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कहानी- काश निर्णय में देरी ना होती… (Short Story- Kash Nirnay Mein Deri Na Hoti…)

"अच्छा अब चलते हैं, फिर कभी आऊंगा." कहकर सुरेश ने सूटकेस उठा लिया. गिरजा छोटे को गोद में लिए चिंपू के साथ दरवाज़े की ओर बढ़ी दीदी ने रोकना चाहा, पर सुरेश रुके नहीं. भारी कदमों से चलते सुरेश अपने को ही दीदी का दोषी मान रहे थे, 'काश उन्होंने निर्णय लेने में देर न की होती'.

बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही थी. बीच-बीच में बिजली भी कड़क रही थी. गिरजा नन्हें चिंपू को थपकी देकर सुलाने का प्रयास कर रही थी. दो वर्ष का चिंपू भी मां से चिपककर सोने की कोशिश कर रहा था. बिजली और तूफ़ान से गिरजा का मन भीतर ही भीतर कांप रहा था. सुरेश अभी ऑफिस से घर नहीं आए थे. गिरजा सोचने लगी, 'कहीं ऐसे मौसम में उसे अचानक प्रसव पीड़ा शुरू हो जाए, तो वह क्या करेगी?'
बरसात के मौसम में इस पहाड़ी जगह पर हॉस्पिटल जाने का साधन भी तो उपलब्ध नहीं था. प्रसव पीड़ा में दो किलोमीटर दूर बारिश में रात के समय पैदल चलने की सोचकर ही गिरजा परेशान भी हो उठी. उसने उठकर पानी पिया और खिड़की से बाहर झांककर देखने लगी. मूसलाधार बारिश व कोहरे में खड़े चीड़ और देवदार के पेड़ प्रेत सदृश्य दिख रहे थे, हड़बड़ाकर गिरजा ने खिड़की बंद कर दी और चिंपू से सटकर सुरेश का इंतज़ार करने लगी.
दस बजे रात सुरेश की आवाज़ सुनकर गिरजा की जान में जान आई. सुरेश की परेशानी जानने की बजाय वह उस पर बरस पड़ी.
"कहां लगा दी इतनी देर? कितनी घबरा गई थी मैं. डॉक्टर ने डिलीवरी की तारीख़ इसी हफ़्ते की दे रखी है. ऐसे मौक़े पर तो कम से कम समय से घर आ जाना चाहिए था."
गिरजा की हालत पर सुरेश को तरस आ रहा था. बिना कोई तर्क दिए ग़लती स्वीकार करते हुए सुरेश बोले, "ठीक है बाबा, माफ़ कर दो. अब ऐसी भूल नहीं होगी."
बिस्तर पर लेटे हुए सुरेश को गिरजा की चिंता होने लगी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अकेले क्या करे? बिना प्रसव पीड़ा के अभी से गिरजा को हॉस्पिटल में भर्ती भी तो नहीं किया जा सकता. पता नहीं डिलीवरी में अभी कितने दिन लगे? और फिर चिंपू उसे देखने के लिए भी तो घर पर एक व्यक्ति चाहिए. ऐसे समय में सुरेश को मां-बाबूजी का अभाव बहुत अखर रहा था. आज की परिस्थिति के लिए भगवान को धन्यवाद देकर वह सोने की कोशिश करने लगा. नींद उसकी आंखों से आज कोसों दूर थी.
चिंपू अपने ननिहाल में पैदा हुआ था, तब सुरेश को पिता बनने में होनेवाली परिस्थितियों का अनुभव नहीं था. इस बार भी गिरजा डिलीवरी के लिए मायके जाने वाली थी, तभी अचानक बिन बुलाई मुसीबत के कारण गिरजा को अपना पूर्व निर्धारित कार्यक्रम बदलना पड़ा. गिरजा की बड़ी बहन बीना कार एक्सीडेंट में बुरी तरह घायल हो गई थी. गिरजा के मम्मी-पापा उसी की देखभाल के लिए फ़ौरन दिल्ली चले गए. मायके में अब छोटे भाई के अलावा कोई न था, इसीलिए सुरेश ने अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद निभाने का फ़ैसला कर लिया था.
सुबह गिरजा की आंख देर से खुली. आज मौसम भी साफ़ था. काम निबटाकर गिरजा ज्यों ही सुस्ताने के लिए कमरे में जाने लगी, बाहर नेपाली के साथ सुरेश की मंझली दीदी रमा को देखकर चौंक गई.
"दीदी आप! अचानक यहां? घर पर सब ठीक तो है?"
"सब ठीक है, तुम्हारे कारण यहां आना पड़ा. तुम लोग तो कुछ बताते नहीं हो. दूसरों से सुनकर दुख तो होता है, पर क्या करूं? मन नहीं माना, चिंता हो रही थी कि सुरेश यह सब अकेले कैसे संभालेगा? कम से कम तुम तो मुझे बता सकती थी. आख़िर रिश्ते-नाते कब के लिए होते." दीदी कमरे में प्रवेश करते हुए बोली.
गिरजा दीदी के पैर छूते हुए सफ़ाई देने लगी, "ऐसी बात नहीं थी. दरअसल, बीना दीदी के एक्सीडेंट के कारण मां दिल्ली चली गईं. इसी से हालात बदल गए. ऐसी परिस्थिति में आपका तो मुझे ध्यान ही नहीं आया."
गिरजा जानती थी कि झूठ बोलकर वह दीदी को बहलाने का प्रयास कर रही थी. निःसंतान रमा दीदी को ऐसे मौक़े पर बुलाकर वह उनके दिल की कसक को बढ़ाना नहीं चाहती थी. यह उनका बड़प्पन था कि ऐसी विषम परिस्थिति में वे ख़ुद ही भाई की मदद के लिए आ गई थीं.


