"एक महीना… मतलब दादी?..” दोनों हैरानी से बोले. “मतलब ये कि तुम दोनों मुझे अपना एक महीना दे दो. तुम्हारे उस एक महीने में मैं तुम दोनों के साथ एक खेल खेलूंगी अर्थात् जैसा मैं कहूंगी तुम वैसा करोगे. फिर उसके बाद तुम दोनों आराम से अलग हो जाना. बोलो तैयार हो खेल खेलने के लिए?"
सुबह का समय पूरे दिन का सबसे व्यस्त समय. ऑफिस की तैयारी, चाय-नाश्ता, खाना... सब कुछ एक साथ. अनवरत हाथ चल रहे थे मेरे और मुख से निकल रहे थे कामवाली सुमन के लिए निरंतर निर्देश, "सुमन, दाल में हींग-जीरे का तड़का अच्छे से लगाना, उन्हें बिना तड़के की दाल पसंद नहीं आएगी और हां गैस पर सब्ज़ी है, उसे चला दे और हां धनिए-पुदीने की चटपटी चटनी भी बना दे, मां को चटनी बहुत पसंद है."
“आप निश्चिंत रहो भाभी मैं सब संभाल लूंगी. देखना मां-बाऊजी कितने शौक से खाना खाएंगे.“ सुमन ने बेफ़िक्री से उत्तर दिया.
रोज़ की तरह मेरा शरीर तो रसोई में काम कर रहा था, किंतु मन... आज मन मां-बाऊजी से मिलने को व्याकुल था.
“नीरव आपने ट्रेन का सही समय पता कर लिया था ना. आजकल बारिश की वजह से कई ट्रेनें लेट हो रही हैं.”
“हां सुबह ही पता कर लिया था. ट्रेन अपने नियत समय पर ही है." अख़बार में नज़रें गड़ाए नीरव ने उत्तर दिया.
“और हां आदि, समय से पहले ही स्टेशन पहुंच जाना बेटा, कहीं तुम्हारी लेट-लतीफ़ी के कारण वे स्टेशन पर ही ना खड़े रहे.”
“हां मां हां, आप बिल्कुल चिंता मत करो. मैं दादा-दादी को लेने समय से पहले ही स्टेशन पहुंच जाऊंगा.“
आदि की बात सुनकर मैं कुछ निश्चिंत सी हुई.
“आदि, नव्या कहां है? नाश्ते के लिए नहीं आई अभी तक, उसे भी तो ऑफिस जाना है.”
“तैयार हो रही है.” आदि की तरफ़ से बुझे हुए संक्षिप्त उत्तर सुनकर मैंने और नीरव ने एक-दूसरे को मायूसी भरी नज़रों से देखा.
थोड़ी देर रसोई में काम से युद्ध करने के पश्चात बचे सभी काम सुमन को समझाकर मैं अपनी चाय लेकर बालकनी में आ कर बैठ गई. सभी के जाने के बाद बालकनी में चाय पीना मेरा प्रिय शग़ल था. मैं अपने विचारों के ऊहापोह में फंसी चाय पी रही थी, तभी अचानक मौसम ने करवट बदली. देखते ही देखते सूरज की लालिमा काले बादलों के आग़ोश में समा गई थी. ये मौसम भी ना, बिल्कुल हमारे जीवन के समान होता है... कब करवट बदल लेता है, पता ही नहीं चलता.
धीरे-धीरे ठंडी बयार के साथ रिमझिम-रिमझिम फुहारें मेरे उलझे हुए मन को सहलाने का प्रयास करने लगी. पर मेरा मन तो अपने प्रश्नोत्तर में उलझा हुआ था. वो स्वयं ही प्रश्न पूछता और दूसरे ही पल स्वयं ही उत्तर दे देता.
“सब ठीक हो जाएगा ना.”
“अरे वसु, क्यों व्यर्थ चिंता कर रही हो. विश्वास रखो सब ठीक हो जाएगा.” मन एक पल अविश्वास भरा प्रश्न पूछता तो दूसरे ही पल मन विश्वास भरा उत्तर देता.
“मां-बाऊजी को सब बता तो दिया है, वो सब कुछ सम्भाल लेंगे ना?..“ सशंकित मन फिर से कुछ पूछता तो दूसरे पल उसे उत्तर मिलता, “फिर वही बात, निश्चिंत रहो. उन पर विश्वास रखो. उन्होंने कहा है- सब ठीक हो जाएगा.. तो हो जाएगा.“ अथक प्रयासों के बाद भी मैं अपने अंतर्द्वंद्व को शांत नहीं कर पा रही थी.
