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कहानी- नीटू (Short Story- Neetu)

"बड़ी मां… मेरी मेज़ पर यह पत्रिका पड़ी थी. आप तो पत्रिका पढ़ने पर डांटती है, इस कारण मैंने इसे नहीं पढ़ा, पर संध्या दीदी ने पढ़ा है. वह मुझे बता रही थीं कि इसमें एक लेख छपा है, जिसे यदि मैं पढ़ लूं, तो आगे होने वाली एक घटना से सचेत हो जाऊंगी. वह घटना कौन-सी है बड़ी मां… क्या मैं पढ़ लू?"
निशि के दिमाग़ में मानो किसी ने हथौड़ा मार दिया हो, ऐसा महसूस हुआ. जो बात कहने में वह पंद्रह वर्षीया लड़की और सोलह वर्षीय लड़के की मां होकर संकोच कर रही थी. उसे उसकी ही बेटी ने इतनी सहजता से लेकर अपनी छोटी बहन को समझा चुकी है.

"मैंने एक बार कह दिया कि नहीं जाऊंगी तो क्यों आप लोग मेरे पीछे पड़े हैं?" नीटू ग़ुस्से से पांव पटकती हुई सोफे पर धम्म से गिर गई. उसकी मां जया का चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया. उनका जी चाहा कि नीटू की जमकर पिटाई कर दे. सामने उनके जेठ-जठानी जाने को तैयार खड़े थे. सभी जा रहे थे, पर नीटू जाने को तैयार ही नहीं थी.
"आगरा में रहना भी एक मुसीबत है जो आए, उसके साथ ताजमहल जाओ. ख़ुद जाओ न, हमें क्यों घसीटती हो?"
"मां यह चित्रहार देखने के लिए रुक रही है." डब्बू ने शिकायत कर दी, तो नीटू और उफन गई. तब भी जया बराबर उसे चलने को कहती रही.
आख़िर नीटू 'नहीं जाऊंगी' का ऐलान करके वहीं पसर गई.
"छोड़ो जया, नीटू का मन नहीं है, तो रहने दो. घर पर ही रहने दो उसे." जया की जेठानी निशी ने जया का हाथ पकड़ कर उसे चलने को प्रेरित किया.
नीटू के पिता घर पर नहीं थे. एक उन्हीं से नीटू थोड़ा-बहुत डरती थी, वरना मां एवं डब्बू को तो वह घास भी नहीं डालती थी.
जया बाहर निकली, तो अपमान एवं क्रोध में उसकी आंखें डबडबा आई. यह लड़की जाने किस मिट्टी की बनी है. इसका प्यार-दुलार करते है, हर इच्छा पूरी करते हैं, पर जब-तब इसका दिमाग ख़राब हो जाता है. ज़रा ज़रा सी बात पर क्रोध करने लगती. डब्बू से लड़ती, मां को मुंह चिढ़ाती. कभी कपड़े बेमन के आ जाते तो उन्हें पहनना तो तो दूर, छूती भी नहीं. जया बच्चों को मारने के पक्ष में नहीं थी, पर जब नीटू बहुत तंग करती तो वह उसकी पिटाई कर देती. आश्चर्य तो उसे तब होता, जब बजाय रोने के नीटू पत्थर बनी सब सुनती-देखती रहती.
जया अपने पति सुधाकर एवं बच्चों के साथ आगरे में थी. दशहरे की छुट्टियों में उसके जेठ-जेठानी भोपाल से आए थे. जया चाहती थी, नीटू भी अन्य बच्चों की तरह मां का हाथ बंटाए. प्रसन्नचित्त होकर घर में आए लोगों से प्यार से बोले, पर नीटू खेलते-खेलते कब बिगड़ जाती, वह जान ही नहीं पाती.
रात में जया लौटी तो खाना बनाकर सचको खिला-पिला कर नीटू के कमरे में गई. वह बिस्तर पर औंधी पड़ी सो रही थी. उसकी स्कर्ट एक टांग से ऊपर उठ गई थी. युवा होती पुत्री का कोमल-चिकना पैर देखकर जया सन्न रह गई. शरीर के विकास के साथ इस लड़की का मस्तिष्क क्यों नहीं विकसित हो रहा है? ११-१२ वर्ष के बाद लड़कियों में जो शर्मीलापन झलकने लगता है, नीटू में उसका सर्वथा अभाव था.

