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कहानी- मिलन (Short Story- Milan)

पहली बार देखने में ही यह एक आदर्श युगल लगता था. वह दो क्या कहकर इस रिश्ते को नकारे? महज यह कि मन नहीं मिलते? और वह भी तब, जब उसने स्वेच्छा से यह ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी थी, क्या दिलों का मिलन कुल, कुलीनता, कुंडलियों आदि के मिलन से कहीं ऊपर है?

एक-एक जैकेट को स्वयं पर लगाकर देखते हुए प्रिया ने जैकेटों का ढेर लगा दिया था. सेल्समैन के माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा उठी थीं. प्रिया ने फिर से ब्लू जैकेट उठाकर स्वयं पर लगाया, तो काफ़ी देर से उसे निहार रहा एक नवयुवक ग्राहक बोल उठा, “यही ठीक रहेगा आप पर.”

प्रिया ने अचकचाकर उसे रख दिया और सेल्समैन को मैरून जैकेट पैक करने को कहा. इसके बाद वह तेज़ी से सामने वाली दुकान में घुस गई. लेकिन उसकी नज़रें पीछे दुकान पर ही टिकी थीं. जैसे ही वह नवयुवक मोटरसाइकिल पर रवाना हुआ, प्रिया तुरंत फिर से दुकान में घुसी.

“यह रख लीजिए. मुझे वह ब्लू वाली ही चाहिए.” प्रिया दुकानदार से नज़रें नहीं मिला पा रही थी. वहां से कार सीधी एक जूसवाले के पास ही रुकी.

“कौन-कौन-सा जूस मिलेगा?” प्रिया ने पूछा.

“पाइनेप्पल, ऑरेंज, एप्पल...”

“मैडम को तो फालसे का जूस पसंद है, मिलेगा न?” न जाने कहां से वह नवयुवक फिर आ टपका था. उसे देखकर प्रिया फिर हड़बड़ा गई. उम्र में उससे कुछ छोटा, स्मार्ट, संभ्रांत परिवार का दिखता वह नवयुवक किसी भी सूरत में टपोरी नहीं हो सकता.

“आप...” प्रिया कुछ परेशान हो रही थी.

“अरे, अरे... परेशान मत होइए दीदी. मैं श्रवण हूं, आप की सहेली श्रुति का छोटा भाई.”

“ओह तो तुम हो. तुमने तो मुझे डरा ही दिया था. कहां तुम्हें छोटा-सा देखा था और कहां अब तुम... तुम तो कहीं बाहर से मेडिकल कर रहे थे न?”

“हां, अब यहां प्रैक्टिस करूंगा. यहीं पी.जी. में भी एडमिशन ले लिया है.”

“वेरी गुड. कोई प्रॉब्लम हो तो बताना. मैं दस से पांच हॉस्पिटल में रहती हूं. घर आओ कभी. कहां रुके हो?”

“अभी तो एक दोस्त के साथ हूं. वैसे अगले वीक हॉस्टल मिल रहा है. अरे हां... आपको बहुत-बहुत बधाई. दीदी ने बताया था, आपका रिश्ता तय हो गया है. तो कब मिलवा रही हैं जीजू से?” प्रिया के अंदर कुछ दरक-सा गया. क्या बताए वह इसे?

“कल संडे है, तो मैं कल शाम आपके यहां पहुंचता हूं. जीजू को भी वहीं बुलवा लीजिए.”

“पर मैं...” प्रिया समझ नहीं पा रही थी  कि कैसे सब बताए? “अच्छा मैं बुला लूंगी.” प्रिया ने अपना पता लिखकर उसे थमा दिया.