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आते ही रमा दीदी घर के काम में जुट गईं. हर तरह से संपन्न दीदी के जीवन में बस संतान का ही अभाव था. औलाद दीदी की कमज़ोरी थी. दो बार अपनी बिरादरी से बच्चा गोद लेने का असफल प्रयास वह कर चुकी थीं.
दो वर्ष तक अपनी बड़ी बहन माया के छोटे बेटे को अपने साथ रखने के बाद संतान की चाह रमा के अन्दर बहुत अधिक बढ़ गई थी. यह रमा दीदी का दुर्भाग्य ही था कि गोद लेने की क़ानूनी कार्रवाही पर माया दीदी अपने बेटे को बड़े नाटकीय तरीक़े से वापस ले आई थीं. इस घटना से रमा दीदी का रहा-सहा धैर्य भी टूट गया था. लेकिन अपनों के प्रति कड़वाहट को भुलाकर वह ठीक समय पर भाई के पास इतनी दूर से पहुंच गई थीं.
अगले दिन हल्के दर्द की शुरुआत होते ही गिरजा हॉस्पिटल चली गई. बिना अधिक दर्द के शाम को उसने सुंदर और स्वस्थ बेटे को जन्म दिया. दीदी के रहने से सुरेश को कोई परेशानी नहीं हुई. चौबीस घंटे में ही नवजात शिशु के साथ गिरजा ख़ुशी-ख़ुशी घर आ गई.
दीदी ने गिरजा और नवजात शिशु की बहुत सेवा की. बच्चे की सारी ज़िम्मेदारी दीदी ने ऐसे निभाई जैसे उन्हें बच्चे की देखरेख का बहुत अनुभव हो. दीदी को बच्चे के साथ तल्लीन देखकर गिरजा सोचने लगी, 'काश! दीदी की गोद भी संतान से भर जाती.'
डेढ़ हफ्ते तक घर और गिरजा की पूरी देखभाल करके रमा दीदी वापस जाते हुए बोली, "गिरजा ईश्वर की दया से सब कुछ ठीक हो गया है. अब तुम अपनी देखभाल ख़ुद भी कर सकती हो. अब तुम्हें मेरी ज़रूरत नहीं पड़ेगी."
गिरजा दीदी को कुछ दिन और रोकना चाहती थी, पर बोली कुछ नहीं. वह जानती थी दीदी यहां और रुकेंगी, तो छोटे का मोह उन्हें यहां से जाने नहीं देगा. बात का रुख मोड़कर गिरजा बोली, "दीदी, छोटे को अपनी पसंद का कोई नाम तो दे दीजिए."
"मेरी पसंद के नाम का क्या करोगी? नाम रखने का हक़ तो भगवान ने मुझे दिया ही नहीं." दीदी बुझे स्वर में बोली.
"आप कोई बच्चा गोद ले लीजिए न. आपके जीवन में संतान की कमी पूरी हो जाएगी."