पता नहीं प्रकृति ने मनुष्य के स्वभाव में ये डिफॉल्ट फीचर फिट किया है कि किसी भी चिंता में सदा अविश्वास का पलड़ा विश्वास से भारी ही रहता है. कितना भी सहज रहने की कोशिश कर ले, अपने मन को समझा ले, किंतु सब व्यर्थ… ये चिंता हमारे भीतर अपनी धाक ऐसे जमा कर बैठ जाती है कि लाख कोशिशों के बावजूद नकारात्मकता सकारात्मकता पर हावी ही रहती है. मेरी इसी चिंता को दूर करने के लिए मां-बाऊजी हमारे पास आ रहे थे.
मां-बाऊजी, दोनों ही अत्यंत शांत, सुलझे हुए स्वभाव के थे. पुरानी पीढ़ी होने के बाद भी उनकी सोच-समझ नई पीढ़ी से भी सहज और सुलझी हुई थी. समय के परिवर्तन के साथ वे भी बख़ूबी अपने भीतर परिवर्तन लाकर समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में निपुण थे. अपने जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों के बाद भी वो कभी विचलित नहीं हुए. मुझे भली-भांति इस बात का विश्वास तो था कि मां-बाऊजी अपने अनुभव, परिपक्वता और सुलझेपन से इस समस्या का अवश्य ही समाधान निकाल लेंगे, पर... हालांकि फ़ोन पर मां ने मुझे आश्वस्त किया था.
“वसु, तुम बिल्कुल चिंता मत करना. ये दोनों कभी भी अलग नहीं हो पाएंगे. अरे विवाह का पवित्र बंधन है, कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं. ऐसे ही थोड़ी उनके अहम और नासमझी की बलि चढ़ जाएगा. फिर उन्होंने तो प्रेम विवाह किया है. पता है वसु, ये जो आजकल की जनरेशन एक्स, वाई, जेड है ना… समझते तो अपने आपको बहुत समझदार हैं, किंतु है बिल्कुल नासमझ. समर्पण, संवेदनाएं, प्रेम, त्याग, धैर्य तो इस जनरेशन के लिए ये भूले-बिसरे शब्द है. ये लोग रिश्ते में बंधना तो जानते हैं, किंतु उसे निभाना नहीं. तभी तो आजकल ज़्यादातर शादियां तलाक़ की दहलीज़ तक पहुंच रही हैं. परस्पर सामंजस्य का अभाव, अहम, अहंकार रिश्तों के टूटने का प्रमुख कारण है. हमारे लिए... हमारे समाज के लिए ये अत्यंत दुख का विषय है.”
“आप सही कह रही हैं मां. ये जनरेशन जितनी जल्दी रिश्ते में बंधती है उससे भी जल्दी रिश्ते को ख़त्म भी कर देती है. रिश्ता टूटने और ख़त्म होने का तो इन्हें ज़रा भी दुख नहीं होता. अब तो ये जनरेशन अपने टूटे रिश्ते को, तलाक़ को भी सेलिब्रेट करने लगी है… पार्टी करने लगी है... पता नहीं इनकी मृगतृष्णा इन्हें किस दिशा में ले जा रही है."
“हूं, ख़ैर तुम चिंता मत करो. देखना ये दोनों कभी अलग नहीं हो पाएंगे, बल्कि अपने रिश्ते को बख़ूबी निभाएंगे.. और वो भी खेल-खेल में.”
“खेल-खेल में... कैसे मां?"
“ये मैं तुम्हें वहीं आ कर बताऊंगी. बस तुम निश्चिंत रहो." कहकर मां ने फोन रख दिया.
“वसु...” मां की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी.
उनके चरण स्पर्श करके मैंने आशा भरी नम नज़रों से उन्हें देखा तो मां ने प्रत्युत्तर में उतनी ही आशा भरी नज़रों से देखकर मुझे आश्वस्त कर दिया.
मां-बाऊजी के आने से घर का वातावरण थोड़ा सामान्य हो गया था. तनाव के झरोखों से सुकून की धूप आने लगी थी. वे दोनों हर समय घर में बातों की, यादों की महफ़िल सजाए रहते. अपने, घर के, अतीत के क़िस्से बताते जिसे सभी ख़ूब दिलचस्पी के साथ सुनते. आदि और नव्या तो उनकी बातों में बिल्कुल मग्न हो जाते.