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रजत से प्रिया का रिश्ता लगभग महीना भर पूर्व ही उनके माता-पिता ने तय किया था. रजत एक कॉलेज व्याख्याता था. प्रिया आरंभ में पढ़ाई में और फिर मरीज़ों में इतनी व्यस्त रहती थी कि उसने अपने लिए जीवनसाथी के चयन की ज़िम्मेदारी अपने माता-पिता को सौंप दी थी. प्रिया की अति व्यस्तता देख उसके माता-पिता ने सोच लिया कि बेटी के सुखी घर-परिवार के लिए एक गैर डॉक्टर जीवनसाथी ही उपयुक्त रहेगा. रजत उनके मापदंड पर खरा उतरा था. प्रिया को भी वह ठीक ही लगा और इस तरह बात तय हो गई.

संयोगवश दोनों के माता-पिता एक शहर में थे, तो वे दोनों दूसरे शहर में. चूंकि दोनों एक ही शहर में थे, तो सप्ताह में एक-दो मुलाक़ात हो ही जाती. का़फ़ी व़क़्त साथ गुज़ारने के बाद भी न जाने क्योंं प्रिया को लगता था कि वह और रजत एक नदी के दो किनारे हैं, जिनका मिलन संभव नहीं है. न उन्हें पिक्चर में लुत्फ़ आता था, न डिनर में. घड़ियां देखते, इधर-उधर के औपचारिक वार्तालाप में समय गुज़ारते वे अलग हो जाते. अलग होते व़क़्त भी न दिल में विदाई का ग़म होता, न अगली मुलाक़ात की उत्कंठा. वह रजत में प्यार तो क्या, एक दोस्त भी नहीं खोज पा रही थी. शायद ऐसा ही कुछ रजत के साथ भी था. दोनों अपने-अपने खोल में सिमटे रहते.

कभी-कभी प्रिया को लगता इससे तो दोनों साफ़-साफ़ बात कर अपने संबंध विच्छेद कर लें. लेकिन किस आधार पर? दोनों सुदर्शन, सुशिक्षित, सुसंस्कृत संभ्रात परिवारों से थे. पहली बार देखने में ही यह एक आदर्श युगल लगता था. वह क्या कहकर इस रिश्ते को नकारे? महज़ यह कि मन नहीं मिलते? और वह भी तब, जब उसने स्वेच्छा से यह ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी थी. क्या दिलों का मिलन कुल, कुलीनता, कुंडलियों आदि के मिलने से कहीं ऊपर है? इसी ऊहापोह में इतना व़क़्त गुज़र गया था और अब प्रिया को लगने लगा था कि इस मामले में ज़्यादा देरी ज़्यादा मुसीबत खड़ी कर देगी. लेकिन माता-पिता को अपना निर्णय सुनाने से पूर्व एक बार रजत से बात करना ज़रूरी था. आईने में अपने अक्स को निहारते हुए प्रिया अपने ही ख़्यालों में खोयी हुई थी कि सेलफ़ोन बजने से उसकी तंद्रा भंग हुई. रजत का ही फोन था.

“कल कहां मिलना है?” रजत का ठंडा स्वर था. मानो मात्र एक औपचारिकता का निर्वाह कर रहा हो.

“कल कोई परिचित घर आ रहे हैं. वो आप से भी मिलना चाहते हैं. आप आ पाएंगे?”

“कोशिश करूंगा.” वही ठंडा सा स्वर और फोन रख दिया गया. अगले दिन प्रिया को हॉस्पिटल से निकलने में ही सवा छह बज गए. घर पहुंची, तो श्रवण बाहर इंतज़ार कर रहा था.

“आई एम सो सॉरी.” ताला खोलते हुए प्रिया ने पश्‍चाताप भरे स्वर में कहा.