"किसका बच्चा गोद लें? किसी अनजान व्यक्ति का… ना बाबा ना, यह मुझसे न होगा और अपनों के हाल तो तुम देख ही चुकी हो." दीदी मन की कडुवाहट को हंसकर उगलते हुए बोली.
रमा दीदी को अच्छे मूड में देखकर गिरजा की हिम्मत थोड़ी बढ़ गई. वह बोली, "दीदी, एक बार फिर कोशिश कीजिए, शायद बात बन जाए."
दीदी एकाएक गंभीर हो गईं. कुछ सोचकर बोलीं, "ठीक है. कहो, तुम मुझे छोटे को गोद दे सकती हो?"
गिरजा को दीदी से ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी. उसका सिर चकरा गया.
गिरजा ने एक नज़र छोटे पर और दूसरी दीदी पर डाली और सिर झुका लिया. एक गहरी सांस लेकर दीदी ने गिरजा को अपराधबोध से उबारते हुए कहा, ""सलाह सब देते हैं, हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता. सब अपने-अपने नसीब की बात है."
दीदी के शब्द गिरजा के मानस पटल पर बड़ी देर तक गूंजते रहे. उनकी खातिर वह तीसरे बच्चे को जन्म देकर दीदी को दे सकती थी पर छोटा? नहीं, यह नहीं हो सकता. छोटे को अपने से अलग करने के लिए गिरजा मानसिक रूप से तैयार नहीं थी. दिमाग से दीदी की बात को हटाने के लिए उसने छोटे के गालों पर चुंबन की झड़ी लगा दी.
दीदी के चले जाने के कुछ‌ दिन बाद दीदी की कही बात का ज़िक्र गिरजा ने सुरेश से किया. सुरेश चौंक गए, "तुमने यह सब मुझे पहले क्यों नहीं बताया?" गिरजा सफ़ाई देते हुए बोली, "बात तो दीदी ने साधारण ढंग से कही थी, गंभीर होकर नहीं. इसलिए मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया."