दिन ऐसे ही ख़ुशनुमा होकर बीत रहे थे. मां-बाऊजी जितने बेफ़िक्र और निश्चिंत थे, मैं उतनी ही फ़िक्रमंद और चिंतित. मुझे समझ नही आ रहा था कि हवा का रुख़ किस ओर बह रहा है.
एक दिन हम सभी ऐसे ही यादों-बातों की महफ़िल सजाए हुए थे, तभी मां ने बाऊजी की तरफ़ देखा और यकायक स्वर में गंभीरता लाते हुई बोलीं, "नव्या-आदि बेटा मैं तुम दोनों से कुछ बात करना चाहती हूं.”
“जी दादी.“
“देखो बेटा, मैं मानती हूं कि तुम दोनों काफ़ी समझदार हो और ज़रूर तुम दोनों की कोई गहन बात हुई होगी, जो तुमने अलग होने का निर्णय लिया है, वो भी प्रेम विवाह करने के बाद..! “
“नहीं… नहीं दादी... ऐसी कोई बात नहीं है.” आदि नज़रें चुराते हुए बोला.
“तो बिना बात ही तुमने अलग होने का निर्णय ले
लिया?.. बेटा ये अलग होना इतना सरल नहीं है, जितना तुम सोचते हो. फिर भी तुम्हारी ख़ुशी की ख़ातिर हम तुम्हारे निर्णय का सम्मान करते हैं.”
मां का वाक्य पूर्ण होते ही मैंने अपनी भृकुटियां ऊपर करके मां को देखा तो उन्होंने प्रत्युत्तर में पुन: मुझे आश्वस्त कर किया.
“पता है बच्चों.. ये जो पति-पत्नी का रिश्ता होता हैं ना, ये परस्पर सामंजस्य, प्रेम, समर्पण, धैर्य की नाज़ुक डोर से जुड़ा होता है. उस डोर का सिरा एक तरफ़ पति ने पकड़ा होता है तो दूसरी तरफ़ पत्नी ने. दोनों में से जो कोई भी उस डोर को अपनी तरफ़ खींचने का प्रयास करता है, वो डोर टूट जाती है और रिश्ता बिखर जाता है. ये जो तुम्हारी एक्स, वाई, ज़ेड जनरेशन है ना , उनकी यही समस्या है. अपने आपको बहुत समझदार समझती है. किंतु होते है एकदम नासमझ. एक पल में रिश्ते जोड़ते हैं और दूसरे ही पल तोड़ देते हैं. बेटा, ये विवाह एक पवित्र रिश्ता है, जिसमें समर्पण, प्रेम, धैर्य और त्याग का इत्र उसे सुगंधित कर देते है. लेकिन जब रिश्ते में अहंकार और अहम की दुर्गंध आ जातीहै, तो वो रिश्ता बिखरकर दम तोड़ देता है. पति-पत्नी दोनों को ही एक-दूसरे की अपेक्षाओं पर खरा उतरना होता है, तभी रिश्तों में मज़बूती आती है. बेटा ये रिश्ता निभाना एक साधना है, जिसमें दोनों की तपस्या ही उसे निखारती है. दोष किसी का भी हो, पर दोनों को ही एक-दूसरे को दोषमुक्त करना होता है. फिर भी बेटा, मैं तुम दोनों को अलग होने से नहीं रोकूंगी, लेकिन उससे पहले मैं तुमसे तुम्हारा एक महीना, सिर्फ़ एक महीना चाहती हूं.”
“एक महीना… मतलब दादी?..” दोनों हैरानी से बोले.
“मतलब ये कि तुम दोनों मुझे अपना एक महीना दे दो. तुम्हारे उस एक महीने में मैं तुम दोनों के साथ एक खेल खेलूंगी अर्थात् जैसा मैं कहूंगी तुम वैसा करोगे. फिर उसके बाद तुम दोनों आराम से अलग हो जाना. बोलो तैयार हो खेल खेलने के लिए?"
“कैसा खेल दादी?" नव्या ने झिझकते हुए पूछा.
“अदला-बदली.”
“अदला-बदली!..” वे हैरानी से बोले.
“हां, अदला-बदली यानी एक महीने के लिए
एक-दूसरे की भूमिकाओं और पात्रों की अदला-बदली." मां की बात सुनकर दोनों परेशान से उन्हें देखने लगे.
“अरे, अरे परेशान मत हो. बहुत सरल खेल है.”
“ ठीक है दादी जैसा आप कहें.“ दोनों ने अपनी सहमति दे दी.