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क्रोध करते-करते दिन-रात मुंह चिढ़ाने से बचपन की भोली चितवन भी अब दबने लगी थी.
दोपहर में निशि जया के पास आकर बैठ गई.
"नीटू स्कूल से कब लौटेगी?"
"तीन बजे."
"खाना वह अकेले खाती है या…"
"नहीं, हम सभी साथ खाते हैं. नूपुर तो छोटी है, पर डब्बू और नीटू जब आते हैं, तभी हम खाना खाते हैं."
"जया, नीटू का स्वभाव बचपन में तो ऐसा न था."
"नहीं भाभी. बचपन में पता भी नहीं चला, क्योंकि ये उसकी हर ज़िद पूरी कर देते थे. फिर नूपुर काफ़ी बाद में पैदा हुई इस कारण इसे सबका प्यार मिलता रहा. जाने क्यों, इधर कुछ सालों से इसका क्रोध ज़्यादा हो गया है. जो कुछ भी मैं कहूंगी, यह उसका उल्टा करेगी."
"तो नीटू नूपुर से चिढ़ती भी होगी कि उसके आ जाने से नीटू को प्यार मिलना कम हो गया, जैसा कि वह समझती है."
"नहीं भाभी, यही तो आश्चर्य है. नीटू नूपुर को बेहद प्यार करती है. नीटू के सामने उसे कोई कुछ कह नहीं सकता. हां, डब्बू से चिढ़ती है. वह 'क' बोलेगा तो यह 'ख' बोलेगी."
तभी दरवाज़े की घंटी बजी और जया 'बच्चे आ गए…' कहती हुई दरवाज़ा खोलने चली गई. डब्बू और नीटू ने अंदर प्रवेश किया. नीटू निशि को देखकर मुस्कुराई.
"नीटू, बड़ी मां ने अभी खाना नहीं खाया है." जया बोली.
"क्यों बड़ी मो?"
"हमने सोचा, जितने दिन है, खाना सब साथ ही खाएंगे."
हंसकर नीटू अपना बैग रखकर हाथ-मुंह धोने चली गई.
"दीती… तुमाला तपड़ा…" नीटू ने नूपुर से कपड़ा लिया और हंस दी.
"पगली… यह तो सिर्फ़ स्कर्ट है, टॉप भी तो ला.." नूपुर कुछ समझी, कुछ नहीं की मनःस्थिति में फिर डुम-डुम करती चली गई. इस समय की नीटू ज़िद और क्रोध करनेवाली नीटू से सर्वथा भिन्न थी.
खाने की मेज़ पर बैठते ही नीटू ने ज्यों ही घुइया के कोफ्ते देखे, उसके माथे पर बल पड़ गए, "बस, डब्बू की पसंद आपको याद रहती है. मैं तो गधी हूं न, घास खाती हूं."
"नीटू, बाबूजी घर में ही है." जया गुर्राई.
"हुहं…" करके नीटू बेमन से खाना खाने लगी. जया के चेहरे पर फिर सफ़ेदी आ गई थी. खाना खाने में उसका मन नहीं लगा, क्या सोचेगी उसकी जेठानी? अम्मा-बाबूजी तक बात जाएगी, तो वे लोग यही सोचेंगे कि हमने लड़की को सिर चढ़ा रखा है. हो सकता है, नीटू को बुला ही लें. बाबूजी की बात तो सुधाकर भी टाल नहीं सकते. चारों तरफ़ उसकी हंसी उड़ेगी. नीटू के स्वभाव की चर्चा यूं ही होती रही, तो कल को रिश्ते भी नहीं मिलेंगे. कई बार उसने सोचा था कि वह नीटू को छात्रावास में डाल दे, पर इसका अर्थ था नीटू के अंदर इस बात को पुख्ता करना कि उसे लोग प्यार नहीं करते. जया उठी और खिड़की के पास जाकर बैठ गई. उसका उतरा चेहरा देख कर निशि ने पूछा, "जया, नीटू का आचरण स्कूल में कैसा है?"
