छोटे-छोटे बच्चों का हाथ पकड़े परिवार के परिवार घूम रहे थे और जीवन के हर रंग का आनंद उठा रहे थे. वे जब पांच रुपए का गुब्बारा या सात रुपए की पिपिहरी भी ख़रीदते, तो रुपए-दो रुपए का मोलभाव कर लेते. इसके बाद छोटे-छोटे खिलौनों को बच्चों को सौंपते हुए अजीब-सी तृप्ति की अनुभूति होती उन्हें. बच्चे भी खिलौने पाकर ऐसे ख़ुश होते, जैसे उन्हें मुंहमांगी मुराद मिल गई हो. कितना फ़र्क़ है इस मेले और शॉपिंग मॉल की भीड़ में, जहां 50% डिस्काउंट के बाद भी सामान ख़रीदने का कोई सुख नहीं है.
अपने कंप्यूटर के पिक्चर-फोल्डर में कैद तस्वीरों को वो ध्यान से देखने लगा. शिमला टूर के ब़र्फ से भरे पहाड़ थे, तो जैसलमेर के रेत भरे छोटे-छोटे टीले. इस फोल्डर में एक तरफ़ मनाली की ख़ूबसूरत वादियां कैद थीं, तो दूसरी तरफ़ गोवा के समुद्र तट पर अठखेलियां करती ज़िंदगी की रंगीनियां. एक-एक तस्वीर कहीं न कहीं संपन्न जीवनशैली की गवाह थी. फिर भी जब उन तस्वीरों को ध्यान से देखते, तो लगता सब कुछ होने के बाद भी इनमें सूनापन है.
आदमी की भूख को ख़ूबसूरत नज़ारों, फाइव स्टार होटल के टेबल पर सजे खाने या जीवन की रंगीनियों से नहीं मिटाया जा सकता. सच तो यह है कि आदमी क्या चाहता है, यह वह भी नहीं जानता.
उसने कंप्यूटर बंद कर दिया. उसे एहसास हुआ कि यह खिलौना अब उसे ख़ुशी देने में नाकाम है. बारह घंटे की ड्यूटी में कम से कम सात-आठ घंटे तो वह इस कंप्यूटर से चिपका रहता है. अचानक उसने सोचा, क्या हमारा जीवन आज इतना एकाकी हो गया है कि हमें बातचीत करने के लिए भी अजनबियों की ज़रूरत पड़े?
उसने बैठे-बैठे ही रिवॉल्विंग चेयर पर अंगड़ाई ली और चेंबर के बाहर झांका, तो देखा रामदीन सिर झुकाए खड़ा था.
ओह, तो क्या सात बज गए और घर चलने का समय हो गया? रामदीन का नियम था कि वह सात बजे गाड़ी लगाकर साहब के केबिन के सामने बैठ जाता. कहता कुछ नहीं और शिखर समझ जाता कि काम ख़त्म होने से रहा, अब चलना चाहिए. हां, ज़्यादा ही ज़रूरी होता, तो वह रामदीन को कह देता कि आप घर निकल जाइए, आज मैं ख़ुद ही ड्राइव कर लूंगा, लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं कि रामदीन ने शिखर को अकेला छोड़ा हो. वह कहता, “साहब मुझे भी जल्दी घर जाकर क्या करना है?” और उसका यह जवाब सुन शिखर मुस्कुरा देता.
शिखर रामदीन से इतने दिनों में काफ़ी घुल-मिल गया था. अचानक शिखर ने रामदीन को इशारा किया, नियम के अनुसार रामदीन ने शीशे का दरवाज़ा खोला, ब्रीफकेस में लंच बॉक्स रखा और एक हाथ में पानी की बोतल और दूसरे हाथ में ब्रीफकेस उठाकर चल पड़ा. इससे पहले कि रामदीन बाहर निकलता, शिखर ने कहा, “रामदीन क्या आज तुम मुझे कोई नई जगह घुमा सकते हो?” रामदीन सोच में पड़ गया, “साहब, इस शहर का कोई भी होटल, शॉपिंग मॉल या क्लब आपसे छूटा नहीं है.”
