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कहानी- झूठ और सच के बीच एक सफ़र… (Short Story- Jhuth Aur Sach Ke Bich Ek Safar…)

बस अचानक तेज़ ब्रेक मारती है. झटके से लड़की जाग जाती है और शर्मिंदा होती है. शर्माते हुए कहती है, "सॉरी अंकल, मैं सो गई थी."  
मैं प्यार से कहता हूं, "कोई बात नहीं, तुम थक गई होगी. मेरी छोटी बेटी भी ऐसे ही सो जाती थी."  

मुंबई के दादर स्टेशन के वेटिंग रूम में आकर बैठ गया हूं. स्टेशन के पास ही शापुर रेस्टोरेंट है. उनका बनाया ग्रिल्ड पॉम्फ्रेट फ्राई, दाल फ्राई और रुमाली रोटी का कॉम्बिनेशन मेरा हॉट फेवरेट है. दादर आते ही मैं उनकी दुकान में ज़रूर झांकता हूं. इसके लिए एक बार भारी क़ीमत चुकाते-चुकाते बच गया था. वह सिर्फ़ क़िस्मत की बात थी. जो ट्रेन कभी दस मिनट लेट से कुर्ला टीटी स्टेशन से नहीं छूटती थी, वह ट्रेन उस दिन पैंतालीस मिनट लेट होकर मुझे बचाई. वह समय दुर्गा पूजा की पूर्वसंध्या का था. मैं मुंबई से पटना लौट रहा था. उस समय पटना के लिए सिर्फ़ एक ही ट्रेन थी, वह भी हफ़्ते में दो दिन. इसलिए ज़्यादातर लोग कोलकाता होकर ही आते-जाते थे. उस दिन कुर्ला स्टेशन तक आते-आते मन ही मन प्रतिज्ञा कर ली थी कि आज ट्रेन मिल जाए तो ऐसे लालच में कभी नहीं पड़ूंगा. लालच में पाप, पाप में मृत्यु. मगर तीन महीने बाद ही वह प्रतिज्ञा तोड़ दी. भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा निभाकर अमर हो गए, और मैं हर बार अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर हक्का-बक्का हो रहा हूं. सिगरेट नहीं पीऊंगा कहकर कितनी बार छोड़ी है, उसका याद नहीं. ‘घर के फ्रिज की मिठाई चुराऊंगा नहीं’ कहकर पत्नी से माफ़ीनामा लिखवाया था. हर बार पकड़ा गया. इतनी सारी निराशाओं के बीच एक चीज़ नहीं बदली, वह है मेरा अड़ियल चरित्र. 
पेट भर खाने के बाद दोपहर चार बजे वेटिंग रूम की कुर्सी पर शरीर लटका दिया. पुणे वापसी की ट्रेन साढ़े छह बजे आएगी. तभी वेटिंग रूम इंचार्ज आकर मेरा टिकट देखना चाहते हैं. मैं मोबाइल का स्क्रीन खोलकर दिखाता हूं. वे देखते ही चौंक जाते हैं, "अरे यह ट्रेन तो सुबह साढ़े पांच बजे निकल गई है!" उनकी बात सुनकर मेरी नींद भरी आंखों से नींद गायब. उनके हाथ से अपना मोबाइल लेकर देखता हूं. आज ख़ुद ही अपने लिए अनावश्यक मुसीबत खड़ी कर बैठा हूं. लैपटॉप पर टिकट बुक करते समय सुबह को शाम समझ बैठा. पूरी तरह लज्जित और अपमानित होकर उठ खड़ा हुआ. अभी बस पकड़नी होगी, नहीं तो घर पहुंचकर और लज्जित होना पड़ेगा. वैसे भी घर में मैं वर्थलेस हूं, डर है कि अब टू द पावर इनफिनिटी शब्द मेरे गले न चढ़ जाए.

