लतिका की आंखें हैरत से खुली रह गईं. ‘तो ये बात थी.’ जीवन को लतिका ने इस नज़रिए से कभी देखा ही नहीं था. साधारण रूप वाले अजीत का इतना ख़ूबसूरत पहलू देख वह भावुक हो उठी. फटाफट उसने मेल का जवाब टाइप करना शुरू किया.
लतिका को पार्क में इन्तज़ार करते पौना घण्टा हो गया. अब वो सोचने लगी कि वो नहीं आएगा… और इन्तज़ार बेमानी है, अब घर वापस चलना चाहिए. ये सोचकर उसने मां को देखा और वापस घर को चल दी.
अजीत ने ऐसा क्यों किया? ये सोचकर वो बेहद परेशान थी. पिछले कुछ महीनों की जान-पहचान के बाद अब उसे अजीत पर असीम विश्वास हो चला था. जान पहचान..? लतिका हंस पड़ी. अगर कोई उससे पूछे तो क्या जवाब होगा उसके पास? बस… है तो असीम विश्वास और वो भी ऐसा जैसे बरसों से एक-दूसरे को जानते हों, एक-दूसरे की पल-पल ख़बर रखते हों.
आपको भी ये जानकर हैरानी होगी कि लतिका अजीत से कभी नहीं मिली. मिलती भी कैसे? लतिका कहीं बाहर आती-जाती भी तो नहीं थी. बिल्डिंग की दसवीं मंज़िल से रोज़ाना उतरना कहां हो पाता था. उसके भइया-भाभी एक मल्टी नेशनल कम्पनी में काम करते थे. दो प्यारे-से भतीजे उसके आस-पास मंडराते नहीं थकते थे. घर में मां और लतिका दिनभर रहते, एक-दूसरे से सुख-दुख बांटते. शाम ढले जब उसके भइया-भाभी लौटते तो मां-बेटी पहले से ही नाश्ता-खाना तैयार रखतीं. किट्टू व चंकी भी खा-पीकर होमवर्क कर रहे होते. भाभी भी बहुत स्नेही थी. थकी-हारी होने के बावजूद सीधे मां के कमरे में जाती, तबीयत व हालचाल पूछती, उसके बाद ही कोई काम करती. यूं ही हंसी-ख़ुशी से दिन गुज़र रहे थे.
लतिका शुरू से ही पढ़ाई में औसत दर्जे की रही, इसलिए नौकरी के लिये कोई ख़ास मशक्कत नहीं की. घर-गृहस्थी के काम उसे ज़्यादा भाते थे. स्वेच्छा से उसने भइया की गृहस्थी की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. भाभी बहुत सुलझी व समझदार थी. उसके किसी काम में न तो वो दख़लअंदाज़ी करती थी और न ही लतिका. कुल मिलाकर सब ठीक चल रहा था.
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लतिका भइया के साथ कभी-कभी स्टडी में बैठती. कम्प्यूटर पर काम करने में उसकी रुचि थी. दोपहर के खाली समय में उसे नींद नहीं आती थी. इस व़क़्त वो भइया से सीखे कम्प्यूटर प्रोग्राम पर काम करती. इन्टरनेट पर तो घंटों बीत जाते. घर बैठे दुनिया से रू-ब-रू होना उसका मुख्य शौक हो गया. इसी बीच उसकी दोस्ती अजीत से हो गई. लतिका की उम्र तैंतीस पार कर रही थी.
सखी-सहेलियों का साथ तो सात-आठ वर्ष पूर्व ही छूट गया था. हां, ईमेल पर एक-दूसरे के सुख-दुख शेयर करने में ढेरों दोस्त बन गए. उन सबमें वो सबसे ज़्यादा अजीत से चैटिंग करती. शुरुआत में वह थोड़ी नर्वस थी. पुरुष मित्र के प्रति एक अजीब सा डर बैठ रहा था मन में, लेकिन समय के साथ विचारों का मेल और अजीत का शालीन व्यवहार लतिका को भाने लगा.
यूं ही सात-आठ महीने गुज़र गए. लतिका अजीत के जीवन के हर पहलू व स्वभाव से अब तक अवगत हो चुकी थी. किसी दिन उसका ईमेल न मिले, तो खाली-खाली लगता. मां को विश्वास में लेकर उन्हें सब कुछ बता चुकी थी, पर भइया-भाभी को बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. न जाने दोनों क्या सोचें.
संयोग से अजीत दिल्ली के पास का ही रहने वाला था. कभी उसे डर भी लगता कि कहीं घर का पता न लगा ले, अत: अपना पता एकदम सही नहीं बताया था उसने.
