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कहानी- मिडिल क्लास (Short Story- Middle Class)

“… हम मिडिल क्लास वालों की ज़िंदगी में तो कुछ ना कुछ आफ़त लगी ही रहती है. कभी पानी नहीं, कभी पेट्रोल ख़त्म, कभी गैस ख़त्म. ज़िंदगीभर पैसा बचाने की कोशिश में लगे रहते हैं. लेकिन फिर भी कुछ बच नहीं पाता है. गीजर बंद करके तब तक नहाते रहते हैं, जब तक कि ठंडा पानी निकलना शुरू न हो जाए. रूम ठंडा होते ही एसी बंद कर देते हैं. हमें तो सपने भी मिडिल क्लास टाइप ही आते हैं. टंकी भर गई, पानी गिर रहा है. मैं मोटर बंद करना भूल गई. गैस पर दूध उफनता रह गया…”

पर्व और मैं बेचैनी से ब्रेकफास्ट टेबल पर श्रीमान परेश सहाय का इंतज़ार कर रहे थे. परेश पति और पिता के गेटअप में कम और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के फाउंडर सीईओ के गेटअप में ज़्यादा रहते हैं. कड़क इस्त्रीदार सूट और चमचमाते जूतों में सहाय साहब प्रविष्ट हुए और कुर्सी खींचकर बैठ गए. मैंने  तुरंत उनकी प्लेट में एक-एक आइटम परोसना आरंभ कर दिया. साथ ही ताज़ा जूस का ग्लास भी भर दिया. नाश्ता करता पर्व कनखियों से मुझे निहार रहा था. मुझे भी देर करना उचित नहीं लगा. कहीं कोई कॉल ना आ जाए.
“पर्व के स्कूल में आज ऑप्शन फॉर्म भरवाया गया था. उसने साइंस-मैथ्स लिया है. इंजीनियर बनना चाहता है. कोचिंग के लिए अपने दोस्तों के साथ कोटा शिफ्ट होने की सोच रहा है.” मैंने एक ही सांस में बात ख़त्म कर अपनी प्लेट लगानी आरंभ कर दी.
“तुमने इसे बताया नहीं कि इसकी स्कूलिंग पूरी होने पर हम इसे विदेश मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए भेजेंगे. आख़िर यह बिज़नेस अंपायर इसे ही तो संभालना है.”
“मैं अपने पैरों पर ख़ुद के बलबूते खड़ा होना चाहता हूं. इसके लिए पहले इंजीनियरिंग करूंगा. फिर नौकरी…” पर्व ने  अपना पक्ष रखना चाहा, तो परेश क्रोधित हो उठे, “मत भूलो कि तुम मुंह में सोने का चम्मच लेकर पैदा हुए हो. अपनी क्लास का तो ख़्याल…” मामला बिगड़ता देख मैंने पर्व को स्कूल रवाना कर दिया और पति को समझाने लगी.
“बढ़ते बच्चे को क्लास वगैरह मत सिखाओ. बड़ा आदमी वह है, जिससे मिलने के बाद कोई ख़ुद को छोटा महसूस न करे. इंसान कमाई के हिसाब से नहीं, ज़रूरत के हिसाब से गरीब अमीर होता है. ख़ुद मैंने उसे ऐसा सिखाया है. बच्चों के साथ इस तरह कठोर होने का ज़माना नहीं रहा. उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ करने के लिए बाध्य किया गया, तो वे कुछ अनुचित कदम उठा लेंगे. देख नहीं रहे आप कैसे बच्चे सुसाइड कर रहे हैं, घर छोड़कर जा रहे हैं, अवसाद में चले गए हैं…”

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“तो कोटा में भी तो स्टूडेंट प्रेशर में यही सब कर रहे हैं.”
“आपकी बात सही है. इसलिए मैं सोच रही हूं…” धीरे-धीरे विस्तार से अपनी बात समाप्त करके मैंने पति की ओर देखा, तो पाया वे कुछ-कुछ सहमत हो गए थे.
