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कहानी- कनेर फीके हैं… (Short Story- Kaner Pheeke Hain…)

जब तक तुम छुट्टियों में, यहां गांव में रहते हो अपने आंगन का कनेर कितना लाल-लाल फूलने लगता है, लेकिन तुम्हारे जाने के बाद यह बहुत फीका सा लगता है. पिंटू भी फिर उन्हें तोड़ने की ज़िद नहीं करता, पता नहीं क्यों? तुम्हारा क्या, तुम तो थोड़े दिनों के लिए आते, वापस चले जाते हो और यहां मैं रह जाती हूं सब कुछ सहने के लिए.

मेरे जीवनसाथी,
आपका एक पत्र बहुत पहले मिला था, उसके बाद कोई पत्र नहीं डाला? नाराज़ हो न! मैंने कोई पत्र नहीं लिखा इसलिए. आपके थ्योरी पेपर अच्छे रहे यह जानकर ख़ुशी हुई. मैं एक भी पत्र नहीं लिख सकी, क्योंकि पिंटू बीच में बहुत बीमार हो गया था और मैं उसकी बीमारी में एकदम पागल सी हो उठी थी. कुछ सूझता ही नहीं था और तुम भी पास न थे. अब काफ़ी ठीक है इसलिए आज पत्र लिखने बैठी हूं. आपने लिखा है कि बी.एस सी. करने के बाद आप एल. एल. बी. करना चाहते हैं. देखो नाराज़ न होना. आदमी की आदत होती है कि बिना कुछ किए धरे, बिना कुछ सोचे बहुत‌ से स्वप्र देखता है और अपने सपनों की दुनिया में खोया रहता है. आप एल.एल.बी. के बारे में सोचने लगे जब कि अभी आपका रिजल्ट नहीं निकला है. देखो जी बुरा मत मानना मुंह से कोई न कोई बात ऐसी निकल ही जाती है और तुम नाराज़ हो जाते हो. मैं सोचती हूं कि बी.एस सी. करने के बाद तुम कहीं सर्विस के लिए कोशिश क्यों नहीं करते? फिर तुम साथ-साथ एल. एल. बी. भी कर सकते हो. तुम मुझे सर्विस करके दिखाओ न। अपने लिए, मेरे लिए, हमारे पिंटू के लिए…
सच्ची, मैं तुम से अलग थोड़े ही रहना चाहती हूं, लेकिन अब इसलिए ऐसा कह रही हूं, क्योंकि जीजी की बातें सही नहीं जाती. पिंटू की आंखों का सूनापन देखा नहीं जाता.
पिंटू छोटा है न, अभी समझता नहीं, दिन में पता नहीं कितने फेरी वाले घर के आगे से निकलते हैं और पिंटू कुछ न कुछ ख़रीदने के लिए मचल जाता है. और तुम तो जानते हो मेरा हाथ कितना तंग है. अम्माजी से बार-बार क्या मांगे? रो-चीख के पिंटू बाहर चला जाता है और जीजी के बच्चों को खाते देखता रहता है. छाती फट जाती है उसका चेहरा देख के. और कभी-कभी तो मांग भी बैठता है उनसे, तो जीजी की दुत्कार और शब्दों के बाण कानों में पिघलता हुआ शीशा उड़ेल देते हैं.
दुनिया और मेरे बीच मील का एक और पत्थर बढ़ गया. तुम सोचते होगे मैं इतनी समझदार कब से हो गई, जो इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने लगी. हूं तो हायर सेकंडरी पढ़ी ही. पिंटू के होते ही में पता नहीं कितने वर्ष एक साथ बड़ी हो गई हूं, पता नहीं तुम समझी या नहीं. एक थके हुए राही के लिए रास्ता कितना लंबा हो जाता है.
जब तक तुम छुट्टियों में, यहां गांव में रहते हो अपने आंगन का कनेर कितना लाल-लाल फूलने लगता है, लेकिन तुम्हारे जाने के बाद यह बहुत फीका सा लगता है. पिंटू भी फिर उन्हें तोड़ने की ज़िद नहीं करता, पता नहीं क्यों? तुम्हारा क्या, तुम तो थोड़े दिनों के लिए आते, वापस चले जाते हो और यहां मैं रह जाती हूं सब कुछ सहने के लिए. मुझे तो लगता है अम्माजी भी पिंटू को नहीं चाहतीं. बेचारा दादी-दादी… कहता रह जाता है, तब तक अम्माजी पप्पू या बबली को उठा लेती हैं गोद मेंं. जिद करने पर मैं भी खीज कर लगा देती हूं दो-चार और चीखती हूं, "क्यों जाता है उनके पास. तू ही भर तो है दादी का लाड़ला. ख़ूब गोदी लेती है न, जा मर…" पिंटू की सिसकियां पहले तेज होकर फिर धीरे-धीर शांत हो जाती हैं. मुझे लगता है कि अब पिंटू भी मार खाने का आदी हो गया है.
