"पैदा होने के बाद से ही लड़कियों को कहा जाता है कि वह पराया धन है… पराई अमानत है… उन्हें पराये घर जाना है… जो उनका असली घर है और जब मैं इस घर में आई, जिस घर की मैं अमानत थी, तो मुझे अपनाए जाने में सबको बड़ी कठिनाई हो रही है. मैं अपने मायके में सारी ज़िंदगी पराई अमानत रही और अब यहां भी पराई हूं, कौन सा है मेरा असली घर?"
बिन्नो की सास उसे थोड़ी देर घूरती रहीं.
अपने बदले हुए हालात देख-देखकर बिन्नो की बार-बार रुलाई फूट रही थी. देखते ही देखते क्या-क्या हो गया था. मायके में उसकी खिलखिलाती हंसी, वो चुलबुलापन, चहचहाना और वह बचपना
सब कुछ एक ही झटके में ख़त्म सा हो गया. लेकिन उसने तो न जाने कितने सपने संजोए थे. और क्या-क्या सपने दिखाये थे उसकी सहेलियों ने, उसके घरवालों ने और मिलनेवालों ने, जिसे देखो वह यही कहता था- "तेरे तो ऐश हो गए बिन्नो!"
"अरे, मांग कर लड़की ले जा रहे हैं… राज करेगी राज अपने घर में." नानी की यह आवाज़ उसके कानों में अभी तक गूंज रही थी.
विदाई के बाद जब वह ससुराल पहुंची, तो वहां की रस्म वगैरह निबटते-निबटते रात के एक बज गए. थकी-हारी बिन्नो इसी प्रतीक्षा में थी कि कोई आकर उससे कहेगा कि जा कर सो जाओ. थोड़ी देर बाद उसकी सास आई और बोली, "जा सो जा बिन्नो, रात बहुत हो गई है…" बिन्नो को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई, पर अपनी सास की आगे की बात सुन कर उसे लगा कि उसका यह सुख तो क्षणिक ही था.
"… और फिर सवेरे तुझे जल्दी भी हो उठना है. देख, संजू के बाबा-दादी को सुबह चार बजे उठने की आदत है. उन्हें उठते ही चाय चाहिए होती है. वे लोग तेरे हाथ की चाय पीने की ज़िद कर रहे हैं."
अपने कमरे में आई तो संजू गहरी नींद में सो चुका था. बिन्नो बिना कोई आहट किए उसके बगल में लेट गई. दिनभर सिर झुकाए बैठे रहने की वजह से उसकी गर्दन दुख रही थी. लेटते ही पलके झपकने लगीं.
"उठ बिन्नो! नौ बज गए, कब तक सोती रहेगी? दो बार चाय रख कर गई. दोनों बार ठंडी हो गई." दीदी ने उसे झिंझोड़ दिया था.
"अरे, सोने दे न बेचारी को. आज कौन सा कॉलेज जाना है." पापा की प्यार भरी आवाज़ आई, जिसने एक मीठी लोरी का काम किया और बिन्नो चादर मुंह तक ओढ़कर और गहरी नींद में सो गई. उसने दीदी की बात पर कोई ध्यान न दिया.
"सो ले लाडो, जब ससुराल में सास की झिड़की पड़ेगी, तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी." दीदी मुस्कुराती हुई चली गई.
मायके में थी तो वहां कोई भी उसे आठ-नौ बजे से पहले नहीं उठाता था. घर में सबसे छोटी होने के कारण कोई काम भी नहीं करना पड़ता था. यहां तो चाय भी उसे ही बनानी पड़ेगी, वह भी सुबह तीन बजे उठ कर. घर में इतने नौकर-चाकर हैं, फिर भी उसे ही कहा गया.
अतीत की बातों को याद करते-करते न जाने कब सो गई वह. आंसू ढुलककर उसके गालों पर आ गए और सूख कर अपना निशान छोड़ गए.
दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक से उसकी आंख खुल गई… ठीक तीन बजे थे. दरवाज़ा खोला तो सामने सास खड़ी थी. बिना कुछ बोले वह चली गईं. कितना कठोर लग रहा था उनका चेहरा. उसे मां याद आ गई. उसका रोना फूट पड़ा. दिनभर में यही तो एक समय था जब उसे रोने को मिल सकता था. सारे दिन तो उसको देखनेवालों का तांता लगा रहता था. जी हल्का होने पर उसने वॉशबेसिन में जाकर अपना मुंह धोया. पानी के साथ आंसू भी बह गए. ससुराल में उसका एक और दिन शुरू होने जा रहा था.
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पिछले चार दिनों में बिन्नो का बुरा हाल हो गया था. सिर झुकाए बैठे-बैठे… चारों तरफ़ तमाम औरतों का जमघट अपनी कचर-पचर लगाए रहता था. सबेरे से ही उसे नहा-धोकर तैयार हो जाना होता था. बैठक में ज़मीन पर दरी और उस पर गद्दे और तकिए बिछा दिए गए थे. सारी बिरादरी और मुहल्ले की औरतें उसके चारों ओर बैठा दी जातीं. सब की सब उसे ऐसे देखती-परखती थीं, मानो बायोलॉजी के क्लास में इकलौते कटे हुए मेंढक को देखने पूरी क्लास जुटी हो. बिन्नो, कटे हुए मेंढक की तरह, बिना हिले-डुले, बीच में सिर झुकाए बैठी रहती. एक-एक करके सभी औरतों की बारी आती, तो वह बिन्नो के पास आकर उसका घूंघट उठा कर उसे देखती और रुपए पकड़ा जाती. बिन्नो रुपए लेकर उनके पैर छूती और रुपए बगल में बैठी अपनी ननद मंजू को पकड़ा देती.
एक दिन दोपहर में सारे मेहमानों के जाने के बाद मंजू बोली, "चलो भाभी, कमरे में चल के ज़रा आराम कर लो." कमरे में आए पांच मिनट भी नहीं हुए होंगे कि नीचे से किसी महिला की बड़ी ज़ो-ज़ोर की आवाज़ें आने लगी, "अरे बहनजी, माफ़ करना, आने में थोड़ी सी देर हो गई, पर हम क्या इतने गैर हो गए कि हमारा दो मिनट इंतज़ार भी नहीं किया गया. बहू को बिना हमारे देखे ही छुपा दिया, कोई खोटवाली लड़की तो नहीं ले आई."
अच्छा-ख़ासा हंगामा खड़ा हो गया. तब तुरंत उसकी सास ने ताकीद कर दी कि बिना उनकी इजाज़त के बहू अपने कमरे में नहीं जाएगी. अच्छा नहीं लगता कि उसे देखनेवालों को बेवजह इंतज़ार करना पड़े.
मायके में इतनी लाड़ली थी सबकी कि उसके कहीं भी आने-जाने पर किसी की भी रोक-टोक नहीं थी. मस्त तितली की तरह उड़ती-फिरती थी वह सब जगह और यहां… अपने कमरे में जाने के लिए भी सास की आज्ञा की आवश्यकता है. तितली के पर काटने पर उसे कैसी तकलीफ़ होती होगी, अब पता चला बिन्नो को.
पड़ोस की चक्की ताई अगले दिन आई थीं. ५-६ औरतों के बाद उनका नम्बर आया. जैसे ही उन्होंने बिन्नो का घूंघट हटाया, अपनी कांय-कांय बाली आवाज़ में बिन्नो की सास को उमेठना शुरू कर विया, "अरे वाह! हमको तो पता ही न था कि मुंह दिखाई में मुंह के अलावा भी कुछ देखना है. यह ती यहां सब कुछ उड़ेले बैठी है. हम बुढ़ियों को ही बुलाना था तो इत्ते खुले गले का ब्लाउज़ पहनाने की क्या ज़रूरत थी?" फिर बुआ सास की ओर मुंह करके बोली, "इसे ज़रा कंट्रोल में रखना, यह तुम सबको उंगली पर न नचा दे."
बिन्नो बहुत घबरा गई, उसे उम्मीद थी कि घर का कोई सदस्य उसकी तरफ़ से बोलेगा, पर कोई कुछ न बोला.
अगले दिन सवेरे कमरे का दरवाज़ा खोला बुआजी और उनके पीछे बिन्नो की सास खड़ी थीं. दोनों धडधडाती हुई कमरे के अन्दर आ गई.
