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कहानी- खेल (Short Story- Khel)

"तुम सोए नहीं अभी… आराम करते, थक गए होगे." जीजी के प्यार पगे शब्द मेरा मन भिगा गए, वो क्या कहना चाहती थीं मुझे पता था… कितने दिन हो गए हमें इत्मीनान से बात किए हुए, लेकिन मुझे जाने को क्यों कह रही थीं, मुझे पता था.
"नींद नहीं आ रही थी, आप लोगों को देखकर यहां आ गया. चलो, छत पर चलो… उठो दोनों." मैं आज कोई व्यवधान नहीं चाहता था, बस हम तीनों और हमारी वही छत, बचपन वाली.

लगभग सभी मेहमानों को विदा करने के बाद मैं अपने कमरे की ओर लौट रहा था कि नज़र सीढ़ियों पर जाकर अटक गई; जीजी और रितु दीदी दुनिया से बेख़बर पता नहीं कौन-सी बातों में तल्लीन थीं… मैं उनके पास जाने की बजाय, एक दीवार पर टेक लगाए उन दोनों को एकटक देख रहा था! जीजी मुझसे लगभग चार साल बड़ी थीं, लेकिन वो इस अंतर को लगभग दस साल का अंतर समझती थीं, हमेशा डांट-फटकार कर ही बात करना… दिल दुखी हो जाता था.
कभी लेटी हों और पूछ लो, "तबीयत ठीक नहीं क्या?" तो जवाब में "आंखें नहीं हैं क्या? देख नहीं रहे माथे पर कपड़ा बांधा है…" और कभी बेहद उदास दिखती थीं, तो अपने को रोकते-रोकते भी जाकर समझाने बैठ जाता था. लेकिन मेरी गंभीर बातों को भी वो "छोटे भाई हो, बाप मत बनो…" कहकर हवा में उड़ा देती थीं और मैं खिन्न मन लिए लौट आता था! वहीं रितु दीदी जो सहेली तो जीजी की थीं, लेकिन मैं भी सहेली ही मानता था (बस आदतन दीदी बोल देता था, वो भी कभी-कभी), स्वभाव की बेहद सरल, अक्ल की पक्की और बेहद मृदुभाषी. हर बार हम दोनों की लड़ाई सुलझाकर नकली ग़ुस्से से कहती थीं, "आइंदा ख़ुद ही निपटना तुम लोग…" लेकिन हर बार उनको युद्ध विराम के लिए बीच में कूदना ही पड़ता था! मेरे बचपन की अबूझ पहेलियों में से एक पहेली तो इनकी दोस्ती थी और दूसरी पहेली ये कि रितु दीदी जैसी लड़की भी मेरी जीजी को अपने जैसी सभ्य क्यों नहीं बना पाईं?
"घर तो भाईसाहब आपने बहुत रुपया और दिल दोनों लगाकर बनवाया है… हे हे हे… गृह प्रवेश की बहुत बधाई!" मेरे पड़ोसी एक चलताऊ मज़ाक करके, मुझसे विदा लेने के लिए मेरी ओर बढ़ रहे थे… मैं ज़बरदस्ती मुस्कुरा दिया. इस समय मेरा मन बस उसी सीढ़ी वाली गोष्ठी में रमा हुआ था, जहां जाने के लिए मैं पत्नी से बचने का कोई ज़बरदस्त बहाना ढूंढ़ रहा था.
"तुम कपड़े बदल लो, आराम करो… मैं थोड़ी देर में आता हूं." मैंने कमरे में जाकर गीता से कहा.