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कुछ दूर खड़ी पुणे जाने वाली बस. मुंबई से पुणे शहर पहुंचने के तीन पते- शिवाजी नगर, स्टेशन और स्वारगेट. स्टेशन मेरे लिए सुविधाजनक है. सौभाग्य से बस स्टेशन ही जाएगी. बस को चार एजेंट घेरे हुए हैं. जहां से जो संभव हो ग्राहक पकड़कर ला रहे हैं. मैं जाते ही वे टूट पड़ते हैं, संभव हो तो मुझे गोदी में उठाकर बैठा देते. बस काफ़ी खाली है. खिड़की के पास सीट लेकर बैठ गया. अरे बाप रे, पांच-छह यात्रियों को लेकर बस तुरंत छोड़ देती है. राहत की सांस छूटती है, चलो आठ बजे तक पुणे पहुंच जाएंगे. बस आगे बढ़ती है, दाएं मुड़ती है, फिर दाएं, उसके बाद फिर दाएं और थोड़ा आगे जाकर रुक जाती है. यानी जहां से बस निकली थी, वहीं अब खड़ी है. फिर डेढ़ घंटे तक ऐसे ही पांच बार चक्कर काटती है. आख़िर में तंग आकर पूछता हूं, "ये सब करने का मतलब?" जवाब आता है, "आरटीओ ऑफिस के लोग खड़े हैं, ज़्यादा देर खड़ी रही तो फाइन देना पड़ेगा."
ज़िंदगी में कितने तरह के अनुभव होते हैं. आख़िरकार शाम साढ़े सात बजे बस अंततः दादर से निकलती है. तब तक सभी सीटें भर चुकी हैं. दिन शुक्रवार है, इसलिए पुणे में तैनात मुंबई के युवा लड़के-लड़कियां वीकेंड पर घर लौट रहे हैं. बस में उन्हीं की भरमार है. मेरे पास एक कम उम्र की लड़की बैठ गई है. उम्र न सिर्फ़ कम है, बल्कि ध्यान से देखा तो क़द भी छोटा है. पैर पूरी तरह फुटरेस्ट तक नहीं पहुंच रहे. तभी मेरा फोन बज उठा. फोन के दूसरी तरफ़ मेरी पत्नी श्रावंती. ख़तरा! फोन उठाते ही रास्ते के हॉर्न की आवाज़ सुनाई देगी. मेरी नाकामयाबी का भेद खुल जाएगा, पर फोन न उठाना भी ठीक नहीं. वह छोड़ेगी नहीं, लगातार बजाती रहेगी. फोन बंद कर दूं तो भी मुसीबत, बात न करने पर श्रावंती टेंशन लेगी. हाई ब्लड प्रेशर की पेशेंट है, अकेली घर पर है, यह भी समस्या है. मजबूरन रिसीवर को ढंकते हुए ज़ोर से बोला, "चढ़ गया हूं, बाद में फोन करता हूं." मक़सद था मुंबई शहर छोड़कर बस जब सुनसान इलाके में पहुंचे तो बात कर लूंगा.
पश्चिम भारत में अनावश्यक हॉर्न बजाने की प्रवृत्ति कम है. यह बात मुझे मेरे पुरानी कंपनी के डायरेक्टर मिस्टर बाफना ने कोलकाता के कैमाक स्ट्रीट ऑफिस में बैठकर समझाई थी. उस दिन लंबे समय तक लोडशेडिंग के कारण सड़क किनारे बने कॉन्फ्रेंस रूम की खिड़कियां खोलनी पड़ी थीं. फिर कारों के हॉर्न के शोर से कान पक गए थे.