"बिन्नो, तुम्हारे पास कोई ऊंचे गले का ब्लाउज़ नहीं है?" बिन्नो की बुआ सास उसकी आलमारी पर नज़र मारते हुए बोली.
"है बुआजी, एक वो साड़ियों के साथ है."
"ठीक है, तो आज वही पहनकर नीचे बैठक में आओ." कहते हुए बुआजी ने कड़ी नज़र से संजू की मां की ओर देखा मानो कह रही हो कि तुम भी तो कुछ डांटो.
बिन्नो की सास ने आदेश पारित किया, "और आगे से भी ध्यान रखना कि ब्लाउज़ ऊंचे गले वाली और ढकी हुई हो." सासजी बिन्नो को आदेश देकर अपना कठोर चेहरा लेकर नीचे चली गईं. बिन्नो डबडबाई आंखों के धुंधलेपन में अपनी साड़ी-ब्लाउज़ टटोलने लगी.
"दादी, मैं अपनी जींस-स्कर्ट वगैरह भी रख लूं." शादी के समय अपने सामान की पैकिंग करते समय पूछा था बिन्नो ने. जवाब नानी ने दिया था, "वह लोग कह गए हैं कि तुझे बिल्कुल अपनी बेटी की तरह रखेंगे, जैसी मंजू वैसी ही तू. मंजू तो यह सब पहनती है और वह तो तुझ से तीन साल बड़ी भी है. ले जा, साड़ी की तुझे आदत ही कहां है." वाकई साड़ी तो उसने एक ही बार पहनी थी… सारी सहेलियों ने तय किया था कि दीदी की शादी में सब साड़ियां ही पहनेगी. साड़ी पहन कर जब वह बाहर निकली थी, तो सबने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी.
उसके पापा तो उसे देखते ही रह गए थे. नानी से बोले थे, "देखो मां, कितनी बड़ी लग रही है अपनी बिन्नो, बिल्कुल अपनी मां जैसी दिखती है."
सबकी आंखों में आंसू आ गए थे. बिन्नो ने तुरन्त जाकर शीशे में स्वयं को निहारा और दीवार पर टंगी हुई मां की तस्वीर से अपना मिलान करने लगी. पापा सही कह रहे थे, अगर वह साड़ी पहने हुए अपनी फोटो मां की फोटो के बगल में लगा दे, तो दोनों एक सी लगेगी. अन्तर केवल एक ही होगा कि मां की फोटो पर माला टंगी थी.
दीदी की जयमाल के समय जब वह दीदी के साथ चल कर मंच तक आई, तो संजू की नज़र उस पर ठहर सी गई. सुना है घर जा कर उसने ज़िद पकड़ ली कि वह शादी करेगा, तो बिन्नो से ही. तब संजू के मां-बाप बिन्नो के घर रिश्ता लेकर आए थे.
बिन्नो के पापा ने उन्हें समझाने की कोशिश की, "हमारे अहोभाग्य जो आप लोग हमारे घर तक आए, पर लड़की तो अभी ग्यारहवीं में ही पढ़ रही है, अभी बहुत छोटी है."
बिन्नो की सास ने उनकी बात काटी, "हमारे बेटे ने आज तक जिस खिलौने पर भी हाथ रखा, वह घर में आ गया. फिर यह तो बहुत बड़ी चीज़ है उसकी जीवन संगिनी है और हमारे घर की लक्ष्मी भी. जब उसने पसंद कर ली है, तो लड़की तो हमारी हुई. हम थोड़ी प्रतीक्षा कर लेंगे."
पापा ने फिर कहा, "देखिए, अभी बड़ी की शादी करके निबटा हूं. इसके बारे में तो सोचा ही नहीं है. एक तो सबसे छोटी और फिर बिन मां की बच्ची… इस बेचारी को तो कुछ भी नहीं आता, न घर संभालना, न खाना पकाना, यह बेचारी तो ठीक से साड़ी भी नहीं बांध पाती है."
