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कहानी- मार्केटिंग (Short Story- Marketing)

“मार्केटिंग! यानी जो दिखता है, वही बिकता है. मैं क्या कोई प्रोडक्ट हूं?” रजतजी ग़ुस्सा हो गए थे. “सॉरी, ग़लत शब्द यूज़ कर गया. मैं सिर्फ़ यह कहना चाहता हूं कि मेरा प्रयास आपकी मदद करने का था, हर्ट करने का नहीं.”

बेहद उखड़े मूड में रजत प्रकाशजी नाश्ते की टेबल पर आकर बैठ गए तो मां-बेटे के बीच चल रही फुसफुसाहट यकायक थम गई. सरोजजी की नज़रें पति के चेहरे पर जम गईं. मन में ख़्याल उभरा. धीरे-धीरे बढ़ रही है चेहरे की लकीरें, नादानी और तजुर्बे में बंटवारा हो रहा है. साहिल ने पापा की प्लेट में आलू का परांठा रखा, तो सरोजजी ने दूध का ग्लास उनकी ओर बढ़ा दिया, “नई-नई नौकरी का आज पहला दिन है, तो ख़ुशी-ख़ुशी ऑफिस जाइए न.”

“कोई ख़ुश रहने दे तब ना...” रजतजी ने वक्र दृष्टि से पुत्र को देखा, तो साहिल चुप ना रह सका. हालांकि कुछ देर पूर्व ही उसने मां से वादा किया था कि वह अब इस मुद्दे पर पापा से कुछ बहस नहीं करेगा.

“आपकी ख़ुशी के लिए ही मैंने सिंह अंकल से बात की थी. दो जगह से नकारात्मक जवाब मिलने के बाद आपके चेहरे पर छाई मायूसी मुझे अच्छी नहीं लग रही थी. पापा आप योग्य हैं, विद्वान हैं. पर यह मार्केटिंग का ज़माना है. अपनी योग्यताओं, अनुभवों, ख़ूबियों का ढिंढोरा पीटना पड़ता है.”

“मार्केटिंग! यानी जो दिखता है, वही बिकता है. मैं क्या कोई प्रोडक्ट हूं?” रजतजी ग़ुस्सा हो गए थे.

“सॉरी, ग़लत शब्द यूज़ कर गया. मैं स़िर्फ यह कहना चाहता हूं कि मेरा प्रयास आपकी मदद करने का था, हर्ट करने का नहीं.”

“इतने सालों में भी तुम्हें मेरा नेचर समझ नहीं आया कि क्या चीज़ मुझे हर्ट करती है और क्या प्रसन्न? 37 साल का बेदाग़ करियर रहा है मेरा! ना कभी चेक या जैक देकर ख़ुद आगे बढ़ा, न अनुचित तरी़के से किसी को बढ़ने दिया. माना औरों के मुक़ाबले कुछ ज़्यादा नहीं पाया मैंने. पर ख़ुद गिरता-संभलता रहा, किसी को गिराया नहीं मैंने.”

“सिंह अंकल यानी आपके एक्स बॉस से आपकी अनुशंसा करवाना वह भी एकदम खरी और सच्ची, किसी जेक या चेक की श्रेणी में नहीं आता पापा!”

“पर मुझे सब कुछ अपने बलबूते पर ही हासिल करना है, अपनी योग्यता से.”

“आपको...” साहिल का जवाब अधूरा ही रह गया, क्योंकि बीच में ही मां ने मोर्चा संभाल लिया था.

“पहले दिन ही ऑफिस लेट जाएंगे क्या? आपका टिफिन तैयार है. और हां, शाम को जल्दी आने का प्रयास करना. राशि आएगी.”

“आपको तो दीदी ही समझाएगी.” अपना टिफिन उठाकर साहिल चलता बना.

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“समझाएगी? मैं क्या कोई छोटा बच्चा हूं, जो वह मुझे समझाएगी?” रजतजी गरजे. लेकिन इस बार जवाब देने के लिए कोई मौजूद नहीं था. साहिल की बाइक स्टार्ट हो चुकी थी और सरोजजी बैग में उनका टिफिन डालने में व्यस्त थीं.

“मैं कर लूंगा...” लगभग झपटते हुए उन्होंने अपना बैग लिया और गाड़ी की चाबी उठाकर चलते बने. सरोजजी किंकर्तव्यविमूढ़ उन्हें निहारती रह गईर्ं. कुछ ज़्यादा ही चिड़चिड़े नहीं हो गए हैं रजत इन दिनों? कहां तो वे सोच रही थीं कि अपने पति के इतने व्यस्त सरकारी ओहदे से सेवानिवृत्त होने के बाद वे दोनों शांतिपूर्ण सुखमय समय गुज़ारेंगे. बेटी राशि की तो शादी कर ही दी है. साहिल के लिए भी उचित मैच मिलते ही उसका भी ब्याह कर वे अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाएंगे. लेकिन रजतजी के दिमाग़ में तो कुछ और ही चल रहा था. सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद वे प्राइवेट नौकरी तलाशने लगे थे.