“तभी तो तुमसे कह रहा हूं कि क्या कोई नई जगह दिखा सकते हो? ऐसी जगह जहां ज़िंदगी सांस लेती हो, क्योंकि होटल हो या शॉपिंग माल, ये सारी जगहें बेजान मशीन की तरह हो गई हैं. इनमें एक-सा स्वाद है. रहे क्लब्स, तो वो भी बस दिखावट के अड्डे भर रह गए हैं. रामदीन तुम उम्र में मुझसे बड़े हो, क्या तुम्हारी ज़िंदगी में भी इतनी कम उम्र में सूनापन आ गया था?”
रामदीन ने शिखर की आंखों में छुपे दर्द को पढ़ लिया था. बोला, “साहब बड़ी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं. हां, आप कुछ अलग देखना चाहें, तो एक जगह है, पर वह आपके स्टैंडर्ड की नहीं है. वहां हम जैसे लोग ही जाते हैं.”
शिखर सोच में पड़ गया. फिर बोला, “कोई बात नहीं, तुम बताओ तो सही. यह छोटा-बड़ा कुछ नहीं होता.”
रामदीन का साहस थोड़ा बढ़ा. बोला, “साहब शहर के बाहर रामलीला ग्राउंड में मेला लगा है. आप कहें तो घुमा लाऊं, लेकिन अकेले नहीं. आप मेमसाब को भी लेंगे, तभी घूमने का मज़ा आएगा.”
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शिखर मेले के नाम से ही जैसे खो-सा गया. मेले में चर्खीवाला झूला, टोपी से फूल निकालनेवाला जादूगर, गुड़ की मिठाइयां... हा हा... वह ज़ोर से हंसा. कितने मेले तो देखे हैं उसने बचपन में. उसके घर के बगल में ही तो था मेला ग्राउंड और गर्मी की छुट्टियों में शाम होते ही जैसे कोई ताक़त उसे मैदान की तरफ़ खींचना शुरू कर देती और जब टिकट के पैसे न होते, तो वह मेले के बाहर ही खड़ा होकर भीतर के नज़ारों को महसूस करता.
शिखर को चुप देखकर रामदीन बोला, “साहब घर चलिए. वो तो मैंने ऐसे ही कह दिया था. मेला भी कोई घूमने की चीज़ है आज के ज़माने में.”
शिखर गंभीर होते हुए बोला, “रामदीन सचमुच मेला इस ज़माने में भी देखने की चीज़ है. रुको, मैं फ़ोन कर देता हूं घर पर और आज मेला देखने ही चलते हैं.”
“हैलो, हैलो... सुनो, तैयार हो जाओ, आधे घंटे में पहुंच रहा हूं. आज हम लोग अनोखी जगह घूमने जा रहे हैं और हां, सिंपल कपड़े ही पहनना. क्रेडिट कार्ड और पर्स की ज़रूरत नहीं है. बस, थोड़े पैसे रख लेना, काम चल जाएगा.”
“पहेलियां मत बुझाओ शिखर, ये बताओ हम जा कहां रहे हैं?” उधर से श्रुति की आवाज़ सुनाई दी. शिखर ने मुस्कुराते हुए कहा, “आज मैं तुम्हें मेला दिखाने ले जा रहा हूं.”
“तुम भी कमाल करते हो शिखर. अब इस उम्र में मुझे मेला दिखाने ले जाओगे.”
“कहते हैं ज़िंदगी ही एक मेला है, तो इस उम्र में मेला देखने में हर्ज़ क्या है?”
शिखर जब घर के दरवाज़े पर पहुंचा, तो गाड़ी का हॉर्न सुन श्रुति को बाहर निकलते देख चौंक गया. वह एक साधारण-सी सूती साड़ी में अत्यंत सौम्य लग रही थी.
