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कहानी- मूव ऑन (Short Story- Move On)

उनके मन का अंधियारा धीरे-धीरे कमरे में फैलने लगा. उनके चेहरे पर गहराती उदासी देख गुंजन ने झट से कमरे की बत्ती जला दी. बत्ती ने कमरे में तो उजाला कर दिया, पर रमाजी के अंदर अब भी अंधेरे ने मज़बूती से पैर जमाए हुए थे. दरअसल, रमाजी अब भी एक असफल रिश्ते का शोक मना रही थीं, जबकि अपने पति का ज़िंदगी दूसरे ढंग से जीना आरंभ कर देना उन्हें बहुत आहत कर गया था. वो ठेस थी जिसने रमाजी के सभी मौसम बदल कर ठंडे, निर्जीव और बेरंग कर दिए थे.

“कैसी हो मां?” घर के अंदर प्रविष्ट होते हुए गुंजन बोली. उसने तेज़ी से दरवाज़ा बंद किया. जनवरी की सर्द हवाओं के साथ बाहर फैला घना कोहरा अंदर न आ जाए.
“मेरी छोड़, अपनी बता… तू कैसी है? ठीक से तो रह रही है ना वहां पर?” रमाजी की उदासीन भाव-भंगिमा उनके उदास चेहरे से मेल खा रही थी. गुंजन के दरवाज़ा बंद कर देने के बावजूद लग रहा था कि बाहर का उदास, रंगहीन मौसम घर के अंदर भी पसरने लगा है. हर बार यही होता है. जब भी गुंजन अपने पिता के घर सप्ताहांत व्यतीत कर लौटती है, उसकी मां बेहद उदास हो जाती हैं. दो-तीन दिन लग जाते हैं उन्हें सामान्य होते-होते. गुंजन के लिए इन दो-तीन दिनों का घर का माहौल असह्य हो जाता है. रमाजी न ढंग से खाती हैं, न मुस्कुराती हैं, न ही किसी बात में उनका मन लगता है. बस, यही दोहराती रहती हैं, “तेरे पापा ख़ूब प्रसन्न होंगे उसके साथ. जिसके साथ ज़िंदगी बिताई, उसे बिसराने में ज़रा भी समय नहीं गंवाया तेरे पापा ने. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि किशोर… किशोर फिर से शादी…” रमाजी के सुर अभी भी कांप रहे थे. गुंजन समझ रही थी कि ठंडे मौसम से अधिक इस कंपन की ज़िम्मेदार उसकी मां की मनःस्थिति थी.
“छोड़ो ना मां, क्यों अपना मन जलाती रहती हो? आप और पापा भी कहां ख़ुुश थे साथ में. और फिर आपसी सहमति से हुए तलाक़ को भी तो पांच वर्ष बीतने को आए. जब आप दोनों साथ थे तब भी कौन से सुखी…”
“तुझे क्या पता बेटा, मैंने कितना प्रयास किया इस रिश्ते को निभाने का. भरसक कोशिश की, किंतु होनी को कौन टाल सकता है. पर इसका तात्पर्य ये कतई नहीं कि तलाक़ के दो वर्ष उपरांत ही दूसरी शादी कर ली जाए. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि किशोर… किशोर दूसरी शादी कर लेंगे.” रमाजी फिर उसी ट्रैक पर चल पड़ीं. उनके मन का अंधियारा धीरे-धीरे कमरे में फैलने लगा. उनके चेहरे पर गहराती उदासी देख गुंजन ने झट से कमरे की बत्ती जला दी. बत्ती ने कमरे में तो उजाला कर दिया, पर रमाजी के अंदर अब भी अंधेरे ने मज़बूती से पैर जमाए हुए थे.


