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कहानी- मोगर के फूल (Short Story- Mogre Ke Phool)

"प्रिया, इन्हें देखा तुमने?"
"हां, पिछले ४-५ रोज़ से देख रही थी, कली आज खिल गई, कितने सुंदर है ना ये फूल."
"हां. प्रिया." उनमें से एक फूल को चूमता हुआ संकल्प बोला, "आज रात में इन फूलों से अपनी सेज सजाऊंगा." संकल्प पुनः शरारत पर उतर आया था. प्रिया ने अपने गुलाबी हो उठे चेहरे को हथेली से ढंक लिया था.

"हेलो संकल्प, मैं प्रिया…" प्रिया ने फोन पर अपनी आवाज़ कुछ तेज़ करते हुए कहा, "सुन रहे हो ना?"
"हा बोलो प्रिया…" संकल्प का स्वर बुझा बुझा सा लगा प्रिया को. कुछ विचलित हो गई वो. अपने स्वर को कुछ संयमित करते हुए उसने कहा, "संकल्प, मैं तुम्हें बताना भूल ही गई थी कि आज मां का जन्मदिन है."
"अच्छा!"
"सुनो, मैं मां के लिए एक साड़ी लेकर दफ़्तर से सीधे वहीं चली जाऊंगी. तुम भी ऑफिस से वहीं आ जाना कुछ देर के लिए. मां को अच्छा लगेगा, ठीक है ना?"
संकल्प ने कोई जवाब नहीं दिया, "हेलो संकल्प, सुन रहे हो ना?"
"हां प्रिया, बोलती जाओ."
"मैं सोच रही थी, आज रात मां के पास ही रह जाऊं. जब पापा थे, तब कितने उत्साह से मां का जन्मदिन मनाते थे. आज वो बेहद अकेलापन महसूस करेंगी, ठीक है ना संकल्प, में चली जाऊं ना?"
"जैसा ठीक समझो करो प्रिया…" संकल्प की आवाज़ में एक खीझ का आभास हुआ. सहम सी गई प्रिया, शायद बुरा लग रहा है संकल्प को, पर मां के दर्द को नज़रअंदाज़ करना प्रिया के लिए संभव नहीं था. निवेदन भरे स्वर में पूछ बैठी.
"संकल्प, मैं मां के लिए एक साड़ी ख़रीद लूं ना?"
"ख़रीद लो…" कहते हुए फोन रख दिया संकल्प ने. प्रिया को महसूस हुआ जैसे फोन रखा नहीं, बल्कि पटका गया हो. प्रिया के हृदय को धक्का सा लगा.
जी तो चाह रहा था कि एक बार फिर से फोन करके संकल्प की सही मनोस्थिति का अंदाज़ा लगाए, पर हिम्मत ही नहीं हो रही थी. मां के मामले में संकल्प के बेरुखेपन को वो बर्दाश्त नहीं कर सकेगी.
पंद्रह दिनों के दौरे के बाद आज सुबह ही तो लौटा है संकल्प. पर सुबह कितना ख़ुश था वो, दरवाज़ा खोलते ही प्रिया की गोद में उठा लिया था, "बहुत हल्की लग रही हो जानेमन, मेरी याद में दुबली ही गई हो क्या?"

