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कहानी- ख़ुद के लिए एक ख़त… (Short Story- Khud Ke Liye Ek Khat…)

पूर्ति वैभव खरे

“… मैं इस चिट्ठी को पढ़ने और सुनने वाले उस हर शख़्स से यही कहूंगी कि हर कोई अपने नाम एक ख़त ज़रूर लिखें, जिसमें वो सच में वैसा ही हो जैसा वो था. ताकि आपके जाने के बाद लोग आपको अपने हिसाब से न बदलें…”

सुबह-सुबह उस दिन मैं बीच आंगन में लेटी थी. किसी ने मेरे ऊपर सफ़ेद चादर तान दी थी. आसपास बैठे सभी लोग न जाने क्यों रो रहे थे? मेरा परिवार ऐसे विलाप कर रहा था जैसे कि घर में कोई मर गया हो. तभी मुझे अपनी पड़ोसी सीमा का स्वर सुनाई दिया, “हाय कमला जिज्जी, काहे चले गईं, अबे तो नाती-नतन को ब्याओ देखने तो आपको, कल शाम जिज्जी हमें मंदिर जाती मिली थीं, बेचारी हमसे गले लग के कह रही थीं, ‘सीमा, एक तुमाई हो, जो हमाओ दुख-दर्द समझती हो बाकी तो सब मोह-माया है.”
कल शाम? मैं तो कल शाम किटी पार्टी में गई थी. मंदिर तो मैं गई ही नहीं, तो फिर यह सीमा झूठ क्यों बोल रही है? मैं यह सोच ही रही थी कि तभी दूध वाला दाख़िल हुआ. वैसे तो वह रोज़ मुझसे किटपिट करता था, क्योंकि मैं उसका दूध और पानी का राज़ जो खोल देती थी, पर आज, “अरे अम्मा, जो का हो गाओ राम! जे कब मर गईं, अम्मा आज तो छह महीना के दूध को हिसाब करने हतो और अम्मा ने तो ज़िंदगीभर को हिसाब ख़त्म कर दाओ.”
“छह महीने का दूध का हिसाब? झूठे! कल तक का सारा हिसाब क्लियर है, फिर झूठ क्यों बोल रहा है?” मैं उस पर चिल्लाते हुए बोली. तभी मेरे बिजली विभाग वाले सारे रिटायर्ड कर्मचारी दाख़िल हुए. सब एक-एक कर मेरी फोटो पर माला चढ़ाने लगे. मैं अपनी माला लगी तस्वीर को देखकर गुर्राई.


"यह कैसी तस्वीर लगा रखी है मेरी. अरे, इतनी सुंदर-सुंदर तस्वीरें हैं मेरी. कोई अच्छी तस्वीर लगाओ.” पर मेरा कहना किसी ने नहीं सुना, तब मेरा दिमाग़ ठनका? अब मुझे पक्का यक़ीन हो गया कि अब तो मैं यमलोक की यात्रा को निकल ली. पर मेरी आत्मा को लेने अभी तक यम या यम के कोई दूत नहीं आए थे. तभी अपनी मृत्यु का सच स्वीकार करते हुए मैंने सोचा ‘जब तक यमलोक से मेरी आत्मा को लेने कोई आता नहीं, तब तक मैं अपनी मौत के मातम का आनंद लेती हूं. देखती हूं, मुझे कौन कितना याद कर रहा है.
तभी बिजली विभाग की मेरी पुरानी सहकर्मी बोली, “मन की बहुत साफ़ थी कमला! बिल्कुल इस कफ़न के जैसी बेदाग़.” वह मेरे ऊपर पड़े कफ़न को छूकर बोली, “बहुत सीधी-सादी महिला थीं. बिजली विभाग का कोई काम नहीं आता था, सब हमसे ही तो सीखी थीं.”
“हम कब तुमसे काम सीखे? उल्टा हमने तुमको सिखाया है… झूठी… निकल मेरे मौत के मातम से.” मैं ज़ोर से चिल्लाई, पर यहां तो लोग ज़िंदा की नहीं सुनते, फिर मरे हुए की कौन सुनता?

