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कहानी- खिलने दो (Short Story- Khilne Do)

"देखा..! देखो इस लड़के को… इसलिए मुझे हर वक़्त पिंटू की चिंता सताती रहती है. वहां अकेला बेचारा… कहीं उसके साथ भी कुछ ऐसी ऊंच-नीच हो गई तो?"
"तो क्या मां?" मैं फट पड़ी थी.
"देखा नहीं कैसे सबने उसे हाथोंहाथ संभाल रखा था. इतनी देखभाल तो उसके अपने मां-पिता भी नहीं कर पाते. पिंटू को लेकर आपकी अनर्गल चिंता और सोच बेमानी है. किसी अनिष्ट की आशंका से घबराकर चिड़िया अपने बच्चे को घोंसले में ही छुपाकर रखेगी तो बच्चा कभी उड़ना नहीं सीख पाएगा…"

पिंटू हॉस्टल क्या गया, घर भर की रौनक ही चली गई थी. मां-पापा, मैं सभी उसे बहुत याद कर रहे थे. हालांकि सभी के याद करने की अपनी-अपनी वजहें थीं, पर मूल वजह तो उससे जुड़ाव और प्यार ही था. शायद शादी से पहले कदम-कदम पर एक लड़की का साथी उसका भाई ही होता है. साथ खाना, खेलना, लड़ना-झगड़ना निःसंदेह पिंटू भी मुझे इन्हीं सब वजहों से मिस कर रहा होगा. शायद वह हमारी लड़ाई ज़्यादा मिस कर रहा होगा. फोन पर बात करते हुए मैंने उससे ये सब विचार शेयर किए तो वह भी देर तक हंसता रहा, "दीदी, आपसे बात करता हूं तो काफ़ी हल्का महसूस करता हूं, पर मां से बात करता हूं तो मन भारी हो जाता है. काफ़ी देर तक सामान्य नहीं हो पाता."
"भाई, भारी रिश्ते का भार ज़्यादा ही होता है. कहा ममतामयी जगतजननी मां और कहां हम अदने से लोग."
मैं मजाक कर इसे सामान्य बनाने का प्रयास करती. फोन पर बातचीत के दौरान हम दोनों ऐसे ही बातों को हल्के में लेने का प्रयास करते, पर सच तो यह था कि मां का ज़िक्र छिड़ते हो वातावरण गंभीर हुए बिना नही रहता. कारण स्पष्ट था, पिंटू के जाने के बाद मां की हालत बिल्कुल उस तोते जैसी हो गई थी जिसका सिर्फ़ शरीर था, आत्मा कहीं दूर चली गई थी. मैं और वक़्त अक्सर मायूस हो जाते जब मां को हंसाने के हमारे सारे प्रयास निष्फल हो जाते. बात कहीं से भी शुरू होती, मां इसमें कहीं न कहीं पिंटू का ज़िक्र निकाल ही लातीं और वार्ता हमेशा एक गहरी उदासी व चुप्पी पर जाकर समाप्त हो जाती. हमारे लाख समझाने पर भी मां पिंटू को लेकर आश्वस्त नहीं हो पा रही थीं.
नाश्ता करने बैठे तो मां को फिर पिंटू की याद आ गई.
"तो पिंटू के साथ डाली सारी लड्डू, मठरी ख़त्म हो गई होगी?"
"वो तो पहले दो दिनों में ही हो गई थी." मेरे मुंह से सच्चाई निकल गई. हालांकि तुरंत मैंने अपनी जीभ काट ली थी, पर तीर तो कमान से निकल चुका था.
"हाय, तो तब से बेचारा भूखा ही है. उसे तो एकाएक कुछ पसंद ही नहीं आता. सारा कुछ दोस्तों को खिलाने की क्या ज़रूरत थी?" मां के चेहरे पर चिंता के बादल मंडराने लगे थे.

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पापा ने मुझे नाराज़गी के भाव से घूरा तो मैंने बात संभालने का प्रयास किया, "अब हॉस्टल में तो ऐसा सब होता ही है मां. सब मिल-बांटकर ही खाते और रहते हैं."