“शाबाश! लेकिन खेल के विषय में बताने से पहले तुम दोनों ध्यान से खेल के नियम सुनो. नियम यह है कि तुम दोनों खेल के दौरान यानी पूरे एक महीने किसी भी बात पर, कभी भी, किसी भी वजह से एक-दूसरे को टोकोगे नहीं. ग़ुस्सा नहीं करोगे और ना ही शिकायत करोगे.
इसे धैर्य, प्रेम और ईमानदारी से खेलोगे. एक-दूसरे के मान-सम्मान का भी पूरा ध्यान रखोगे. और हां, ये खेल तुम्हारे ऑफिस जाने से पहले, ऑफिस से आने के बाद और छुट्टी वाले दिन के लिए होगा. तो फिर बोलो तुम्हें नियम मंज़ूर है."
“जी मंज़ूर है.”
“तो फिर तैयार हो.”
“जी दादी."
“तो अब ध्यान से सुनो, यह खेल चार हफ़्तों में विभाजित है.
पहले हफ़्ते में तुम दोनों अपने सभी काम स्वयं
करोगे. ऑफिस जाने से पहले के, आने के बाद और छुट्टी वाले दिन के जो भी काम होते हैं वे सभी… जैसे अपना टिफिन तैयार करना, अपने लिए खाना परोसना, बिस्तर लगाना, अपने कपड़े धोना, नहाने के बाद अपने कपड़े सुखाने के लिए डालना और प्रेस करना, बाहर बैंक के, मार्केट के काम जो भी, जितने भी काम होते हैं, सभी तुम्हें स्वयं करने होंगे. याद रखना कोई भी एक-दूसरे के काम में मदद नहीं करेगा. समझ गए.”
“जी दादी." दोनों एक साथ बोले.
“गुड! फिर दूसरे हफ़्ते में शुरू होगा अदला-बदली. मतलब एक-दूसरे की भूमिकाओं की अदला-बदली यानी जो भी काम नव्या आदित्य के लिए करती है, वो आदित्य नव्या के लिए करेगा. जैसे सुबह की चाय, टिफिन नव्या आदित्य के लिए नहीं बनाएगी, बल्कि आदित्य नव्या के लिए बनाएगा. ऐसे ही आदि के काम नव्या करेगी. जैसे आदि बाहर मार्केट के काम करता है, वो नव्या करेगी. ऑफिस से आने के बाद कितनी भी थकावट क्यों ना हो तुम्हें अदला-बदली वाले काम करने पड़ेंगे, बिलकुल वैसे ही जैसे तुम एक-दूसरे से उम्मीद करते हो. ठीक है.”
“ठीक है दादी."
“अब तीसरा हफ़्ता... इसमें तुम दोनों एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर, हाथ बंटा कर, प्यार से सभी काम करोगे. एक-दूसरे की इच्छाओं का मान रखोगे. उदाहरण के तौर पर अगर आदि को कुछ स्पेशल डिश खाने की इच्छा हो तो नव्या को उसे बनाना पड़ेगा चाहे मन से या बेमन से. किंतु उसे बनाने में आदि अपना पूरा सहयोग देगा. उसी प्रकार अगर नव्या का कहीं घूमने का मन हो तो आदि उसे घूमा कर लाएगा, मन से या बेमन से यानी तुम्हें एक-दूसरे को अपना समय, साथ, सहयोग देना है. बोलो मंज़ूर है.”
“जी मंज़ूर है दादी."
“और अब अंतिम हफ़्ता, इस हफ़्ते में तुम दोनों बिल्कुल वैसे ही रहोगे जैसे अभी रह रहे हो यानी एकदम सामान्य. इस हफ़्ते में तुम उन तीन हफ़्तों के खेल का विश्लेषण करके एक-दूसरे से जो कोई भी समस्या हो, शिकायत हो, परेशानी हो या फिर कोई भी ऐसी आदत हो जो तुम एक-दूसरे की बदलना चाहते हो, उसे परस्पर बात करके सुलझा सकते हो. समझ गए तुम दोनों पूरा खेल. कोई भी शंका हो तो पूछ लो."
“नहीं दादी, हमें सब मंज़ूर है."
दोनों ने भले ही बेमन से अपनी सहमति दी हो, किंतु मेरा और नीरव का चेहरा अत्यंत खिल गया था.
“तो फिर ठीक है. तैयार हो जाओ, तुम्हारा खेल कल से शुरू हो जाएगा. खेल के नियमों का ध्यान अवश्य रखना और पूरी ईमानदारी के साथ खेलना.”
“और हां सबसे महत्वपूर्ण बात फिर इन चार हफ़्तों के खेल के पश्चात जो भी तुम्हारा निर्णय होगा हमें स्वीकार्य होगा.” बाऊजी ने अंतिम वाक्य बोल कर पूरे वार्तालाप पर विराम लगा दिया.