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कुछ देर में एक और मेरे भूतपूर्व आशिकमिजाज़ी सह कर्मचारी अपने मुंह का गुटखा संभालते हुए बोले, “देवी थीं, देवी… भाई  जैसा मानती थीं हमें. राखी बांधती थीं. किसी रक्षाबंधन में हम पांच सौ रुपया से नीचे का उपहार नहीं देते थे कमला दीदी को.”
दीदी? हम कब इस लम्पट की दीदी हो गए, यह तो उल्टा हमारे ऊपर ही डोरे डालता था. मुझे विधवा जानकर चाहे जब मुझसे शादी का प्रस्ताव रख देता था. और आज देखो, मुझे सामने मरा हुआ देखकर कैसा बढ़िया बहन-भाई का रिश्ता बना रहा है. अभी मेरी अर्थी उठी भी न थी कि मेरी नज़र घर के एक कोने में बैठे बच्चों पर चली गई. वे कोल्ड ड्रिंक्स और समोसों की पार्टी कर रहे थे.
कुछ ही देर में राम नाम सत्य है… का स्वर गूंजा और सब चल दिए श्मशान भूमि की ओर. उसके बाद पूरे दिन लोग-बाग आते-जाते रहे. कब हुआ, क्यों और कैसे हुआ वाला वही घीसा-पीटा सा सवाल सब पूछते और उनके सवाल पर कभी बेटी, तो कभी बहू टेप रिकॉर्डर सी बज पड़तीं.
“कल शाम सबके साथ बढ़िया खाना खाया. उसके बाद उनके पेट में ज़रा सा दर्द हुआ. फिर दर्द की दवा खाकर सो गईं. सुबह जब देर तक नहीं जागीं, तो देखा कि अम्मा नहीं रहीं…” कहती हुई वे रो पड़तीं. यहां आते-जाते लोग-बाग अपना शोक व्यक्त करते हुए मुझसे जुड़ी मनगढ़ंत कहानियां सुनाते रहे. जिसके मन में जो आ रहा था, वह मुझे लेकर वही कह रहा था.


शाम होते ही परिवार के सभी सदस्य एक साथ यह बहस करने बैठे कि मेरी प्रॉपर्टी का बंटवारा कैसे हो?
“अम्मा साफ़ कह रही थीं हमसे कि उनका वो क़ीमती रानी हार उनकी बड़ी बहू यानी कि हम ही पहनेंगे.” बड़ी बहू की इस बात पर छोटी बहू तपाक से बोली, “अच्छा भाभी, लेकिन अम्मा तो बिल्कुल यही बात हमसे भी कहती थीं.” पर सच तो यह था कि हमने किसी से कुछ नहीं कहा था. कुछ ही देर में घर के काग़ज़ों को लेकर बहस शुरू हो गई.
“ये अम्मा तो बड़ी होशियार थीं, वैसे तो काग़ज़ों का ख़ूूब काम जानती थीं, पर देेखो फिर भी अपनी वसीयत लिखकर नहीं गईं.” इस पर मेरी बेटी बोली, ”भाभी, कैसी बातें करती हो? उन्हें पता था क्या कि वे कब मरने वाली हैं. वैसे अम्मा ने मुझे बताया था कि वे वसीयत में क्या-क्या लिखने वाली थीं. वे कहती थीं कि अपनी प्रॉपर्टी का एक हिस्सा वे मुझे भी देंगी.”