"अच्छा है भाभी. मैं कई बार उसकी अध्यापिका से मिली हूं. उन्होंने कभी इस तरह की शिकायत नहीं की."
"सुनो, नीटू को इस बार छुट्टियों में तुम मेरे पास भेज दो. मैं जाकर पत्र डालूंगी. फिर फोन भी कर दूंगी."
नीटू अब मात्र जया की नहीं, निशि की भी समस्या हो गई थी. जया का उतरा चेहरा, घर भर की अशांति और केंद्र में नीटू को देखकर निशि ने उसे अपने यहां बुलाकर सुधारने की कोशिश करनी चाही.
छुट्टियों में नीटू को बाबूजी भोपाल छोड़ आए. जाते समय नीटू बहुत प्रसन्न थी डब्बू चिढ़ा भी कि बड़ी मां ने उसे क्यों नहीं बुलाया. पर मां के समझाने पर कि अगली छुट्टियों में तुम चले जाना, डब्बू मान गया.
बड़ी मां के घर का वातावरण नीटू को बुरा नहीं लगा. काफ़ी दिनों बाद वह आई थी. वैसे भी उसका स्वभाव ऐसा था कि वह जिस जगह चाहती, रह लेती. नहीं तो अपना ही घर कुरुक्षेत्र बना देती. दो-तीन दिन तो नीटू को घूमते ही बीते. उसने देखा, घूमने के लिए बड़ी मां ने जब अपनी बेटी संध्या से कहा तो वह फ़ौरन तैयार हो गई, पर नीटू के लिए इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं था. उसके सामने तो भूलकर भी किसी अगले की तारीफ़ कर दो, तो वह सब पर भारी पड़ता.
एक दिन खाने की मेज़ पर जब बड़ी मां ने खाने के डोंगे रखे, तो संध्या चहक कर बोली, "भइया, आज मां ने तुम्हारे और नीटू के मनपसंद खाने बनाए है."
"मतलब मूंग की कचौड़ी और चने की दाल." संध्या का भाई सुदीप बोला.
"हां, और नीटू के लिए हलुआ…"
"रहने दो, मुझे नहीं खाना हलुआ. क्या मेरे घर में हलुआ नहीं बनता, जो तुम बनाकर एहसान जता रही हो."
"नीटू…" निशि ने सख्ती से कहा, तो नीटू ग़ुस्से में पांव पटकती अंदर चली गई.
सबका रुख संध्या की तरफ़ हो गया और वह अपने कहे शब्दों पर झेंप कर नीचे देखने लगी.
सुदीप नीटू को मनाने उठा, पर निशि ने टोक दिया, "नहीं, उसे जाने दो."
फिर ज़ोर से बोली, "नीटू, हम तुम्हारी पंद्रह मिनट तक प्रतीक्षा करेंगे. फिर कोई खाना नहीं खाएगा." सब यूं ही शांत बैठे रहे. गरम खाने से उठती भाप सबके चेहरों को गरमाती रही.
अपनी उलझन एवं सोच में डूबे सब शांत रहे. पांच मिनट बीते, दस मिनट बीते… और पंद्रह मिनट के पूर्व ही अप्रत्याशित रूप से नीटू कमरे से निकली, तो सबको बैठा देखकर ठिठक गई. उसने तो सोचा था, बड़ी मां ने यूं ही कह दिया होगा. ज़्यादा से ज्यादा बड़ी मां बैठी होंगी. संध्या एवं सुदीप ने तो खा लिया होगा. पर यहां सबको अपनी प्रतीक्षा में बैठा देख वह दंग रह गई. चुपचाप अपनी जगह पर बैठ कर वह खाना परोसने लगी. निशि के होंठों पर पहली सी मुस्कान फैल गई.
बड़ी मां के घर पर नीटू को कभी-कभी बहुत अकेलापन खलता. यहां सिर्फ़ टीवी था. टीवी भी यहां कम खोला जाता. बच्चे पढ़ रहे हों, तो कितना भी अच्छा कार्यक्रम क्यों न हो, बड़ी मां टीवी न खोलतीं व किसी बच्चे को इससे कोई नाराज़गी या शिकायत भी न होती.