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"छोड़ो मुझे, कुमुद देख लेगी."
"देखने दो… पत्नी हो मेरी."
"शर्म नहीं आती… छोटी बहन के सामने…"
"शरमाऊंगा तो भूखे मर जाऊंना डार्लिंग…" प्रिया को नीचे उतारते हुए संकल्प ने शरारत भरे मूड़ में कहा, "आज तुम बिल्कुल लड्डू जैसी लग रही हो. दूर रहना वरना खा जाऊंगा."
तभी कुमुद के आने की आहट हुई और प्रिया दूर खिसक गई.
"भैया, दिल्ली से मेरे लिए ड्रेस‌ लाए." कुमुद ने पूछा और प्रिया रसोई की और चली गई.
फोन पर बात करते हुए सुबह की शरारत और उल्लास का अंश मात्र भी नहीं था संकल्प के स्वर में. प्रिया को लगा, वो अपने आंसुओं को बहने से रोक नहीं पाएगी, इसीलिए उठकर तेज़ी में बाथरूम की ओर दौड़ पड़ी. वहां दीवार से सिर टिकाकर सिसक पड़ी वो.
कितना प्यार करती है वो संकल्प को. पिछले पंद्रह दिनों तक संकल्प की याद में कितना तड़पती रही है वो. और… एक संकल्प है कि इतनी निष्ठुरता से जवाब दे रहा था. मां क्या संकल्प के लिए कुछ भी नहीं? जब भी संकल्प की मां आती हैं, प्रिया जी जान से उनकी सेवा करती है. कभी शिकायत का कोई मौक़ा नहीं देती. संकल्प को भी तो मां की भावनाओं को समझना चाहिए. फोन पटकने के पहले एक बार भी यह ख़्याल नहीं आया उसे कि पिताजी की गए अभी साल भर भी तो नहीं हुआ है. मां कितना तन्हा महसूस कर रही होंगी.
संकल्प के अप्रत्याशित व्यवहार को याद कर प्रिया की सिसकी कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो गई. अचानक किसी के कंधे पर हाथ रखने से प्रिया ने पलटकर देखा, पूर्णिमा थी.
"आज मां का जन्मदिन है पूर्णिमा. तुझे तो पता है कि पापा मां का जन्मदिन कितने धूमधाम से मनाते थे. लेकिन आज पापा नहीं है. मा बहुत रोएंगी. मैं सोच रही थी आज दफ़्तर से सीधे मां के पास चली जाऊं. आज वहीं रहूं. संकल्प से इजाज़त लेने के लिए फोन किया, तो उसने ठीक से जवाब ही नहीं दिया.
"संकल्प आ‌ गया?"
"हां… आज सवेरे…" आंसू पोंछते हुए प्रिया ने कहा.
"बुद्ध कहीं की. पगली क्या तू पुरुषों की आकांक्षा नहीं समझती? आज संकल्प पंद्रह दिनों के बाद दौरे से लौटा है और तू रात मां के साथ बिताना चाहती है."
"पूर्णिमा, मैं भी संकल्प के लिए बहुत तड़पी हूं, पर आज के दिन मां को अकेले छोड़ना क्या ठीक होगा?" "प्रिया तू यहीं ग़लती कर रही है. अब मां तुम्हारी ज़िम्मेदारी नहीं है. अब तुम संकल्प की पत्नी हो. बेटी बने रहने के अपने दायरे से बाहर निकलो. शादी के बाद लड़की का घर उसके पति का घर होता है. मैंने कई बार महसूस किया है कि पापा की मृत्यु के बाद तुम मां के लिए कुछ ज़्यादा ही परेशान रहने लगी हो. मां के लिए तुम्हारे इस तरह चिंतित रहने से संकल्प स्वयं को उपेक्षित सा महसूस करेगा. समझने की कोशिश करो प्रिया. ये पति भी बच्चे से कम नहीं होते."

