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कहानी- मांगी थी एक दुआ (Short Story- Mangi Thi Ek Dua)

एक स्त्री अपने घर की धुरी होती है. विशेषकर शादी के बाद स्वयं अगरबत्ती की तरह जलकर वह अपने नए घर को सुगंधित बनाए रखने का प्रयास करती है. लेकिन अक्सर  इसे एक मां, पत्नी, बहू का कर्तव्य समझकर ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाती. जबकि आवश्यकता है परिवार के सदस्यों द्वारा उसे समय-समय पर महत्वपूर्ण अनुभव करवाने की, ताकि वह अपने मायके को मिस न करे और उसकी ममता और क्षमता द्विगुणित हो जाए.

क्लास लेकर कॉरिडोर में आई तो बाहर हो रही मूसलाधार बारिश ने कदम रोक लिए. कुछ छात्राओं को मस्ती में भीगते घर जाते देखा तो आंखों के आगे अतीत की स्मृतियां उमड़-घुमड़ पड़ी, स्कूल-कॉलेज से लौटते हुए अक्सर ही मेरा बारिश में भीगने का मन हो आता था. अब सोचती हूं तो लगता है, भीगने  से ज़्यादा मां से मिलने वाली अतिरिक्त केयर का लालच तब हम लड़कियों को लुभाता था. उस अतिरिक्त लाड़-दुलार के सम्मुख भीगने पर पड़ने वाली डांट भी गौण हो जाती थी. आंखों के सामने अनायास ही अतीत चलचित्र की भांति चल पड़ा. मां का सामने से छाता लेकर स्कूल बस तक आना… मेरा हाथ और बैग थामकर धीरे-धीरे मुझे बस से नीचे उतारना… मुझे भीगा हुआ देखकर नाराज़ होना… छाते के नीचे मुझे पूरा का पूरा समेट लेना… भले ही इस प्रयास में वे ख़ुद आधी से ज़्यादा भीग जाती थीं. अंदर लाकर सूखा तौलिया और कपड़े थमाना. फिर गरम सरसों के तेल में अजवायन डालकर तलवों की मालिश करना… गर्म कॉफी या दूध बनाकर लाना…
"मिसेज शर्मा, घर नहीं जाएंगी? बारिश थम चुकी है." बाहर निकलती प्रिंसिपल का स्वर कानों से टकराया तो मन में चल रही विचारों की आंधी को ब्रेक लग गया.
"हं अं… बस निकल ही रही थी." कहते हुए एक हाथ से पर्स और दूसरे हाथ से साड़ी संभालती मैं सड़क पर आ गई थी.
ऑटो रुकवाकर बैठते-बैठते भी हल्का सा भीग ही गई थी. ठंडी हवा का झोंका गीली साड़ी से टकराया तो रोकते-रोकते भी एक-दो छींकें आ ही गईं. घर पहुंचने तक छींकों का यह सिलसिला थम जाए तो ही बेहतर है, वरना घंटे भर लेक्चर सुनना पड़ेगा. लेकिन होता वही है जो हम चाहते हैं कि ना हो.
"भीगने से बचना चाहिए था ना! तुम्हारी ठंड नेहा को लग गई तो?"
"आठ साल की नेहा साठ साल की हो जाने पर भी मनन के लिए हमेशा छोटी बच्ची ही रहेगी और मैं शादी के पहले दिन से ही अनुभवी बहू, गृहिणी, मां, बीवी सब बन गई हूं. घर में स्त्री सब का मन रखती है. लेकिन सब भूल जाते हैं कि स्त्री भी एक मन रखती है…" ख़ुद से बतियाती, खीजती मैं कपड़े बदलने बेडरूम में घुस गई थी. गीले कपड़े फैला रही थी कि मनन आ गए.
"कुक को सादा दाल-सब्जी व रोटी बनाने को बोल दिया है. नेहा का पेट गड़बड़ हो रहा है. बारिश में वैसे भी हल्का ही खाना चाहिए. क्यों ठीक है ना?"
मैं सहमति में गर्दन हिलाकर कमरे में आ गई.  नेहा को होमवर्क करते देखा तो उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरकर बिस्तर पर लेट गई. ख़ुद मां बन गई हूं, लेकिन गाहे-बगाहे मां की यादें दिल के तार झंकृत कर ही डालती है. यादों के तार फिर से जुड़ने लगे… तलवों और बालों में तेल लगवा लेने के बाद मैं मां से पकौड़ों की मांग कर बैठती थी.  
"पूरा खाना बन चुका है. कोई पकौड़े-शकोड़े  नहीं. फिर खाना कौन खाएगा?"
"सुबह खा लेंगे. प्लीज़ मां…"