एक दिन शाम को संध्या तुनकती हुई निशि के पास पहुंची, "मां, नीटू को समझा दो. कितनी उजड्ता से बात करती है."

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"संध्या," बड़ी मां ने डांट लगाई,
"पहले ढंग से बात करो, वह तुम्हारी छोटी बहन है."
"हां मां, इसी से तो उससे मैं कुछ कहती नहीं, तुमसे कह रही हूं. आज मेरी सहेली लता से इसकी ख़ूब बहस हुई है."
"क्या किया इसने?"
"कहती है, मिथुन का कोई मुक़ाबला ही नहीं है. आमिर खान तो उल्लू लगता है."
"तो क्या आमिर खान उल्लू हो गया उसके कहने से?"
"नहीं म… लता लड़ पड़ी. उसे आमिर खान पसंद है और नीटू को मिथुन. नीटू ने कह दिया, तुम्हारा आमिर खान न हमारे मिथुन के आगे पानी भी नहीं भरता. बस, लता ग़ुस्सा होकर चली गई."
कैसी बचकानी उम्र होती है यह. कैसे झगड़ा सुलझाए वह. निशि की समझ में नहीं आ रहा था. बात आमिर या मिथुन की नहीं, विचारों की थी. इतनी छोटी सी उम्र में फिल्म के प्रति इतनी जिज्ञासा. यह उम्र है बढ़ते पौधों की शाख को सावधानीपूर्वक रखने एवं देखने की. कोई शाख कमज़ोर अवस्था में ही किसी पेड़ से उलझकर टूट न जाए,
उस दिन निशि बैठी बच्चों के उघड़े कपड़ों सिलाई कर रही थी कि तभी नीटू उसके पास आकर बैठ गई.
"क्या कर रही हैं बड़ी मां?"
"कपड़े फट गए हैं. ठीक कर रही हूं."
"अच्छा बड़ी मां, आप बताइए, मिथुन अच्छा है या आमिर खान?" नीटू की जिज्ञासा अभी तक शांत नहीं हुई थी.
"दोनों ही कलाकर हैं नीटू, फिर दर्शकों की पसन्द अलग-अलग होती है. किसी को अमिताभ अच्छा लगता है, किसी को गोविन्दा. तुम्हें जो पसन्द है, उसे देखो, पर दूसरे कलाकारों का उपहास नहीं उड़ाना चाहिए."
कुछ सोच कर निशि ने उधड़ी आस्तीन उसे थमा दी, "लो, नीटू, इस पर तुरपन कर दो."
"बड़ी मां, मुझे तो सिलाई आती नहीं."
"क्यों, अपनी गुड़िया का फ्रॉक तुमने नहीं सिला कभी?"
"मेरे पास तो ऐसी कोई गुड़िया ही नहीं है. काफ़ी महंगी लाए थे पापा, इसलिए वह बस शो केस में रखी रहती है. बाकी तो ज़्यादातर पापा के लाए खिलौने ही हैं, जिनसे मैं खेलती थी."
निशि को लगा, डब्बू के तुरन्त बाद नीटू के हो जाने से डब्बू की अधिकांश पुरानी चीज़ें नीटू के हिस्से में आ गई थी. फिर काफ़ी वर्षों बाद नूपुर के होने से फिर कई नई चीज़ें नए खिलौने घर में आए. जिसे नीटू ने गहराई से महसूस किया और माता-पिता और डब्बू से चिढ़ने का कारण भी शायद यही रहा. भाई एवं बहन के बीच उसे अपनी स्थिति डांवाडोल नज़र आई.
एक बार जया ने बताया था कि वे लोग नीटू को बहुत प्यार करते थे, वह थी भी बहुत प्यारी. इस कारण जो भी आता, वही उससे खेलता था. फिर छोटी के आ जाने के बाद सारे दुलार का केन्द्र नूपुर हो गई. अब नीटू को लगने लगा कि उसके मां एवं पिताजी अब उसे प्यार नहीं करते. नीटू के क्रोध का कारण उसका अकेलापन भी था. उसके घर के आसपास कोई ऐसा घर नहीं था, जहां उसकी हमउम्र कोई लड़की रहती हो. स्कूल की सहेलियां दूर-दूर रहती थीं, जहां अकेले मां उसे जाने नहीं देती थी. इस कारण अपने अकेलेपन से ऊब कर कभी पिक्चर, कभी पत्रिका से वह उलझी रहती थी.
