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कहानी- मेरा फ़ैसला (Short Story- Mera Faisla)

"ओह मां… यह क्या अनर्थ हो गया तेरे साथ…" मेरी आवाज़ में घुला रोष स्पष्ट झलक आया. पत्नी के सबसे बड़े अधिकार से सूरज ने इसे वंचित कर दिया.
"तो सूरज तेरे साथ रहते तो है न?"

पार्क के किनारे बेंच पर बैठी उस महिला पर बार-बार मेरी नज़र पड़ रही थी. कई बार मन में यह विचार आया कि कहीं आंखें पहचानने में धोखा तो नहीं खा रही हैं. पर उस युवती की ठोड़ी पर बना वह तिल ३० वर्ष के उपरांत भी मेरे ज़ेहन में ज्यों का त्यों बसा हुआ था. इसी तिल को लेकर तो हम उसे वैजयंतीमाला कहते थे.
अकुल और नेहा दोनों झूला झूलने में मग्न थे. मैंने एक बार फिर उन्हें झूलते हुए देखा और पांव उठाती हुई बेंच के क़रीब आ गई. वह युवती शांत भाव से गाल पर हाथ रखे दूर खेल रहे एक बच्चे को निहार रही थी. युवती की उम्र ४५-४६ के आसपास थी और मेरी ५० के ऊपर. ज़रूर यह बच्चा उसके किसी रिश्तेदार का होगा. लेकिन यहां प्रश्न बच्चे से उसकी रिश्तेदारी का न था, बल्कि यह जानने का था कि वह युवती शालिनी ही है या कोई और? पूछने में हर्ज ही क्या है. अरे ज़्यादा से ज़्यादा ज्यादा वह शालिनी नहीं है, यही तो कह देगी. माफ़ी मांग लूंगी मैं उससे.
मेरे करीब पहुंचने पर उस युवती ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा. आंखों में एक पहचान लहराई उसके और मेरी आंखों में विश्वास की लहर…
"शालिनी!" युवती की मुद्रा बदली, ख़ुशी की एक लहर उसकी आंखों में कौंधी और वह हल्के से चीखी, "नीलू दीदी…"
बस अब न कोई प्रश्न था, न उत्तर. शालिनी मेरी बांहों से लिपटकर रो पड़ी.
"नीलू दीदी, मैं… मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा है कि आप मुझे यूं मिल जाएंगी."
"ईश्वर ग़लत नहीं कहते हैं कि आदमी अपनों से दूर होता है फिर मिलने के लिए…"
"बैठिए न दीदी…" वह बेंच पर एक तरफ़ खिसकते हुए बोली.
"यह बच्ची कोन है, जिसे तुम बार-बार देख रही थीं." मैंने पूछ ही लिया.
"पोती है मेरी."
"पोती… पर तुम्हारी उम्र…" मेरी आवाज़ थम सी गई.
"दीदी, आप शायद पिछला सब कुछ भूल गई हैं, जब मेरी शादी हुई थी उस समय मेरी उम्र कुल १५ वर्ष की थी."