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वाह रे परिवार, इनकी अम्मा मर गई और इन्हें ज़मीन-जायदाद, वसीयत चाहिए. तब ये तीनों छोटे-छोटे से थे, जब इनके पिता का देहांत हुआ था. उसके बाद मैंने अपने दोनों बेटों और बेटी को बिजली विभाग में नौकरी करके पाला था. अच्छी शिक्षा दी, पैरों पर खड़ा किया, शादी कराई, मेरा किया कुछ भी इन्हें याद नहीं है… इन्हें तो इस बात का दुख है कि अम्मा वसीयत क्यों नहीं लिख गईं? कुछ ही घंटों में घर का माहौल बदल गया. जहां मेरी मौत का मातम मनाया जा रहा था, वहीं अब प्रॉपर्टी को लेकर महाभारत छिड़ी हुई थी.
इस लड़ाई में मेरे दोनों बेटे नीरज और धीरज, दोनों की पत्नियां, मेरी बेटी व दामाद थे. नीरज ने बहस के दौरान धीरज को धक्का मारा और वह मेरी तस्वीर पर जा गिरा और मेरी नींद टूट गई. जब मेरी आंख खुली, तो उस वक़्त आधी रात थी. सब शांति से सो रहे थे. मैं भी जीती-जागती काया थी. ऐसा विचित्र सपना देखकर मैं डर गई थी. उसके बाद उस सपने के कारण मैं नहीं सो पाई.
सुबह उजाला होते ही मैंने काग़ज़-कलम उठाकर अपने लिए एक ख़त लिखना शुरू किया-
प्रिय मैं!
कमला, जीवन की आपा-धापी में तुमसे बात करने का कभी समय ही नहीं मिला. इसलिए आज मैं स्वयं के लिए एक ख़त लिख रही हूं. मैं कौन हूं, क्या हूं, कैसी हूं? इन सब सवालों का उत्तर सबसे बेहतर मेरे पास ही है. मैं आज यह ख़त लिखते हुए ख़ुद से मुलाक़ात कर रही हूं. मैं कमला हूं… वह कमला, जो बचपन में बेहद शरारती थी. वही कमला, जिसमें अच्छाई के साथ-साथ ढेर सारी खामियां भी हैं. मैं वही कमला हूं, जो परफेक्ट वाइफ, सुपर मॉम और अच्छी दादी-नानी बनने के चक्कर में ख़ुद को खोती रही. मैंने पच्चीस सालों तक बिजली विभाग में काम किया. मैंने हर काम ख़ुद सीखा. मेरे ऊपर किसी का कोई कर्ज़ नहीं है. मैंने अपने जीवन के सारे कर्ज़ उतार दिए हैं.
मैं 70 साल की एक विधवा हूं, पर मैं मंदिर नहीं जाती. मैं तो किटी पार्टी में जाती हूं. यह ज़रूरी नहीं है कि बूढ़ी हो गई, इसलिए मंदिर ही जाऊं. मैंने अपने बच्चों के नाम कोई प्रॉपर्टी नहीं की. मैंने उन्हें पाल-पोसकर उन्हें उनके पैरों पर खड़ा कर दिया, यही क्या कम है? मेरे सारे क़ीमती ज़ेवर और सामान मैं एक ट्रस्ट के नाम करके जा रही हूं. चूंकि मेरे बच्चे अब बहुत संबल हैं, इसलिए आशा है कि उन्हें यह बात हज़म हो जाएगी.
मेरी इच्छा है कि मेरे मरने के बाद मेरी एक ख़ूबसूरत सी तस्वीर लगे. और उस शोक सभा में कोई मेरे लिए कुछ न बोले. बस, उस दिन मेरी लिखी यह चिठ्ठी पढ़ी जाए, जिसमें असल में मैं… मैं ही हूं. बिल्कुल वास्तविक.
मैं इस चिट्ठी को पढ़ने और सुननेवाले उस हर शख़्स से यही कहूंगी कि हर कोई अपने नाम एक ख़त ज़रूर लिखे, जिसमें वो सच में वैसा ही हो जैसा वो था. ताकि आपके जाने के बाद लोग आपको अपने हिसाब से न बदलें. यह काम आप जितनी जल्दी से जल्दी कर सकते हैं करें, क्योंकि मृत्यु कहकर नहीं आती.

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दूसरों के लिए जीएं, पर ख़ुद के लिए जीना कभी न छोड़ें. जीवन में कुछ न कुछ ऐसा अपने लिए ज़रूर लिखें या करें, जो आपके जाने के बाद भी आपकी कहानी को उस तरह से बयां कर सके जैसे आप असल में थे.
प्यारी कमला
तुम्हारे लिए तुम ख़ुद.

मैंने ख़त लिखकर पेपरवेट से दबाकर रखा ही था कि दूध वाला आ गया और उसका दूध देखकर मैं रोज़ की तरह उससे कहने लगी, “कितना पानी मिलाता है मोहन! तेरे दूध की चाय बनाने जाओ, तो पानी मिलाने की भी ज़रूरत न हो.” बाहर मेरी उसकी बहस हो रही थी और अंदर मेरा लिखा ख़त पंखे की हवा में हिलता हुआ मुस्कुरा रहा था.

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