तेदारों में व्यस्त रहे, लेकिन मैंने इसे तुम्हारी दुनिया कहां माना, उस दुनिया में मैं भी शामिल रही. और तुमसे ज़्यादा मैं कठिनाइयों में रही हूं. तीन नावों के पतवारों को मैंने थाम रखा है और तीनों नावों को सही दिशा देने का प्रयास कर रही हूं. तुम तो स़िर्फ नौकरी कर रहे हो, वह भी मेरी मदद से.
सब कुछ तुम्हें सही समय पर मिल जाता है. तुमसे ज़्यादा तो मैं परिश्रम कर रही हूं. किंतु मैंने तो कभी भी अपनी परेशानियों को किसी तीसरे से बांटने की कोशिश नहीं की. मैंने अपनी सारी परेशानियां तुमसे बांटी. फिर तुमने मुझसे क्यों नहीं बांटा? एक बात बताओ बाहरी दुनिया में कोई मुझे कितना भी अपनापन दिखाएं क्या वह तुम्हारी जगह ले सकता है? फिर तुमने मेरा स्थान किसी और को कैसे दे दिया?”
जिस तरह से लहरों का आना-जाना नहीं रुक रहा था उसी प्रकार से श्रेया भी बिना रुके बोले जा रही थी. अभिनव की नज़रें नीचे थीं.
“एक और बात इतने दिन से तुम्हारे मन में इतनी सारी बातें चल रही थीं, तुमने खुलकर कहा क्यों नहीं? मुझमें तुम्हें इतनी सारी कमियां दिखाई दे रही थी फिर तुमने उन कमियों को ठीक करने का प्रयास क्यों नहीं किया? कभी तो खुलकर कहा होता?
विवाह के पहले से लेकर अब तक हमेशा तुम्हारी जो भी बातें अच्छी नहीं लगती मैंने खुलकर विरोध किया है. तुम्हारे व्यक्तित्व को संवारा. ऐसा नहीं किया कि तुम्हें ग़लत दिशा में भटकने के लिए छोड़कर किसी दूसरे पुरुष को अपनी दुनिया में ले आई. मैं भी नौकरी करती हूं. अन्य पुरुषों के साथ मैं भी काम करती हूं, किंतु मेरी सोच तुम्हारी जैसी क्यों नहीं हुई. दुनिया में हज़ारों लोग तुम्हारे आंसू पोेछने वाले होते हैं इसका यह मतलब तो नहीं की वह हमारे ज़िंदगी में आ जाते हैं और पति या पत्नी का स्थान ले लेते हैं.