“सारी ज़िंदगी व्यस्त रहा हूं. तो अब हाथ पर हाथ धरे कैसे बैठ सकता हूं?”

“बहू तलाशने का समय है और आप नौकरी तलाश रहे हैं?”

”तुम तो ऐसे ताना मार रही हो जैसे मैं अपने लिए लड़की देख रहा हूं. अरे, अपने लिए लड़की साहिल ख़ुद तलाशेगा. हमारा काम स़िर्फ विवाह संपन्न करवाना है.” बच्चों ने भी पापा की हां में हां मिलाई तो सरोजजी को चुप रह जाना पड़ा. लेकिन नई नौकरी और वह भी इस उम्र में मिलना आसान नहीं था. एक-दो बार असफल होते ही रजतजी पर मायूसी और चिड़चिड़ाहट हावी होने लगी, तो परिवारजन चिंतित हो उठे. कहीं एक के बाद एक विफलता से वे अवसाद में न चले जाएं. फ़िक्रमंद बेटे ने एहतियात बरतते हुए इस बार पापा के एक्स बॉस सिंह साहब से उनकी अनुशंसा करवा दी थी. उसे ज्ञात हुआ था कि जिस संस्थान में पापा प्रयास कर रहे हैं, उसके मालिक सिंह अंकल के दोस्त हैं. रजतजी को नौकरी मिल जाने पर ख़ुशी और बेख़्याली में यह बात मां-बेटे से उनके सामने ही निकल गई थी. बस तभी से रजतजी का मूड उखड़ा हुआ था.

बेटी राशि के आ जाने से सरोजजी को कुछ संबल मिला. राशि पापा की लाडली, दुलारी थी. कई असंभव से लगने वाले काम भी मां-बेटे ने राशि के सौजन्य से रजतजी से निकलवाए थे. इस बार मामला थोड़ा टेढ़ा था. लेकिन सरोजजी ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी.

राशि की मदद से उन्होंने पति का पसंदीदा गाजर का हलवा तैयार कर लिया था. चाय-पकौड़ों की भी तैयारी हो गई थी. घर में बेटी की उपस्थिति मात्र ने रजतजी के चेहरे पर मुस्कान ला दी थी. पर उसके आने का मंतव्य ध्यान आते ही उनका मूड फिर उखड़ने लगा. ऑफिस में उनका दिन अच्छा गुज़रा था. संस्थान के मालिक उनसे ख़ुश थे, पर रजतजी को लग रहा था यह सब सिंह साहब की अनुशंसा का प्रसाद है, ना कि उनकी अपनी कर्मठता और योग्यता का प्रतिफल. रह-रहकर फिर साहिल पर ही ग़ुस्सा आ रहा था. क्या ज़रूरत थी उसे यह सिफ़ारिशी नौकरी दिलाने की? देर-सवेर उन्हें अपनी योग्यता और अनुभव के बल पर कोई नौकरी मिलनी ही थी. ख़ैर नई नौकरी के लिए वे अपने प्रयास जारी रखेंगे. पर इस बार गुपचुप तरीक़े से. तब तक इसे ही निभाते रहेंगे.

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पहले लाडली बेटी और फिर पसंदीदा गाजर के हलवे का दीदार हुआ, तो रजतजी की पेशानी के बल ढीले पड़ने लगे. चाय-पकौड़े खाते तो वे चहकने ही लगे थे. और अपने नए संस्थान और सहकर्मियों की बातें बताने लगे.

“चलो अच्छा हुआ, आपका मन लगा रहेगा. इसी में हम सब ख़ुश हैं.” सरोजजी ने राहत की सांस ली.

“हां, बस एक ही फांस है. काश! यह नौकरी मुझे अपने कैलिबर से मिली होती.”

“पापा, आपको आज तक सब कुछ अपने कैलिबर से ही मिला है. और यह नौकरी भी कोई अपवाद नहीं है. सोचो, आप योग्य और अनुभवी नहीं होते तो क्या किसी की अनुशंसा मात्र से आपको इतनी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सौंप दी जाती? याद कीजिए, जब आप डीन थे. मैं और साहिल कितनी बार अपने दोस्तों और उनके रिश्तेदारों की सिफ़ारिशें लेकर आपके पास आते थे, पर आपने साफ़ कह रखा था कि आपके इंस्टिटयूट में आपके रहते मेरिट के आधार पर ही प्रवेश, उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण का निर्णय होगा.” राशि ने याद दिलाया.

