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कहानी- परछाइयों के पीछे (Short Story- Parchhaiyan Ke Peechhe)

मैं नहीं जानती कि प्रेम की वास्तविक परिभाषा क्या है। क्या यही प्रेम है? किसी शख़्स के जाने के बाद उसकी छोटी-छोटी बात भी मन में, विचारों में घूमती रहती है. अकेलेपन में उनकी वादों का मुझे घेर लेना, 'अपने ही ख़्यालों में उनसे संबंधित अनगिनत प्रश्नों का उठ जाना और उठे प्रश्नों का स्वयं उत्तर दे देना.

दिसंबर महीने की कड़कड़ाती ठंड की सुबह सौरभ गरम- गरम चाय की प्याली के साथ अख़बार के पन्ने पलट रहे थे कि अचानक फ़ोन की घंटी बज उठी. सौरभ ने वहीं से आवाज़ लगाई.
"सुमी, देखो तो किसका फ़ोन है." पर मैं रसोई में व्यस्त होने के कारण वहीं से बोल पड़ी, "आप ही देख लो न. "
सौरभ ने फ़ोन उठाया, दूसरी ओर से कोई आवाज़ नहीं आई.
सौरभ बुदबुदाने लगे, "पता नहीं कौन है, जो पिछले दो दिनों से फोन पर तंग कर रहा है और बोलता कुछ नहीं." इसी बुदबुदाहट में सौरभ खीझ में ही रिसीवर पर बोल पड़े, “बोलो भाई, क्यों तंग कर रहे हो? कुछ बोलते क्यों नहीं?"
पर उधर से कोई उत्तर न पाकर सौरभ गुस्से से रिसीवर पटककर बाथरूम की ओर चल दिए.
मैं जल्दी से नाश्ता बनाने लगी, ताकि सौरभ समय से ऑफिस पहुंच सके.
सौरभ के ऑफ़िस के लिए निकलते ही मैं जल्दी से घर में बिखरा सामान समेटने लगी. ना मालूम क्यों आज मेरा ऑफिस जाने को जी नहीं चाह रहा था. नज़रे फोन पर ही टिकी थीं. तभी फोन की घंटी बजी. उधर से प्रशांत की आवाज़ सुनकर मैं तो मानो स्वप्न से जाग उठी और शिकायत करने लगी, "अगर दो दिन से दिल्ली में हो, तो मुझे पहले क्यों नहीं बताया?"
प्रशांत ने कहा, "जब भी फ़ोन करता था, तुम्हारे पति ही उठाते थे… अब फोन पर शिकायत ही करती रहोगी. मिलने आओगी भी या नहीं." प्रशांत ने मिलने की जगह बताकर फोन रख दिया.

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मैं जल्दी से तैयार होकर कनाट प्लेस की ओर निकल पड़ी. दूर से ही रीगल सिनेमा के आगे खड़े प्रशांत पर नज़र पड़ी. आज पांच वर्षों के पश्चात् उन्हें इस शहर में देखकर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई और अनायास ही मेरे क़दम बेख्याली में उनकी ओर बढ़ गए. प्रशांत मुझे देखकर मुस्कुरा दिए और मैं उन्हें अपलक निहारती ही रह गई- ना जाने क्यों मेरे होंठ सिल गए. मैं जड़-सी वहीं खड़ी रह गई.
प्रशांत ने कहा, "सुमी, कहां खो गई हो? चलो पास में ही गेलार्ड है, वहां बैठकर बातें करते हैं."
पांच साल के बाद की मुलाक़ात में बातों का सिलसिला अपने आप ही चलता चला गया.
मैं और प्रशांत एक ही ऑफिस में काम करते थे. जब मैं ऑफ़िस में नई आई थी, तो सबसे पहले प्रशांत से ही मुलाकात हुई, उन्होंने ऑफ़िस के सभी तरह के काम में मेरी मदद की. मुझे भी उनकी तरफ धीरे-धीरे झुकाव का एहसास होने लगा. प्रशांत के ना आने पर एक खालीपन सा महसूस होता था. हर समय मेरी नजरें उनका पीछा करती थीं, मैं नहीं जानती कि प्रेम की वास्तविक परिभाषा क्या है? क्या यही प्रेम है? किसी शख्स के जाने के बाद उसकी छोटी-छोटी बात भी मन में, विचारों में घूमती रहती है. अकेलेपन में उनकी यादों का मुझे घेर लेना, अपने ही ख्यालों में उनसे संबंधित अनगिनत प्रश्नों का उठ जाना और उठे प्रश्नों का स्वयं उत्तर दे देना, ये सभी बातें मेरे अंदर नई अनुभूति का प्रवेश करा रही थीं.
उनकी हर बात ने, काम करने के तरीके ने मुझे मोहना शुरू किया और मैं उनकी ओर खिंचती चली गई. अनजाने में ही मैं उनके आने का इंतज़ार करने लगी. मेरी नज़रें प्रशांत को देखने के लिए बेताब रहने लगीं. वह शख्स जो मेरी जिंदगी में एक नया रंग लेकर आया, उसके व्यक्तित्व के आगे मैं अपना घर, अपने पति अपने बच्चे, यहां तक कि मेरा समाज में अलग स्थान है, मेरे नाम के साथ मेरे परिवार का नाम जुड़ा हुआ है, इन सभी चीज़ों को भी भूलने लगी. न जाने कितनी दबी आकांक्षाओं, भावनाओं और अधूरी कामनाओं की पूर्ति प्रशांत के व्यक्तित्व में मैं देखती थी. मैं मन ही मन चाहती थी कि वह मुझसे कुछ कहे. मैं जितनी भावुक थी, उतने ही वह संयमित और संतुलित थे.