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दरअसल, रमाजी अब भी एक असफल रिश्ते का शोक मना रही थीं, जबकि अपने पति का ज़िंदगी दूसरे ढंग से जीना आरंभ कर देना उन्हें बहुत आहत कर गया था. वो ठेस थी जिसने रमाजी के सभी मौसम बदल कर ठंडे, निर्जीव और बेरंग कर दिए थे. सर्दी का कोहरा सीधा मन पर जमता, वर्षा ऋतु की बूंदें आंखों की बूंदों-सी बरसतीं और गर्मी में लूू के थपेड़े उसके तपते मन को और उधेड़ डालते.
कमरे में आलमारी का लॉकर खोलते ही रमाजी की नज़रें हीरे के कंगनों पर पड़ गईं. एक शोकार्त याद साथ ही उभर आई.
“तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या, जो दो-ढाई लाख के कंगन ले आए मेरे लिए.” रमाजी ने रोष में कहा था.
“कोई और पत्नी होती तो ख़ुशी से नाचती कि पति हीरे के कंगन लाया है, और तुम हो कि…” किशोरजी का मन रमाजी की बात, और उससे अधिक उनके बात कहने के ढंग से खिन्न हो गया. केवल दिल का अच्छा होना पर्याप्त नहीं होता, जिह्वा भी मधुर होनी चाहिए. बुरा दिल दूसरों के लिए अहित चाहने के साथ, स्वयं को भी क्लेश में डुबोता है. लेकिन कड़वी ज़ुबान अच्छा या बुरा दिल जानने का अवसर नहीं प्रदान करती. वो तो सुनने वाले को शुरुआत से ही अपने विमुख कर देती है.
किशोरजी को कुछ सोचते देख रमाजी उन्हें समझाते हुए बोलीं, “तुम मेरी बात न कभी समझे थे, न समझोगे. हमारे आगे एक बेटी है. इतनी फिज़ूलख़र्ची की क्या आवश्यकता है?”
“मैंने सुना था कि बीवियां अपने जन्मदिन पर उपहार न लाने पर लड़ती हैं, पर मेरी क़िस्मत देखो!” किशोरजी ने उलाहना दिया था.
“किस्मत नहीं, अपने कर्म देखो. हीरे के बारे में कहीं सुना-पढ़ा नहीं कि हीरा ख़रीदने जाओ तो हीरा और बेचने जाओ तो पत्थर.” लड़ाई ने सारा जन्मदिवस चौपट कर डाला था.
ऐसी यादों की कमी नहीं थी. उन दोनों के व्यक्तित्व सदैव ही एक-दूसरे से टकराते रहे. वैवाहिक जीवन की मीठी यादों की बजाय खट्टे अनुभवों की लंबी सूची थी आज दोनों के पास. जहां एक ओर रमाजी को किशोरजी का ख़र्चीला  स्वभाव अखरता रहा, वहीं दूसरी ओर किशोरजी को रमाजी की अति साफ़-सफ़ाई की आदत परेशान करती रही. आज भी वे यह उल्लेख कर देते हैं कि कैसे उनके बुखार ग्रस्त होते हुए भी रमाजी उन्हें करवट बदलने को कहती थीं ताकि वो बेड की चादर बदल सकें. उनके हाल-चाल से अधिक रमाजी को कमरे की सफ़ाई का ध्यान रहता था. इन छोटी-छोटी तकरारों का विशालकाय रूप आज उन दोनों के समक्ष खड़ा है.
“मां, खाना दे दो, भूख लगी है.” गुंजन की गुहार रमाजी को फिर वर्तमान में खींच लाई. वैसे भी अतीत में याद करने लायक कुछ था भी नहीं.
“वाह! क्या खाना बनाती हैं आप.” पाक कला में निपुण रमाजी का मन हल्का करने हेतु गुंजन ने कहा. उसे क्या पता था कि उसकी बात का असर अपेक्षा के विपरीत होगा. रमाजी की आंखों से अचानक अश्रुधारा बह निकली, “किशोर ने कभी मेरे खाने की प्रशंसा नहीं की. जब भी कुछ कहा, सिर्फ़ कमी ही निकाली. और मेरे शिकायत करने पर कह देते कि जिस दिन चुपचाप खाना खा लूं उस दिन समझ लेना खाना ठीक बना है.”
“ओहो मां! रोइए मत. प्लीज़, चुप हो जाइए. चलिए, टीवी देखते हैं.” गुंजन रमाजी को ख़ुश करने का भरसक प्रयास कर रही थी.