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अचानक मेरे मस्तिष्क के सारे तंतु एक साथ खुल गए. ठीक कहती है शालू. यह बच्चे तो इसकी बड़ी बहन के बेटे के होंगे. सब कुछ साफ़-साफ़ मेरी आखों के सामने से गुज़र गया. शालू, का चेहरा ज़रा भी बदला नहीं था. वैसा ही भरा हुआ बदन, बड़ी-बड़ी आंखें, ठोड़ी पर तिल और लंबे लहराते बाल, जो अभी भी कालिमा लिए हुए जुड़े की शक्ल में कंधे पर ढुलके हुए थे.
"यहां कहां रहती हैं आप दीदी."
"वह सामने वाली बिल्डिंग देख रही हो, उसके तीसरे फ्लोर पर. एक बेटा और बहू मॉरीशस में है. छोटी यहीं है. बेटी बी.एस.सी. फर्स्ट ईयर में है. तुम्हारे जीजाजी यहीं पोस्टेड हैं. टेलीफोन विभाग में… बस, यही मेरा परिवार है और मेरी ज़िंदगी भी."
"पर जो है वह आपकी अपनी तो है."
"शालू…" मैं उसकी बातों पर कांप उठी.
"हां दीदी, ३० वर्ष तक जिसके लिए तन और मन दोनों का होम किया, वह कभी अपने न हुए तो उनके बच्चों से क्या शिकायत." शालू की आखें फिर डबडबा आईं, जिन्हें स्नेह से अपनी हथेली से मैंने पोंछ दिया. तभी शालू की पोती श्रेया दौड़ती हुई आ गई, "दादी घर चले, मैम के आने का समय हो गया है."
"चलते हैं बेटे. पहले इन्हें प्रणाम करो. यह भी तुम्हारी दादी हैं." मैने श्रेया को प्यार किया फिर शालू ने ही पूछा, "आपके घर का नंबर क्या है दीदी."
"३२३. तू आएगी?"
" "हां दीदी, कल ही आऊंगी. दोपहर में. आपको कहीं जाना तो नहीं है.”
"तू आएगी तो कहीं जाना भी होगा तो नहीं जाऊंगी. मैं कल तेरा इंतज़ार करूंगी." आंखें पोंछते हुए शालू उठ गई, तो मैं भी दोनों बच्चों को लेकर घर आ गई.
दो बेटे और एक बेटी के साथ पति के सानिध्य में बंबई आए हमें १० वर्ष हो गए थे. देहरादून से यहां ट्रांसफर हुआ था निलेश का. बेटा तब पढ़ रहा था. बंगलौर से ही उसका अप्वायन्टमेंट मॉरीशस में हो गया था. ८ वर्ष पूर्व उसका भी ब्याह हो गया था. ६ वर्ष पूर्व छोटे बेटे का भी ब्याह हो गया था.
बेटी अभी १८ वर्ष की थी और बी.एस.सी. फर्स्ट ईयर में थी. उसके लिए हाल ही में एक बड़े कपड़े के व्यापारी के इकलौते पुत्र का रिश्ता आया था. निलेश तो नहीं चाहते थे, पर मै चाहती थी कि यह रिश्ता हो जाए, पता नहीं ऐसा घर और वर फिर मिले या नहीं.
घर पर निलेश टेरेस पर लगाए फूलों को पानी देते हुए मिले. मुझे देखते ही बोले, "कल मौक़ा निकाल कर इन पौधों पर दवा का छिड़काव कर देना. गुलमोहर के पत्तों पर कीड़े लग रहे हैं." मैं शांत रही, किसी से भी बात करने का दिल नहीं कर रहा था. खाना बनवाने में बहू की मदद करने भी उस दिन मैं रसोई में नहीं गई. बार-बार शालू का उदास चेहरा आंखों के सामने तैर जाता. सच कहते हैं अपने मायके का तो कुत्ता भी प्यारा होता है. कैसी आत्मीयता से मिली थी शालू मुझसे.
रात की नीरवता किसी बिखरे पत्तों को समेटने के लिए या अतीत के चलचित्रों को दोहराने के लिए पर्याप्त होती है. निलेश के सोने के बाद मैं टेरेस पर आकर बैठ गई. पार्क का वह कोना घर से साफ़ दिखता था. मुझे लगा अभी भी शालू वहां बैठी सुबक रही है.


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आजमगढ़ की सोंधी मिट्टी में शालू का घर मेरे घर के पास ही था. उसकी बड़ी बहन शीला मेरी सहेली थी. इस कारण शालू मुझे भी दीदी ही बुलाती थी. काल का प्रलयकारी चक्र ही तो था वह. दो बेटों के बाद तीसरे बेटे के जन्म के समय शीला चल बसी. घर में एक तरफ़ मातम था, तो दूसरी तरफ़ वो नन्हें बच्चों के साथ एक नवजात शिशु की देखभाल का प्रश्न भी. ममता का हाथ बच्चे पर कौन रखे, यह विचार सभी के दिमाग़ में कौंध रहा था. फिर शुरू हुई नई मां की खोज. बच्चे इस बीच नानी के घर पर थे. शीला के पति बैंक के बड़े अधिकारी थे. दो कारें थी. जब भी शीला मायके आती, तो भाई-बहनों के लिए ढेर सारा उपहार लाती. शालू तो निहाल हो जाती. मध्यमवर्गीय घराने की बेटी इन उपहारों से निहाल न होती तो क्या होती.
शीला की मौत के बाद १५ वर्ष की शालू सूरज (जीजा) से ब्याह दी गई है. यह समाचार मुझे मेरी ससुराल में ही मिला था. मन में क्षोभ भी हुआ था. वाह रे माता-पिता, एक कच्ची कली को फूल बनने से पहले ही मसल दिया. फिर अपनी घर गृहस्थी और निलेश के प्यार में शालू की तरफ से ध्यान हट गया. मायके जब भी जाना होता मां से शालू के विषय में पूछती ज़रूर, पर शीला की मौत के बाद वहां जाना नहीं हो पाया. फिर मम्मी पापा भी नहीं रहे. धीरे-धीरे जाना भी कम होता गया. अब तो भतीजे-भतीजी की शादी में ही मायके जाना हो पाता था. आज २५- ३० वर्ष बाद शालू को देखकर पिछला सब कुछ याद आ गया.
दूसरे दिन शालू की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. ठीक दो बजे वह आ गई. घर पर सिर्फ़ मैं ही थी. सभी अपने-अपने काम पर थे.
"आ शालू, खाना साथ ही खाते हैं."
"ज़रूर दीदी, मैंने कहा तो नहीं था, पर मुझे लग रहा था कि आप खाने पर मेरा इंतज़ार करेंगी."
खाने के दौरान हम दोनों ही इधर-उधर की बातें करते रहे. खाने के बाद कॉफी पीते हुए मैंने पूछ लिया, "शालू, तू ख़ुश तो है न..?"
"दीदी, आजीवन कारावास के क़ैदी की ख़ुशी क्या और ग़म क्या."
"शालू," उसके हाथों को प्यार से सहलाते हुए मैंने पूछ ही लिया, "यह शादी तूने की ही क्यों?"
"मेरी उम्र ही क्या थी नीलू दीदी. यही कोई १५-१६ वर्ष के बीच, उस समय जीजाजी का पूरा व्यक्तित्व मुझे अच्छा लगता था. दीदी के भाग्य से रश्क भी होता था. जीजाजी जब मुझे छेड़ने के लिए बांहों में भर लेते, तो मैं रोमांचित हो उठती. क्या सही है, क्या ग़लत यह सोचने-समझने की मेरी उम्र ही कहां थी? दीदी के बच्चों के साथ उनकी सूनी पड़ी गृहस्थी में अपने ममत्व से भर दूंगी, यही सोचा था मैंने. लेकिन कल्पना के सामने यथार्थ इतना कठोर होगा, यह किसी ने मुझे बताया ही नहीं.
दीदी के दोनों छोटे बच्चों के साथ तीन मास का नन्हा शिशु भी मेरी गोदी में डाल दिया गया. देर से सोकर उठने के बाद आराम से नहाने धोने वाली मैं अल्हड़ बाला नियम-क़ानून से बांध दी गई. सूरज खरटि भरते और मैं रातभर नन्हें शिशु को कंधे पर लिए सुलाने की कोशिश करती. कभी-कभी बच्चों की चीख-पुकार से चिढ़ कर वह दूसरे कमरे में सोने चले जाते. मेरी ज़िंदगी, घर-रसोई और बच्चों की परवरिश तक ही रह गई. रुपए और गहनों से लदी आलमारी धरी की धरी रह गई. क्या करती मैं उनका."


