"मम्मीजी, बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है घर में. जब से आप यहां आई हैं, कुछ बढ़िया खाना बनाने का मन नहीं करता है." बहू की बातें सुनकर मन और भरा जा रहा था.
एक संशय अभी भी था; बिटिया बोलकर लाई, "मेरे घर चलिए", बेटा कह रहा है, "मेरे घर चलिए", कोई तो वो कहे जो मुझे सुनना है, बस अभी निकल लूंगी…
"सुनो बेटा रामेसुर, आज रक्षाबंधन है, तुम्हारी मेमसाब के भाई-भौजाई आ रहे हैं… बढ़िया खाना बनाना. पूड़ी, मटर पनीर, कचौड़ी… थोड़ी खीर भी…" उसको बताते-बताते ही मेरे मुंह में पानी आ गया.
"माताजी, दही बड़े भी बना लें…"
"इतने व्यंजन कौन खाएगा रामेश्वर?" बिटिया अनु का ये प्रश्न मेरे लिए ही था, मुझे समझ आ रहा था… "सादा खाना बनाओ, पूड़ी-कचौड़ी तो विनय और बच्चे छूते भी नहीं हैं."
बुझे मन से कमरे में आते ही आंसू बह निकले. ना ग़लती बिटिया की है, ना दामाद की… मुझे ही बहुत कष्ट थे बेटा-बहू के साथ, तभी तो क़रीब सवा महीने पहले जब अनु मायके आई, तो मैंने रो-रोकर सारे दुखड़े सुना दिए… बस आनन-फानन अटैची लग गई. अनु ने भाई-भाभी को सुनाकर ऐलान किया, "पापा के जाने के बाद से मम्मी का यहां मन नहीं लगता है, अब वो मेरे घर में रहेंगी."
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शुरुआत में सब बढ़िया चला; अनु, दामाद, दोनों नाती आगे-पीछे घूमते रहे… उसके बाद मैं और मेरा कमरा! मंदिर जाना हो, तो ड्राइवर के साथ जाना, चुपचाप चले आना… बहू के साथ डगमगाती हुई स्कूटी में बड़बड़ाते हुए, "गिरा ना देना, ढंग से चलाओ." का आनन्द ही कुछ और था.
बिटिया के यहां जो बने वो खा लो… वहां तो नाश्ता, खाना, अचार, पापड़ सब मेरी ही पसंद से. महीने भर पहले अनु की कही बात, "मम्मी, विनय ऑफिस से आकर थोड़ी देर अकेले बैठते हैं. आपकी चाय आपके कमरे में भिजवा दी है." सुनकर मन में अपराधबोध कौंध गया. बेटे और बहू भी तो कभी अकेले बैठना चाहते होंगे?..
वहां हर कोने में फैला मेरा सामान मेरी अनुपस्थिति में भी हाज़िरी लगाता रहता था; पोते के कमरे में भजन की किताबें, आंगन में सूखती साड़ियां, बहू के कमरे में रखी जप माला… यहां एक कमरे में सिमटी मेरी गृहस्थी. छोटी-छोटी बात पर पोते-पोती को डांटने पर भी कभी बेटा-बहू ने वो ज्ञान नहीं दिया, जो बिटिया उस दिन बांट रही थी, "आप बच्चों को टोका ना करिए, अब देखिए ना मेरी ही बात नहीं सुनते हैं…"
"दादी!!!.." पोते-पोती की आवाज़ से मैं चौंकी. दोनों दौड़कर लिपट गए. बहू ने पैर छुए, पता नहीं कैसे जीवन में पहली बार मैंने उसे गले लगा लिया.
"मम्मी, बस हो गया. चलो अब, माना कि बेटा बहुत ख़राब है आपका, माफ़ नहीं करोगी?" बेटा हाथ सहलाते हुए पूछ रहा था.
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"मम्मीजी, बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है घर में. जब से आप यहां आई हैं, कुछ बढ़िया खाना बनाने का मन नहीं करता है." बहू की बातें सुनकर मन और भरा जा रहा था.
एक संशय अभी भी था; बिटिया बोलकर लाई, "मेरे घर चलिए", बेटा कह रहा है, "मेरे घर चलिए", कोई तो वो कहे जो मुझे सुनना है, बस अभी निकल लूंगी…
"कहां चलने को कह रहे हो तुम लोग, तुम्हारे घर?"
आख़िरकार बहू मेरे मन की बात ताड़ ही गई, "हमारे घर नहीं मम्मीजी, अपने घर चलिए…"
- लकी राजीव
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