"उसकी आप चिन्ता न करें." संजू की मम्मी ने बीच में ही टोका, "भगवान की दया से घर संभालने और खाना वगैरह बनाने के लिये नौकर-चाकर हैं हमारे घर में. इसको तो रसोई में कदम भी रखने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. रही साड़ी वगैरह की बात तो जैसे हमारी मंजू वैसी ही बिन्नो, और फिर आजकल तो लड़कियां जीन्स-पैंट में घूमती हैं. मंजू के जाने के बाद यही तो उसकी कमी पूरी करेगी." पापा ने कितना समझाया था, पर उनकी एक न चली, वे रिश्ता पक्का करके चले गए.
जाते-जाते बिन्नो की सास दोबारा कह गई थी, "भाईसाहब, चिंता मत करिए, बिन्नो बिल्कुल मंजू की तरह रहेगी."
यह सब ढकोसला था क्या? बिन्नो को तो खुले गले का ब्लाउज़ पहनने से भी मना कर दिया गया. फिर वह जीन्स या स्कर्ट के सवाल तो भूल ही जाए. बिन्नो ने डबडबाई आंखों से नीली ज़री की साड़ी और ऊंचे गले का ब्लाउज़ निकाल कर पहना और नीचे आ गई.
फिर वही बायोलॉजी का मेंढक और पूरी की पूरी क्लास. उस दिन फ़र्क केवल इतना था कि क्लास में चेहरे कुछ नए थे. वह कटे मेढ़क की तरह निर्जीव सी बैठी रही और मशीन की तरह पैर छू-छू कर रुपए मंजू को पकड़ाती रही.
उसके अन्दर ही अन्दर रुलाई के बादल उमड़-घुमड़ कर रहे थे. क्या सुहाने दिन थे मायके के और अब क्या हो गया. उसका जी चाह रहा था कि सब लोग थोड़ी देर के लिए विलीन हो जाएं. उसे अकेला छोड़ दें, जिससे वह जी भर के रो ले, जैसे वह छुटपन में मां की गोद में छुप कर रोती थी. एक बार मां की गोद में खुस गई, तो मानो सारी दुनिया विलीन हो गई और वह अकेली हो गई. घूंघट के अदर ही उसकी रुलाई निकल पड़ी.
इससे पहले कि अगली औरत मुंह दिखाई के लिए आ पाती बिन्नो ने जल्दी से रुमाल घूंघट के अंदर ले जाकर आंसू पोंछ लिए.
पास ही बैठी मंजू ने पूछा, "तबियत तो ठीक है न भाभी."
बिन्नो ने बहाना बना दिया, "सिर में थोड़ा दर्द हो रहा है."
बिन्नो की सास को बताया गया तो तुरंत आदेश हो गया कि मंजू, बिन्नो को उसके कमरे में ले जाए.
कमरे में पहुंचकर बिन्नो को बड़ी राहत मिली. मंजू ने उसका घूंघट हटाकर उसे लेटा दिया और उसके सिरहाने बैठ कर उसका सिर दबाने लगी.
"रहने दो दीदी, अभी ठीक हो जाएगा." दोनों बातें करने लगीं. धीरे-धीरे बिन्नो का ध्यान बंटा तो उसका जी हल्का हो गया. धीरे-धीरे दोनों की बातों का दायरा बढ़ता गया. अपने-अपने कॉलेज की बातें, सहेलियों के क़िस्से, फिल्मों की बातें… न जाने क्या क्या बातें होने लगीं. वक़्त का पता ही न चला. न ही बिन्नो को यह ध्यान रहा कि वह अपनी ससुराल में है. अचानक बात करते-करते मंजू ने चक्की ताई की नकल उतारी. बिन्नो का तो हंस-हंसकर बुरा हाल हो गया. उसके ठहाके उसके कमरे से होते हुए शायद नीचे तक पहुंच गए, जिसका पता तब चला जब बुआजी दहाड़ी, "देखो तो, कैसे खी-खी कर रही हैं मुंह फाड़ के. इतना भी ख़्याल नहीं है कि घर में मेहमान बैठे हैं. किसने कहा था भाभी, यह डेढ़ बित्ते की लड़की उठा लाने को… घरवालों ने ज़रा भी तमीज़ नहीं सिखाई."