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किसी भी प्रगाढ़ रिश्ते में पारदर्शिता होनी चाहिए, तभी उस रिश्ते में गांठ नहीं पड़ती है. एक पति-पत्नी के रिश्ते में पारदर्शिता नहीं हो, तो वह रिश्ता बहुत आगे तक नहीं चल पाता है. और अंत में एक बात और मैंने कोई ग़लत कार्य नहीं किया. कोई पाप नहीं किया. भगवान के दरबार में भी जाऊंगी, तो वहां भी मुझे सज़ा नहीं मिलेगी. लेकिन तुमने मुझे बहुत बड़ी सज़ा दी और यह टीस जीवनभर रहेगा. मेरी दुनिया तो तुम थे अभिनव. तुम्हारे सहयोग और सानिध्य के बल पर ही मैं तीन नावों की पतवार बनी.
भले ही हम लोग जीवनभर साथ रहें, किंतु यह पीड़ा मुझे हमेशा रहेगी कि तुमने मेरे अस्तित्व और गुरूर को रौंद दिया. किसी स्त्री के लिए इससे बड़ा अपमान कुछ हो ही नहीं सकता कि उसके होते हुए उसके पति की दुनिया में कोई दूसरी स्त्री का प्रवेश हो. एक तरह से जीते जी किसी की हत्या हुई. तुमने मुझे मार दिया.”
कहते हुए श्रेया रो पड़ी.
अभिनव ने श्रेया के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “श्रेया मैं माफ़ी के लायक भी नहीं हूं. तुम कभी ग़लत हो ही नहीं सकती. मैं ग़लत हूं. तुम्हारा अपराधी हूं. मैं भटक गया था. तुम्हें जितना रोना है रो लो, क्योंकि इसके बाद मेरे जीते जी कभी इन आंखों में आंसू नहीं आएंगे. एक डरावना सपना समझकर पिछला सब कुछ भूल जाओ. मेरे जीवन में हमेशा से तुम ही थी, तुम ही हो और तुम ही रहोगी. वह सब कुछ, कुछ पल का भ्रम था जो टूट गया. मेरी ज़िंदगी तो तुम ही हो फिर कौन सी कृत्रिम ज़िंदगी मैं बाहर ढूंढ़ने गया था.”
जब मन दुखी हो, तब प्रेम और सहानुभूति आंसुओं के बांध को तोड़ देते हैं. लाख रोकने के बावजूद श्रेया के बांध टूट गए थे.
अभिनव और श्रेया घर लौट चुके थे. ग्लानि से भरा अभिनव चुपचाप श्रेया के सिरहाने बैठा हुआ था. लेटी हुई श्रेया ने छत को निहारते हुए अभिनव से कहा, “सो जाओ अभिनव सुबह तुम्हें ऑफिस जाना है.”
अभिनव ने श्रेया के बालों को सहलाते हुए कहा, “तुम भी सो जाओ श्रेया तुम्हें भी तो ऑफिस जाना है.”
“नहीं कल मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी. एक ज़िम्मेदारी मुझे और पूरी करनी है.” श्रेया ने कहा.
अभिनव समझ गया. उसने कहा, “मुझे तुम पर विश्‍वास है कि तुम जो भी करोगी सही करोगी. हर ज़िम्मेदारी निभाने में तुम सक्षम हो.”
सामने वाले गेट को देखकर अचानक अतीत से लौटी श्रेया. वह गाड़ी रोककर नीचे उतरी.
चेहरे पर दृढ़ता लिए श्रेया ने कॉल बेल बजाया. दरवाज़ा खुला. श्रेया ने हाथ जोड़ा, “नमस्ते भाभी जी.”
‘भाभीजी’ शब्द पर ज़ोर डालते हुए उसने घर के भीतर प्रवेश किया. भाभीजी ने श्रेया को ड्रॉइंग रूम में बैठाया और आदर-सत्कार में लग गई.
“कहिए कैसे आना हुआ और वह भी अकेले, अभिनवजी कहां है?” भाभीजी ने सहज होते हुए पूछा.
“क्या लेंगी चाय या कॉफी? मैं बना कर लाती हूं.”
श्रेया ने लंबी सांस ली और कहा, “आप बैठिए और हम मुद्दे की बात करते हैं.”
“क्या आपके पति आप से प्रेम नहीं करते?”
“यह कैसा सवाल है?” भाभीजी चौंक पड़ी.
“भाभीजी आपके विवाह को दस साल हो चुके हैं. दो बच्चे हैं. क्या आप अपने घर से संतुष्ट नहीं हैं? ”
“बिल्कुल हूं. आपसे किसने कहा कि मैं संतुष्ट नहीं हूं.” भाभीजी ने उत्तेजित होते हुए कहा.
“फिर दूसरों को क्यों असंतुष्ट कर रही हैं. आप जैसे लोगों ने ही समाज में स्त्रियों की गरिमा को ख़त्म कर दिया है. एक ही तरह का जीवन जीते-जीते जब आप लोग उब जाती हैं, तो दूसरे के घर में ताक-झांक शुरू कर देती हैं. स़िर्फ अपने थोड़े से मनचलेपन को संतुष्ट करने के लिए किसी दूसरे का जीवन नर्क बना देती हैं. अपनी मीठी बातों और अपनापन दिखाकर किसी रिश्ते में आग लगाने का काम क्यों करती हैं? कभी बैठ कर यह नहीं सोचती कि आप लोगों के इस कृत्य से कितनी ज़िंदगियां बर्बाद हो जाएंगी.”
भाभीजी ने श्रेया की बात को बीच में ही काट कर कहा, “मैंने किसी की ज़िंदगी बर्बाद नहीं की. आपके पति अपनी मर्ज़ी से मेरे पास आए थे.”
“जितना दोषी मेरा पति है, उतनी ही आप भी हैं. समाज में स्त्री और पुरुष का चारित्रिक पतन ही समाज को दिशाहीन बनाता है. दुनिया में सभी के जीवन में उतार-चढ़ाव आता है, किंतु व्यक्ति को बिना विवेक खोए हुए अपना जीवन अर्थपूर्ण बनाना चाहिए. किसी को भावनात्मक रूप से मदद करना अलग बात है, किंतु मदद करते-करते किसी के जीवन में इतना मत प्रवेश कर जाओ कि वह मदद दो परिवारों के लिए अभिशप्त बन जाए.” श्रेया ने रूखेपन से कहा.
“आप अपनी कमियों को क्यों नहीं देख रही हैं? क्यों आपके पति को मेरे पास आना पड़ा?”
भाभीजी ने कटाक्ष किया.
“आप एक स्त्री हैं. मेरे स्थान पर रहकर आप यह बताइए की मेरी कमियां क्या हैं? और भाभी की गरिमा को आप बख़ूबी समझती होंगी. अगर मेरा पति राह भटक गया था, तो आप उसे जीवन का ऊंच-नीच समझा सकती थीं. उसे सही राह पर लेकर आतीं, लेकिन आप तो उसे भटकने में और भी सहयोग दे रही थीं.” श्रेया ने कहा।
अचानक भाभीजी ने उत्तेजित होते हुए कहा, “बस चुप रहिए. मैं किसी को भटका नहीं रही थी. आपके पति ने अकेलापन महसूस किया और मैंने उस अकेलेपन को बांटा. मैंने उन्हें प्रेम और स्नेह दिया और कुछ नहीं. जब उन्हें प्रेम और स्नेह की ज़रूरत थी, उस समय तो आप अपनी दुनिया में थीं.”
“किसी को प्रेम और स्नेह देना बुरी बात नहीं है, किंतु आपने उस प्रेम और स्नेह की सीमा लांघी है. किसी के जीवन को तराश नहीं सकतीं, तो कम से कम उसे विकृत तो मत बनाइए. और यदि आप अपने जीवन से ख़ुश नहीं हैं, तो क्या आप दूसरों की ख़ुशी छीन लेंगी? दूसरे के आंसू का कारण मत बनिए. समाज में दूसरी औरत का तगमा लेकर क्यों घूमना चाहती हैं?”
कहते हुए श्रेया झटके से उठ खड़ी हुई.
“मैं जा रही हूं. आप अपने अंतर्मन में झांककर देखिएगा कि आप कितनी सही और कितनी ग़लत हैं.”
बाहर जाने के लिए श्रेया मुड़ी ही थी कि भाभीजी की क्षीण सी आवाज़ आई.
“श्रेया, आपकी पारदर्शिता ने मुझे जीवन की गहरी सीख दी है कि किसी के भी जीवन में अनावश्यक प्रवेश नहीं करना चाहिए. आपकी यह सीख मुझे हमेशा याद रहेगी. मुझे माफ़ कर दीजिए.”
सुबह की धूप खिली-खिली सी थी. शांत हवाओं ने बहना शुरू कर दिया था.

Writer Priti Sinha
प्रीति सिन्हा

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