"हां नेहा, ऐसी सास तो नसीबों से ही मिलती है. तुम सच में नसीबवाली हो." उनके बीच होती बातें मेरे कानों को छू रही थीं.
"नेहा, सालों बाद मॉम को आज के दिन इतना नॉर्मल देखकर अच्छा लग रहा है, वरना होली के दिन वे हमेशा उदास ही रहती हैं जबकि आज के दिन उनका जन्मदिन भी होता है."
"सूरज, क्यों न हम आज मॉम का बर्थ डे मनाएं?" नेहा ने उत्सुकता से कहा तो सूरज ने उसे ऐसा कुछ भी करने से साफ़ मना कर दिया.
कहीं पिचकारी मारते बच्चे होली खेल रहे थे तो कहीं बड़े-बुज़ुर्ग एक-दूजे को तिलक लगाते हुए होली की शुभकामनाएं दे रहे थे. युवाओं की टोलियां जगह-जगह नाचती-गाती हुई हुड़दंगबाजियां कर रही थीं. हर घर की रसोई से तरह-तरह के पकवानों की महक आ रही थी. बाहर जितना हर्ष-उल्लास था, मेरी मां के मन में उतनी ही चिंताएं थीं. 'न जाने अस्पताल खुले होगें कि नहीं, और अगर खुले भी हुए तो उनमें डॉक्टर-नर्स होगीं भी या नहीं' यही सब सोचती हुई वे बार-बार अपने नौ माह के गर्भ यानी कि मुझे सहला रही थीं.
"अम्मा! हल्का-हल्का दर्द हो रहा है." मां ने कराहते हुए दादी से जैसे ही यह शब्द कहे, वैसे ही दादी, मां को धीरज देने की जगह ख़ुद ही अधीर हो बोलीं, "सुनैना! एक दिन और रोक लो अपना ये दर्द-वर्द, आज घर में बने पकवानों का आनन्द ले लेने दो, कल उठाना अपना ये दर्द, वैसे भी ऐसे होली के हुड़दंग में कहां बच्चा जनेगी?"
अपना पेट सहलाती हुई मेरी मां मन मसोसकर रह गईं. अब मां अपने मन को तो समझा सकती थी, पर अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को यानी मुझे कैसे समझाती मुझे तो जब आना था तब ही आना था. मां के पेट के भीतर से बाहर आने को मैं झटपटाई और मां का दर्द बढ़ गया. बाहर होली खेलते मेरे पिताजी, दादी की आवाज़ सुन जल्द भागे.
उस दिन कोई रिक्शा वग़ैरह मिलने की तो उम्मीद ही नहीं थी, इसीलिए पिताजी ने अपने मरियल से हरे रंग के स्कूटर पर मां को बैठाया और चल दिए अस्पताल की ओर. अस्पताल पहुंचते-पहुंचते मां-पिताजी सड़कों पर उड़ते रंगों से एकदम रंगीन हो गए थे. भाग्य से अस्पताल में डॉक्टर थीं. सो तुरन्त ही उन्होंने मुझे गर्भ शिशु से नवज़ात शिशु में तब्दील कर मेरा प्रमोशन कर दिया.
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अब तक रंगों से लाल-पीली होती हुई मेरी दादी भी अपनी पड़ोसन के साथ कुछ ज़रूरी सामानों से भरा एक बड़ा सा थैला लिए पैदल-पैदल हांफती हुई अस्पताल पहुंच गई थीं.
"बिटिया, हुई है अम्माजी!" नर्स ने उनको जैसे ही यह सूचना दी, वैसे ही दादी थैला ज़मीन पर पटकती हुई, लगभग मुझे ग़ुस्से में एक नाम देती हुई बोलीं, "फगुनिया! एक दिन और महतारी के पेट में ही दम ले लेती तो क्या चला जाता तेरा, ऐसे हुड़दंग में पैदा हो गई." दादी ने अपने ऊपर डले रंगों को साफ़ करते हुए कहा. तो मेरे पिताजी मुझे अपनी गोद में उठाते हुए बोले, "नाम तो अच्छा है अम्मा! पर फगुनिया नहीं, 'फाल्गुनी' यही नाम होगा मेरी बेटी का, आज तो मेरी पत्नी सुनैना ने जानकी को जन्म दिया है आज तो उत्सव होना चाहिए."