एक दिन वही बात हुई जिसका डर था. अजीत ने मिलने की मंशा ज़ाहिर कर दी. लतिका ने मारे डर के चार-पांच दिन तो मेल बॉक्स ही नहीं खोला. मां के बार-बार पूछने पर अपनी परेशानी बतलाई. मां भी सोच में पड़ गई. अपनी बेटी पर उन्हें पूरा विश्वास था, फिर भी अनजानी आशंका मन को व्यथित कर रही थी. अजीत भी तो अभी तक पराया ही था. उसे देखा तक नहीं था, कैसे विश्वास करें, क्या किया जाए? जैसे तमाम प्रश्न मन में उठ रहे थे. इस बार तो अजीत ने विवाह प्रस्ताव भी रख दिया था. अनजाने डर के साथ लतिका ने मन-ही-मन एक फ़ैसला किया और मां की सहमति ली. घर के पास के पार्क में मिलने का समय तय किया गया और अपनी पहचान के लिए पीले सूट और मां के भी साथ में होने की सूचना दे दी.
नियत समय पर किट्टू व चंकी का हाथ थाम, मां को साथ में लेकर लतिका पार्क पहुंच भी गई, पर वहां से खाली हाथ ही लौटना पड़ा, अजीत वहां आया ही नहीं.
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लतिका सोच में पड़ गई, क्या बात हो सकती है? बड़ी देर तक नींद नहीं आई. मां ख़ामोश थी, न उन्होंने कोई बात छेड़ी न लतिका ने. इस बात को भी वह पिछले सालों में देखे कई सपनों की तरह भुला देना चाहती थी. मन में उधेड़बुन थी तो बस यही कि बुलाया तो अजीत ने ही था, फिर आया क्यों नहीं?
अगली सुबह कुछ ख़ास नहीं थी. वही हर रोज़ के काम और सामान्य बातचीत. तीन बजे के क़रीब उसका मन बेचैन हो उठा. शायद अजीत का कोई मैसेज आया हो. कांपते हाथों से उसने अपना मेलबॉक्स खोला. उसकी आंखें शब्दों पर घूमती रहीं और आंसू आंखों में.
तो अजीत वहां आया था. पार्क में उसने लतिका को देखा भी था. काफ़ी देर रुकने के बाद बिना मिले चला गया. लतिका ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढंक लिया. आंसुओं से सराबोर आंखों में धुंधलका उतर आया. आगे पढ़ने की हिम्मत न हुई. मां कब पीछे आकर खड़ी हो गई पता ही नहीं चला. एहसास तब हुआ जब उनका कोमल स्पर्श कंधे पर महसूस हुआ.
मां के पूछने पर अक्षरश: लतिका ने वाकया कह सुनाया. मां की सांत्वना पर आगे पढ़ने की हिम्मत जुटाई- मैं आया था लतिका, लेकिन पार्क में पीले सूट में तुम्हें देखकर मैं चौंक गया. तुम्हारा पीले गुलाब समान खिला रूप, कमर तक लहराते बाल, तुम्हारे सधो-शालीन व्यक्तित्व के आगे मैं हीनताबोध से दब गया. मैं अति साधारण रूप का सामान्य व्यक्ति, वह भी विधुर, एक बच्चे का पिता और कहां तुम्हारा दमकता रूप… ये अन्याय होगा तुम्हारे साथ. मेरा तुम्हारे साथ किसी तरह का मेल नहीं. आशा है, तुम मुझे माफ़ कर सकोगी.
लतिका की आंखें हैरत से खुली रह गईं. ‘तो ये बात थी.’ जीवन को लतिका ने इस नज़रिये से कभी देखा ही नहीं था. साधारण रूप वाले अजीत का इतना ख़ूबसूरत पहलू देख वह भावुक हो उठी. फटाफट उसने मेल का जवाब टाइप करना शुरू किया.
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‘अजीत, अपने साधारण से रूप के पीछे छुपी सुन्दरता का एहसास तो तुमने बख़ूबी दिला दिया, अब मेरी सुन्दरता के पीछे छुपे कड़वे सच को भी जान लो. एक दुर्घटना में मैं अपना बायां पैर घुटने तक गंवा चुकी हूं. नकली पैर के सहारे मैं अपने सभी काम-काज कर लेती हूं. किसी को पता भी न चले अगर मैं न बताऊं. यह बात मैंने इसलिए छुपाई, क्योंकि मैं स्वयं तुमसे मिल कर यह बात बताना चाह रही थी. अब बताओ, तुम्हारी नज़र में ख़ूबसूरती की क्या परिभाषा है? यदि अब भी मैं तुम्हें अच्छी लगती हूं तो मेरा पता मैं लिख रही हूं. तुम्हारा कल सुबह इन्तज़ार करूंगी. फिर तुम्हारा जो भी फैसला हो मुझे मंज़ूर है. और हां, भावनाओं में बह कर कोई फैसला न करना. ख़ूब सोच-समझ कर निर्णय लेना.’
अगले दिन सुबह, एक अजनबी और आठ-नौ वर्ष के एक बच्चे को बड़े से गुलदस्ते के साथ अपने फ्लैट पर देखकर लतिका के भइया-भाभी बड़े हैरान थे, पर मां थी कि मुस्कुराए जा रही थी.
- डॉ. सुमन एस. खरे
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