बिन्नो की हंसी को ब्रेक लग गया. उसे ध्यान आया कि वह अपने सुसराल में है, पर तब तक देर हो चुकी थी. उसकी सास ऊपर आ चुकी थी. आते ही उन्होंने मंजू को डांटा, "क्या खी-खी लगा रखी है. तुझे बिन्नो को आराम कराने के लिए भेजा था. ऐसे भी भला हंसा जाता है कि पूरा मोहल्ला सिर पर उठा ले."
डांट तो मंजू को पड़ी थी, पर बिन्नो जानती थी कि निशाना वही थी. सास अपना कठोर चेहरा लेकर वापस चली गई. मंजू भी मां की डांट खाकर खिसक ली.
बिन्नो को मायके की याद आ गई. एक दिन उसने घर भर से रूठ कर मौनव्रत धारण कर लिया था. न सिर्फ़ पूरा घर, बल्कि मुहल्ले की कुछ पड़ोसिनें भी आ गई थीं यह पूछने कि आज बिन्नो घर पर नहीं है क्या? उसकी हंसी नहीं सुनाई पड़ी. पापा ने ऑफिस से आते ही पूछा, "तेरी तबियत तो नहीं ख़राब है आज तेरे ठहाके नहीं सुनाई पड़ रहे."
"नहीं ठीक हूं."
"तो फिर बेटा, हर समय हंसती ही रहा कर. तेरी हंसी की आवाज़ बंद होती है, तो मुझे घबराहट होती है कि कहीं तू बीमार तो नहीं है."
एक मेरा पीहर था, जहां मेरी हंसी की इतनी कद्र थी और एक यहां… अकेले कमरे में वह फूट-फूट कर रोने लगी. आख़िर छोटी सी बच्ची ही तो थी बिन्नो. इतने अजनबियों के बीच में किससे कहे वह अपने मन की व्यथा… सभी नए लगते थे और पराए भी. संजू पर भी कितना विश्वास करे, कहीं उसी ने मम्मी से जाकर शिकायत कर दी तो? घर पर फोन करेगी, तो वहां सबको तकलीफ़ होगी. कितनी हिम्मत बंधाकर भेजा था सबने, "तू जिस घर की अमानत है, उसी घर में जा रही है. उस घर में तुझे मां मिलेंगी. अब वहीं तेरी मां है."
ऐसी भी कहीं मां होती है… बिल्कुल पत्थर, पहले तो कितनी बढ़-चढ़ कर बातें करती थीं, और अब? मेरे पापा को भी बुद्धू बनाया. बिन्नो रोते-रोते सो गई.
शाम को पांच बजे आंख खुली, तो उसका सिर भारी हो रहा था. ससुराल, शादी, पति, सासू मां, नया घर… कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था उसे. उसे अपनी सहेलियां, अपनी आजादी याद आने लगी.
ऐसी तबियत अगर उसके घर में हुई होती, तो उसने पूरा मोहल्ला सिर पर उठा लिया होता और पूरा मोहल्ला ही उसकी तीमारदारी में लग गया होता. उसका मन हो रहा था कि वह बस किसी तरह उड़ कर अपने घर पहुंच जाए, पर अभी तो उसे अपने घर जाने में एक हफ़्ता बाकी था. और फिर अगर वह चली भी गई तो कितने दिन रह लेगी वहां… हमेशा के लिए तो नहीं न. कितनी अजीब बात है लड़कियों के लिए. अपने घर में वह उम्रभर पराए घर की अमानत रहती है और जिस घर की अमानत है, वहां पराई जैसी लगती है. दरवाजे पर खटका सुन कर वह पलटी, तो देखा सास खड़ी थी. "कैसी तबियत है?"
"ठीक हूं." नपा-तुला जवाब दिया बिन्नो ने. एक तो नई बहू और फिर छोटी उम्र की होने के कारण वह डरती थी कि कहीं मुंह से कोई ग़लत बात न निकल जाए,
सास ने उसका चेहरा देखा तो चौंक गई, "अरे तेरी आंखें तो सूजी हुई हैं. तू रोई थी बेटा?"
