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शिक्षक दिवस पर विशेष: कहानी- मास्टर साहब‌ (Short Story- Master Sahab)

"… आपको याद है, आप किस तरह मुझे मैथिलीशरण गुप्तजी की वो पंक्तियां सुनाते थे- जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह हृदय नहीं, वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं… और साथ ही आप मुझे कितने ही स्वतंत्रता संग्रामियों के क़िस्से सुनाते थे.''
 मेरी बात पर वे मुस्कुराकर बोले, ''तुम्हें याद है वह सब?''

काम की व्यस्तता के चलते मेरा अपने शहर महोबा में अब बहुत ही कम जाना होता था. इस बार लंबी छुट्टियां मिली, तो जैसे उस शहर ने मुझे अपने पास बुला लिया. इस बार मां-पिताजी के साथ ख़ूब मज़े से रहा. बचपन वाले दोस्तों से मिला. इस बार बचपन की यादों वाले इस शहर को फिर से बड़ी फ़ुर्सत से देखा. बस ऐसे ही छुट्टियां ख़त्म हो गईं. अपनी डयूटी पर वापस जाने से पहले मैं तैयार होकर शहर के प्रचीन मंदिर की ओर मां चंडिका के दर्शनार्थ चल पड़ा. मंदिर हमारे घर के पास ही था, इसलिए मैं पैदल ही गया. माता के दर्शन कर मैं लौट ही रहा था कि तभी मुझे मेरे कुछ ही आगे चलते हुए खादी का सफ़ेद रंग का कुर्ता पहने मास्टर साहब दिखाई दिए. मैंने झट से आगे बढ़कर उनके चरण छूकर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा, ''कैसे हैं मास्टरजी! कितने सालों बाद आपको देख रहा हूं.''


तभी वे चश्मे के अंदर से अपनी आंखें सिकुड़ते हुए बोले, ''कौन हो बेटा तुम! वर्दी से तो भारतीय सेना के जवान मालूम पड़ते हो.''
''जी, अभी तो सेना का जवान ही हूं, पर बचपन में आपका विद्यार्थी हुआ करता था मैं! वही उद्दंड दीपक हूं जिसने कभी आपकी नाक में दम कर रखा था ''
''अरे, दीपक बेटा! अब याद आया, तुम मेरी कक्षा के सबसे शरारती और बदमाश बच्चे थे. तुम सेना में कैसे पहुंच गए? तुम्हें तो अपने देश में कोई रुचि नहीं थी.''
''जी, मास्टरजी, रुचि नहीं थी, लेकिन आपने उस दौरान मुझे देशभक्ति का ऐसा पाठ पढ़ाया कि मेरी रुचियां बदल गईं.


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आपको याद है, आप किस तरह मुझे मैथिलीशरण गुप्तजी की वो पंक्तियां सुनाते थे- जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह हृदय नहीं, वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं… और साथ ही आप मुझे कितने ही स्वतंत्रता संग्रामियों के क़िस्से सुनाते थे.''
 मेरी बात पर वे मुस्कुराकर बोले, ''तुम्हें याद है वह सब?''
''जी मास्टर साहब, सब याद है तभी तो मैं आज भारतीय सेना का जवान हूं. आपने बचपन में जो देशभक्ति और कर्मठता का बीज मुझ जैसे शरारती बच्चे के मन में बोया था, वही बीज आज मज़बूत दरख़्त बनकर आपके सामने खड़ा है.'' मैंने दोनों हाथ फैलाकर लंबा सीना करते हुए कहा, तो वे बोले, ''वाह! तुम्हें देखकर गर्व हुआ बेटा! लेकिन मैंने तो केवल तुम्हे प्राथमिक शिक्षा ही दी थी. उसके बाद तुम्हें जो शिक्षा मिली, उस शिक्षा का और तुम्हारी मेहनत का ही यह फल है.''


 ''मास्टर साहब, किताबों वाला ज्ञान तो कोई भी दे देता है, लेकिन जीवन का जो ज्ञान देते हैं, जो एक आलसी व्यक्ति को कर्मठ बनाते हैं, जो कुछ करने की चाह मन में भरते हैं, जो असफलताओं से लड़ना, गिरकर उठना सिखाते हैं, वही तो जीवन के असली शिक्षक होते हैं, आप मेरे जीवन के वही शिक्षक हैं, आपने मुझे केवल प्राथमिक शिक्षा नहीं दी आपने मेरी जड़े रोपी हैं, आपको पता भी नहीं है मास्टर साहब कि आपने मुझ जैसे उद्दंडी का जीवन किस तरह संवारा है."
वे मेरे द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर मुस्कुराए, तो मैं आगे बोला, ''आप रोज़ सुबह हर हाल में बिल्कुल समय पर विद्यालय आते थे. हमें स्कूल आने के लिए प्रेरित करते थे. कठिन से कठिन विषय को रोचक बनाते थे. अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को दरकिनार करके सहजता से पढ़ाते थे. आपको शायद पता नहीं कि आप जैसे शिक्षक ही हैं, जिसने हर क्षेत्र में हम जैसे कर्मठ नौजवानों का सृजन किया है. आपको मेरा ह्रदय से आभार!''


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मास्टर साहब के समक्ष मैंनें अपना सिर झुकाया, तो उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे आशीष दिया और मैं उनका आशीष लेकर फिर अपने कर्तव्यपथ पर चल दिया.

writer poorti vaibhav khare
पूर्ति खरे

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Photo Courtesy:  Freepik

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