सूनी दोपहरी में टूटी खपरैल की दरार से धूप की रोशनी पिंटू के चेहरे पर पड़ती है और इन किरणों में पिंटू की आंखों से वही काजल की लकीरें धीरे-धीरे बड़ी हो कर काली सलाखें बन जाती हैं और मैं उनके बीच क़ैद होकर तड़पने लगती हूं. बार बार पिंटू का निरीह चेहरा मुझे रुला देता है. आख़िर कब तक हमें यूं दूसरों का मुंह ताकना पड़ेगा? लेकिन सच्ची! तुम जितना चाहो पढ़ों, एल. एल. बी. करो, एम.एस सी. करो, लेकिन मेरे लिए न सही कम से कम पिंटू के लिए सोचो. और चाहे तो न भी सोचो. पढ़ो, ख़ूब पढ़ो… ग़ूस्से से नहीं मन से कह रही हूं. क्या मैं नहीं कुछ कर सकती. मैं ही कोई सर्विस या जो भी कुछ काम मिले कर लूंगी, लेकिन अब यहां गांव में नहीं रहूंगी.
सोचती हूं, जीजी इतना इतराती क्यों है?.. सिर्फ़ इसलिए न कि भाई साहब सर्विस में हैं और तुम अभी बेकार हो, पढ़ रहे हो. पिछले साल सोचा था कि अब आपका बी.एस सी. पूरा और अब मेरे सपने धीरे-धीरे पूरे हो जाएंगे… लेकिन क़िस्मत की बात आपका रिजल्ट अच्छा न रहा और मेरी सपनों की…
रात को सोती हूं तो जाने कैसे-कैसे सपने आते हैं और घबरा के उठ बैठती हूं. पूरी रात आंखों में कट जाती है. यहां अपने गांव में, अपने घर के पास के फूल जाने कितने लोग चुन के ले जाते हैं. लेकिन मैं जब भी गई मेरा हाथ एक गुलाब के साथ दो-चार कांटों की खरोंचे ज़रूर लाता है.. अपनी क़िस्मत ही ऐसी है शायद…
अब यहीं मायके में हूं अभी तक तो सुख से ही हूं, लेकिन सोचती हूं. आख़िर कब तक? कहीं भाभी भी जीजी की तरह…
उस दिन शायद जीजी के बच्चों को नए कपड़े पहने देख पिंटू भी ज़िद करने लगा कि वह भी उस तरह के नए कपड़े पहनेगा. मैं कहां से लाती? उसे ठुनकते देख, मुझे एकदम से ग़ुस्सा आ गया और मैं उसे तमाचे लगाते हुए चिल्ला पड़ी, "हमेशा कुछ न कुछ चाहिए. बाप बहुत अमीर है ना!" और मैं ख़ुद भी फूट पड़ी.
इन सब बातों को जीजी ने अपने ऊपर लिया और वहीं से चिल्लाने लगी, "हमारे बच्चों को देख नहीं सकती. हमारी अमीरी से जलती है…" और न जाने क्या-क्या नहीं कहा. मैं अपनी और पिंटू की सिसकियों के बीच सब सुनती रही. पिंटू मुझसे लिपटा हुआ रोते-रोते सो गया और उसी दिन इत्तेफ़ाक से पिताजी आ गए और मुझे साथ यहां ले आए. मैं बिना तुमसे पूछे आना तो नहीं चाहती थी, लेकिन उस दिन जीजी की बातों से मन बहुत ख़राब था. इसलिए चली आई. अब सोचती हूं, आख़िर कब तक मायके में बोझ बन कर रहा जा सकता है.
मैं यहां पर सर्विस के लिए कोशिश कर रही हूं. तुम वहां भले ही अकेले हो,‌‌ लेकिन हम यहां दो है. पिंटू बड़ा हो रहा है. उसे कुछ दिनों में के.जी. में भर्ती कराना ठीक होगा. वैसे अगर न भी पड़े तो भी जी सकता है. लेकिन मैं अपने पिंटू के भविष्य में अंधेरा नहीं भरूंगी. आप मुझे गांव ले जाने की मत सोचिएगा मैं अब नहीं जा पाऊंगी अपने पिटू की खातिर.
पत्र पढ़कर नाराज़ तुम होगे ही, न जाने क्या-क्या लिख गई, लेकिन अब और किससे कहूं. कैसे कहूं? पत्र ही तो है. आप अपने प्रैक्टिकल मन लगा के दीजिएगा. आप बी.एस.सी. के बाद एम.एस सी. करिए, एल. एल. बी. करिए, तब तक मैं सर्विस करूंगी. भगवान चाहेगा तो किसी न किसी तरह चल ही जाएगा. गांव जाएं, तो अम्माजी को प्रणाम कहिएगा. अब क्या लिखूं? वैसे भी इतना सारा लिख गई, अपनी तबियत का ख़्याल रखकर पढ़ाई करना.

तुम्हारी अपनी
विद्या

- डॉ. हरीश निगम

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