"देर नहीं हो रही. आओ चाचा." आनंद एक पास के होटल में ले गया और थाली मंगवाकर सामने रख दी.
चाचा ने शायद बरसों बाद थाली भर खाना देखा था. खाते हुए एक तृप्ति भरी मुस्कान उनके चेहरे पर आ गई.
"जीते रहो बबुआ. खुदा ख़ूब तरक़्क़ी दे, ख़ुश रखे." चाचा ने मन भर दुआएं दीं.
"अरे आगे जाओ बाबा."
कार से उतरते हुए आनंद के कानों में आवाज़ आई, तो उसकी निगाहें उस बूढ़े व्यक्ति की तरफ़ उठ गई, जो किसी से खाना खिला देने को कह रहा था.
आनंद की स्मृतियों में उस बूढ़े को देखकर अचानक एक चेहरा कौंध गया.
"आप सुलेमान चाचा हो न?" आनंद ने उसके पास जाकर पूछा.
"हां… ह… हां… आप कौन साहब…." अचकचा कर उसने पीछे मुड़कर देखा. इतनी इज़्ज़त की शायद उसे कभी आदत नहीं रही थी.
"मैं आनंद. बहुत साल पहले एक बीमार बच्चे को आप बंदर-बंदरिया का खेल दिखाने आते थे, क्योंकि उसे थोड़ी ख़ुशी मिलती थी और वह थोड़ा सा कुछ खा लेता था. दवाई भी ले लेता था."
आनंद को अब तक भी वो सब बातें याद थीं. अचानक उसे पता नहीं ऐसी क्या बीमारी हो गई थी कि उसका बुखार ही ठीक नहीं हो रहा था. मां-पिताजी न जाने कितने डॉक्टरों से इलाज करवाकर हार गए थे.
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किसी को समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे हुआ क्या है. आनंद की भूख भी मर गई थी. दवाई देखते ही वह उल्टी कर देता था. न हंसता, न किसी से बात करता. उम्र थी नौ-दस वर्ष. बीमारी बढ़ती जा रही थी.
तब एक दिन यह सुलेमान चाचा अपने बंदर-बंदरिया को लेकर डुगडुगी बजाते हुए उसके घर के सामने से निकले थे. आनंद अपनी मां के साथ आंगन में बैठा था. बंदर देखकर आनंद ने उनका खेल देखने की इच्छा प्रकट की. मां ने मदारी को आंगन में बुलवा लिया. बंदर का नाम सरजू और बंदरिया का चमेली बाई था. उनके करतब देखकर आनंद महीनों बाद मुस्कुराया था. जब मां ने दोनों को केले दिए, तो आनंद ने भी खाने को कुछ मांगा. मां तो ख़ुशी से भर उठी. उसने मदारी से कहा कि वह रोज़ आया करें, ताकि आनंद थोड़ा कुछ तो खा लिया करें.
तब मदारी रोज़ आने लगा. आनंद उसे सुलेमान चाचा कहता. सरजू और चमेलीबाई आनंद को नाच दिखाते और उससे काफ़ी घुलमिल भी गए. सुलेमान चाचा खेल-खेल में आनंद को दवाइयां भी खिला देता.
मां सुलेमान को पैसे देती, तो वह मना कर देता.
"बबुआ ठीक हो जाए, वही हमारा ईनाम है बीबीजी." सुलेमान दुआ करता.
तब मां उसे, सरजू और चमेलीबाई को भी खाना खिला देती ज़बरदस्ती. महीनों सुलेमान आता रहा. आनंद धीरे-धीरे ठीक होने लगा. जब स्कूल जाने लगा, तब सुलेमान हर रविवार को आता उसे देखने. आनंद की मुस्कान लौट आई थी उसकी वजह से. मां हर रविवार उसे खाना खिलाकर ही भेजती थीं.
फिर कुछ सालों बाद आनंद के पिताजी का तबादला हो गया और वो वहां से चले गए.
अब इतने सालों बाद आनंद नौकरी के चलते दुबारा इस शहर में आया और सुलेमान चाचा से मिला.
"हां… हां… आनंद बबुआ. अरे तुम तो साहब बन गए. कैसे हो बबुआ…" सुलेमान की आंखें भीग गईं.
"मैं ठीक हूं. चाचा सरजू और चमेलीबाई…" आनंद ने कहा.
"चले गए. मेरे जीवनभर के साथी चले गए. सब चले गए…" चाचा की आंखों से उनकी याद में आंसू बहने लगे.
"और घर में?" आनंद ने पूछा.
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"बच्चे हैं नहीं. पत्नी भी सालों पहले गुज़र गई. सरजू और चमेली का ही साथ था वो भी…" चाचा का गला रुंध गया.
"उम्रभर उन दोनों ने ही मुझे पाला, कमाकर खिलाया."
आनंद ने देखा चाचा के कपड़े फटे हुए थे. दोनों पैरों में अलग-अलग नाप की चप्पलें थीं. उन दोनों के न रहने पर इस बुढ़ापे में अब शायद भीख मांगकर ही खाना खाते हैं.
"आओ चाचा चलकर खाना खाते हैं." आनंद भरे गले से बोला.
"नहीं-नहीं बबुआ, देर हो रही होगी. तुम जाओ…" चाचा संकोच से भरकर जाने लगे.
"देर नहीं हो रही. आओ चाचा." आनंद एक पास के होटल में ले गया और थाली मंगवाकर सामने रख दी.
चाचा ने शायद बरसों बाद थाली भर खाना देखा था. खाते हुए एक तृप्ति भरी मुस्कान उनके चेहरे पर आ गई.
"जीते रहो बबुआ. खुदा ख़ूब तरक़्क़ी दे, ख़ुश रखे." चाचा ने मन भर दुआएं दीं.
आनंद ने होटल वाले को महीने भर के पैसे दे दिए और कहा कि चाचा को दोनों समय पेट भर खाना खिला दिया करें. हर महीने पैसे दे जाया करेगा. अब उसे सुलेमान चाचा के लिए कुर्ता-पजामा और जूते ख़रीदने थे. बचपन की मुस्कुराहटों का कर्ज़ तो वह चुका नहीं सकता था, लेकिन कुछ फ़र्ज़ तो पूरा कर ही सकता था.
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