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कहानी- झील (Short Story- Jheel)

वह स्त्री उपन्यास के पीछे से छिपी-छिपी आंखों से थकी-हारी हुस्ना की ओर देख रही थी, जो अपने आसपास लेटे अपने चार बच्चों को खाली हाथ से थपके जा रही थी. ज़र्द चेहरों वाले बच्चे जिनके चेहरों पर मानो सोने की हल्की परत चढ़ी हो. हुस्ना बच्चों की ओर देखती हुई सोच के समुद्र में डूबती जा रही थी. शायद सोच रही थी कि काश इन बच्चों के चेहरे का सोना कभी उसके बाजुओं पर होता.

बात रेलगाड़ी के एक डिब्बे की है. ट्रेन में बहुत सी बातें होती हैं, जो प्राय: यात्रा समाप्त होने पर भुला दी जाती है, यद्यपि उनमें कई कहानियां छिपी होती है.
वे लोग पश्चिम बंगाल से आए थे और ख्वाजा मयु‌द्दीन चिश्ती के उर्स में भाग लेने के लिए अजमेर जा रहे थे. वृद्ध पिता के तीन बेटे थे. बड़े बेटे की पत्नी भी साथ थी जिसके दो बेटे और दो बेटियां थीं. नौ सदस्यों के इस पूरे परिवार की देखभाल एक स्त्री पर थी, जो चार बच्चों की मां होने पर भी अधिक आयु की दिखाई नहीं देती थी. सांवले बादामी रंग की स्त्री अच्छे नैन-नक्श, सुन्दर आंखें, चमकते लम्बे बाल जिन्हें उसने दो चोटियों में गूंथ कर गर्दन पर लपेट रखा था. धानी रंग की नीले फूलों वाली कम दाम वाली साड़ी और नीला सूती ब्लाउज़ यही उसका ओढ़ना-बिछौना था.
छोटे-छोटे बच्चे उसे बहुत परेशान कर रहे थे. बाबा कभी एक बच्चे को गोद ले लेता और कभी अपने लड़के से कहता कि किसी को उठा ले, क्योंकि बहू, जो पूरे परिवार की आवश्यकताएं पूरी कर रही थी, बच्चों की देखभाल के लिए खाली नहीं थी.
वह स्त्री खाने-पीने का बहुत सा सामान बना कर साथ लाई थी. किसी को डिब्बे में से बिस्किट निकाल कर देती तो किसी को थर्मस से चाय, कभी एक देवर पानी मांगता तो कभी बाबा चने या छलिया की मांग करते.
उसका पति ख़ामोश प्रवृत्ति का मनुष्य था, जो पिता के सामने स्त्री से बात करने में भी संकोच करता था. वह छोटी बच्ची को बार-बार कन्धे से लगाकर थपकाने लगता, जो न जाने क्यों रोए जा रही थी. कभी बच्ची को उठाए डिब्बे में घूमने चला जाता था. स्टेशन आने पर ट्रेन से उतर कर खाने-पीने की कुछ वस्तुएं ख़रीद लाता.
स्त्री बहुत ही आज्ञाकारी और सेवा भाव रखने वाली थी. अन्धेरा होने पर डिब्बे की बत्तियां रोशन हो गई. खाने-पीने का समय हो गया था. उसने अपने सामान में से चावल, पकौड़े, मछली का सालन, अचार आदि निकाला और सब के लिए प्लेट में परोस दिया. फिर सब बर्तन समेट कर साफ़ कर लाई और आख़िर में स्वयं एक प्लेट में बचा हुआ चावल, मछली रख कर बड़े संतोष से खाने लगी. स्त्री क्या थी संतोष और धीरज की प्रतिमा थी. इसी प्रकार के लोग पीरों और फकीरों की दरगाहों पर हाज़िरी देने जाते हैं. साल भर में जो कुछ बचा पाते हैं उसे धार्मिक यात्रा पर ख़र्च कर देते हैं. बाबा सिगरेट के कश लगाते-लगाते उंघने लगे थे, उनके दोनों छोटे लड़के भी सीटों के ऊपर के तख्तों पर जाकर लेट गए थे. बड़ा लड़का अपनी छोटी बच्ची को घुटनों पर लिटा कर थपथपाते हुए कह रहा था, "हुस्ना, तुम बहुत थक गई होगी अब सो जाओ."

