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कहानी- निर्मोक (Short Story- Nirmoka)

“आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है महाराज. यह रहस्य हमेशा मेरे ज़ेहन में संचित रहेगा.” अपने भीतर उठते उत्साह को दबाते हुए उसने महाराज को आश्वस्त किया.
महाराज ने उसे बताना शुरू किया. निर्बल के कान खुले हुए और आंखें रहस्य से भरे हुए उनके चेहरे पर टंगी हुई थीं.

गांव में यह ख़बर आग की तरह कभी नहीं फैली कि उस नाग ने निर्मोक उतार दिया है. क्योंकि उस रहस्यमयी नाग के बारे में सिवाय प्रजापति महाराज के किसी और को कोई जानकारी नहीं थी. क्योंकि वह नाग सिर्फ़ उन्हीं को नज़र आता था. उनकी मृत्यु के साथ ही जैसे वह रहस्य किसी गर्त में समा गया. और वह निर्मोक..! क्या वाकई में ऐसा कोई निर्मोक था जो..!
“लीजिए महाराज, आपके नए वस्त्र तैयार हैं.” प्रातः काल की स्वर्णिम वेला में महाराज कुंड से स्नान करके कुटिया में लौटे, तब उनके शिष्य निर्बल कुमार ने कहा, “आज कोई विशेष प्रयोजन लग रहा है, कहीं जा रहे हैं महाराज?”
प्रजापति महाराज की अपने शिष्य पर विशेष कृपा थी. उन्होंने काले वस्त्र धारण करते हुए कहा, “प्रयोजन हमेशा विशेष ही होता है. उचित समय आने पर सब कुछ बताऊंगा. मेरे लौटने तक आज कुंड की सफ़ाई करवा देना.” कहते हुए महाराज दक्षिण की ओर निकल गए.
प्रजापति महाराज का श्याम वर्णी भरा-भरा चेहरा, आंखों में समाया हुआ तेज, सिर पर घने लंबे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी और उम्र यही कोई साठ के क़रीब रही होगी. उनकी यह रहस्यमयी छवि लोगों में कई बार भय और कौतूहल उत्पन्न करती थी. उनके पास कुछ तंत्र विद्याएं भी थीं. उनके इस रंग-रूप के कारण कुछ लोग उन्हें अफ़लातून भी कहते थे. लोगों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि दार्शनिक दृष्टि से अफ़लातून का अर्थ ही रहस्य होता है.

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चमत्कारिक प्रयोगों के कारण आस-पड़ोस के गांवों में महाराज की ख्याति फैली हुई थी. उन्होंने गांव के बाहर एक विशालकाय वटवृक्ष के क़रीब अपनी कुटिया बना रखी थी. एक चुरुट और खप्पर वे नियमित अपने झोले में साथ लेकर चलते थे. तांत्रिक वाली छवि होने के बावजूद उनके प्रति लोगों में एक अजीब किस्म का आकर्षण था. यह उनके व्यक्तित्व का प्रभाव था और उनका हृदय भी निर्मल था.
मनुष्य का व्यक्तित्व दो तरह का होता है. एक सामान्य जो हमें नज़र आता है. और दूसरा ओढ़ा हुआ. मनुष्य इस ओढ़े हुए व्यक्तित्व से प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहता है और कुछ हद तक वह इसमें सफल भी होता है, लेकिन लोक जीवन में तो उसकी यह तस्वीर साफ़ होती है.
एक दिन यह ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व उसे भीतर तक आहत करता है और निराशा से भर देता है. वह कुंठित और हताश होकर छटपटाने लगता है. सब कुछ जानते हुए भी इस निर्मोक को उतार फेंकने का साहस उसमें नहीं होता है. लेकिन अंततः प्रकृति एक दिन उस निर्मोक को हटा ही देती हैं और उस व्यक्ति के चेहरे पर पड़ी भ्रम की धुंध छंटने लगती है. सारी दुनिया उसे अधूरेपन की कहानी लगती है. हृदय दर्पण में अपना गिरा हुआ प्रतिबिंब देख, वह शून्य की यात्रा पर निकल जाता है.
प्रजापति महाराज दिन ढलते-ढलते घर लौट आए. अपने आसन पर आराम करते हुए, थोड़ी देर चुरुट उनके हाथ में रहा, फिर उसे एक तरफ़ रख दिया. धुआं कुटिया में इधर-उधर बिखरा हुआ था. उस वक़्त की दिव्य प्रभाव वाली महाराज की छवि में निर्बल को कोई कहानी तस्नीफ होती नज़र आ रही थी.
“महाराज! मैंने कुंड की सफ़ाई करवा दी है.” कहते हुए वह उनके पैर दबाने बैठ गया.
“प्रिय निर्बल! मैं पूरे गांव में तुम्हारे सेवाभाव से प्रसन्न हूं. तुम्हें आज एक रहस्य बताना चाहता हूं. सनद रहे, इस बात का पटाक्षेप कहीं और ना हो; अन्यथा तुम नाम से ही नहीं, भौतिक रूप से भी बलहीन हो जाओगे.”
“आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है महाराज. यह रहस्य हमेशा मेरे ज़ेहन में संचित रहेगा.” अपने भीतर उठते उत्साह को दबाते हुए उसने महाराज को आश्वस्त किया.
महाराज ने उसे बताना शुरू किया. निर्बल के कान खुले हुए और आंखें रहस्य से भरे हुए उनके चेहरे पर टंगी हुई थीं.