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सुरेश कुछ सोचकर बोले, "दीदी के मन में संतान की चाह बहुत गहरे भीतर तक जड़े जमा चुकी है, नहीं तो वह अपने भाई की दूसरी संतान को गोद लेने की बात कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थीं."
सुरेश को गंभीर देखकर गिरजा बोली, "आप चिंता न कीजिए, यदि वह फिर कभी इस बात का ज़िक्र करेंगी, तो तीसरा बच्चा पैदा करके उन्हें ही सौंप देंगे."
"तीसरे तक तो बहुत देर हो जाएगी गिरजा. दीदी अब इतना सब न कर सकेंगी. इससे पहले कि वह कोई ऐसा-वैसा कदम उठाएं हमें छोटे को ही गोद देने के बारे में सोचना होगा." सुरेश ने कहा.
"नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती. मैं अपनी ममता का गला नहीं घोंट सकती." गिरजा तमककर बोली.
"तुम्हारे पास तो ममता लुटाने के लिए चिंपू है. वह अभी छोटा ही तो है. ज़रा सोचो, दीदी पर क्या गुज़रती होगी. दीदी हमसे बाहर तो नहीं है. आख़िर छोटा रहेगा, तो अपनों के पास ही. माया दीदी के बर्ताव से रिश्तों के प्रति उनके मन में जो कडुवाहट भर गई है, वह दूर हो जाएगी और वे सामान्य होकर जी सकेंगी." सुरेश ने गिरजा को समझाया.
"दीदी में कोई असामान्य बात मुझे तो नज़र नहीं आई. वे तो बिल्कुल ठीक हैं." गिरजा भी किसी तरह इस मुद्दे पर हार माननेवाली न थी. बहस में न पड़कर सुरेश चुप हो गए और ख़ुद को छोटे को दीदी को गोद देने के लिए मानसिक तौर पर तैयार करने लगे.
दीदी के लिए सुरेश को चिंतित देखकर गिरजा सोचने लगी, 'रमा दीदी ने ठीक समय पर आकर परिवार की जो ज़िम्मेदारी निभाई. वह तारीफ़ के योग्य थी. गिरजा यदि बच्चा गोद लेने के लिए दीदी को न उकसाती, तो वह छोटे का ज़िक्र कभी न करती.' दीदी का दुख गिरजा भी महसूस कर रही थी. मन पक्का करके गिरजा भी दीदी के लिए त्याग करने के लिए तैयार हो गई.
"दीदी को फोन से ख़बर दे दीजिए."
"दीदी को इतनी बड़ी ख़ुशी फोन से नहीं, ख़ुद जाकर देंगे. दस दिन बाद दशहरा है. दशमी के इतने नायाब तोहफ़े की दीदी कभी कल्पना भी नहीं कर सकेंगी." सुरेश ख़ुश होकर बोले.
दीदी की ख़ुशी की कल्पना से गिरजा रोमांचित हो गई. तभी उसकी नज़र छोटे पर पड़ी, मन कहीं अन्दर तक कांप गया. उसने छोटे को गोद में उठाकर सीने से लगा लिया.
विजयदशमी पर अचानक सुरेश, गिरजा, चिंपू और छोटे को अपने घर बिन बताए आया देख दीदी चौंक गईं. दीदी ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया. सुरेश ने महसूस किया कि दीदी आज बहुत प्रसन्न नज़र आ रही थीं. घर भी बहुत व्यवस्थित लग रहा था. इधर-उधर देखकर सुरेश ने पूछा, "दीदी, जीजाजी नज़र नहीं आ रहे. कहीं गए हैं क्या?"
"शादी में गए हैं." दीदी चहककर बोलीं.
"किसकी शादी में गए हैं?" सुरेश ने प्रश्न किया. "अपनी."
"मज़ाक छोड़ो दीदी, सच बताओ. मुझे उनसे ज़रूरी काम है." सुरेश अचकचा कर बोला.
"सच, मैं मज़ाक नहीं कर रही हूं. वे अपने लिए दुल्हन लाने गए हैं, शाम तक आ जाएंगे. कुल चार-पांच लोग ही गए हैं इस सादे विवाह में." दीदी बोली.
सुनकर सुरेश सन्न रह गए. अपने को बड़ी मुश्किल से संतुलित करके बोले, "आपने पहले बताया क्यों नहीं? किसी से राय भी नहीं ली. कम से कम इतना बड़ा कदम उठाने से पहले एक बार पूछ तो लिया होता. मैं तुम्हारा भाई था दीदी दुश्मन नहीं."
"हर तरफ़ से हार कर अब क्या पूछना था. औलाद की चाह पूरी करने का यह भी एक रास्ता है. यह बात बहुत देर में मेरी समझ में आई. आख़िर अपना खून अपना ही होता है. कमी मुझमें थी. तुम्हारे जीजाजी में नहीं." कहकर दीदी चुप हो गईं. आख़िर वही हुआ जिसका सुरेश को डर था. सुरेश हताश होकर बोले, "अपने अधिकारों को बांट पाओगी जीजाजी की दूसरी पत्नी के साथ? यह काम इतना आसान नहीं है. आख़िर तुम्हारे भविष्य का प्रश्न है." कितने अरमानों के साथ आए थे सुरेश और गिरजा दीदी के पास. दीदी की ख़ुशी के लिए वे अपने जिगर के टुकड़े, मासूम छोटे को अपने से दूर करने के लिए तैयार हो गए थे. दीदी के एक अविवेकपूर्ण निर्णय ने उनकी ख़ुशियों और त्याग पर पानी फेर दिया.
गिरजा का दिल अंदर से छटपटा रहा था. उसने अपने निर्णय के बारे में दीदी को बताने के लिए मुंह खोला ही था, "दीदी हम तो छोटे को…" सुरेश ने गिरजा को तुरंत रोककर बात का रुख मोड़ते हुए कहा, "हम तो छोटे को लेकर पहली बार घर से निकले है. सोचा सबसे पहले आपका आशीर्वाद ले लें."


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"यह तो तुमने बहुत अच्छा किया, ईश्वर ने चाहा तो जल्दी ही यह घर भी बच्चों की किलकारियों में गूंजने लगेगा." दीदी आनेवाले कल की ख़ुशियों की कल्पना में डूबते हुए बोलीं.
शाम होने लगी थी. दीदी नई दुल्हन के आने की तैयारी करने लगीं. सुरेश के लिए अब और ठहरना मुश्किल हो रहा था. भविष्य की समस्याओं से अंजान संतान की खातिर दीदी ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था.
"अच्छा अब चलते हैं, फिर कभी आऊंगा." कहकर सुरेश ने सूटकेस उठा लिया. गिरजा छोटे को गोद में लिए चिंपू के साथ दरवाज़े की ओर बढ़ी दीदी ने रोकना चाहा, पर सुरेश रुके नहीं. भारी कदमों से चलते सुरेश अपने को ही दीदी का दोषी मान रहे थे, 'काश उन्होंने निर्णय लेने में देर न की होती'.

- डॉ. के. रानी

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