मां की भावभंगिमा ने मुझे मूक कर दिया.
खेल शुरू होने के पश्चात कुछ दिन तो कशमकश में बीत गए. किंतु फिर धीरे-धीरे बीतते दिनों के साथ मां के खेल ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया. आदि और नव्या 'हम किसी से कम नहीं' वाले मोटो के साथ अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करने का पूर्ण प्रयास कर रहे थे. कभी दोनों हंसी का पात्र बनते तो कभी बेचारगी के.
तीन हफ़्तों के खेल के बाद घर में हवा का रुख़ अब सकारात्मकता की ओर हो गया था.
आदि और नव्या में सुखद परिवर्तन दिखने लगा, जिससे घर का वातावरण भी अब खिला-खिला रहने लगा.
अंतत: जिस दिन का हम सभी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे वो आ ही गया था. अंतिम हफ़्ते बीतने के बाद अगले दिन मां-बाऊजी ने आदि और नव्या को बुलाया.
“क्यों बच्चों कैसा रहा ये खेल?”
“ओह दादी यू आर जीनियस! आपने हम दोनों को खेल खेल में अच्छा सबक़ सिखा दिया.वो सब कुछ समझा दिया जिसे हम अपने अहम के कारण कभी समझ नहीं पा रहे थे या फिर समझना नहीं चाहते थे.“ ख़ुशी से आदि ने अपनी दादी को गले लगा लिया.
“जी दादी, इन चार हफ़्तों में हमें समझ आ गया की पति-पत्नी का रिश्ता आपसी सामंजस्य, प्रेम, समर्पण, त्याग और धैर्य की मज़बूत नींव पर टिका होता है. अपनी ग़लती पर क्षमा मांग कर झुक जाना, एक-दूसरे से मनुहार करना बहुत आवश्यक होता है. हम दोनों ही थके-हारे ऑफिस से आने के बाद एक-दूसरे पर काम करने की खीज उतारते थे. कभी समझा ही नही की अगर हम थके हुए हैं तो दूसरा इंसान भी तो थका हुआ आया है.” नव्या बोली.
“दादी, हमें समझ आ गया कि आपसी सहयोग के साथ भी तो काम हो सकता है. लड़ाई-झगड़े की जगह किसी भी समस्या को बैठ कर समझदारी और प्रेम से भी सुलझाया जा सकता है.” नव्या की बात आदि पूरी करते हुए बोला.
“हमें समझ आ गया दादी की रिश्ते को मज़बूत बनाने के लिए उसे निभाने के लिए बहुत सी बातों के कड़वे घूंट भी पीने पड़ते है, बहुत कुछ सहना भी पड़ता है, चाहे बेमन से ही सही. हमें अपने आपको एक-दूसरे के लिए, एक-दूसरे की ख़ुशी के लिए बदलना भी पड़ता है, तभी पति-पत्नी के रिश्ते में मिठास आती है. इन सब चीज़ों की तो हमने कभी कोशिश ही नहीं की, बस लड़-झगड़ कर, अपने खोखले अहंकार और अहम में डूबे रहे और ले लिया अलग होने जैसा मूर्खता भरा निर्णय.” नव्या बोली.
“पता है दादी, मुझे जब बेमन से नव्या का काम करना पड़ता था, तो एहसास हुआ कि नव्या पर क्या बीतती होगी. अगर मुझे नव्या की बातों का बुरा लगता है तो नव्या को भी तो मेरी बातें बुरी लगती होंगी. सिर्फ़ ये ही नहीं और भी बहुत कुछ समझ आ गया दादी इस खेल खेल में. सच दादी, कितने नासमझ थे हम जो अपने रिश्ते की बलि चढ़ा रहे थे. आपने हमें आईना दिखा कर हमारे दम तोड़ते रिश्ते को सांसें दे दी. दादी यू आर ग्रेट!" आदि ख़ुशी से बोला.
बच्चों की बातें सुन कर मेरी आंखें ख़ुशी में नम हो गईं.
“फिर वो अलग होने का निर्णय...” मां चुटकी लेते हुई बोलीं.
“अरे अलग होए इनके दुश्मन… चलो जी इसी ख़ुशी में केक काटो." टेबल पर केक रखते हुए बाऊजी बोले. अब तो पूरे घर में हंसी-ख़ुशी की मिश्री घुल गई थी.
अंत भला तो सब भला.. भावविह्वल हो मैंने राहतभरी सांस ली.

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