मेरी बात अधूरी ही रह गई, क्योंकि बीच में ही फोन की घंटी बज गई थी. उधर कुछ सीरियस समाचार था. मौसाजी को अचानक अस्पताल भर्ती करवाना पड़ा था. हालांकि स्थिति ज़्यादा गभीर नहीं थी, पर मौसी का तो फोन पर ही रो-रोकर बुरा हाल हो रहा था. हम सभी तुरंत अस्पताल रवाना हो गए.
हमारे पहुंचने तक डॉक्टर मौसाजी की हालत ख़तरे से बाहर बता चुके थे, फिर भी बतौर सावधानी एकाध दिन हॉस्पिटल में ही बिताना था. मां और मौसी एक-दूसरे के गले लगकर रो लीं तो दोनों का मन हल्का हो गया. पापा ने इशारा किया तो मैं मां और मौसी को लेकर कमरे से बाहर निकल आई. हम वहीं एक बेंच पर बैठ गए. पास के ही एक कमरे के बाहर स्टूडेंट्स का जमावड़ा लगा था. पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि एक्सिडेंट में घायल एक स्टूडेंट को एडमिट करवाया गया है. भुवन नामक इस स्टूडेंट के हाथ-पांव में गभीर चोट आई थी. वह बिहार के किसी गांव का था. उसके माता-पिता को ख़बर कर दी गई थी, पर उन्हें पहुंचते-पहुंचते भी दो दिन तो लग ही जाने थे. बाहर खड़े स्टूडेंट्स में से एक लड़की ने बताया, "दीदी, वे लोग गरीब परिवार के हैं. पढ़े-लिखे भी कम ही होंगे. हम लोगों ने ही पैसे इकट्ठे कर उनका तत्काल में आरक्षण करवाया है. भुवन के इलाज का ख़र्च भी हम लोग मिलकर उठा रहे हैं."
अब तक मां और मौसी भी हमारे पास सरक आई थीं. उत्सुकतावश वे लड़के और उसके इलाज के बारे में पूरी जानकारी जुटाने लगीं. तब कुछ बच्चे अपने अभिभावकों के साथ सबके लिए खाना लेकर आ गए. वे यहीं के रहने वाले थे और भुवन के क्लासमेट्स थे. उन सभी को प्यार से एक-दूसरे को खाते-खिलाते देख हमारी आंखें भर आईं. लग रहा था जैसे एक भरा पूरा कुटुंब वहां जमा हो गया है.
इतनी सदस्य सख्या और इतनी गतिविधियों के बावजूद उनका अनुशासन देखने योग्य था. वहां मौजूद टीचर्स आपस में यही वार्तालाप कर रहे थे कि अपनी शरारतों और शोर से कॉलेज को गुंजायमान रखने वाले ये स्टूडेंट्स यहां कितनी शांति और सभ्यता से सारी व्यवस्था संभाले हुए हैं. हम मन ही मन भुवन नामक उस छात्र को देखने के लिए अत्यंत व्यग्र हो उठे थे जिसकी खिदमत में विद्यार्थियों सहित पूरा कॉलेज प्रशासन जुट गया था. पूरे गलियारे में स्टूडेंट्स दो-दो चार-चार के समूह में छितरे हुए थे और धीमे स्वर में वार्तालाप में मग्न थे. उनके पास से गुज़रने पर ही उनकी वार्ता के अंश सुने जा सकते थे. किसी अज्ञात प्रेरणावश हम तीनों धीरे-धीरे कदम बढ़ाती भुवन के कमरे की ओर जाने लगी, पर कान झुंड में बतियाते स्टूडेंट्स की बातों पर ही लगे थे. वे बारी-बारी से वहां रुकने वालों, नाश्ता-खाना आदि लाने वालों के नाम तय कर रहे थे.
"हॉस्पिटल में एक साथ इतने लोगों का रुकना और आना-जाना ठीक नहीं है. इससे बाकी लोगों को असुविधा होगी."
एक बोला, "हां, मैं भी ऐसा ही महसूस कर रहा हूं. ऐसा करते हैं शाम तक रजत और परेश रुक जाएंगे. रात में पीयूष और पांडे सो जाएंगे. सवेरे मैं और स्नेहा दूध-नाश्ता लेकर आ जाएंगे."