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प्रशांत ने कभी मुझसे काम के अलावा कोई बात नहीं की. परंतु मेरी अबोली आंखों ने शायद वह सब कुछ कह दिया, जिन्हें शब्दों में परिभाषित करना ज़रूरी नहीं था. ऐसे ही एक दिन उनके जन्मदिन की अनुपम अद्वितीय बेला पर मैंने उन्हें एक छोटा-सा कार्ड दिया, जिसे उन्होंने सहजता
से सधन्यवाद स्वीकार कर लिया- मानो मुझे एक प्रकार की संतुष्टि मिली. मेरी भावनाएं ऐसी थीं, जिन्हें मैं शब्दों में अभिव्यक्त न कर सकी, परंतु एक अनजाना-सा सुकून मिला मुझे. मैंने चाहा कि समय यहीं पर थम जाए. किसी के व्यक्तित्व से अभिभूत होकर बिना अवलम्ब, अविलम्ब और अभय होकर मैंने बिना परिणाम की इच्छा के निवेदन किया.
मालूम नहीं… यह दिव्यस्वप्न था या बाह्य व्यक्तित्व का आकर्षण, परंतु मुझे इस भ्रांति से ही सुकून था. क्या सच, क्या झूठ- जीवन रूपी नाव को चलने के लिए छोड़ दिया. परंतु मैं इस बात से अनजान थी कि वह मेरे तथा मेरे परिवार के बारे में सब कुछ जान चुके हैं.
शीघ्र ही प्रशांत ने ऑफ़िस से स्थानांतरण के लिए प्रार्थना पत्र दे दिया और प्रार्थना पत्र शीघ्र ही स्वीकार भी हो गया. प्रशांत बिना मुझसे कुछ कहे अपने परिवार सहित दूसरे शहर चले गए और मैं उनसे प्रशांत ने शांत भाव से कहा, "हां सुमी, तुम्हारे बारे में सब कुछ जानता हूं…" मैं कुछ पूछ भी ना सकी. बस हंसी का आवरण मुख पर चढ़ाकर उन्हें प्यार से विदाई दे दी.
अब मैं प्रशांत की यादों के सहारे जीने की कोशिश करने लगी, परंतु मानसिक रूप से मैं संतुष्ट ना हो सकी. वैसे सौरभ के लिए मेरी इच्छा-अनिच्छा बहुत मायने रखती थी. मैं अपनी ओर से उनको खुश रखने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी, परंतु सब कुछ होने के बावजूद एक कसक-सी थी मेरे मन में, कुछ था जो मैं चाहती थी और नहीं मिल पा रहा था मुझे.
मैं सौरभ में एक अलग व्यक्तित्व की छवि देखना चाहती थी, मगर कैसे? वैसे मैं उन लोगों में से थी, जो जिंदगी की छोटी-छोटी बातों से भी खुश हो जाया करते हैं. जब मैं हंसती थी, तो मेरी हंसी की आवाज़ दूर तक जाती थी, परंतु आज ऐसा नहीं था. सौरभ मुझसे शिकायत करते थे. इतना कुछ तो दिया था उन्होंने. लेकिन शायद मेरे सोचने के ढंग में ही ग़लती थी.
बस इन्हीं विचारों में उलझकर मैं अपने को दोषी ठहराते हुए सोचती थी कि मैं परछाइयों के पीछे क्यों दौड़ रही हूं? पर मैं अपने अंतद्वंद्र को अभिव्यक्त नहीं कर सकती थी कि मेरी कुछ अपूर्ण हसरतें भी हैं, अपनी इच्छाओं को मैंने मन में ही मार लिया है.
“किन विचारों में खोई हुई हो सुमी?" प्रशांत ने पूछा.
"कुछ ख़ास नहीं. बस यही सोच रही थी कि मैं कहां से कहां पहुंच गई हूं."
"सब कुछ समझता हूं, तुम्हारी वे अबोली आंखें मुझसे क्या कहना चाहती थीं, तुम क्या चाहती थीं, सब कुछ मुझे समझ में आ गया था. उन्हीं अबोली आंखों के डर से मैं दूर चला गया. मैं जानता था कि जिस तरह तुम सोच रही हो, वह ठीक नहीं है और उस समय मेरे द्वारा समझाने पर भी तुम कभी न समझ सकोगी. भविष्य को देखते हुए मेरा यहां से जाना ही उचित था और जाने से पहले मैं तुम्हें कुछ ना कह सका, परंतु आज मैं तुमसे वह सब कुछ कहना चाहता हूं, जो उस समय ना कह सका था."
"अच्छा! तुम अब सोचने भी लग गई हो और अच्छे शब्दों में बोलने भी लग गई हो! अच्छा, अब बताओ, तुम्हें जाने की जल्दी तो नहीं है? मुझे तुमसे कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं. वैसे मैंने तुम्हारे लिए खाने का ऑर्डर दे दिया है."
प्रशांत ने एक पैकेट मुझे देते हुए कहा, "देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं."