“इट्स ओके दीदी. डॉक्टर हूं, आपकी प्रॉब्लम समझता हूं.” पहली बार एहसास हुआ कि एक ही प्रोफेशन वाले एक-दूसरे की समस्या कितनी आसानी से समझते हैं. श्रवण में उसे बचपन से ही अपना छोटा भाई नज़र आता था. प्रिया को तंग करने के साथ वह उसे परेशान भी नहीं देख पाता था. प्रिया के चेहरे पर मुस्कुराहट लाकर ही उसे शांति मिलती थी. प्रिया के दिल में इतने दिनों से उमड़-घुमड़ रहे असमंजस के बादल श्रवण का सहारा पाकर बरस पड़े. श्रवण देर तक उसे ढाढ़स बंधाता रहा. रजत के आने की आहट पाकर दोनों संभल गए. प्रिया ने फटाफट कॉफी तैयार की. उसे बड़ा अपराधबोध महसूस हो रहा था. पहली बार रजत और श्रवण उसके घर आए थे और वह व्यस्तता के मारे कुछ भी नहीं बना पाई थी. होटल का खाना, तो वे हमेशा ही खाते थे. आज वह अपने हाथों से उन्हें कुछ बनाकर खिलाना चाहती थी. प्यार न सही, पर इतना वक़्त साथ गुज़ारने के बाद एक अव्यक्त-सा साहचर्य तो पैदा हो ही गया था. श्रवण मोबाइल पर बात करते हुए बालकनी में चला गया.

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“सॉरी दीदी. एक एक्सीडेंट केस आ गया है, मुझे जाना होगा.” कहते हुए श्रवण चलता बना. प्रिया चाहकर भी उसे नहीं रोक सकी.

“मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं कुछ भी नहीं बना पाई. अभी मैं बिरयानी तैयार कर लेती हूं.” प्रिया रसोई में घुसी तो रजत भी पीछे-पीछे चला आया. वह सब्ज़ियां काटने में उसकी मदद करने लगा. जिस तरह उसके हाथ चल रहे थे, लग रहा था उसे रसोई के कामों का काफ़ी अभ्यास है. प्रिया ने जब यह बात कही तो वह मुस्कुरा दिया.

“अब अकेला रहता हूं, तो खाना ख़ुद ही बनाता हूं. वैसे भी रसोई में कुछ न कुछ प्रयोग करते रहना मेरी हॉबी है.”

“ओह सच! यह तो मेरी भी हॉबी है. होटल आदि का खाना मुझे ज़रा भी पसंद नहीं है.” कहते हुए प्रिया ने अपनी जीभ काट ली. शायद कुछ ग़लत बोल गई थी.

“पहले क्यों नहीं बताया? मैं इतने दिनों तक बेकार ही तुम्हें नए-नए होटल में ले जाता रहा.”

“आई एम सॉरी! मैं समझी थी, शायद आपको इन महंगे होटलों में खाना पसंद होगा.”

“वॉव... क्या महक आ रही है बिरयानी से! मेरे तो पेट में चूहे कूदने लगे हैं.”

“आप चलिए टेबल पर. मैं थोड़े पापड़ भून लाती हूं.”

“अरे, तुम्हें कैसे पता चला कि मुझे बिरयानी के संग पापड़ पसंद हैं?”

“क्योंकि यह मेरी पसंद है.” प्रिया ने हंसते हुए कहा. दोनों ने जमकर बिरयानी का लुत्फ़ उठाया. स्वादिष्ट खाने के साथ चटपटी बातें भी चलती रहीं.

“कुछ मीठा मिलेगा?” खाना ख़त्म करते हुए रजत ने इच्छा ज़ाहिर की.

प्रिया ने फ्रिज खोला. आइस्क्रीम और केक रखा था. उसने चटपट फायर एंड आइस डेज़र्ट तैयार कर डाला. “वाह आज जैसे खाने का मज़ा ज़िंदगी में पहले कभी नहीं आया... अरे, बाहर तो बहुत सुहाना मौसम हो रहा है.” खिड़की से झांकते हुए रजत चहका.

“चलो टैरेस पर चलते हैं.” प्रिया रजत का हाथ थामकर टैरेस पर ले गई. चांदनी छटा बिखरी हुई थी और मंद-मंद बयार चल रही थी. गमलों में गुलाबों की ख़ुशबू फिज़ां में नशा-सा घोल रही थी. दोनों देर तक बैठे बातें करते रहे. वातावरण की अनौपचारिकता में दोनों के बीच की औपचारिकता जाने कहां घुलकर गायब हो गई थी. बचपन की, परिवार, कॉलेज, यार-दोस्तों की, अपनी पसंद-नापसंद की... अनंत बातें, जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. आज न तो उन्हें घड़ी देखनी पड़ रही थी और न ही शब्द खोजने पड़ रहे थे. बेमन से विदा लेते वक़्त भी दोनों के दिलों में यही एक सवाल था, “क्या अब अगली मुलाक़ात के लिए अगले संडे का इंतज़ार करना पड़ेगा?”