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"अब कहां जा रहे हैं, एक-दो सेल्फी लेते हम लोग. जीजी लोग बुला रही हैं क्या?" गीता ने मुस्कुराते हुए एक ताना मेरी ओर उछाल दिया… खून में हल्का-सा उबाल आकर रह गया. यही 'जीजी लोग' इसको सबसे अच्छी लगती थीं, जब मुझे सही-ग़लत समझाकर हमारी गृहस्थी की लड़खड़ाती ट्रेन को उठाकर पटरी पर रख जाती थीं… जब-जब मेरा मन नितांत अकेलेपन से जूझता था और ठीक उसी समय गीता भी बजाय मलहम लगाने के मुंह फुलाकर बैठ जाती थी, तब यही 'जीजी लोग' ही साथ रहीं हमेशा और अब? जब सब कुछ सही है, मैं फोन पर आराम से बात तक नहीं कर सकता… मैं समझता नहीं हूं क्या, ठीक उसी समय गीता को कोई बहुत ज़रूरी बात बतानी होती है, जब मैं जीजी से फोन पर बात करता हूं या ठीक उसी समय गीता को बीमार पड़ना होता है, जब जीजी थोड़ी देर को घर आती हैं! रितु दीदी को गृहप्रवेश में बुलाने के लिए मुझे कितनी कहानियां बनानी पड़ी थीं, मैं ही जानता हूं… और उन दोनों को एक दिन के लिए रोकने के लिए अनगिनत बहाने!
मैं गीता को बिना जवाब दिए, रामकुमार को तीन कप चाय छत पर भेजने के लिए कहकर दनदनाते हुए सीढ़ियों पर पहुंच गया. मुझे देखकर दोनों चौंकी, फिर मुस्कुराईं और अचानक जैसे हम तीनों की आंखें भर आईं! शायद हम तीनों कई साल पहले उसी कमरे में पहुंच गए थे, जहां मैं बैठा रहता था और रितु दीदी घर में आते ही जीजी का हाथ पकड़ कर उसी कमरे में आकर पता नहीं क्या-क्या बातें करती थीं… कभी दुपट्टे की, कभी फिल्मों की, कभी सहेलियों की, और मैं यूं तो झुंझलाकर, "किसी और कमरे में जाकर बात करो…" कह तो देता था, लेकिन मुझे कितना आनंद आता था, ये मुझसे ज़्यादा कोई नहीं समझ सकता था! आज भी वही महसूस हो रहा था.
"तुम सोए नहीं अभी… आराम करते, थक गए होगे." जीजी के प्यार पगे शब्द मेरा मन भिगा गए, वो क्या कहना चाहती थीं मुझे पता था… कितने दिन हो गए हमें इत्मीनान से बात किए हुए, लेकिन मुझे जाने को क्यों कह रही थीं, मुझे पता था.
"नींद नहीं आ रही थी, आप लोगों को देखकर यहां आ गया. चलो, छत पर चलो… उठो दोनों." मैं आज कोई व्यवधान नहीं चाहता था, बस हम तीनों और हमारी वही छत, बचपन वाली.
"क्या बात कर रही थीं दोनों…" मैंने रितु दी को ध्यान से देखा, अनगिनत लकीरें चेहरे पर आकर उम्र का हिसाब दे रही थीं.
"यही बात कर रहे थे कि घर इतना अच्छा बनवा लिया है तुमने, लगता ही नहीं वही पुरानावाला घर है…" रितु दी का वही लहजा, मीठी संतुलित बातें, "बस यही छत है, जो बिल्कुल नहीं बदली."
एकदम से मेरी आंखें भर आईं या शायद फिर से हम तीनों की… सब बदल गया, ये छत ही गवाह रही हमारे बचपन की, हमारे साथ की! मैं कुहनी की टेक लगाकर लेटने लगा फिर पता नहीं क्या सोचकर जीजी के पैर पर लेट गया…
मेरी आंखें खुल नहीं रही थीं या मैं आंसू दिखाना नही चाह रहा था. दोनों फिर से अपनी बातें करने लगी थीं, वो बातें जो मेरे लिए नहीं थीं, लेकिन वो दोनों आवाज़ें बस मेरे लिए थीं. बात करते-करते जीजी का दुपट्टा बार-बार उड़कर मेरा चेहरा छू रहा था और मेरा मन भी… हम कितना लड़ते थे, क्यों लड़ते थे?
"कितनी बची ही है रितु, आधी ज़िंदगी तो निकल गई अपनी…" जीजी ने एक लंबी सांस लेकर बात कही.