“फिर साहिल ने ऐसी बचकानी हरकत क्यों की?”

“खून का रिश्ता पापा! अपनों की काबिलियत जानते हुए भी उनके लिए फ़िक्रमंद होना इंसान का स्वभाव है. और इसी फ़िक्र के वशीभूत हम एहतियात के तौर पर कुछ भी कर जाते हैं. जो रिश्ते हमारी ताक़त होते हैं, अक्सर वे ही हमारी कमज़ोरी भी होते हैं. मैं बचपन में जितनी चंचल और वाचाल थी, उतनी ही प्रतिभाशाली थी, आपने ख़ुद मुझे बताया है. घर में कोई भी रिश्तेदार या मेहमान आता, तो आप दोनों उन्हें मेरी प्रतिभा दिखाने हेतु लालायित हो उठते. कभी मुझे राइम बोलने को कहते, कभी डांस करने को, तो कभी मिमिक्री करने को. मेहमानों के मुख से मेरी प्रशंसा सुन आपके चेहरे पर अपूर्व आनंद और संतुष्टि पसर जाती थी.”

“मेरी बच्ची थी ही इतनी काबिल!” अतीत को स्मरण कर रजतजी के चेहरे पर आज भी गर्व छलक उठा.

“यही नहीं, जब शहर के सबसे प्रतिष्ठित स्कूल में मेरे एडमिशन की बात आई, तो आप मुझे अपने साथी शिक्षक के घर ले गए थे. जिनकी पत्नी उसी स्कूल में शिक्षिका थी. वहां भी मेरी प्रतिभा का प्रदर्शन हुआ. सबने मुझसे इंग्लिश में ढेरों सवाल-जवाब किए. क्या आप वहां मेरी मार्केटिंग कर रहे थे? आपको भरोसा नहीं था कि मुझे अपनी प्रतिभा के बल पर उस स्कूल में प्रवेश मिल जाएगा?” रजत जी का चेहरा बुझ गया.

“भरोसा था बेटी! पर वह शहर का सबसे मशहूर व प्रतिष्ठित एकमात्र गर्ल्स स्कूल था, जहां बहुत सीमित सीटें थीं. बड़े-बड़े राजनेताओं, अफसरों, धन्ना सेठों में येन केन प्रकारेण अपनी बच्चियों को उस स्कूल में प्रवेश दिलवाने की होड़ सी मची थी. एक पिता के फ़र्ज ने मुझे अपने सीमित संसाधनों में भी समुचित प्रयास करने के लिए प्रेरित किया. अच्छे इंस्टिट्यूट और अच्छी शिक्षा का महत्व भला मुझसे बेहतर और कौन समझ सकता है? लेकिन तू क्या बचपन के उस छोटे से प्रसंग को लेकर बैठ गई? और शायद तुझे याद नहीं. तुझे वहां प्रवेश तेरे अपने कैलिबर से ही मिला था. तेरे प्रवेश के बाद हम मिठाई लेकर उन शिक्षक के घर गए थे. तब उनकी शिक्षिका पत्नी ने बताया कि उनके पास इतनी सिफ़ारिशें थीं कि उन्होंने निश्‍चय किया कि वह किसी की अनुशंसा नहीं करेंगी. आपकी बेटी का प्रवेश उसके अपने कैलिबर से हुआ है. इस मिठाई की हक़दार वह है.”

“ठीक है, बचपन की बात जाने देते हैं. जब आप मेरे लिए योग्य वर खोज रहे थे, तब भी तो आप हर संभावित जगह मेरी तारीफ़ के कसीदे पढ़ने लगते थे. आप और चाचा मेरी प्रथम श्रेणी डिग्री, कैंपस प्लेसमेंट, हाई पैकेज की बातें बताते. तो मम्मी, दादी, चाची मेरी सुंदरता, पेंटिंग, पाक कला की तारीफ़ में तल्लीन हो जातीं. क्या आप सब मेरी मार्केटिंग कर शादी के बाज़ार में मेरी वैल्यू बढ़ा रहे थे? उस सबके बिना क्या मेरी शादी नहीं होती?” मम्मी-पापा दोनों ही इस वार से तिलमिला गए.

“कैसी घटिया बातें कर रही है तू... सामने वाले को जब तक बताया नहीं जाएगा, उसे तुम्हारी ख़ूबियां कैसे पता चलेंगी? विवाह योग्य बायोडाटा में कितना कुछ बताया जा सकता है? जो तेरे अपने हैं, चौबीस घंटे साथ रहते हैं, वही तो सब बता पाएंगे.”