इस बात पर दादी ने ज़रा सी भृकुटि चढ़ाई तो पिताजी फिर बोले, "यह एक दिन और कैसे रुक जाती अम्मा? इसे तो आज ही के दिन जन्म लेना था, होली मेल-मिलाप का, गिले-शिकवे दूर करने का, हर्ष-उल्लास का दिन है, हमारी फाल्गुनी बिटिया में यह सारे गुण होंगे इसलिए ईश्वर ने इसके जन्म के लिए फाल्गुन का पवित्र दिन ही चुना."
बिस्तर पर लेटी मेरी मां ने मुझे मुस्कुराकर एक नज़र निहारते हुए धीरे से होंठों को हिलाते हुए कहा, "हमारी फाल्गुनी."
मुझे गोद में उठाते मेरे पिताजी बिल्कुल उतने ही ख़ुश थे जैसे महाराजा जनक जानकी को पाकर थे. बस ऐसे ही मां-पिता के दुलार के बीच कई फाल्गुन खेलते हुए मैं बड़ी हो गई. बड़े होकर मैं जब भी अपने मां-पिताजी से यह पूछती कि मेरा नाम फाल्गुनी क्यों पड़ा? तब वे मेरे नाम के पीछे की यही कहानी मुझे सुनाते.
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मेरे नाम के पीछे का यह मज़ेदार इतिहास सुन मेरी बहू नेहा हंस पड़ी, जो अभी नौ माह की गर्भवती थी. उसकी प्रेग्नेंसी में कुछ कॉम्प्लिकेशन थीं जिस वज़ह से वह कुछ परेशान सी रहती थी. उसको ख़ुश रखने और उसकी घबराहट को कम करने के लिए हम मां-बेटे उसे हल्के-फुल्के ऐसे ही मज़ेदार किस्से सुनाते रहते. अपने नाम का किस्सा ख़त्म कर मैं किचन से उसके लिए दही बड़े लेने को चल दी. तभी नेहा मेरे बेटे से बोली, "सूरज, हमारी मॉम कितनी अच्छी है न! देखो आज सुबह से मेरे लिए कितना कुछ बना रही हैं, दही बड़े तो उन्होंने स्पेशली मेरे लिए ही बनाए हैं."
"हां नेहा, ऐसी सास तो नसीबों से ही मिलती है. तुम सच में नसीबवाली हो." उनके बीच होती बातें मेरे कानों को छू रही थीं.
"नेहा, सालों बाद मॉम को आज के दिन इतना नॉर्मल देखकर अच्छा लग रहा है, वरना होली के दिन वे हमेशा उदास ही रहती हैं जबकि आज के दिन उनका जन्मदिन भी होता है."
"सूरज, क्यों न हम आज मॉम का बर्थ डे मनाएं?" नेहा ने उत्सुकता से कहा तो सूरज ने उसे ऐसा कुछ भी करने से साफ़ मना कर दिया.
"दरअसल, दस साल पहले होली के आसपास ही पापा एक कार एक्सीडेंट में हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए थे. वह हमारे लिए एक भयवाह होली का माहौल था. मां तब से अब तक होली के माहौल में ख़ुद को एकदम उदास और अकेला महसूस करती हैं. फाल्गुनी वातावरण में उन्हें अपना ही नाम ज़हर सा लगता. कितनी अज़ीब बात है ना जिस त्योहार ने नाम दिया, जिस त्योहार ने ढेर सारी हंसती-खिलखिलाती रंगीन यादें दीं, वही त्योहार जीवन को बुरी स्मृतियों से भर गया. वही त्योहार हमारे जीवन को स्याह कर गया. यह स्याह रंग होली के दिन और गहरा हो जाता. जब भी बाज़ारों में रंग-गुलाल, पिचकारियों को सजता हुआ देखतीं, जब भी आसपास के घरों से गुजिया-मठरी की महक को महसूस करतीं, वह उसी डरवाने दिन में लौट जातीं. न चाहते हुए भी पापा की यादें चारों तरफ़ से घेर लेतीं. आसपास होते शोर-शराबे में अपने कान मूंदकर अक्सर चिल्ला उठतीं "बन्द करो यह शोर, मत मनाओ यह फाल्गुन का त्योहार."