जया तीन बच्चों को देखने में ही इतनी थक जाती थी कि नीटू क्या कर रही है, इस तरफ़ उसका ध्यान ही न जाता. जब नीटू अपने को असहाय पाती, तो जान-बूझकर ऐसी हरकत करती कि मां का ध्यान उसकी ओर चला जाता. चूंकि हरकत ख़राब होती, इसलिए उसे डांट पड़ती. यह सिलसिला जो चला तो चलता ही गया. अब न वह कोई अच्छा काम करती, न जया को आशा थी कि नीटू ग़लत हरकत के सिवा अच्छा भी कुछ कर सकती है.
नीटू ने महसूस किया कि शाम को संध्या और सुदीप दोनों ही अपने-अपने मित्रों के साथ अपनी रुचि के खेल खेलते हैं. कभी बैडमिन्टन, कभी कैरम, कभी दौड़, कभी अन्य कुछ. उनके मित्र आते तो उनके मध्य हर तरह की बातें होतीं. कभी मौसम पर, कभी किसी भ्रमण स्थल की, कभी अपनी पढ़ाई की.
उसे आश्चर्य होता कि कभी-कभी बड़ी मां भी उनमें शामिल होतीं और ख़ूब हंसी-मज़ाक होता. संध्या तथा सुदीप लगभग हमउम्र ही थे. नीटू से तीन-चार वर्ष बड़े, पर उनमें हल्की नोंक-झोंक होती, जो शीघ्र ही सुलह में बदल जाती.
निशि धीरे-धीरे नीटू को समझाने में सफल हो रही थी. उसने इस थोड़े समय में ही जो नीटू को समझ लिया था, वह शायद जया अपनी गृहस्थी से ज़रूरत से ज़्यादा जुड़ने के कारण नहीं समझ पाई थी.
एक बार निशि के दिमाग़ में आया कि जया को लिख दे कि नीटू को छात्रावास में डाल दे. वहां के अनुशासित नियमों एवं तौर-तरीक़ों से शायद वह सुधर जाए, पर फिर यह सोचा कि नीटू ने कही यह समझ लिया कि कोई उसे प्यार नहीं करता, इस कारण छात्रावास में डाल दिया है, तो शायद वह सुधरने की बजाय और बिगड़ जाए. इस बीच अपने अख़बार वाले से कह कर निशि ने नीटू के लिए सुमन-सौरभ और ज्ञानवर्धक प्रश्नावली की पुस्तकें मंगाना शुरू कर दिया. निशि के घर के पास एक पुस्तकालय था, जिसके संध्या एवं सुदीप सदस्य थे. वहां से भी नीटू के लिए ऐतिहासिक और शिक्षाप्रद पुस्तकें निशि मंगवाने लगी. इन पुस्तकों को पढ़ने में नीटू को इतना आनन्द आने लगा कि आश्चर्यजनक रूप से वह कभी-कभी शाम का चित्रहार देखना भूल जाती.
एक दिन अचानक बाज़ार में निशि की एक बहुत पुरानो सहेली सुधा उसे मिल गई. सुधा से पुरानी नई ढेर सारी बातें करके धकी-हारी निशि जब घर लौटी तो..
"बड़ी मां, खाना खाने चलिए. आज खाना मैंने एवं संध्या दी ने मिल कर बनाया है."
निशि ने गर्दन घुमाकर नीटू को देखा. बड़ी आंखों को समेटे भोला मासूम चेहरा, बिजली की तरह एक विचार उसके मस्तिष्क में कौंधा. हां, यह ठीक रहेगा. खाने के लिए उठते समय उसने सोचा, आज खाने की विशेष प्रशंसा भी उसे करनी होगी.