“और हमने किसी से कभी तेरी झूठी या बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ़ नहीं की. कहीं गाने के लिए पूछा गया था, तो मैंने साफ़ कह दिया था कि वह डांस अच्छा करती है, गाना नहीं आता. देसी खाना अच्छा बना लेती है, पर कॉन्टिनेंटल वगैरह नहीं आता. आप सिखाएंगे तो सीख लेगी.” मां बोल पड़ीं.

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“एक एनआरआई का रिश्ता था तेरे लिए, चूंकि तू विदेश में सेटल नहीं होना चाहती थी, इसलिए मैंने पहले ही मना कर दिया था. जहां भी तेरी बात चलाई, वे घर-परिवार तेरी रुचि के अनुकूल थे. पहले दो जगह तेरा रिश्ता नहीं हो पाया था, तो थोड़ा मायूस अवश्य हुए थे. पर फिर यह सोचकर और रिश्ते तलाशने लगे कि यह उन लोगों का दुर्भाग्य है कि वे तुझ जैसी सुकन्या को बहू नहीं बना पाए. ज़रूरी नहीं सब लोग आपको समझ पाएं. तराजू स़ि़र्फ वज़न बता सकता है, क्वालिटी नहीं. तुझे भी यही समझाया था. तू हीनभावना से ग्रस्त न हो जाए, इसके लिए भी हम हर जगह तेरी प्रशंसा करते थे. यह हमारा अपनी संतान के प्रति प्यार था, उसके लिए फ़िक्र थी. तुम इसे ग़लत तरी़के से लो, तो यह तुम्हारी ग़लती और हमारा दुर्भाग्य है.” रजतजी दुखी थे.

“तो फिर यही सब जब साहिल कर रहा है, तो उससे इतनी नाराज़गी क्यों? पैरेंट्स बच्चों के लिए कर सकते हैं, बच्चे पैरेंट्स के लिए नहीं? रोशनी फैलाने के लिए दीया बनना ज़रूरी नहीं. आपने आईना बनकर यह काम किया है पापा. रिश्ते खून के हों या एहसास के, उनमें ज़िद नहीं आनी चाहिए, वरना ज़िद जीत जाती है और रिश्ते हार जाते हैं. आपकी योग्यता, अनुभव पर हमें तनिक भी संदेह नहीं है पापा! जहां आपका चयन नहीं हो पाया, यह उन लोगों का दुर्भाग्य है कि वे आपके अनुभवों और कार्यकौशल का लाभ उठाने से चूक गए. आपकी मायूसी ने ही मुझे मजबूर किया कि मुझे साहिल को सिंह अंकल से संपर्क करने के लिए कहना पड़ा.”

“क्या!” दोनों बेतरह चौंके, “तो साहिल सब ख़ुद पर क्यों ले रहा है?”

“क्योंकि आप दोनों के साथ-साथ वह मुझे भी तो बेपनाह प्यार करता है, केयर करता है. एक अच्छा रिश्ता हमेशा हवा की तरह होना चाहिए. ख़ामोश मगर हमेशा आसपास. सफल रिश्तों के यही उसूल हैं. बातें भूलिए, जो फिज़ूल हैं.” मम्मी-पापा को एक-दूसरे को ताकते और फिर मुस्कुराते देखा तो राशि ने राहत की सांस ली.

“अब जल्दी से तैयार हो जाइए. हम लोग मॉल में डिनर के लिए जा रहे हैं. हम बच्चों की ओर से आपकी जॉइनिंग की पार्टी.”

“पर साहिल और अश्‍विन?”

“दोनों सीधे वहीं पहुंचेंगे.”

बेटी और पत्नी का हाथ थामे मॉल में प्रविष्ट होते रजतजी सोच रहे थे, ‘ज़िंदगी में कौन आगे निकल गया, कौन पीछे रह गया मायने नहीं रखता. मायने रखता है कि आपके साथ कौन है.’

फूड जोन में इंतज़ार करते बेटे और दामाद को रजतजी ने सीने से लगा लिया. तभी रजतजी की नज़रें किसी से टकराईं. 

“अरे सिंह सर!”

“ओह मैं तो भूल ही गया था. साहिल ने मुझे कॉन्टेक्ट किया था तुम्हारे लिए बात करने को.  पर मुझे उसी दिन किसी आवश्यक कार्यवश चेन्नई निकलना पड़ा. ससुरजी को फ्रैक्चर हो गया था. कल ही लौटा हूं. मैं कल बात करता हूं अग्रवाल से. मेरा नज़दीकी दोस्त है वो. मेरी बात नहीं टालेगा. और फिर तुम तो इतने डिजर्विंग कैंडिडेट हो. टालेगा तो अपना ही नुक़सान करेगा. मुझसे बेहतर...” सिंह साहब को बीच में ही रुकना पड़ा, क्योंकि सब विस्फारित नेत्रों से उन्हें और एक-दूसरे को ताक रहे थे. 

Anil Mathur
अनिल माथुर

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