“लेकिन इसके बाद तुम्हें उसे विदेश उच्च शिक्षा हेतु जाने के लिए मनाना होगा.”
“बिल्कुल.” अपनी जीत पर मैं ख़ुश थी. पर्व की परवरिश मैंने अपने ढंग से की है. उसे सिखाया है कि ज़िंदगी कॉफी की तरह है. हमारी नौकरी, पैसा, पोजीशन कप की तरह है. ये ज़िंदगी जीने के साधन हैं, ख़ुद ज़िंदगी नहीं. चिंता कॉफी की होनी चाहिए, कप की नहीं.
योजना अनुसार मैं पर्व को लेकर कोटा अपनी चचेरी बड़ी बहन उषा दी के यहां आ गई थी. पर्व को हॉस्टल में अकेला छोड़कर हम कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे. कुछ दिन उसके साथ रहकर उसे सेट करके मेरे लौट जाने का प्लान था. दीदी का टू बीएचके फ्लैट देखते ही मुझे पति का डर याद आ गया. करने को तो पर्व वहां एकांत में अपने कमरे में भी कुछ कर सकता है. इस माचिस की डिब्बी जैसे घर में जहां इंसान पानी भी पीए, तो दूसरे को पता लग जाता है, कोई क्या सुसाइड करेगा? सोचकर मैं मुस्कुरा दी.
“तुम लोग इधर श्री के कमरे में एडजस्ट हो जाना. वह लॉबी के दीवान पर सो जाएगा.” दीदी ने बताया.
“श्री का कमरा? मुझे तो पता ही नहीं था कि इस घर में मेरा भी कोई कमरा है.” दीदी के बेटे श्रीकांत ने आश्‍चर्य से कंधे उचकाए, तो उसका आशय समझ मेरी हंसी छूट गई.
“मौसी, सही बता रहा हूं दद्दू आए तो मैं इधर दीवान पर शिफ्ट, मौसी-मौसा और उनके बच्चे आए, तो मेरा नंबर लॉबी के कार्पेट पर आ गया था, और तो और घर का सारा कबाड़ इसी कमरे में ठूंसा रहता है. कभी महसूस ही नहीं हुआ कि इस घर में मेरा कोई कमरा है.”
“हां तो शादी से पहले अलग कमरा और अलग बेड का सपना देखना भी मत.” दीदी ने प्यार भरी लताड़ पिलाई.
“लो, एक को रखने की जगह नहीं और दूसरी को लाने की बात हो रही है.” पर्व और मैं मां-बेटे की प्यार भरी नोंक-झोंक देख आनंदित हो रहे थे. 


“दीदी, जैसी सेटिंग है वैसी ही रहने दीजिए. पर्व श्री के साथ एडजस्ट हो जाएगा. दोनों हमउम्र भाई साथ पढ़ते-बतियाते रहेंगे.  उनका मन लगा रहेगा. यहां दीवान पर मैं सो जाऊंगी.”
“अरे नहीं… नहीं! तू यहां कहां सो पाएगी?”
“याद नहीं, बचपन में छुट्टियों में हम सब कैसे ज़मीन पर बिस्तर लगाकर सोते थे.”
“तब की बात और थी. अब तू…”
“मैं दिल से अब भी वही हूं दीदी. आपकी छोटी बहन, जिसे आपने हमेशा सगी बहन सा प्यार दिया है.” भावातिरेक में दीदी ने मुझे गले से लगा लिया.
आरंभ में उन्होंने मुझे ऊंचा-ऊंचा रखने का प्रयास किया, लेकिन मेरे नाराज़गी जताने पर वे धीरे-धीरे सहज होने लगीं.
“इतने बड़े घर में ब्याहने के बाद भी तू आज भी वही सल्लो है. अच्छा लगता है देखकर. दो चीज़ें ही तो हमारे व्यक्तित्व को परिभाषित करती हैं- एक हमारा धीरज, जब हमारे पास कुछ न हो. दूसरा हमारा व्यवहार, जब हमारे पास सब कुछ हो.”