मधुर पलों की स्मृतियां ही इतनी मधुर होती हैं कि उनकी याद में ही अच्छा-ख़ासा समय निकल जाता है. उस मधुर दिन की याद में दोनों ने तीन दिन गुज़ार दिए. गुरुवार को प्रिया हॉस्पिटल से लौट रही थी तो एक अनजान कॉल आया. कोई सज्जन अपनी पत्नी की तबियत बेहद ख़राब बताते हुए उससे घर देखने आने का आग्रह कर रहे थे.

“मैं घर नहीं जाती.” प्रिया के स्पष्ट शब्दों में इंकार के बावजूद उन सज्जन का अनुरोध जारी रहा.

“दर्द बहुत ज़्यादा है. बाहर बारिश भी हो रही है. ऐसे में उसे कैसे लेकर आऊं?.. मेरा पता 4 ए-11 सिविल लाइंस है. प्लीज़...”

सिविल लाइंस अगले ही मोड़ पर थी. प्रिया एक पल झिझकी, पर फिर गाड़ी उधर मोड़ ली. काफ़ी तलाश करने पर भी बताए गए पते का मकान नहीं मिला. बारिश बहुत तेज़ हो गई थी, ड्राइव करना संभव नहीं था. अचानक प्रिया को ध्यान आया, रजत भी तो यहीं कहीं रहता है. उसने तुरंत फोन लगाया.

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“हाय प्रिया, तुम्हें ही मिस कर रहा था. तुमसे मिलने को बहुत मन कर रहा है. कब मिलोगी?”

“अभी... मैं यहां सिविल लाइन्स के मोड़ पर ही हूं. क्या तुम मुझे लेने आ सकते हो?"

“हां, मैं बस अभी आया.”

प्रिया काफ़ी भीग चुकी थी और लगातार छींकें आ रही थीं. रजत ने उसे अपनी लुंगी और कुर्ता निकालकर दिया. प्रिया चेंज करके आई तब तक वह गरम कॉफी तैयार कर चुका था. खुले-गीले बालों में आती प्रिया को वह ठगा सा निहारता रह गया. प्रिया ने शरमाकर नज़रें झुका लीं. वैसे मन ही मन रजत का इस तरह ताकना उसे बेहद अच्छा लग रहा था.

“इतनी बारिश में यहां...?” कॉफी पीते हुए रजत ने पूछा.

प्रिया ने सारी बात बता दी.

“पता नहीं किसने मेरे साथ इतना भद्दा मज़ाक किया है?” वह परेशान हो उठी.

“जिसने भी किया है, मैं तो उसे धन्यवाद ही दूंगा.” रजत का मंतव्य समझ परेशानी में भी प्रिया की हंसी फूट पड़ी.

“तुम हंसते हुए कितनी ख़ूबसूरत लगती हो.”

प्रिया के दिल में गुदगुदी सी होने लगी. उसे अपना बदन तपता हुआ सा महसूस हो रहा था. पिछली मुलाक़ात में रजत उसे एक आत्मीय दोस्त, तो आज एक प्रगाढ़ प्रेमी नज़र आ रहा था. रजत अब भी अपलक उसे ही देखे जा रहा था. गर्माती सांसों को क़ाबू में करने का प्रयास करते हुए प्रिया ने पास पड़ी नोटबुक उठा ली और पन्ने पलटने लगी. किसी कहानी की अधूरी पांडुलिपि थी. प्रिया पढ़ने लगी.

“बहुत रुचिकर कहानी है. आप लिखते भी हैं?”

“ऐसे ही थोड़ा-बहुत.”