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मैंने आश्चर्य से प्रशांत को देखते हुए कहा, "तुम्हें अब तक मेरी पसंद याद है?"
प्रशांत के कहे वाक्य और मुझ पर टिकी गहरी नज़रों ने इतने में ही शायद बहुत कुछ कह दिया था.
शायद प्रशांत मेरे मन में उमड़ते तूफान को समझ चुके थे. उन्होंने मेरे कंधे को थपथपाते हुए कहा, "सुमी, अब तुम इंतज़ार करना छोड़ो. परछाइयों के पीछे भागना छोड़ो. दिन में ख्वाब मत देखो अपनी मुट्ठी में चांद को बंद करने का प्रयास मत करो. सच्चा प्यार त्याग में है- एक-दूसरे को पाने में नहीं, सौरभ बहुत अच्छे इंसान हैं. वह तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. तुम्हारे फूल से दो बच्चे हैं. उन्हें परवान चढ़ाना है, उन पौधों को फलदार पेड़ बनाना ही तुम्हारे जीवन का ध्येय है. यही यथार्थ है, यही सच है." प्रशांत धाराप्रवाह बोले जा रहे थे.
"… देखो सुमी, मैं तुम्हारी हरी-भरी गृहस्थी को कांटों में तब्दील करने का सबब नहीं बनना चाहता. अच्छा सुमी, अब मुझे जाना है और तुम मुझे मुस्कुराकर विदा करो. अगर जिंदगी रही, तो हम फिर मिलेंगे. वैसे मैं तुम्हें एक बात दिल की अतल गहराइयों से बता रहा हूं कि तुम आज भी मेरे लिए महत्वपूर्ण हो."
मैंने प्रशांत को हंसते हुए विदा किया और अपने को संभालते हुए दूर तक उन्हें जाते हुए देखती रही.
जानती थी, शायद ही ऐसा सुखद संयोग एक बार फिर मेरे जीवन में प्रस्तुत हो कि प्रशांत दुबारा मुझे फ़ोन करें या बुलाएं.
प्रशांत के जाते ही मैं इस मुलाक़ात के एहसास में खो सी गई और अपने मानसिक द्वंद्व को शब्दों में अभिव्यक्त करने की क्षमता मुझमें नहीं थी. मेरी यह पीड़ा, मेरा यह द्वंद्व अनिर्वचनीय है, अकथनीय है, सिर्फ़ मेरा है, मेरा.
परंतु इस मुलाक़ात से एक भीना भीना सा एहसास, एक चाहत, एक उमंग मेरे दिल में अंगड़ाई लेने लगी कि किसी के दिल में मेरे लिए एक विशेष स्थान है, किसी को मेरी चाहत है.
एक एहसास, जो बिना शब्दों में अभिव्यक्त किए नज़रों ही नज़रों में ना जाने कितनी भावनाएं अभिव्यक्त कर गया. उनके बोल, जिन्हें सुनने के लिए मेरा मन भटकता था… बहुत सुखद था वो क्षण.

- संगीता शर्मा

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