उसका यह रूप देख शिखर मुस्कुराए बिना न रह सका.
“क्या भाई, आज मेरी चाय भी मारी गई इस मेले के चक्कर में...?” कहते हुए शिखर ने कार का दरवाज़ा खोल दिया और भीतर एक हल्की हंसी गूंज उठी.
अब तक रामदीन को जोश आ चुका था. “साहब आज चाय मैं पिलाऊंगा मुखिया ढाबे की. आप और मेमसाब बस बैठे रहना, मैं गाड़ी में ही ले आऊंगा.” नोक-झोंक में पता ही न चला कि कब हाई वे छोड़ कस्बे का टर्न आ गया और जब कस्बे के मोड़ पर गाड़ी रुकी तो रामदीन चाय लेने चला गया.
“साहब कहते हैं जिसने मुखिया के ढाबे की चाय नहीं पी, समझो उसने कुछ नहीं पिया.”
शिखर ने चाय ले ली और एक कुल्हड़ श्रुति की ओर बढ़ाते हुए जैसे ही पैसे के लिए पर्स निकाला, रामदीन बोला, “साहब यह चाय हमारी तरफ़ से. आप हमारे मेहमान हैं.”
शिखर की लाख कोशिशों के बाद भी रामदीन ने चाय के पैसे नहीं लिये. चाय वाकई लाजवाब थी और मिट्टी के बर्तन में होने के कारण एक सोंधी ख़ुश्बू उसमें से उठ रही थी, जो भीतर तक शिखर को तरोताज़ा कर गई. रामदीन ने गाड़ी आगे बढ़ाई और दस मिनट में कस्बे के रामलीला ग्राउंड के सामने लाकर रोक दी.
देखकर ही पता चल रहा था कि यह आम आदमी की जगह है. लोगों की अच्छी-ख़ासी तादाद थी, लेकिन उम्मीद के विपरीत धक्का-मुक्की और अव्यवस्था कहीं नहीं थी.
छोटे-छोटे बच्चों का हाथ पकड़े परिवार के परिवार घूम रहे थे और जीवन के हर रंग का आनंद उठा रहे थे. वे जब पांच रुपए का गुब्बारा या सात रुपए की पिपिहरी भी ख़रीदते, तो रुपए-दो रुपए का मोलभाव कर लेते. इसके बाद छोटे-छोटे खिलौनों को बच्चों को सौंपते हुए अजीब-सी तृप्ति की अनुभूति होती उन्हें. बच्चे भी खिलौने पाकर ऐसे ख़ुश होते, जैसे उन्हें मुंहमांगी मुराद मिल गई हो.
कितना फ़र्क़ है इस मेले और शॉपिंग मॉल की भीड़ में, जहां 50% डिस्काउंट के बाद भी सामान ख़रीदने का कोई सुख नहीं है.
अचानक शिखर ने श्रुति का हाथ पकड़ा, तो वह तंद्रा से जागी, “छोड़ो भी, कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?” श्रुति ने हाथ छुड़ाते हुए कहा.
शिखर हंसने लगा. “यहां हमें जाननेवाला कौन है? चलो झूला झूलते हैं.”
ज़ोर से हंसी श्रुति, “और तुम्हें चक्कर आ गया तो?” “ओह! मैं तो भूल ही गया था कि मुझे झूले में चक्कर आता है. अरे यहां क्या है?” वो श्रुति का हाथ पकड़ एक रिंग की स्टॉल की ओर बढ़ते हुए बोला, “सुनो भैया, एक तरफ़ इनका और दूसरी तरफ़ मेरा नाम लिख दो.”
दुकानदार ने पूछा, “जी क्या नाम लिखूं?”
तभी एक आवाज़ सुनाई पड़ी, “क्यों रे कलुआ, तू हमारी मेमसाब को नहीं जानता? लिख श्रुति मेमसाब और बड़े साहब.”