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"एक बात और भुवन तो अभी काफ़ी दिन कॉलेज आ नहीं पाएगा. हम इसे रोज़ के नोट्स की जेरॉक्स करवाकर पहुंचाते रहेंगे. जब मन अच्छा होगा, तबियत ठीक होगी, तो वो पढ़ लेगा, ताकि परीक्षा के वक़्त ज़्यादा ज़ोर न पड़े.
कमरे के एकदम बाहर खड़े झुंड की बातें भी कम दिलचस्प नहीं थीं.
"परसों अंकल-आंटी आए तो यहा किसी ज़िम्मेदार का होना ज़रूरी है. मेरे हिसाब से आंटी को संभालने के लिए सोनिया ठीक रहेगी."
"हां, और अंकल को सारी स्थिति मैं समझा दूंगा."
"मेरे पापा डॉक्टर हैं. मैं उनको एक बार यहां के डॉक्टरों से बात करवा दूंगा, थोड़ी बेहतर देखभाल हो जाएगी." जय ने जोश से कहा तो वहां उपस्थित और स्टूडेंट्स के साथ-साथ हम भी उसे प्रशंसात्मक नज़रों से देखने लगे. भुवन के कमरे का वातालरण एकदम शात था. हमने झांका तो एक लड़का पलंग के पास बैठा नज़र आया.
"हम भुवन से मिलने आए हैं." मैने बाहर खड़े लड़के से कहा तो उसने हमें भुवन का रिश्तेदार समझकर सहर्ष हमारे लिए रास्ता बना दिया. अंदर बैठे लड़के की पीठ हमारी ओर थी इसलिए उसे हमारी उपस्थिति का आभास नहीं हुआ, पर उसकी बातों से हमने अंदाज़ा लगा लिया कि एक्सिडेंट के वक़्त वह भुवन के पीछे बैठा था.
"तू डर मत, अंकल-आंटी कुछ नहीं कहेंगे. फिर भी तुझे तसल्ली नहीं हो रही तो उनसे कह देना कि गाड़ी मुकुल यानी मैं चला रहा था, तू तो बस पीछे बैठा था."
"लेकिन गाड़ी तो मैं चला रहा था, वो भी तेरी." भुवन मासूमियत से बोला.
"मालूम है, पर अंकल-आंटी को यह सब बताने की क्या ज़रूरत है? वे बेचारे वैसे ही थके-हारे, परेशान और चिंतित आएंगे."
"तेरी बाइक भी तो डैमेज हुई है. चिंतित था. उसका भी तो ख़र्चा…" भुवन का स्वर.
"वह सब हो जाएगा. बाइक इन्स्योर्ड है. क्लेम मिल जाएगा और अभी यह सब बातें करने का क्क़्त नहीं है. पहले ख़ुद को संभाल." हमारे कदमों की आहट से वे दोनों अचकचा गए.
"ज जी… आप?" मुकुल ने प्रश्न उछालकर सवालिया नज़रों से भुवन को ताका, लेकिन उसके चेहरे पर भी पहचान का कोई चिह्न न उभरता देख वह असमंजस में पड़ गया.
"हम पास वाले कमरे के मरीज़ के रिश्तेदार हैं." मैंने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ बताया, तब तक मां भी सामने आ गई थीं. वे एकटक भुवन के चेहरे पर नज़रें गड़ाए थीं. दुबला-पतला, मासूम सा चेहरा, पपड़ाए होंठ, निश्छल आंखें… यकायक मैं चौंक उठी कहीं मां की ममतामयी आंखें भुवन में पिंटू का अक्स तो नहीं ढूंढ़ने लगी हैं? मां के कदम भुवन की ओर बढ़ रहे थे. नज़रें अभी भी उसके चेहरे पर टिकी हुई थी, उनके बढ़ते कदम भुवन के सिरहाने जाकर ही थमे. प्यार से वे उसका माथा सहलाने लगी, "सब ठीक हो जाएगा बेटा. तुम बहुत जल्दी ठीक हो जाओगे." मौसी हैरानी से कभी मां को तो कभी मुझे देख रही थी. मैंने उन्हें शांत रहने का इशारा किया. फिर मां का हाथ पकड़कर उन्हें धीरे-धीरे बाहर ले आई.
"भुवन को अब आराम करने दो मां. तभी तो वह जल्दी ठीक होगा."