“मुझे तो यहां बहुत अच्छा लग रहा है दीदी. पुराने दिन लौट आए लगते हैं. सच कहूं दीदी, बहुत अमीरी से बोरियत होने लग गई है. थोड़ी अमीरी, थोड़ी गरीबी यानी मिडिल क्लास होना अपने आपमें वरदान है. कोई आडंबर नहीं, सब कुछ खुला-खुला. दीदी मैं यहां कुछ दिन और रह जाऊं?”
“कैसी बातें कर रही है? तेरा घर है. जितने दिन मर्ज़ी हो रह. पर ऐसे हर वक़्त मेरे साथ काम में खटती रहेगी, तो दुबली हो जाएगी. देख सप्ताह भर में कैसा मुंह निकल आया है. हम मिडिल क्लास वालों की ज़िंदगी में तो कुछ ना कुछ आफ़त लगी ही रहती है. कभी पानी नहीं, कभी पेट्रोल ख़त्म, कभी गैस ख़त्म. ज़िंदगीभर पैसा बचाने की कोशिश में लगे रहते हैं. लेकिन फिर भी कुछ बच नहीं पाता है. गीजर बंद करके तब तक नहाते रहते हैं, जब तक कि ठंडा पानी निकलना शुरू न हो जाए. रूम ठंडा होते ही एसी बंद कर देते हैं. हमें तो सपने भी मिडिल क्लास टाइप ही आते हैं. टंकी भर गई, पानी गिर रहा है. मैं मोटर बंद करना भूल गई. गैस पर दूध उफनता रह गया. चावल में पानी कम रह गया. चावल चिपक गए… अरे दूध-चावल से याद आया. दो दिन बाद श्री का बर्थडे है, तो एक तो खीर बना लेंगे.”

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“मतलब घर पर ही करनी है?” मेरे मुंह से निकल गया था.
“तो और क्या? उसे कौन सा तैमूर या जेह जैसा बचपन नसीब हुआ है, जिनकी नैनी ही लाखों रुपए सैलरी उठाती है. बहुत छोटा था, तब तो अड़ोस-पड़ोस के बच्चों को बुलाकर, प्लेटें थमाकर, नीचे पंगत में बैठा देती थी.”
“जैसे हमारा बर्थडे मनता था. वेफर्स, केला, एक मिठाई का पीस, बिस्किट और रसना.” मैं चहक उठी थी.
“वाह तुझे तो मेन्यू भी याद है! पर अब बड़ा हो गया है न, यह सब नहीं चलता. पहले अपने कमरे में दोस्तों के साथ म्यूज़िक-डांस वगैरह कर लेगा. तब तक मैं खीर, पाव भाजी, मंचूरियन आदि तैयार कर दूंगी. बाज़ार से कोल्ड ड्रिंक्स, पिज़्ज़ा मंगा लेंगे.”
मेरी आंखों के सामने पर्व का पिछला बर्थडे घूम गया, जो हमने एक फाइव स्टार होटल में थीम पार्टी पर आयोजित किया था. शहर के लगभग सभी नामी बिज़नेसमैन सपरिवार आमंत्रित थे. महंगे उपहारों का ढेर लग गया था. बच्चों की बर्थडे पार्टी कम, बिज़नेस मीट ज़्यादा लगी थी.
श्री की बर्थडे पार्टी में पर्व का उत्साह देखते ही बनता था. उसे इतना एंजॉय करता देख मुझे यहां रुकने के अपने निर्णय पर गर्व हो आया. सोचा था श्री को आईफोन गिफ्ट करूंगी, पर फिर दीदी-जीजाजी का स्वाभिमान, श्री के बिगड़ जाने का डर आदि आशंकाओं के चलते मैंने अपना निर्णय बदल दिया.
मिडिल क्लास होने का भी अपना अलग ही फ़ायदा है. चाहे बीएमडब्ल्यू का भाव बढ़े, चाहे ऑडी का, चाहे नया आईफोन लॉन्च हो… इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. ये अपने में ही संतुष्ट और संपूर्ण है. इनकी शांत ज़िंदगी में कंकर फेंकने का मुझे कोई अधिकार नहीं है. रसोई में दीदी का हाथ बंटाते मैंने चुहल की, “अगले महीने आपका भी तो बर्थडे है दीदी! क्या उपहार लोगी जीजाजी से?”