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"नहीं. बारिश का मौसम शुरू हुआ है. अब तो रोज़ ही होगी. दो बूंद गिरते ही तुम्हारी पकौड़ों की रट शुरू हो जाती है. पेट ख़राब हो जाएगा."
"प्लीज़ मम्मा, सिर्फ़ आज." मैं ठुनकने लगती थी.  
मां बड़बड़ाती निकल जाती थीं. लेकिन कुछ ही देर में रसोई से आती गरम-गरम पकौड़ों की ख़ुशबू हमें डाइनिंग टेबल की ओर खींच ले जाती थी. फिर तो एक के बाद एक कभी आलू के, कभी प्याज़ के, तो गोभी के गरम-गरम पकौड़ों के दौर चलते रहते और डिनर धरा का धरा रह जाता था. लेकिन स्मृति पर बहुत ज़ोर देने पर भी याद नहीं आ रहा कि  कभी अगले दिन लंच में हमें बासी रोटियां खानी पड़ी हो.  रात की सब्ज़ी भले ही गर्म करके परोस दी जाती थी. लेकिन रोटी हमेशा ताजी गरम ही मिलती थी.
मोबाइल बजा तो मेरी तंद्रा भंग हुई. नेहा डिस्टर्ब ना हो इसलिए मैं फोन लेकर बालकनी में आ गई. साथी प्राध्यापिका मृदुला का फोन था.
"आराम से घर पहुंच गई ना! मैं तो मज़े से भीगते-भीगते आई हूं. और अब मां के हाथ के गरम-गरम मिर्ची के भजिए का लुत्फ़ उठा रही हूं. एक राज़ की बात बताऊं इन भजियों के लिए ही तो मैं बार-बार भीगती हूं. लो भजिया पुराण में काम की बात तो भूल ही गई. तेरे वर्ल्ड हिस्ट्री वाले नोट्स चाहिए थे. कल याद से ले आना."
फोन रख अनमने मन से मैं खाना लगाने रसोई की ओर बढ़ गई थी. दाल और लौकी की सब्ज़ी बनी देख माथा ठनक गया. बेमन से खाना लगाया और बेमन से ही निगलकर फिर से बिस्तर पर आ लेटी. नेहा टीवी देखने लगी थी और मनन फोन पर व्यस्त हो गए थे. शायद अपनी मां से बतिया रहे थे.
लड़कों की ज़िंदगी में कितनी मांएं आ जाती हैं न! एक अपनी मां तो होती ही है. फिर बहन भी मां हो जाती है. छोटी हो या बड़ी, भाई की ज़रूरतों का ख़्याल रखना, उसको मां-पापा की डांट से बचाना, उदारता से उसको अपनी चीज़ें दे देना, उसके छोटे-मोटे काम करके उस पर अपना प्यार बरसाती है और अनजाने में ही उसकी मां बन जाती है. लड़कियों में ममता कुदरती होती है. पति से इश्क़-मोहब्बत करते-करते वह उस पर दुलार भी बरसाने लग जाती है. उसके सिर में तेल लगा देती है, सिर दबाकर सुला देती है, उसकी पसंद का खाना बनाती है, उसके कपड़े-बिस्तर सहेजती है. बड़ी होती बेटियां अपने उम्रदराज़ होते पापा की देखरेख करते उनकी मां बनती चली जाती हैं. नेहा को ही देख लो. अभी से पापा की चमची  बन चुकी है.
अपनी सोच पर मुझे अनायास ही हंसी आ गई. मुझे मनन से कोई ईर्ष्या नहीं है. बस दिल में एक कसक सी है कि हम लड़कियों की ज़िंदगी में एक ही मां क्यों होती है? वे सैकड़ों-हज़ारों चीज़ें जो मां मेरे लिए करती थी, मां से दूर होने के बाद किसी ने नहीं की. तभी तो वह हर पल बेतरह याद आती है. अब अभी की ही बात ले लो. खाना मेरी पसंद का नहीं था. मां होती तो मैं ज़रूर नाक भौं सिकोड़ती. शायद प्लेट ही सरका देती. मां आरंभ में डांटती-समझाती, पर फिर थोड़ी देर बाद ही गरम-गरम मेगी या नमक-मिर्च का परांठा लेकर आ जाती.