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जब कभी गुंजन पिता के घर से सप्ताहांत बिताकर लौटती, मां का अवसादग्रस्त रूप देखती. वह इस बात से प्रसन्न अवश्य होती कि उसके पिता उसे अपनी नई गृहस्थी में आमंत्रित करते रहते हैं और वो भी अपने पिता का साथ और स्नेह चाहती, लेकिन मां की ये दशा उसे परेशान कर देती. एक तरफ़ उसके पिता अपने नए जीवन में सुखी थे, तो दूसरी तरफ़ उसकी मां पुराने दुखों का पल्ला छोड़ ही नहीं रही थीं. जहां उसके पिता अपनी नई गृहस्थी में रमकर उल्लासित रहते थे, वहीं उसकी मां की उदासी गहराती जा रही थी. तलाक़ के पांच वर्ष उपरांत भी रमाजी का मन शोकाकुल रहता, उनकी दशा नए घाव पीड़ित सी बनी रहती.
“मुझे कुछ करना होगा इस विषय में. मां का यह रवैया उनकी मानसिक व शारीरिक सेहत के लिए नुक़सानदेह है.” गुंजन समझ रही थी कि मां का यूं शोकान्वित रहना, मन ही मन घुटना उन्हें अंदर से कमज़ोर बनाता जा रहा है. क्या करे, किससे पूछे? कुछ सोचते हुए वो इंटरनेट लगाकर बैठ गई. कई सर्च इंजिन खोल डाले- तलाक़ के पश्‍चात् एक स्त्री की मनःस्थिति, पति के पुनर्विवाह के पश्‍चात् उसका खालीपन, अपमान की भावना, अकेले ही बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाना इत्यादि विषयों पर वो सर्च करने में जुट गई. कई लोगों के ब्लॉग पढ़े, जिससे उसे समान परिस्थितियों से जूझ रहे लोगों की मानसिकता का बोध हुआ. कई मनोवैज्ञानिकों के शोध, उनके विचार पढ़े, जिससे उसे ज्ञात हुआ कि अब अपनी मां को वो सही राह कैसे दिखाए. आख़िर गुंजन मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर कर रही थी, कोई दुधमुंही बच्ची तो थी नहीं कि हर बात में मां का आंचल ढूंढ़े.
तड़के उठते ही गुंजन बुदबुदाई, “फर्स्ट थिंग फर्स्ट” रमाजी को सुप्रभात की शुभकामना के साथ ही उसने टोका, “क्या मां, आज फिर वही नाइटी? एक ही नाइटी है क्या आपके पास?”
फिर रमाजी का अचकचाया चेहरा देख मुस्कुराते हुए बोली, “चलो, आज कुछ शॉपिंग करके आते हैं.”
रमाजी के लाख टालमटोल करने पर भी वो उन्हें दो नाइटी, चार सूट मटीरियल और एक जोड़ी सैंडल दिला लाई.