“मैं कौन सी नीता अंबानी हूं, जो मुझे जेट ख़रीद देंगे? अपनी बर्थडे, एनिवर्सरी जैसे अवसरों पर हम माइक्रोवेव, फुली ऑटोमैटिक वॉशिंग मशीन जैसे गृहस्थी के उपकरण जुटा लेते हैं. जहां तक पार्टी आदि की बात है, मैं राशन, सब्ज़ी आदि की शॉपिंग पैदल करके कैब के पैसे बचा लेती हूं. और फिर उस दिन परिवार संग होटल में डोसा, आइसक्रीम आदि खा आते हैं.” दीदी के चेहरे पर छोटी-छोटी ख़ुशियों की बड़ी सी चमक देख मेरा मन अंदर तक भीग गया था.
ख़ुद मैं भी तो इन दिनों कितना बदल गई हूं. घर के कामों में, दीदी के साथ पैदल ख़रीददारी में वक़्त कैसे गुज़र जाता है पता ही नहीं चलता. ज़िंदगी से बोरियत नामक पंछी तो उड़नछू ही हो गया है. 
उस दिन वीडियो कॉल पर परेश भी तो यही कह रहे थे.
“तुम्हारा तो एकदम कायाकल्प हो गया है! स्लिम-ट्रिम, चेहरे पर अलग ही रौनक़ नज़र आ रही है! वहां का जिम ज़्यादा सूट कर रहा दिखता है. कहीं तुम्हारा पर्सनल ट्रेनर तुम्हें उड़ा न ले जाए. अब लौट आओ.” पर्सनल  ट्रेनर के नाम पर मेरे सामने दीदी का चेहरा घूम गया था.
“चिंता मत करो, वह लेडी है.”
“थैंक गॉड! फिर भी कब लौट रही हो? अब तो पर्व सेट हो गया होगा. कब की फ्लाइट बुक करवाऊं?”
“अभी नहीं, मैं करवा लूंगी. सोच रही हूं उसके फर्स्ट टर्म हो जाए. एक बार उसकी परफॉर्मेंस पता चल जाए. वह भी थोड़ा कॉन्फिडेंट हो जाए, फिर. आप तब तक अपने पेंडिंग फॉरेन ट्रिप्स क्यों नहीं निपटाते?”
“हां, यह भी ठीक है. इतने दिन लगने थे, तो एक अलग फ्लैट ले लेती? खैर अब तो कुछ दिनों में आ ही रही हो.”
मैंने राहत की सांस ली थी. अभी सच में लौटने का दिल नहीं कर रहा था. यह मोह पर्व का है या मिडिल क्लास ज़िंदगी का? कहना मुश्किल था.


दीदी को मैंने जिमवाली बात बताई, तो ख़ूब हंसी.
“ये चोंचले तुम अमीरों के ही होते हैं. हम मिडिल क्लास लोगों की तो आधी ज़िंदगी झड़ते बाल और बढ़ते पेट को छुपाने में ही चली जाती है और बाकी की आधी बहुत महंगा, बहुत महंगा है… बोलने में ही निकल जाती है.  हमारे वैलेंटाइन भी हमारी ज़िम्मेदारियां ही होती है. अमीर लोग डेस्टिनेशन शादी रचाते हैं और मेहमानों के साथ ही लौट पड़ते है. हमारे तो शादी के सप्ताह भर बाद तक टेंट बर्तनवालों के हिसाब चलते रहते हैं.”
दाई से क्या पेट छुपाना की तर्ज पर दीदी अब मुझसे ख़ूब खुल गई थीं. उनकी सच्ची पर मज़ेदार बातें मुझे और पर्व को ख़ूब गुदगुदातीं. चुनाव समीप थे, तो रोज़ ही किसी न किसी पार्टी के कार्यकर्ता वोट मांगने आ धमकते.
