"संध्या, हर उम्र में जीने का जज़्बा होना चाहिए. ज़िंदगी ईश्वर की दी हुई नेमत है, जिसका हमें सम्मान करना चाहिए. बहती नदी की धारा भी हमें आगे बढ़ने का संदेश देती है…"
माल रोड के दो चक्कर काटकर संध्या घर जाने को मुड़ी, तो बगल से गुज़र रही मिसेज़ शर्मा की आवाज़ उसके कानों में पड़ी. वह अपने पति से कह रही थीं, " संध्या को देखा, पति को गए सिर्फ़ तीन महीने गुज़रे हैं और क्या मस्ती कर रही है." उसके पांव ठिठक गए. शरीर मानो निष्प्राण हो उठा. तभी काव्या ने कसकर उसका हाथ थाम लिया और अपने आगे चल रही मिसेज़ शर्मा को सुनाते हुए बोली, "याद रखो संध्या, जीवन में गिरानेवाले बहुत मिलेंगे और संभालनेवाले बहुत कम, इसलिए लोगों की अनर्गल बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है."
संध्या घर लौटी, तो उसकी चाय पीने की भी इच्छा नहीं हुई. चुपचाप पलंग पर लेटकर वह अतीत की स्मृतियों में खो गई. 13 साल पहले एक दिन अचानक उसके पति सौरभ को पैरालिटिक अटैक आया था. दोनों बच्चे कनाडा में थे. पड़ोस के शर्माजी की मदद से वह उन्हें हॉस्पिटल लेकर गई. दो घंटे बाद शर्माजी तो घर वापस लौट गए और वह रातभर अकेली किसी अनिष्ट की आशंका में डूबती-उतराती रही थी. डॉक्टरों के अथक प्रयास के बावजूद सौरभ की तबीयत में सुधार नहीं हुआ. उनके शरीर का बायां हिस्सा पूरी तरह लकवाग्रस्त हो गया और वह व्हीलचेयर पर आ गए.
संध्या हतप्रभ थी नियति के इस क्रूर मज़ाक पर. रातभर आंसुओं से वह तकिया भिगोती रहती थी. उसने घर में सौरभ की मदद के लिए एक अटेंडेंट रख लिया था. अब उसकी ज़िंदगी पूरी तरह बदल गई थी. रात-दिन घर के काम और सौरभ का ख़्याल रखने में ही उसकी ज़िंदगी बीत रही थी. नाते-रिश्तेदारों के सुख-दुख में जाना भी छूट गया था. सौरभ पहले ही बहुत ग़ुस्सेवाले थे, उस पर दिन-ब-दिन बढ़ते शारीरिक कष्टों ने उन्हें और भी चिड़चिड़ा बना दिया था. रात-दिन संध्या को कोसने और मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का वह कोई भी मौक़ा नहीं चूकते थे. और फिर उस शाम अचानक ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा. हॉस्पिटल ले जाने का अवसर भी उन्होंने नहीं दिया और वह इस दुनिया से रुखसत हो गए. संध्या को सब कुछ सपना-सा लग रहा था. बच्चे आए भी और बीस दिन रहकर चले भी गए. अब वह नितांत अकेली थी. जब तक सौरभ थे, वह कभी प्रसन्न नहीं रह पाई और अब भी अतीत की स्मृतियां उसे चैन नहीं लेने देती थी.
उन्हीं दिनों उसकी सहेली काव्या सिंगापुर से लौटी थी. संध्या से मिलने आई, तो उसका हाल देखकर समझाते हुए बोली, "सारी उम्र तुम दूसरों के लिए ही जीती रहीं, कभी अपने लिए तो कुछ सोचा ही नहीं. अब तो अपनी ज़िंदगी जिओ."
"अब क्या जिऊंगी काव्या. अब ना उम्र रही और ना ही इच्छाएं."
"संध्या, हर उम्र में जीने का जज़्बा होना चाहिए. ज़िंदगी ईश्वर की दी हुई नेमत है, जिसका हमें सम्मान करना चाहिए. बहती नदी की धारा भी हमें आगे बढ़ने का संदेश देती है…"
बस, उस दिन के बाद से उसकी ज़िंदगी बदल गई थी. काव्या के साथ मॉर्निंग वॉक, योगा, सहेलियों से मिलना-जुलना… इन सब से वह प्रसन्न रहने लगी थी. किंतु आज मिसेज़ शर्मा के कहे शब्द उसे व्यथित कर गए थे. क्या वह कुछ ग़लत कर रही है? क्या उसे प्रसन्न रहने का अधिकार नहीं?
इससे पहले कि वह किसी निष्कर्ष पर पहुंचती, तूफ़ान की तरह काव्या अपने पति रजत के साथ उसके घर आ गई.
"संध्या जल्दी से पैकिंग कर ले. दो दिनों के लिए मसूरी चल रहे हैं. तू तैयार हो मैं तब तक चाय बना रही हूं." थोड़ी देर में ही वे तीनों मसूरी के लिए रवाना हो गए. आकाश में छितराए बादल, अलमस्त बहती ठंडी हवा उसके मन की सारी दुविधाओं को पीछे धकेलकर जीवन में आगे बढ़ने का संदेश दे रही थी.
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