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"अन्न से रूठना, उसका अपमान करना अच्छी बात नहीं होती लाडो! कल पता नहीं कैसा ससुराल मिले. कौन नखरे उठाएगा तेरे? चलो, अब खा लो. भूखे पेट नहीं सोते."
मां नखरे सहती थी. इसलिए उनसे लड़ियाते भी थे. लेकिन उनसे दूर होने के बाद किसी ने इस तरह लाड़ नहीं दिखाया. मैं भी तो अपने आप सारी सब्ज़ियां खाने लगी. मेरी ज़िंदगी में मां सिर्फ़ एक ही रही. फिर वे भी हमेशा के लिए स्मृतियों में समा गई. दोबारा कभी कोई मां नहीं आई. हालांकि मैं बड़ी होकर ज़रूर मां बन गई. जैसा कि हर लड़की अपने आप हो जाती है. छोटे भाई की, पति की, बेटी की… लेकिन मुझे लाड़-दुलार करने, मेरे नखरे उठाने दोबारा कोई मां नहीं आई. एक छींक आई तो मैंने लिहाफ कसकर लपेट लिया.
"सोई नहीं अभी तक? क्या हुआ? ज़ुकाम ठीक नहीं हुआ क्या अभी तक? गर्म दूध में हल्दी ले लो. अच्छा सुनो, कल मेरी एक ज़रूरी मीटिंग है तो नेहा को स्कूल छोड़ने का काम तुम कर देना. मां को थोड़ा बदनदर्द है तो उनकी कल याद से तबीयत पूछ लेना. मैं उधर लैपटॉप पर कल की मीटिंग की तैयारी कर रहा हूं. तुम सो जाओ." मनन लैपटॉप उठा कर चलते बने.  
अपनी असहायता पर मेरा मन भर आया. ‘अभी मां होती तो गर्म हल्दी वाला दूध पिलाए बिना मुझे सोने नहीं देतीं. सिर पर, बालों में हल्की-हल्की थपकियां सोने में सुहागे का काम करतीं. कई बार तो मैं वैसे ही ठुनक जाती थी. "तबीयत ख़राब नहीं हो तो क्या आप मुझे प्यार से नहीं सुला सकती?"
गुल्लक सी है मेरी मां, जैसे गुल्लक पैसों को संभालती है, मां ने मेरी ख़ुशियों को संभाला है. खैर इन यादों का कोई ओर छोर नहीं है. गहरी निश्वास भर मैंने सिर के ऊपर तक लिहाफ तान लिया और सोने का प्रयास करने लगी. अगले दो दिन बेहद व्यस्तता में गुज़रे. कॉलेज में रोज़गार मेला लगा था. कनवीनर होने के नाते मुझ पर ढेरों ज़िम्मेदारियों का बोझ था. तिस पर मनन की भी व्यस्तता के चलते नेहा को स्कूल छोड़ने की एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी और मेरे सिर पर आ गई थी. ज़िंदगी ऐसी ही है. मजबूरियां देर रात तक जगाए रखती हैं और ज़िम्मेदारियां सवेरे जल्दी उठा देती हैं. तीसरे दिन तक सब अतिरिक्त ज़िम्मेदारियां तो समाप्त हो गई थी, पर मुझे वायरल बुखार ने आ घेरा था. कमज़ोरी के चलते सवेरे वॉशरूम जाते वक़्त मेरे कदम लड़खड़ा गए और मैं गिर गई.
होश आया तो अस्पताल के बिस्तर पर ख़ुद को पाया. चिंतित-व्याकुल मनन मेरा सिर सहला रहे थे. पास ही उदास और व्यग्र नेहा खड़ी थी. डॉक्टर मेरा चेकअप करने लगे तो सांस रोके खड़े मनन में मुझे अनायास ही मां का अक्स नज़र आया.
"बिल्कुल ठीक है. कमज़ोरी की वजह से ही चक्कर आ गए थे. ड्रिप ख़त्म होने पर आप इन्हें घर ले जा सकते हैं." डॉक्टर के बाहर निकलते ही मनन ने मुझे लेटी हुई अवस्था में ही बांहों के घेरे में कस लिया था. मैं कसमसाई, "नेहा…" तो मनन ने उसे भी इस घेरे में ले लिया.