ससुराल में अपने लिए पहली बार, 'बेटा' शब्द सुन कर बिन्नो की थोड़ी हिम्मत बंधी, बहुत रोकते हुए भी उसका चार दिन का दबा हुआ उबाल उनके होंठों पर आ ही गया. उसने रुंधे गले से कहा, "मां! एक बात पूंछू."
"पूछ."
"पैदा होने के बाद से ही लड़कियों को कहा जाता है कि वह पराया धन है… पराई अमानत है… उन्हें पराये घर जाना है… जो उनका असली घर है और जब मैं इस घर में आई, जिस घर की मैं अमानत थी, तो मुझे अपनाए जाने में सबको बड़ी कठिनाई हो रही है. मैं अपने मायके में सारी ज़िंदगी पराई अमानत रही और अब यहां भी पराई हूं, कौन सा है मेरा असली घर?"
बिन्नो की सास उसे थोड़ी देर घूरती रहीं.
कुछ न बोलीं, 'शायद मां के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है या मैंने ही कुछ ग़लत पूछ लिया' बिन्नो ने घबराकर सोचा. बिन्नो की सास बिना कुछ बोले उसकी आलमारी से कपड़े निकालने लगी.
"मैंने आलमारी से तेरे कपड़े निकाल दिए हैं. यही पहन कर नीचे आ जाना." उसकी सास इतना आदेश दे कमरे से बाहर निकल गई. इसके अलावा कुछ न बोली. उनका चेहरा और कठोर हो गया था.
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सीढ़ी सीधी ड्रॉइंगरूम में उतरती थी. बन्नो ने जैसे ही सीढ़ी पर कदम रखा, सारे मेहमानों की सांस ऊपर की ऊपर ही रह गई. बिन्नो सफ़ेद जींस और काली टी-शर्ट पहने हुए नीचे उतर रही थी. खुले बालों में वह एकदम बच्ची लग रही थी.
सबसे पहले बुआजी ही दहाड़ी, "अरे भाभी! देखा तो अपनी लाडो…"
इससे पहले कि बुआजी अपना वाक्य पूरा कर पातीं बिन्नो की सास की आवाज़ गूंजी, "यह कपड़े मैंने ही उसे निकाल कर दिए है., देखो तो कितनी प्यारी लग रही है." बुआजी कहां माननेवाली थीं, पूरा गुबार निकालने पर उतारू थीं, "ये! क्या गज़ब कर रही हो भाभी। इतने मेहमानों के सामने कुछ तो ख़्याल कर लिया होता."
"कर लिया बहुत ख़्याल. जिसने जैसा कहा, मैंं उससे वैसा ही कराती रही. उसका आना-जाना, हंसना-बोलना, पहनना-ओढना सब पर अंकुश लगा दिया था आप लोगों ने. जैसा आप सबने आदेश किया, उस बेचारी ने माना… बिना चूं किए चार दिन में आप लोगों का ख़्याल करके मन मसोस कर रही. पलट कर कुछ भी नहीं कहा. आप लोगों ने बहू बना कर रखा उसे, पर मैं बेटी लाई थी घर में, बहू नहीं. अगर आप सबके बहू के अरमान अभी भी बाकी हैं, तो में अभी ज़िंदा हूं. आप लोग अपने अरमान मुझ पर निकाल सकते हैं. या अपने-अपने घर में अपनी बहुओं पर निकाल लें. मैं हूं आपकी बहू, यह नहीं. यह मेरी बहू है और इस पर मैं अपने अरमान निकालूंगी जैसे चाहूंगी वैसे रखूंगी. और मैं सबके सामने ऐलान करती हूं कि यह मंजू की जगह आई है और मंजू की तरह ही रहेगी… बहू की तरह नहीं. बिन्नो इस घर की अमानत थी और अब अपने घर में आ गई है." पूरी बात एक सांस में कही गई थी. सब सहम गए थे. किसी के मुंह से कोई भी बोल नहीं फूट रहे थे और बिन्नो की ख़ुशी का तो कोई पारावार ही न था… वह समझ गई थी कि चार दिनों से सासू मां की कठोरता मेहमानों के व्यवहार के लिए थी, उसके लिए नहीं, वह दौड़ कर उनसे लिपट गई.
- अनुराग डुरेहा
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