दूसरे दिन एक काम का बहाना करके निशि सुबह ही अस्पताल आ गई. सुधा तो उसे देखते ही खिल उठी. दोनों सहेलियों ने कुछ कही, कुछ सुनी. वर्षों पीछे के कल में दोनों ने एक साथ गोते लगाए. किसी के हाथ में मोती लगा, किसी के हाथ सिर्फ़ सीप या कंकड़ आए. इसी बीच निशि ने अपनी समस्या सुधा के सामने रख दी.
"तू डॉक्टर है. तू ज़्यादा अच्छी तरह यह समझ सकती है और राय भी दे सकती है कि हमे क्या करना चाहिए."
सुधा ध्यान से सुनती रही, फिर बोली, "यह समस्या कई लड़कियों की होती है. ज़्यादा प्यार या ज़्यादा बंदिश, इनसे होकर गुज़रते बच्चे इस समस्या के घेरे में ज़्यादा आते हैं. किसी को आसमान पर बिठाकर एकदम से ज़मीन पर खींच लीजिए या ज़मीन से उठाकर एकदम से आसमान पर बिठा दीजिए, दोनों ही स्थिति व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगाड़ने के लिए काफ़ी है. तुम बता रही हो, नीटू बचपन में बहुत प्यारी थी, हर कोई उसे प्यार करता था.
ऐसे में तीसरे बच्चे के आ जाने से उसे अपना प्यार छिनता महसूस हुआ. ऐसे में बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है. उसके एक-एक पल को समझने की, उसे समय के अनुरूप ढालने की उस कुम्हार की तरह, जो सांचे में ढाल कर मिट्टी को मनपसंद आकार दे देता है. अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. अच्छा बताओ, नीटू की उम्र क्या होगी?"

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"१२ वर्ष की हो गई है."
"मासिक धर्म तो अभी नहीं होता होगा?"
"नहीं."
"सुनो निशि, नीटू में सम्भवतः परिवर्तन हो सकता है. जब उसका मासिक धर्म शुरू होगा, उसके बाद."
"पर क्यों भला?"
"क्योंकि उस समय लड़की अपने अंदर एक बदलाव महसूस करती है और यह एहसास भी कि वह स्त्री है, इस तरह उसके अंदर स्त्री सुलभ लक्षण स्वयं प्रकट होने लगते हैं. नीटू में स्त्री की अपेक्षा पुरुष प्रवृत्ति के लक्षण ज़्यादा है. तुमने देखा होगा, कई लड़के लड़कियों की तरह शर्मीले, संकोची होते हैं, तो कुछ लडकियां लड़कों की तरह दबंग. आवाज़ में भारीपन लिए होती हैं. इनमें विपरीत सेक्स के हार्मोन्स ज़्यादा होते हैं, बजाय स्वयं लिंग के हार्मोन्स के. किसी लड़के में लड़‌कियों जैसे लक्षण मसलन, चिकने गाल… लचीलापन तो लड़कियों में दाढ़ी-मूंछ या अन्य शारीरिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगते हैं.
नीटू के साथ यह इतना नहीं जुड़ा है. उसमें परिवर्तन आया भी तो इस कारण कि उसने महसूस किया कि घर में पिता एवं डब्बू का मान ज़्यादा है. तुमने बताया है कि डब्बू इतना उद्दंड नहीं है. पढ़ाई के बाद अपने दोस्तों में खेलने चला जाता है. इस कारण पुरुष स्वभाव से उसे ईर्ष्या हुई और वह पुरुषोचित हरकत जैसे तेज़ आवाज में चिल्लाना, उठा-पटक करना, पिता की तरह गरजना करने लगी, मानसिक रूप से वह पुरुष स्वभाव के ज़्यादा पास आ गई है.
हो सकता है, मां-बाप बच्चों को बराबर प्यार करते हैं, पर अपनी हरकत से नीटू ने अपने प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदल दिया है. न उसे अब किसी से प्यार की उम्मीद है, न घरवालों को उससे अच्छे कार्य की. सही बात भी उसे उल्टी नज़र आती है. अपने पिता को ऑफिस जाते, आराम से लोगों को अपनी बात मनवाते देखकर वह समझती है कि पुरुष होना ज़्यादा अच्छा है. जो बच्चे अच्छे कार्य के लिए प्रशंसा पाते हैं, उनकी तारीफ़ भी वह नहीं सुन पाती, क्योंकि उसकी प्रशंसा कोई नहीं करता. और अब अगर कोई उसकी प्रशंसा करेगा, तो उसे लगेगा कि वह उस पर व्यंग्य कर रहा है."