आज फिर घर के पास से एक टोली ढ़ोल-नगाड़ों के साथ 'आज अवध में होली मोरे रसिया...' गाती हुई निकलीं तो मेरी पुरानी स्मृतियां को ताज़ा कर गई. और मैं किचन में ही बैचेन होकर चिल्ला उठी, "बन्द करो यह हुड़दंग, मत मनाओ होली."
"मॉम.. मॉम क्या हुआ?"
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सूरज ने झट से किचन में आकर मुझे गले से लगा लिया. वह समझ गया कि आज फिर से होली के इस माहौल ने मुझे पुराने दिनों में ढ़केल दिया है. वह किचन से बाहर ले जाकर मुझे मेरे कमरे के बेड पर लिटा आया. उसने कमरे के खिड़की दरवाज़े ठीक से बन्द करके उनके पर्दे भी खींच दिए. अब बाहर की कोई भी आवाज़ मुझ तक नहीं आ रही थी. लेकिन मेरे भीतर जो शोर शुरू हो गया था मैं उसका क्या करती? मन के दरवाज़े-खिड़कियां कैसे बंद करती? काश कि मन के पर्दें भी होते जिन्हें खींचने से मन को कुछ भी नज़र न आता.
मैं बहुत बैचेन सी हो गई. मेरे बहू-बेटे दोनों मेरे पास थे. नेहा मेरे लिए पानी लाने को उठी तो मैंने उसकी हथेली पकड़ते हुए बोली, "सॉरी बेटा! तेरी ऐसी हालत में मैंने घर का वातवरण ख़राब कर दिया.''
"मॉम, आप ऐसा क्यों कह रहीं हैं? आप की वजह से ही मेरे आठ माह इतनी अच्छी तरह से गुज़रे हैं. आप तो हमारे लिए सब कुछ हैं मॉम! फ़िलहाल आप अभी आराम करिए, मैं आपके लिए पानी और साथ में कुछ खाने के लिए लाती हूं, आज सुबह से आप किचन में कितना कुछ बनाने में लगी हैं. अब आप कुछ नहीं करेंगीं.''
"अच्छा ठीक है, मैं अभी कुछ नहीं करूंगी, पर तुम भी मेरे पास ही बैठकर आराम ही करो. सूरज तुम जाकर किचन से दही बड़े लेकर आओ." सूरज से यह कहते हुए मैंने नेहा की कलाई पर अपनी पकड़ और तेज़ कर ली. सूरज किचन की तरफ़ चला गया. यहां नेहा के चेहरे को मैं लगातार पढ़े जा रही थी. नौवां महीना लगते ही वह वैसे भी कुछ परेशान थी ऊपर से आज शायद मेरी वजह से वह मुझे और भी ज़्यादा परेशान लगी तो मैंने ख़ुद को संभालते हुए उसका मूड बदलने के लिए कहा, "पता है होली बचपन से ही मेरा फेवरेट फेस्टिवल था, बचपन में दिनभर मैं होली खेलती थी और शाम को नहा धोकर नए कपड़े पहनकर अपनी सहेलियों के साथ अपना जन्मदिन मानाती थीं. उसके बाद शादी हुई तो सूरज के पापा भी होली के दिन जैसे बिल्कुल रंगीन ही हो जाते थे. मेरे साथ सारा दिन वे ख़ूब होली खेलते थे और शाम होते ही वे धूमधाम से मेरा जन्मदिन मनाते थे."
"वो भी क्या रंगीन दिन थे, जब से सूरज के पापा गए तब से जैसे जीवन के सारे रंग ही चले गए." मैं न चाहते हुए भी फिर से दुखी होने लगी तो नेहा को देखकर मैंने ख़ुद को फिर संभाल लिया.