"हां, हां…" मां सम्मोहित सी मेरा हाथ पकड़े बाहर आ गई थी. मैंने उन्हें बेंच पर बिठाया, तब तक पापा भी हमें ढूंढ़ते ढूंढते आ गए थे.
"कहां चले गए थे तुम लोग?"
"उधर एक्सिडेंट में घायल एक लड़का भर्ती है." मैंने बात पूरी भी नहीं की थी कि मां शुरू हो गई.
"देखा..! देखो इस लड़के को… इसलिए मुझे हर वक़्त पिंटू की चिंता सताती रहती है. वहां अकेला बेचारा… कहीं उसके साथ भी कुछ ऐसी ऊंच-नीच हो गई तो?"
"तो क्या मां?" मैं फट पड़ी थी.
"देखा नहीं कैसे सबने उसे हाथोंहाथ संभाल रखा था. इतनी देखभाल तो उसके अपने मां-पिता भी नहीं कर पाते. पिंटू को लेकर आपकी अनर्गल चिंता और सोच बेमानी है. किसी अनिष्ट की आशंका से घबराकर चिड़िया अपने बच्चे को घोंसले में ही छुपाकर रखेगी तो बच्चा कभी उड़ना नहीं सीख पाएगा. आपको सिर्फ़ उस बीमार बच्चे में पिंटू की छवि दिखाई दी. उसकी मदद को तत्पर खड़े इन पचासों बच्चों में पिंटू की छवि दिखाई नहीं दी? आप क्या उसे हमेशा कमज़ोर, सबकी सहानुभूति का केन्द्र ही बनाए रखना चाहती हैं. क्या आप नहीं चाहती कि हमारा पिंटू कभी बड़ा हो? इस तरह औरों की मदद करे?"

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मां गंभीर सोच में डूबी नज़र आईं.
"मानती हूं मां, सबसे छोटा होने के कारण वह हम सभी का प्यारा-दुलारा है… आपने धरती मां बनकर नन्ही कली की तरह हमें अपने अंक में सहेज रखा है, पर अब आपको इन कलियों को सहज और स्वतः खिलने, विकसित होने का मौक़ा देन होगा मां. अपने बच्चों के स्वाभाविक विकास के लिए आपको इतना बलिदान तो करना ही होगा."
"हां रजनी, तुम्हें इतना मज़बूत तो होना ही पड़ेगा. तभी पिंटू भी आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी बन पाएगा. मानता हूं, तुम्हारे लिए थोड़ा मुश्किल होगा मां-बेटे का रिश्ता ही ऐसा है, सभी रिश्तों से बढ़कर… पिंटू अभी जिस दोस्ती के रिश्ते को एंजॉय कर रहा है वह प्यार के साथ ढेर सारी मस्ती समेटे है, पर इन सबसे ऊपर है मां का रिश्ता. जो ममता के साथ ढेर सारी चिंता, परवाह समेटे हुए है. सही पहचान पा रहा हूं ना रजनी ?" मैंने गौर किया, पापा आवाज़ में बेहद प्यार और आत्मीयता समेटे प्रशंसात्मक निगाहों से मां को निहार रहे हैं. भावनाओं के अतिरेक से माहौल थोड़ा भारी होने लगा, तो मैंने पापा को हिलाया.
"पापा, आपने बाकी सब रिश्तों को तो डिफाइन कर दिया, लेकिन पत्नी की डेफिनेशन नहीं बताई?"
पापा एक पल को सोचने की मुद्रा में आ गए. फिर गला खंखाला और गंभीर स्वर में बोलने लगे, "प्यार, प्लस ख़्याल, प्लस डर, प्लस साथ, प्लस नोंकझोंक, प्लस ज़िंदगी, प्लस मस्ती…"
"अरे, बस भी कीजिए जीजाजी." मौसी ने रोकना चाहा पापा ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, "भावनाओं का इतना मसाला एक साथ मिलता है तब एक अदद बीवी तैयार होती है." ठहाकों के साथ एक ही पल में वातावरण की गंभीरता छंट गई. एक मधुर संदेश चारों ओर गुंजायमान होता ध्वनित हो रहा था.
"रिश्तों की बगिया को महकने दो, हर कली को सहज ही खिलने दो."
मैंने और पापा ने गौर किया मम्मी शर्माते हुए मंद-मंद मुस्कुराने लगी थी.
- अनिल माथुर

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