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उन्होंने कहा, “एक बार तंत्र विद्या के दौरान एक विचित्र नाग उत्पन्न हुआ. उसकी खासियत यह है कि उसके जीवन का अंतिम निर्मोक स्वर्ण का होगा. मैं चाहता हूं कि वह निर्मोक तुम्हें प्राप्त हो.”
“वह नाग कहां है अभी महाराज?” निर्बल कुमार की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.
“इतने अधीर न हो वत्स. अमूल्य और वांछित वस्तु की प्राप्ति हेतु कई बार इंतज़ार के ताप में तपना भी पड़ता है. धैर्य रखो.”
“महाराज! फिर नाग को देखे बिना मुझे कैसे ज्ञात होगा कि उसने निर्मोक उतार दिया है?”
“वह नाग तुम्हें अपनी इसी कुटिया में मिलेगा. समय के गर्भ पर अभी पर्दा रहने दो. तुम सिर्फ़ कल्पना करो कि जिस दिन तुम्हारे हाथ में वह स्वर्णिम निर्मोक होगा, तुम्हारे उत्साह का पारावार कितना विराट होगा! लेकिन याद रहे, स्वर्ण पाकर जीवन में छद्म निर्मोक कभी मत ओढ़ना.”
महाराज की बात सुनकर उसकी आंखें रहस्यमयी पीलेपन से चुंधिया गईं. महाराज ने उसकी स्थिरता को भंग किया, “जाओ बहुत देर हो गई है. अब आराम करो.”
वक़्त बीतते देर कहां लगती है. दिन, महीने, साल गुज़रते गए. महाराज पचहत्तर वर्ष के हो गए थे. इधर निर्बल कुमार का एक-एक दिन, एक साल की तरह निकल रहा था. एक दिन महाराज ने जान लिया कि उनका अंतिम समय निकट है. उन्होंने निर्बल कुमार को अपने पास ही रुकने को कहा.
रात का दूसरा पहर और निशिथ काल का समय. रात की निरवता में रजत चांदनी की आभा में कुटिया दुग्ध-धवल हो रही थी. निर्बल महाराज के पैर दबा रहा था.
“निर्बल, आज मेरे प्राण-पखेरू उड़ते ही तुम्हें निर्मोक प्राप्त होगा. अपना हाथ दो, मैं अपनी तंत्र विद्या तुम्हारे भीतर स्थानांतरित करता हूं. इसका प्रयोग मनुष्यता की रक्षा के लिए करना.” कहते-कहते महाराज अनंत में लीन हो गए. उनका शरीर एक रहस्यमयी नाग में बदल गया. निर्बल कुमार भयभीत हो उठा. उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें तैर आईं.

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इधर देखते ही देखते नाग भी निर्मोक उतार कर विलुप्त हो गया. अब स्वर्णिम निर्मोक और महाराज की तंत्र विद्या ही नहीं, वह खप्पर और चुरुट भी निर्बल के पास हैं. महाराज की अलौकिक छवि उसके हृदय में दस्तक दे रही थी. उसकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली. लेकिन क्या निर्बल भी महाराज की तरह निर्मोक छोड़कर जाएगा..?

डॉ. एस.डी. वैष्णव

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Photo Courtesy: Freepik

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