“मैं कहां आती-जाती हूं गुंजन. मैं ठहरी सिर्फ़ एक गृहिणी. बेकार ही तूने इतने पैसे ख़र्च कर दिए.” मॉल की कॉफी शॉप में बैठी रमाजी कहने लगीं. वहां की महंगी कॉफी का घूंट भरने में उनके चेहरे पर छाई हिचकिचाहट देख गुंजन को हंसी आ गई.
“ओहो मां! आपके लिए तो यहां कॉफी पीना भी पैसों को व्यर्थ गंवाना है, है ना? मेरी प्यारी मां, जब मैं कॉलेज जाती हूं तब महीने में दो-तीन बार ऐसी कॉफी पीती हूं, जिसके लिए पैसे देना आपको ज़रा भी नहीं अखरता. तो क्या मैं आपके साथ कॉफी नहीं पी सकती? और रही बात शॉपिंग की, तो मेरी मां किसी से कम है क्या? मैं जान-बूझकर आज यहां आपके साथ आई हूं. मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूं मां. घर की चारदीवारी में शायद ये बात आप समझ नहीं पातीं.”
मां का हाथ अपने हाथों में लेते हुए गुंजन ने अपनी बात कहनी शुरू की, “मां, मेरा ये मानना है कि एक गृहिणी की भूमिका और उसकी ज़िम्मेदारियां एक नौकरीपेशा इंसान से कहीं अधिक हैं. नौकरी में तो हर किसी की ज़िम्मेदारियां लिखित कार्य विवरण के रूप में नौकरी के प्रारंभ से ही निर्धारित होती हैं. किंतु घर को सुचारु रूप से चलाने में, उसके सदस्यों को सेहतमंद व प्रसन्न रखने में ऐसे कितने ही अनगिनत कार्य होते हैं, जिनकी गिनती भी नहीं की जा सकती, इसलिए स्वयं को किसी से कम मत समझना.”
गुंजन की बातों का असर जल्द ही रमाजी पर झलकने लगा. अगले दिन से रमाजी घर में वही पुरानी नाइटी में दिन गुज़ारने की बजाय अच्छे सलीकेदार सूट पहनने लगीं. इससे उनमें उत्साह और उमंग की नई छटा दिखने लगी. सही कहते हैं, जो मन से स्वयं को सुंदर अनुभव करता है, वही सुंदर दिखता है. हमारे अंदर का आत्मविश्‍वास हमारे व्यक्तित्व को निखारता है और हमारे विचारों द्वारा दिखाई राह पर हमारा जीवन चलता है.


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एक दिन रमाजी को लेकर गुंजन कंप्यूटर के आगे बैठ गई, “सारी दोपहर बेकार के टीवी धारावाहिकों में समय व्यर्थ करती हो. इससे अच्छा है कि कंप्यूटर ही सीख लो. इतना सरल तो होता है.” गुंजन ने फिर न सिर्फ़ रमाजी को कंप्यूटर चलाना सिखाया, बल्कि सोशल नेटवर्किंग साइट पर उनका अकाउंट भी खोल दिया. उन्हें विभिन्न डिस्कशन फोरम्स पर अपने विचार रखने हेतु भी प्रेरित किया.
धीरे-धीरे कंप्यूटर तथा इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया से रमाजी की इतनी पहचान हो गई कि पाकशास्त्र से अर्जित वर्षों के ज्ञान का उपयोग करते हुए वो ऑनलाइन प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगीं और सफलता का नशा तो होता ही तेज़ है- प्रतियोगिता जीतने पर कभी गिफ्ट कूपन पातीं तो कभी घर-गृहस्थी हेतु काम का सामान.
आज अपनी बालकनी में खड़ी गुंजन, हाथ में चाय का कप लिए मुस्कुरा रही है. कारण ही ऐसा है- रमाजी को अन्य महिलाओं के साथ नीचे पार्क में शाम की सैर करते जो देख रही है. कितना अंतर आ चुका है रमाजी में. जब तलाक़ हुआ था तब उन्होंने स्वयं को घर में कैद कर लिया था. न ढंग से तैयार होना, न किसी से मिलना-जुलना, जीवन को जैसे ब्रेक लगा दिया था उन्होंने, पर जीवन कहां थमता है भला. वो जैसे अपने आप से ही कहने लगी, “पापा आगे बढ़ गए, फिर मां ही क्यूं ढोती रहे असफल रिश्ते की लाश? शादी टूट जाने का तात्पर्य स्वयं को मिटा देना नहीं होता. एक रिश्ते का अंत, जीवन का अंत नहीं.”

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