अपना नाम सुनकर श्रुति चौंकी. पीछे देखा तो उसकी कामवाली खड़ी थी. “अरे तेरी तो तबियत ख़राब थी और तू यहां मेले में घूम रही है?” श्रुति ने उसे डांटते हुए कहा.
“सारी मेमसाब. हमें क्या पता था कि आप मेले में मिल जाएंगी. अब से ऐसी ग़लती नहीं होगी.”
श्रुति ने हंसते हुए पर्स से पचास रुपए निकाले और देते हुए बोली, “ले रख इसे और जाकर मेला घूम.”
उधर देखा, तो शिखर अपने और श्रुति के नामवाली रिंग बनवा बेहद ख़ुश था. देखते-देखते श्रुति ने भी मेले से ढेर सारी चीज़ें ख़रीद डालीं. रोज़मर्रा के सस्ते बर्तन, चूड़ी-बिंदी और न जाने क्या-क्या?
शिखर भी मेले के रंग में पूरी तरह डूब चुका था. वो कभी एयर गन से निशाना लगाता, तो कभी बॉल से ग्लास गिराने की कोशिश करता. भरपूर ख़रीददारी के बाद भी देखा, तो ख़र्च स़िर्फ सात या आठ सौ रुपए हुए थे, जितने में शायद एक ब्रांडेड शर्ट ही आती.
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एक-दो घंटा घूमकर जब वे दोनों मेले से बाहर निकले, तो रोज़मर्रा के तनाव से बहुत दूर जा चुके थे. क्या नहीं देखा था उन्होंने मेले में... बोलनेवाले सांप से लेकर ताश के जादू तक. भीतर जाने पर सांप के पिंजरे पर लिखा था, “यह अपनी ज़ुबान में बोलता है, आप उसकी ज़ुबान जानते हैं, तो समझ सकते हैं.” वहीं जादूगर कहता, “साहब, सब नज़र का फेर है. पकड़नेवाले को पांच सौ का नगद इनाम और फिर बातों में ऐसे उलझाता कि हाथ की सफ़ाई कोई पकड़ ही नहीं पाता.
जब वे गाड़ी में बैठे, तो सोचने लगे कि हम अपनी सरल ज़िंदगी को दिखावे के चक्कर में कितना भारी बना लेते हैं. पूरी गाड़ी छोटे-छोटे सामानों से भर गई और रामदीन दोनों की ख़ुशी देखकर गदगद हुए जा रहा था. अगली सुबह संडे था और जब शिखर बरामदे में आया, तो देख कर हैरान रह गया कि श्रुति कल के लाए सामानों को आसपास छोटा-मोटा काम करनेवालों में बांट रही थी. किसी को खिलौना देती, तो किसी को चूड़ी-बिंदी. वह एक-एक चेहरे की ख़ुशी देखती और निहाल हो जाती. सच है, जो सुख बांटने में है, वह संग्रह करने में नहीं और जब उसने पीला कुर्ता रामदीन की ओर बढ़ाया, तो उसकी आंखें छलक आईं.
“जुग-जुग जीयो बेटी, भगवान तुम्हें लंबी उमर दे.” भर्राये गले से रामदीन बोला. उसे पहली बार एहसास हुआ कि वह केवल ड्राइवर भर नहीं, इस घर के किसी सदस्य की तरह है.
और फिर बोला, “बेटा, तुमने आज मेले के सही अर्थ को समझा है, यदि बाहरी मेले से हम हृदय में उमंग और ख़ुशी के असली मेले को जगा सकें, तो समझो घूमना-फिरना सफल हो गया, वरना पहाड़ पर घूम आओ या शॉपिंग माल में, सब निरर्थक है.” और अब शिखर रामदीन की सरल भाषा में कही हुई बात का ज़िंदगी के मेले के संदर्भ में गूढ़ अर्थ ढूंढ़ने लगा था.
मुरली मनोहर श्रीवास्तव
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