"कितना  डरा दिया था तुमने मुझे. सिर दीवार  से टकराया था और तुम बेहोश हो गई. किसी अंदरूनी चोट की आशंका से मैं सिहर उठा था और तुरंत हम तुम्हें हॉस्पिटल ले आए थे. भगवान का लाख-लाख शुक्र है तुम बिल्कुल ठीक हो." प्रसन्नता के आवेग से उनका स्वर कंपकपा रहा था. नेहा के तो आंसू ही नहीं थम रहे थे. वह अभी तक मुझसे लिपटे हुए थी.
अस्पताल से घर लौटने के बाद एक नए ही परिवार से मेरा परिचय हुआ. डॉक्टर ने कुछ दिन आराम का बोला था. लेकिन मनन ने मेरे लिए कंप्लीट बेड रेस्ट की मुनादी कर दी. नेहा यकायक ही अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा परिपक्व और ज़िम्मेदार हो उठी. वह घर के कामों में बढ़-चढ़कर हाथ बंटाने लग गई थी. मनन ने ऑफिस से एक सप्ताह की छुट्टी ले ली थी. एक बच्ची की तरह वे मेरी हिफाज़त करने लगे थे. अपने हाथों से स्पोन्ज करके कपड़े बदलवाना, मनुहार करके थोड़ी-थोड़ी देर में कुछ न कुछ खिलाते रहना, हाथ पकड़कर बालकनी में ले जाना, वहां चांदनी रात में साथ बैठकर बतियाना… मुझसे पूछ-पूछ कर कुक से मेरी पसंद के व्यंजन बनवाना… उपन्यासों में शायद ऐसे समय को ही सोने के दिन और चांदी की रातें कहा गया है. मेरा मन चाहता था यह वक़्त कभी ख़त्म ना हो. मनन के बेशुमार लाड़-दुलार ने मेरी सारी अधूरी हसरतें पूरी कर दी थी. मन मानने को विवश हो उठा था कि मेरी ज़िंदगी में भी दूसरी मां है. नेहा का समर्पण और निश्छल प्यार स्पष्ट इंगित कर रहे थे कि भविष्य में मुझे एक और भी मां मिलने वाली है. लेकिन एक आशंका भी थी. जब मैं पूरी तरह ठीक हो जाऊंगी तब?

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उस दिन मेरा चेकअप करवा कर लौट रहे मनन बहुत ख़ुश थे. गुनगुनाते हुए उन्होंने कुल्फी वाले के पास गाड़ी रोकी, "तुम्हें बर्फ़ का गोला पसंद है ना? कौन सा फ्लेवर लाऊं?"
"पर अभी तो मेरी दवाइयां चल रही है." मैं आश्चर्यचकित थी. स्वास्थ्य के प्रति अत्यंत सजग मनन सामान्य दिनों में भी मुझे गोला, चाट आदि नहीं खाने देते थे. लेकिन आज उनका प्यार-दुलार, रोमांस सब कुछ ख़ूब छलक रहा था.
"पता है रीमा, इन सात दिनों में मैंने एक नई रीमा खोज निकाली है. जो अंदर से बिल्कुल छोटी बच्ची है. जिसे ठुनकने में, रूठने में, ज़िद करने में असीम आनंद मिलता है. जब उसकी कोई ज़िद, कोई इच्छा पूरी होती है तो वह बच्चों की तरह ही एकदम किलक उठती है. मुझे उसे एक मां की तरह हैंडल करने में बहुत मज़ा आया. कहां छुपा रखा था अब तक इस मासूमियत, इस अल्हड़पन को!" मनन ने दोनों हाथों से मेरा चेहरा थाम लिया था.
"मैं चाहता हूं तुम्हारे अंदर की यह बच्ची कभी विलुप्त ना होने पाए. इन कुछ दिनों में मैंने महसूस किया कि संबंध बड़े नहीं होते, उन्हें संभालने वाले बड़े होते हैं. हमारे लिए तुम्हारा निस्वार्थ प्यार, केयर हमें कभी मां के दूर होने का एहसास नहीं कराता. लेकिन बेहोशी में तुम्हारा रह रहकर अपनी मां को पुकारना मुझे अंदर तक भेद गया. मुझे समझ आ गया रिश्ते को निभाने में कमी हमारी ओर से है. रिश्तों की सिलाई भावनाओं से हो तो टूटना मुश्किल. स्वार्थ से हो तो टिकना मुश्किल. घर की स्त्री समझदार न हो तो घर टूट जाता है. और पुरुष समझदार न हो तो उस घर की स्त्री. मैं तुम्हारी मां की जगह तो नहीं ले सकता, पर तुम्हें टूटने नहीं दूंगा."
मैं अविश्वास से मनन को घूर रही थी. मैने शादीशुदा ज़िंदगी में फिर से मां का प्यार पाने की दुआ मांगी थी. कहीं वही तो कबूल नहीं हो गई?

संगीता माथुर

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