"वो तो है… जैसे आधी निकल गई, बाकी भी बीत ही जाएगी." रितु दी ने भी जैसे हथियार डाल दिए. मैं बेचैन होने लगा था… ये क्या बातें कर रही हैं दोनों? सब तो ठीक है इनके जीवन में, फिर किस बात पर… "आधी बीत गई, आधी बीत जाएगी…" जैसी गूढ़ बातें? मैं एकदम से उठकर बैठ गया. चाय भी आ चुकी थी.
एक घूंट भरते हुए मैंने कहा, "क्या मनहूसियत भरी बातें कर रही हो दोनों… कोई नई मूवी देखी?" कहने को तो मैं कह गया, लेकिन मुझे पता था खामियाजा भुगतना पड़ेगा!
"क्या नई मूवी? अपनी ही मूवी देख लें, बहुत है." रितु दी की डूबती हुई आवाज़, जैसे किसी गहरे कुएं से आ रही हो.
"ऐसा क्या है? आप दोनों तो हो ही पुराने ज़माने की हीरोइन, बस रोती रहो…" मैने माहौल ठीक करने के लिए एक और ग़लती कर दी. जीजी मुझे अजीब ढंग से देखते हुए बोलीं, "तुम सो जाओ जाकर… वैसे तुम्हे बुलाया किसने था?"
पहले की बात होती, तो मैं भन्नाते हुए भाग जाता, आज इस बात से मुझे बेहद सुकून मिला… जीजी उसी तरह डांट रही थीं जैसे कैरम बोर्ड खेलते समय मेरी ऊलजुलूल हरकतों पर डांटती थीं.
जीजी ने रितु दी का हाथ पकड़ कहा, "एक बात जान लो, कहने की बातें हैं कोई नहीं समझेगा जो तुम चाहती हो.. ना पति ना बच्चे, चाहे जान निकालकर रख दो…"
मुझे बहुत बेचैनी हो रही थी… ये सचमुच कोई खेल चल रहा था, जिसमें एक तरफ़ ये दोनों थीं और दूसरी तरफ़ मैं था. मैं चाहता था, ये दोनों हार जाएं, मैं जीत जाऊं… मेरी बातें जीत जाएं, ये दोनों हंस दें… सब कुछ भूलकर!
"क्या जीजी! आप तो अच्छे-भले को रुला दो… पता नहीं जीजाजी कैसे रहते हैं बेचारे." मैंने डरते हुए बर्र का छत्ता छू लिया, पता था अब अनगिनत डंक मेरी ओर बढ़ेंगे… लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, जीजी धीरे से मुस्कुरा दीं.
"पता नहीं वो बेचारे हैं या तुम्हारी जीजी बेचारी हैं…" जीजी ने सिर झुका लिया, मैं हारता जा रहा था… दोनों की आंखों से टप -टप आंसू गिरे जा रहे थे, शायद बहुत दिनों बाद दोनों साथ बैठकर मन हल्का कर रही थीं.
"चलो कोई गाना सुनते हैं… मूड ही ख़राब कर दिया." मैंने फोन निकाला और ये कहते हुए अपनी तकलीफ़, जो बाहर आने को बेताब थी उसको अंदर की ओर ढकेला और जीतने की एक और कोशिश की!
"हम लोग गाना नहीं सुनेंगे… अभी सुन नहीं पाएंगे…" रितु दी एकदम से उठकर खड़ी हो गईं… मैं महसूस कर रहा था, मैं हारने वाला था.
"इसको समझ में नहीं आएगा रितु… जो तकलीफ़ झेलता है, वही समझता है…" जीजी भी एक कटाक्ष मेरी ओर फेंकते हुए खड़ी हो गईं. मैं एक-एक पल मुश्किल से काट रहा था; मैं जीजी को बताना चाहता था, अपना अकेलापन, अपनी तकलीफ़ें, अपनी समस्याएं, मैं भी इन दोनों के साथ रोना चाहता था… मैं फिर उसी बचपन के खेल में था, जहां ये दोनों जीतनेवाली थीं!


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"हां, मुझे नहीं समझ में आ रहा है ये सब जीजी. देखो ना अपने आसपास सब तो अच्छा है… आप लोगो की आदत है फ़ालतू बातें ढूंढ़-ढूंढ़ कर रोने की, मुझे नहीं बैठना… बतियाओ आप लोग." बमुश्किल अपने आंसू रोकता हुआ मैं धड़धड़ाते हुए सीढ़ियां उतर आया. मैं बचपन में भी यही करता था, आज भी वही किया; जब समझ में आ जाता था कि मैं हारनेवाला हूं, अब मैं जीत नहीं पाऊंगा तो कैरम बोर्ड पलट आता था, यही कहकर कि "आप ही लोग खेलो… मुझे नहीं खेलना ये वाला खेल!"

Lucky Rajiv
लकी राजीव

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