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प्रिया कुछ न कह सकी. सच ही तो कह रही थी पूर्णिमा. पर मां की इकलौती बेटी होने के कारण मां के लिए उसका चिंतित रहना स्वाभाविक भी तो है. पापा के बाद से मां न अपने खाने-पीने का ध्यान रखती हैं, न स्वास्थ्य का. दिनभर में जैसे-तैसे एक बार पकाती हैं, खाती हैं बस.
संकल्प प्रिया की व्यथा को समझता है. कई बार उसने प्रिया से कहा भी है कि मां को अपने पास रख ले. पर मां माने तब ना. बेटी के घर खाना-पीना उनकी नज़रों में पाप है. पर आज मां के लिए संकल्प के शब्दों में कोई सहानुभूति तक नज़र नहीं आई, प्यार तो दूर की बात है. शायद पूर्णिमा ठीक ही कह रही थी. संकल्प इन पंद्रह दिनों की दूरी को आज समाप्त कर देना चाहता है.
उनकी शादी को दो साल ही तो हुए हैं. इन दो सालों में पहली बार दोनों एक-दूसरे से दूर रहे थे. प्रिया भी संकल्प के बगैर उदास रहती थी. किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता था. प्रिया को संकल्प के लिए वियोगग्रस्त देखकर चुलबुली कुमुद छेड़खानी कर बैठती, "भाभी, भैया नहीं हैं तो उसकी सज़ा क्या मुझ गरीब को दोगी? तुम्हारी तो भूख मारी गई है, पर मेरा क्या होगा? मेरे पेट में तो चूहे कूद रहे हैं." प्रिया बेमन से खाना बनाने को उठने लगी, तो कुमुद उसे सोफे पर बिठाते हुए बड़ी गंभीरता से बोली थी, "भाभी, तुम्हारी हालत देखकर मुझे तो भैया पर ग़ुस्सा आ रहा है, जो तुम्हें बिरह की आग में झोंककर चले गए. तुम बैठो… खाना मैं पकाती हूं."
प्रिया का हृदय भर आया था. कुमुद की चुलबुलाहट भी उसके होंठों पर हंसी नहीं बिखेर सकी. आज संकल्प के लौटते ही हृदय की धड़कने जवां हो उठी थी, प्रिया की तो इच्छा ही नहीं थी दफ़्तर जाने की. वो पूरा दिन सकल्प के साथ बिताना चाहती थी. पर संकल्प के लिए जाना ज़रूरी था. विवशता भरे स्वर में उसने स्पष्ट किया था, "प्रिया, आज जाना ज़रूरी है. वहां से जो ऑर्डर्स लाया हूं वो आज ही बॉस को हैंडओवर करने है. तुम्हें तो पता ही है कि बॉस कितने सख़्त हैं. आज नहीं गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे,"
घर से निकलते हुए संकल्प की नज़र बगीचे में खिले मोगरे के फूलों पर पड़ी, जो उनके उद्यान में पहली बार खिले थे.
"प्रिया, इन्हें देखा तुमने?"
"हां, पिछले ४-५ रोज़ से देख रही थी, कली आज खिल गई, कितने सुंदर है ना ये फूल."
"हां. प्रिया." उनमें से एक फूल को चूमता हुआ संकल्प बोला, "आज रात में इन फूलों से अपनी सेज सजाऊंगा." संकल्प पुनः शरारत पर उतर आया था. प्रिया ने अपने गुलाबी हो उठे चेहरे को हथेली से ढंक लिया था.
तब… प्रिया भी तो संकल्प की आकांक्षा में पूर्णरूपेण सहभागिनी थी, पर अचानक मां के जन्मदिन की याद आते ही जैसे उसका हृदय दो भागों में बंट गया था. दफ़्तर में किसी काम में उसका मन नहीं लग रहा था. कभी वो संकल्प को लेकर चिंतित होती, कभी मां को लेकर. पिछले पंद्रह दिनों में, जब संकल्प नहीं था, एक भी दिन प्रिया मां से मिलने नहीं जा सकी. दिनभर ऑफिस के बाद शाम को कुमुद को अकेले छोड़कर जाना संभव नहीं था. कुमुद अपनी मां से काफ़ी दूर भाभी-भैया के पास रहकर इंजीनियरिंग कर रही है. अतः उसके प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को प्रिया नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती थी. पर आज मन की व्याकुलता निरंतर बढ़ती ही जा रही थी.
"प्रिया, क्या सोच रही हो?" पास आकर पूर्णिमा ने झकझोरते हुए पूछा.
"कुछ समझ में नहीं आ रहा है पूर्णिमा, एक तरफ़ संकल्प की आकांक्षा और दूसरी तरफ़ मां का अकेलापन."
"निर्णय तुम्हे ही लेना होगा, मुझे जो समझाना था, समझा दिया."
"सोचती हूं आज मा के पास न जाऊं. संकल्प को हर्ट करना ठीक नहीं होगा."
"हां प्रिया, आज तुम्हारे मां के पास न जाने से संकल्प तुमसे और ज़्यादा इम्प्रेस होगा."
"वो तो ठीक है पूर्णिमा, पर मां…"
"तुम मां की चिंता मत करो. तुम कहो तो मां के पास में चली जाऊंगी और मां को सारी स्थिति भी समझा दूंगी."
"हां, यह ठीक रहेगा." प्रिया आश्वस्त होते हुए बोली, "मैं कल-परसों मां के लिए साड़ी लेकर चली जाऊंगी."
"ठीक है." पूर्णिमा ने मुस्कुराते हुए कहा.