उस दिन दीदी किसी बात पर भरी बैठी थीं. जैसे ही कार्यकर्ताओं ने वोट के लिए सब्ज़बाग दिखाने शुरू किए, दीदी फट पड़ीं, “ख़ूब समझते हैं हम तुम लोगों को. चार दिन की चांदनी दिखाकर ऐसे गायब होओगे जैसे गधे के सिर से सींग. हम मिडिल क्लास लोग तो चौराहे पर लगे घंटे की तरह हैं, जिसे लूली-लंगड़ी, अंधी-बहरी, अल्पमत-पूर्णमत हर प्रकार की सरकार पूरे दम से बजाती  है. हमें बजट में भी यही मिलता है- घंटा. हमारी हालत पंडाल के बीच बैठे उस आदमी जैसी है जिसके पास पूरी-सब्ज़ी चाहे इधर से आए, चाहे उधर से, उस तक आते-आते ख़त्म हो ही जाती है.” कार्यकर्ता बेचारे अपना सा मुंह लेकर खिसक लिए थे. बाद में मैंने दीदी से चुहल की, “आज तो आप ख़ूब बरसीं!“
“अरे भरी बैठी थी न. पर ग़लत जगह बरस गई. वे तो ख़ुद बेचारे मिडिल क्लास वाले हैं. हमारी ही तरह अवसरवादी, जो चंदा देने के वक़्त नास्तिक हो जाते हैं और प्रसाद खाने के वक़्त आस्तिक.”
“आपकी ये चुटकियां बहुत याद आएंगी दीदी.”
“तो आ जाना. मैं तो जाने का भी नहीं कह रही.”
“जाना तो पड़ेगा दीदी. एक बार फर्स्ट टर्म के मार्क्स आ जाएं.”
शीघ्र ही वह दिन भी आ गया. पर्व के अच्छे नंबर आए और उसे बैच भी अच्छा मिल गया. जाने से पूर्व मैं सबको डिनर के लिए होटल ले गई. 
“श्री, ऑर्डर करो बेटे.” उसे रेट्स वाले कॉलम टटोलते देख मेरा दिल भर आया. दीदी ने कभी बताया था, “महंगे होटलों में हमारी भूख रेट्स पर डिपेंड करती है. हम वहां मैन्यू बुक में फूड आइटम नहीं, अपनी औकात ढूंढ़ रहे होते हैं.”
“अपनी पसंद का सब कुछ ऑर्डर कर लो बेटे. पार्टी मेरी ओर से है.” मैंने उसे धीरे से बोला. उसके बाद तो पार्टी का रंग ही बदल गया. सबने ख़ूब खाया और एंजॉय किया.
विदाई के वक़्त मेरी और दीदी दोनों की आंखें नम थीं.
“तूने हायर क्लास को लेकर मेरी मानसिकता बदल दी है. तेरे आने से पूर्व हम चिंतित थे कि कैसे तुम लोग यहां रह पाओगे? पर हाई क्लास वाले भी अच्छे दिलवाले होते हैं और इस क्लास तक पहुंचने के लिए और वहां पहुंचकर बने रहने के लिए उन्हें भी जी तोड़ मेहनत करनी होती है, यह मुझे अब पता लगा.”

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“बिल्कुल दीदी! सब अपनी जगह महत्वपूर्ण है. हर क्लास में हर तरह के लोग मिल जाएंगे. किसी की मदद के लिए धन की नहीं, एक अच्छे मन की ज़रूरत होती है. आपको मालूम ही नहीं आप मन की कितनी धनवान हैं! मैं और पर्व तो आपके फैन हो गए हैं. बच्चों की छुट्टियां होते ही आप सबको हमारे पास आना है.” मन ही मन मैं चाह रही थी कि एक और शख़्स भी समझे कि दुनिया में सबसे ख़ुशहाल वो नहीं होते जिनके पास सब कुछ सबसे बढ़िया होता है. ख़ुशहाल वे होते हैं, जिनके पास जो होता है उसका वे अच्छे से प्रयोग करते हैं. भरपूर जीवन जीते हैं.

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