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कुछ देर बाद बस एक पेट्रोल पंप पर रुकती है. जल्दी से उतरकर एक सुनसान जगह ढूंढ़कर श्रावंती को रिपोर्ट कर देता हूं. बस की गति देखकर अंदाज़ा लगा लिया है कि रात ग्यारह बजे से पहले पुणे नहीं पहुंचेगी. ट्रेन होती तो साढ़े नौ बजे पहुंच जाता. इसलिए पहले ही ट्रेन लेट होने की कहानी गढ़ ली है.
बस मुंबई शहर छोड़कर मुंबई-पुणे एक्सप्रेस वे पर चल पड़ती है. महसूस करता हूं पास वाली लड़की सीट पर सो गई है. बीच-बीच में झुककर मेरे कंधे से टकरा रही है. बेचारी पूरे दिन ऑफिस करके अब सफ़र कर रही है. वह मेरी छोटी बेटी जितनी है. तोरसा भी बस में मेरे कंधे पर सिर रखकर सोती थी. कभी गोद में सिर देकर लेट जाती थी. छोटी उम्र से ही वह मेरी बगलगीर थी.
एक बार ऑफिस के काम से कुछ दिनों के लिए कोलकाता जाना हुआ. तोरसा तब तीन साल की थी. ज़िद करने लगी कि मेरे साथ कोलकाता जाएगी. यह सुनकर कोलकाता से भाई की पत्नी दोला ने कहा, "दादा, ले आइए. मैं संभाल लूंगी."
चेयरकार से दोनों गए थे. वह दृश्य आज भी आंखों में तैरता है. एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल, चिप्स का पैकेट सामने रखकर तीन साल की बच्ची खिड़की के पास बैठी बाहर का नज़ारा देखते-देखते पटना से कोलकाता पहुंच गई. हावड़ा स्टेशन पर उतरकर उसने मेरा हाथ नहीं पकड़ा. ठक-ठक कर चलने लगी. सहकर्मी गोपाल ने देखकर कहा था, "तेरी बेटी बहुत स्मार्ट है." मन ही मन आज सोचता हूं, 'ज़रूरत से ज़्यादा समझदार'. बाइस साल पूरे होते-होते एमबीए करके दूल्हे के साथ ससुराल चली गई. और उसकी बड़ी बहन को शादी के लिए मनाने में तो नाकों चने चबवा लिए. आख़िर धमकी देकर शादी के पीढ़े पर बैठाना पड़ा.
बस अचानक तेज़ ब्रेक मारती है. झटके से लड़की जाग जाती है और शर्मिंदा होती है. शर्माते हुए कहती है, "सॉरी अंकल, मैं सो गई थी."  
मैं प्यार से कहता हूं, "कोई बात नहीं, तुम थक गई होगी. मेरी छोटी बेटी भी ऐसे ही सो जाती थी."  
अब लड़की ने पूछा, "आप कहां उतरोगे?"  
मैंने कहा, "पुणे स्टेशन."  
सुनकर उसे राहत मिली. अगला सवाल, "आप बंगाली हैं?"  
मैंने कहा, "जी, कैसे पता चला?"  
लड़की बोली, "हमारे डिपार्टमेंट में बंगाली बहुत हैं. आपने कहा 'चढ़े गेेछि', मेरी दोस्त मालवी बोलती है 'गेछिरे'."  
मैंने कहा, "वह 'गेछिरे' और मेरावाला 'गेछि' में बहुत फ़र्क है. एक में पहुंचना जताना, दूसरे में पहुंच से बाहर. बिल्कुल उल्टा." मेरी बात सुनकर लड़की हंस पड़ी. अब मैंने पूछा, "आप मराठी हो?"  
उसने कहा, "आपको कैसे पता?"  
जवाब दिया, "मेरी बाजूवाले पड़ोसी भी मराठी हैं. आप 'आई' से बात की हो न?" वह ज़ोर से हंसी.  
दो घंटे चलने के बाद बस एक रोडसाइड ढाबे के पास रुकती है. यहां सभी उतरेंगे. कोई चाय पीएगा, कोई खाना खाएगा, कोई वॉशरूम जाएगा. मैं भी उतरा. समय देखा, यहां लगभग दस बजे हैं यानी पुणे स्टेशन पहुंचते-पहुंचते रात बारह से एक हो जाएगा. आज पकड़ा जाऊंगा. मेरा झूठ टिकेगा नहीं, क्योंकि रात जितनी बढ़ेगी, देरी होगी, श्रावंती के फोन उतने ही बार आएंगे. और किसी न किसी समय आसपास का शोर पकड़ में आ जाएगा और मैं फंस जाऊंगा. फिर सुनसान जगह ढूंढ़कर फोन लगाता हूं. यहां के लोग ट्रेन में ज़्यादा बात नहीं करते. हॉकर्स भी वैसे नहीं चलते. यह श्रावंती जानती है. सब ठीक चल रहा था, श्रावंती से बात शांति से हो रही थी. अचानक हमारी बस के पास खड़ी बस भयानक आवाज़ में गरज उठी. श्रावंती के कान में वह आवाज़ जरूर पहुंची, और ऐसा ही हुआ. वह बोली, "बस की आवाज़ आ रही है, तुम कहां हो?"  
गला सूखता हुआ बोला, "अरे खंडाला घाट के ऊपर ट्रेन खड़ी है. पास ही एक्सप्रेस वे जा रही है." श्रावंती मान जाती है, या मन ही मन समझ जाती है. मैं बच गया. जल्दी से बात ख़त्म की. बोला, "बात ठीक से सुनाई नहीं दे रही. टावर नहीं मिल रहा." पास वाली लड़की बस में लौट आई. एक ज़ीरो शुगर कोक की बोतल मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए बोली, "अंकल, यह लीजिए." उसने नोटिस किया था कि मेरी पानी की बोतल खाली हो गई है. टेंशन में मैं भूल गया था पानी ख़रीदना.
बस लोनावला घाट में जाम में फंस गई. पुणे शहर के नज़दीक पहुंचते ही रात के एक बज गए.
रेलवे स्टेशन पहुंचते-पहुंचते रात के दो बजे. लड़की से पूछा, "आप कहां जाओगी?" जवाब आया, "शिवाजी नगर."  
फिर पूछा, "कोई आपको लेने आ रहा है?"  
कुछ देर चुप रहकर मेरी तरफ़ देखती हुई बोली, "नहीं, मैं चली जाऊंगी."  

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थोड़ा अधिकार दिखाते हुए बोला, "मुझे खड़की जाना है. चलो तुम्हें छोड़ देता हूं. इतनी रात अकेली कैसे जाओगी."  
लड़की ने एक ऑटो बुलाया और ऑटोवाले को मराठी में समझाया कि उसे ‘शिवाजी नगर’ छोड़कर मुझे ‘खड़की’ पहुंचाना है. मेरा फोन डिस्चार्ज हो चुका था. पहले ही श्रावंती से कह दिया था, "ट्रेन बहुत लेट है. फोन का चार्ज भी खत्म हो रहा है. तुम चिंता मत करो." लड़की को उसके अपार्टमेंट के दरवाज़े तक छोड़कर विदा किया. ऑटोवाला खड़की की ओर चल पड़ा, मैंने ड्राइवर को कहा, "गाड़ी वापस मोड़ो. एनआईबीएम जाना हैं."
ऑटोवाला बोला, "लेकिन, उसने तो खड़की कहा था."  
मैंने कहा, "क्या करूं, इतनी रात अकेली कैसे छोड़ दूं? मुंबई से साथ चले थे. सच बोलने पर वह पहुंचाने को राज़ी नहीं होती."  
ऑटोवाला बोला, "चलिए सर, जहां बोलोगे पहुंचा दूंगा."

सुमित सेनगुप्ता

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