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"और तुम्हारे अपने बच्चे…" मैने डरते डरते पूछा, कहीं अपने' शब्द का शालू बुरा न मान जाए. शालू हल्के से हंसी… "अपने… दीदी ठीक पूछा आपने. पहले तो मुझे कुछ समझ ही नहीं थी. दो वर्ष बाद जब मुझे कुछ समझ आया, तब पता चला कि सूरज अपना ऑपरेशन करवा चुके हैं. मुझसे विवाह के पहले ही ऑपरेशन करवा चुके थे."
"ओह मां… यह क्या अनर्थ हो गया तेरे साथ…" मेरी आवाज़ में घुला रोष स्पष्ट झलक आया. पत्नी के सबसे बड़े अधिकार से सूरज ने इसे वंचित कर दिया.
"तो सूरज तेरे साथ रहते तो है न?"
"अब इस उम्र में कहां जाएंगे. दो वर्ष पूर्व उन्हें दाहिनी तरफ़ लकवा हो गया है. चलने-फिरने में दिक़्क़त होती है उन्हें. दोनों बेटों ने शादी अपनी मर्ज़ी से की है. तीसरा बेटा कनाडा में है. बच्चे मां बोलते हैं मुझे, पर मां का दर्जा कभी नहीं दिया. शुरू से उन्हें बाहर वालों ने और रिश्तेदारों ने यही समझाया कि मैं उनकी सगी मां नहीं हूं… अब तो सब कुछ सहने की आदत बन चुकी है. पोते-पोतियों के बीच अपना दुख भूल जाती हूं, जो सुख मूल से नहीं मिला, ब्याज से मिल रहा है. यह क्या कम है." शालू की आवाज़ की घर्राहट मैं महसूस कर सकती थी.
"तो तेरी पढ़ाई…"
"नीलू दीदी, आपको तो पता ही है. हाई स्कूल में थी जब मेरी शादी हुई. काश, कुछ पढ़ी ही होती, तो कम से कम अपने पैरों पर तो खड़ी होकर स्वावलंबी बन सकी होती." शालू का अंतिम वाक्य मेरे दिल में सीधे तीर बनकर उतर गया. तभी दरवाज़े की घंटी बजी और मेरी बेटी नेहा ने अंदर प्रवेश किया. उसके हाथ में जीत का एक शील्ड था. शालू को देखकर वह ठिठकी, फिर उन्हें प्रणाम किया.
"यह तेरी मौसी है बेटी शालू मौसी, यहीं रहती हैं. अब हम हमेशा मिला करेंगे."
"गुड, यह तो बहुत अच्छी बात है मां."
" फिर शील्ड मेरे हाथ में पकड़ाते हुए बोली, "यह देखिए मां, विश्वविद्यालय स्तर पर जो वाद-विवाद प्रतियोगिता हुई थी उसमें मैं प्रथम आई हूं."
बेटी के चेहर की आभा, आंखों में चमकती ख़ुशी… और शालू का दुखद अतीत ने मुझे यह निर्णय लेने पर तत्काल विवश कर दिया कि नेहा पहले पढ़ेगी. अपने पैरों पर खड़ी होगी, फिर ब्याही जाएगी. चाहे कितना भी बड़ा घराना इस समय उसे ब्याह करने के लिए तैयार क्यों न हो. आप ही बताइए, मेरा यह निर्णय सही है ना..!

- साधना राकेश

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