"तो क्या मासिक धर्म के बाद…"
"हां निशि… हो सकता है. तुम एक काम करो. आजकल महिला पत्रिकाओं में किशोरों की समस्याओं पर लेख निकलते हैं. मासिक चक्र पर भी लेख निकलते हैं. तुम उसे इस घटना के आने की जानकारी पहले से ही दे दो."
"पर मै…"
"वही संकोची स्वभाव. अरे, बच्ची को मां नहीं समझाएगी तो कौन समझाएगा. इतना पढ़-लिख कर भी यदि अपनी बेटी के शारीरिक परिवर्तन को तुम उसे बता नहीं सकतीं तो तुम्हारा पढ़ना बेकार है. तुम ऐसा करो, उसकी मेज़ पर इस तरह की पत्रिका चुपचाप रख दो. वह उसे पढ़कर इस घटना के लिए पहले से तैयार हो जाएगी. वर्ना संभव है, एकदम से यह घटना घटित होने पर वह और अस्त-व्यस्त हो जाए,"
निशि ध्यान से सुधा की बात सुनती रही.
"इसके बाद भी अगर तुम्हें परिवर्तन महसूस न हो, तो मुझे बताना, मैं उसे किसी मनोचिकित्सक से मिलवाऊंगी."
घर आकर निशि देर तक इस पर सोचती रही. संध्या तो इस दौर से गुज़र चुकी है, पर उसने उसमें कोई विशेष परिवर्तन महसूस नहीं किया था. प्रथम चक्र में वह घबराई थी. तब निशि ने उसे समझाया था. और वह शांत हो गई थी. पर यहां बात अलग थी, क्योंकि संध्या एवं नीटू के स्वभाव में भिन्नता थी,
निशि ने पुरानी पत्रिकाओं को छांटना शुरू किया. एक पुरानी महिला पत्रिका में उसे 'मासिक धर्म- एक स्वाभाविक प्रक्रिया' मिल गया. वह पत्रिका ले जाकर उसने नीटू की मेज़ पर रख दी, कुछ इस तरह कि जब नीटू पढ़ने बैठे तो उसकी नज़र उस पर ज़रूर पड़े.
शाम को वह सब्ज़ी बना रही थी, जब नीटू उसके पास आई. चेहरा उतरा हुआ था.
"बड़ी मां, आज मुझे मां की याद आ रही है."
"अब तो तुझे जाना ही है नीटू, दो दिन ही तो बचे हैं. तेरे बड़े बाबूजी तुझे छोड़ आएंगे, पर फिर जल्दी ही आना." उसके सिर पर हाथ फेरते हुए निशि बोली.
"बड़ी मां… मेरी मेज़ पर यह पत्रिका पड़ी थी. आप तो पत्रिका पढ़ने पर डांटती है, इस कारण मैंने इसे नहीं पढ़ा, पर संध्या दीदी ने पढ़ा है. वह मुझे बता रही थीं कि इसमें एक लेख छपा है, जिसे यदि मैं पढ़ लूं, तो आगे होने वाली एक घटना से सचेत हो जाऊंगी. वह घटना कौन-सी है बड़ी मां… क्या मैं पढ़ लू?"
निशि के दिमाग़ में मानो किसी ने हथौड़ा मार दिया हो, ऐसा महसूस हुआ. जो बात कहने में वह पंद्रह वर्षीया लड़की और सोलह वर्षीय लड़के की मां होकर संकोच कर रही थी. उसे उसकी ही बेटी ने इतनी सहजता से लेकर अपनी छोटी बहन को समझा चुकी है.
उसने नीटू के हाथ से पत्रिका ले ली. गैस बंद की और उसे लिए बाहर बगीचे में आ गई. अब पुस्तक नहीं, व्यावहारिक रूप से वह इस बच्ची को समझाएंगी. उसकी ख़ुद की बच्ची ने उसे जता दिया है कि वह मां है. उसे अपने बच्चों को समझाना है.