“इसमें आगे क्या होगा? नायिका बीमारी से मर जाएगी?” प्रिया ने उत्सुकता से पूछा.

“अभी अंत सोचा नहीं है. तुम इस बीमारी के कुछ लक्षण बता सकती हो? अभी इसे थोड़ा बढ़ाना है.” अपनी रुचि के विषय पर वार्तालाप करते रजत उत्साहित हो उठा था.

“हां, क्यों नहीं? ऐसे मरीज़ तो मैं रोज़ देखती हूं.” प्रिया ने विस्तार से सारे लक्षण आदि बताए.

“इस आधार पर तुम कहानी को इस तरह भी मोड़ सकते हो.” प्रिया ने कुछ सुझाया, तो रजत ख़ुशी से उछल पड़ा.

“वॉव, यू आर ए रेअर कॉम्बिनेशन ऑफ ब्यूटी विद ब्रेन.”

दोनों ने देर तक विचार-विमर्श कर कहानी को अंतिम रूप दिया. रजत बेहद उत्साहित नज़र आ रहा था.

“मैं तुम्हारे लिए गरम-गरम पकौड़े बनाकर लाता हूं.”

रजत के सुव्यवस्थित-साफ़ घर को निहारती और प्रभावित होती हुई प्रिया भी रसोई में पहुंच गई और अधिकारपूर्वक रजत को एक तरफ़ कर पकौड़े तलने लगी. रजत ने पहला गर्म पकौड़ा प्रिया के मुंह में रख दिया.

“ओ... गरम... ” करके चिल्लाई, तो रजत ने घबराकर उसके मुंह से आधा लटकता पकौड़ा खींचकर अपने मुंह में रख लिया. दोनों बेसाख्ता हंस पड़े. एक-दूसरे को खिलाते, बतियाते, खिलखिलाते उन्हें देख कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह वही युगल है, जो पहले जम्हाइयां लेते हुए किसी तरह साथ-साथ वक़्त गुज़ारता था. अंत में रजत ने स्पेशल तुलसी-अदरक वाली चाय बनाई और दोनों अपने-अपने कप लेकर बैठक में आ गए.

“प्रिया, इन दो मुलाक़ातों में मैंने तुम्हें जितना जाना और समझा है, उसके बाद से मैं तुम्हें बेहद प्यार करने लगा हूं... झूठ नहीं कहूंगा, इससे पूर्व शायद मैं प्यार शब्द का मर्म ही नहीं जानता था... या शायद मैंने ऐसा कुछ कभी महसूस ही नहीं किया था.”

“हां रजत! मैं भी ऐसा ही कुछ महसूस कर रही हूं. तुम... अ... आप.”

“नहीं, तुम ही कहो.”

“तुम मुझे बेहद अपने लगने लगे हो. दिल हर वक़्त तुम्हारे साथ की कामना करता है. अभी कुछ क्षण पूर्व मकान न मिलने पर मैं बहुत घबरा गई थी. लेकिन अब तुम्हारे संग मैं बहुत सुरक्षित महसूस कर रही हूं.” भावावेश में बहती प्रिया ने हौले से अपना सिर रजत के सीने पर टिका दिया. रजत ने उसे बांहों में समेट लिया. बांहों का दायरा कसने लगा, तो प्रिया को होश आया. “अब मुझे चलना चाहिए. रात गहरा रही है.”

“मैं तो तुम्हें कभी जाने के लिए नहीं कहूंगा... यहीं रह जाओ.”

“थोड़ा-सा इंतज़ार और कर लो, बस.”

कसकर एक-दूसरे का हाथ थामे दोनों नीचे कार तक आए. हाथ छुड़ाते वक़्त दोनों के चेहरों पर विरह वेदना स्पष्ट उभर आई. कार के दृष्टि से ओझल हो जाने तक रजत वहीं खड़ा उसे निहारता रहा. कुछ ही दूर अंधेरे में खड़े श्रवण के मुख पर स्मित मुस्कान खेल उठी. मिलन के इस खेल का सूत्रधार वही तो था.

संगीता माथुर

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