तभी सूरज को कमरे में आता देख मैं मुस्कुराती हुई बोली, "लो जी आ गया सूरज.. चलो अब सब जल्दी से दही बड़े खाकर बताओ कि कैसे बने हैं?" मैंने माहौल को कुछ हल्का करने की कोशिश की तो सब एक साथ हंस पड़े.
सूरज मज़ाकिया अंदाज़ में आगे बोला, "मॉम, अच्छा हुआ कि डिलीवरी से पहले आपने नेहा की दही बड़े खाने की ख़्वाहिश पूरी कर दी, वरना हमारा बेबी भी मेरी तरह ही चटोरा पैदा होता." मैंने भी नेहा का घबराता हुआ मन भांपते हुए कहा, "सही कह रहा है तू! पता है नेहा इसके पैदा होने से पहले मुझे चटपटी चाट खाने का मन हुआ तो इसके पापा दौड़कर मेरे लिए चाट ले तो आए पर तभी मुझे ऐसा दर्द हुआ की तुरन्त अस्पताल जाना पड़ा और सूरज पैदा हो गया. चाट रखी की रखी रह गई, तभी तो यह चटोरा पैदा हुआ."
कमरे में फिर से ठहाके गूंजने लगे तभी नेहा कराहते हुए बोली, "मॉम! पैन हो रहा है.. आह सूरज हॉस्पिटल चलो प्लीज़..." हम जल्दी से उठे और हॉस्पिटल की ओर चल दिए. हमारा मन बहुत घबरा रहा था. लेबर पैन हल्का था इसलिए डॉक्टर ने तत्काल सर्जरी करना ही ठीक समझा. मैं और सूरज ऑपरेशन थियेटर के बाहर बराबर यहां से वहां टहल रहे थे. तभी ऑपरेशन थिएटर से मुस्कुराती हुई डॉक्टर दीक्षित हमें बधाई देने को निकलीं, "दो प्यारी-प्यारी जुड़वा नन्हीं कलियों को जन्म दिया है आपकी बहू ने, आपकी बहू और दोनों बच्चियां एकदम स्वस्थ हैं." हमने मन ही मन ऊपरवाले का शुक्रिया अदा किया.
कुछ देर बाद हम नेहा और दोनों बच्चियों से मिले. मैं उन्हें स्पर्श करती हुई भावुक हो मारे ख़ुशी के रो पड़ी. कुछ देर बाद सूरज नेहा को और मुझे चिढ़ाता हुआ कहने लगा, "लो अब इनका नाम क्या रखें. होली के दिन हुई हैं दोनों, अब फाल्गुनी नाम तो इनकी दादी ने पहले से ले लिया. हम ऐसा करते हैं एक का नाम नीली और दूसरी का नाम पीली या फिर एक नाम पिचकारी और दूसरी का नाम अबीरी रख देते हैं."
नेहा सूरज की बात पर धीरे से मुस्कुराई और मैंने उसकी पीठ पर थपकते हुए कहा, "हट्ट.. मज़ाक मत कर, मेरी राजकुमारियों का नाम होगा रंगोली और संजोली बस यही नाम होंगें इन दोनों के." और इस तरह हमारी दोनों परियों के नाम तय हो गए. देखते-देखते दोनों बड़ी होने लगी.
अब हमारे घर का हर दिन त्योहार में और हर त्योहार उत्सव में बदल गया. रंगोली और संजोली मुझे आसमान से सूरज के पापा के हाथों भेजी गईं प्यार की सौग़ात सी लगतीं. इस होली दोनों सात साल की हो गई हैं. अपने हर खेल में वे मुझे हमेशा शामिल करती हैं इसीलिए हम तीनों मिलकर आज खूब होली खेल रहे हैं और नेहा-सूरज मिलकर हम तीनों के लिए शाम की बर्थ डे पार्टी का प्लान कर रहे हैं. जीवन के खोए हुए रंग लौट आए हैं और आज वर्षों बाद मैं ख़ुद को फिर से फाल्गुनी सी महसूस कर रही हूं.
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