कुछ दिन पूर्व ही निशि ने माली से मंगवाकर एक पौधा लगाया था, जो अब हवा के झोंके पर लहलहाने लगा था.
"देखो नीटू इस पौधे को यह अभी छोटा है. कुछ दिन बाद यह बड़ा होगा. उस पौधे की तरह, जिसमें छोटी-छोटी कोंपले निकल रही हैं." दूसरे पौधे की तरफ़ संकेत करते हुए निशि ने बताया.
"फिर धीरे-धीरे यह बढ़ता ही जाएगा. यह स्वाभाविक प्रक्रिया है. इस पौधे को कोई नहीं बताता कि कब वह फल देने योग्य होगा. प्रकृति उसे स्वयं यह एहसास करा देती है कि अब वह फल दे सकने योग्य हो गया है. अब अगर यही पौधा हवा के रुख पर ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगे, तो शायद ज़मीन से उखड़ जाएगा. इसके आसपास लगे बड़े वृक्ष अपनी आड़ से हवा का रुख रोक कर इस पौधे की रक्षा करते हैं. इसी तरह मानव शरीर है. तुम भी एक पौधे की तरह हो. कल तुम्हारे अंदर भी शारीरिक परिवर्तन होगा, जिनसे तुम्हें घबराना नहीं है, वरन् इसे एक स्वाभाविक प्रक्रिया समझकर ख़ुशी से ग्रहण करना है. एक बात का ध्यान देना है कि हर चीज़ समय से होती है. न बिना समय पूरा हुए पौधे पर फूल उग सकता है, न मानव बच्चे से एकदम बड़ा हो सकता है. ज़बरदस्ती बड़े होने की प्रक्रिया में बहुत कुछ नष्ट हो सकता है. संभव है, पौधा कभी फल देने के योग्य ही न रहे. इसलिए कहती हूं नीटू कि समय की प्रक्रिया में अपने अंदर हो रहे शारीरिक परिवर्तन को समझ कर उसके अनुसार आचरण करना चाहिए."
निशि देर तक नीटू को समझाती रही. तभी अंदर से संध्या और सुदीप भागते हुए आए.
"ओ मां… आप लोग यहां बैठी हैं. हम सारे घर में आपको ढूंढ़ आए."
"चलो अंदर चलते हैं."
"मां… परसों नीटू चली जाएगी. वीसीआर तो दिखा दो." संध्या चलते-चलते बोली.
"ठीक है, कौन-सी फिल्म देखनी है, बता देना. ठीक?" सबने नीटू की तरफ़ देखा तो वह हंस कर चुप हो गई.
नीटू के जाने के समय सभी बहुत उदास थे. विशेष रूप से स्वयं नीटू भी. स्टेशन पर गाड़ी के ओझल हो जाने तक संध्या एवं सुदीप हाथ हिलाते रहे.
निशि ने जया के नाम एक व्यक्तिगत पत्र भेजा, जिसमें लिखा था-
प्रिय जया,
नीटू अब समस्या नहीं रही. सख्ती से तो वह और बिगड़ जाती. मैंने अपनी सहेली डॉ. सुधा से बात की है. संभवतः नीटू कुछ दिनों बाद और बदल जाए, सीधी हो जाए. नीटू को तुम अकारण ज़्यादा प्यार या सहानुभूति देकर 'बेचारी' की पदवी में न ला पटकना. वह ज़्यादा संवेदनशील है. इस कारण तुम अपने घर के काम में कटौती करके उस पर पूरा ध्यान दो. उसकी छुट्टी होने पर उससे काम में सहयोग लो. तुम और सुधाकर मिलकर उसके साथ खेलो. कोशिश करो, डब्बू, नीटू एवं नूपुर एक-दूसरे के साथ ज़्यादा देर तक रहें, बात करें और एक-दूसरे को समझें. अपने हॉकर से कहकर बढ़ते बच्चों की पत्रिका मंगाकर उसे पढ़ने को दो.
बदलने की जिस प्रक्रिया में नीटू बढ़ रही है, उसमें तुम्हारा सहयोग निश्चित रूप से सुखद बदलाव लाएगा. छुट्टियों में स्वयं आऊंगी.
तुम्हारी भाभी.

- साधना राकेश

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