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प्रिया के दुविधाग्रस्त मन को कुछ राहत मिली. पूरी स्थिति का पता चलने के बाद मां भी प्रिया के निर्णय से सहमत होगी, यह बात प्रिया जानती है. मां ने सदैव प्रिया को पति के अधीन रहकर ज़िम्मेदारी निभाने की शिक्षा दी है. प्रिया की सारी भावनाएं अब मां से हटकर संकल्प के साथ हो गई. संकल्प को सरप्राइज़ देने के ख़्याल से प्रिया ज़रा जल्दी ही दफ़्तर से निकल गई.
जब भी संकल्प दफ़्तर से लौटता, तब प्रिया प्रायः रसोई में ही रहती. पर आज वो पहले संकल्प के लिए उसका मनपसंद खाना बनाएगी और फिर तैयार होकर उसके आने का इंतज़ार करेगी. आज वो संकल्प को अपने स्नेह से सराबोर कर देना चाहती थी.
घर पहुंचकर रसोई तैयार करने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा, पर संकल्प के इंतज़ार की घड़ियां बहुत भारी लग रही थीं. घड़ी की सुइयां जैसे स्थिर ही गई थीं.
प्रिया बरामदे में आकर टहलने लगी. मोगरे के फूलों की सुगंध वातावराण में भर गई थी. हल्की सी रोशनी में खिले हुए मोगरे के फूल जैसे मुस्कुरा-मुस्कुरा कर रिझाए जा रहे थे. प्रिया को संकल्प द्वारा सुबह कही गई बात याद आते ही पुन: रक्ताभ हो उठा प्रिया का चेहरा. मोगरे के पौधे के पास जाकर प्रिया ने चूम लिया उस फूल को, जिसे सुबह बड़ी शरारत से सकल्प ने चूमा था.
"भाभी…" अचानक कुमुद की आवाज़ सुन चौंक पड़ी प्रिया.
"मुझे भूख लग रही है, खाना दे दो. अब भैया क्यों लेट हो रहे हैं?"
"पता नहीं."
"भाभी…" कुमुद ने गौर से प्रिया को देखते हुए कहा, "आज बहुत प्यारी लग रही हो."
प्रिया के हृदय में उल्लास घर गया.
आज इन शब्दों को संकल्प के मुंह से बार-बार सुनने की ललक भर गई उसके हृदय में.
कुमुद खाना खाकर सोने चली गई थी. साढ़े नौ बज चुके थे, पर संकल्प अब तक नहीं लौटा था. अब प्रिया के इंतज़ार में विरह एवं भय का समावेश होने लगा था.
कहीं प्रिया के घर पर न होने की बात से आहत हो, वो किसी ग़लत जगह न चला गया हो. कहीं स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हुए उसने शराब का सहारा ले लिया तो… वह तो बर्बाद ही हो जाएगी… प्रिया का हृदय तेज़ी से धड़कने लगा. एक अप्रत्याशित आघात के एहसास से वो लगभग थर-थर कांपने लगी. भय से आक्रांन्त हो वो सोफे पर दुबककर बैठ गई. घड़ी की टिक-टिक कानों में जैसे हथौडे़ सा प्रहार कर रही थी.
अचानक कॉलबेल की आवाज़ से प्रिया का हृदय पुन: एक बार ज़ोरों से धड़का. संशकित हृदय था, कदम थरथराने लगे थे. जैसे-तैसे प्रिया ने दरवाज़ा खोला, तो सामने संकल्प था. बिल्कुल सामान्य, मुस्कुराता हुआ… उसका संकल्य.
"इतनी देर क्यों हो गई?.." रुआंसी होती हुई पूछ बैठी प्रिया."
"मां के पास गया था. तुम तो कह रही थी कि दफ़्तर से सीधे वहीं जाओगी. साड़ी ले जाओगी, फिर क्या हो गया? मां के पास बैठा मैं काफ़ी देर तुम्हारा इंतज़ार करता रहा. तुम नहीं आई, तो फिर तुम्हारी डयूटी मुझे करनी पड़ी. मां को ज़बर्दस्ती होटल ले गया, वहीं खाना खिलाया और घर छोड़कर अभी चला आ रहा हूं. इसीलिए लेट हो गया. पर तुम क्यों नहीं गई? मां क्या सोचती होंगी?"
प्रिया कुछ भी नहीं कह पाई. चुपचाप संकल्प को, उसकी सादगी को, उसकी निश्छलता को देख-देख निहाल होती रही.
"प्रिया, मैं मां के लिए कुछ गिफ्ट भी नहीं लेकर गया. सोचा तुम तो साड़ी लेकर आ रही हो."
"मैं कल सुबह ही चली जाऊंगी संकल्प. मैं जाना तो चाहती थी, पर फिर लगा तुम पंद्रह दिनों के बाद लौटे हो और मोगरे के फूल भी तो हमारा इंतज़ार कर रहे थे." संकल्य के सीने में मुंह छुपाती हुई प्रिया भर्राये स्वर में बोली.
"पगली, मां का जन्मदिन क्या रोज़-रोज़ आता है. और जहां तक इन फूलों का सवाल है, क्या तुम्हें विश्वास नहीं कि ख़ुशबू हमारे जीवन से कभी दूर नहीं होगी?" संकल्प ने प्रिया के चेहरे को हथेली में लेते हुए पूछा, तो प्रिया सोचती रह गई कि संकल्प की निश्छलता पर पूर्णरूपेण विश्वास क्यों नहीं कर पाई वो? संकल्प के प्रेम में वासना की अधिकता का आभास उसे क्योंकर हुआरे?अब संकल्प के सीधे सरल प्रश्न का उत्तर वो किस मुंह से दे?

- निर्मला सुरेन्द्रन

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