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परन्तु खिले चेहरे वाली हुस्ना यो मुस्कुरा रही थी मानो बंगाल की किसी नदी की धारा में सूर्य अस्त हो रहा हो.
"तुम सो जाओ अन्जुम, मैं कैसे सो सकती हूं, अभी सब बच्चे जाग रहे हैं. इनका मुंह-हाथ धोऊंगी. फिर कपड़े बदलूंगी और सुबह के लिए नाश्ते का कुछ प्रबन्ध करूंगी, तब अगर समय मिला तो मैं सो लूंगी.
और फिर सीट के नीचे रखा अटैची केस निकाल कर उसमें से बच्चों के कपड़े निकालने लगी. उसकी एक बाजू पर सुर्ख और दूसरे बाजू पर धानी रंग की कांच की सुन्दर चूड़ियां थीं. जब वह काम करती तो चूड़ियों का जलतरंग धीमा-धीमा साथ-साथ बजता रहता. वह सिर झुकाए अटैची में कपड़े ठीक कर रही थी. छोटा लड़का उसकी पीठ पर चिपका हुआ रू रू… किए जा रहा था. न जाने किस बात के लिए ज़िद किए जा रहा था. वह उससे बार-बार कह रही थी, "अब बाबा सो गए हैं, कल सुबह उनसे कहना, फिर तुम्हारे अब्बू तुम्हें ले देंगे."
कभी कहती, "चुप हो जाओ तुम्हारे बाबा अजमेर जा कर प्रार्थना करेंगे ख्वाजा उन्हें बहुत से पैसे देंगे, फिर वह तुम्हें साइकिल ले देंगे."
परन्तु बालक रोए और ज़िद किए जा रहा था. हुस्ना ने उकता कर एक हाथ से उसे ज़ोर से पीछे की ओर धकेला. उसका बाजू लड़के के सिर से टकराया तो उसकी बहुत सी सुर्ख चूड़ियां टूट कर गिर गईं. वह बहुत ही धीरजवाली स्त्री थी, परन्तु धीरज की भी एक सीमा होती है. वह न जाने कितने चाव से यह महंगी चूड़ियां पहन कर आई थी, जो टूट गई. उसने शफीक को झटक कर पीठ से अलग किया और कांच के टुकड़े चुनने लगी. उसकी सुन्दर काली आंखों में आंसुओं की धाराएं तैरने लगीं. कुछ क्षण के लिए उसके हाथ काम करते-करते रुक गए.

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वह अपने सामने की सीट पर बैठी स्त्री की ओर देखने लगी. वह स्त्री भी उसी की आयु की थी. कितने आराम से और संतोष से बैठी, कोई उपन्यास पढ़ रही थी. उसका बच्चा उसके घुटने पर सिर रख कर सो रहा था, जिसे वह दूसरे हाथ से थपकती जा रही थी दूध में घुले सुन्दर रंगतवाली स्त्री, जिसकी आंखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा उसके सौन्दर्य को और भी निखार रहा था. उसने जरी के तार वाली सिल्क की सफ़ेद साड़ी पहन रखी थी. गले में सोने का बड़ा सा हार था. दोनों हाथों में सोने की आठ-आठ चूड़ियां थी. जब वह अपने घुटने पर सिर रख कर सो रहे बच्चे को थपकती तो यों प्रतीत होता मानों बच्चा सोने से झुनझुने से खेल रहा हो.
हुस्ना ने पहले भी सामने बैठी इस ओरत की चूड़ियों की ओर देखा था, परन्तु उसे अपने घर में मिली शिक्षा याद आ गई थी कि सन्तुष्ट और खुदा पर भरोसा रखने वाले कभी किसी की दौलत देख कर मन मैला नहीं करते. परन्तु अब वह उस औरत की चूड़ियों को शायद इसलिए देख रही थी कि यदि उसने भी सोने की चूड़ियां पहन रखी होतीं तो वह टूटती तो नहीं और उसका बाजू सागवान की छड़ की भान्ति एकदम खाली तो नहीं हो जाता.
हुस्ना ने अटैची समेट ली. बड़ी बच्ची का सिर सहलाते हुए उसे सुलाने का प्रयत्न करने लगी. परन्तु उसकी निगाह बार-बार सामने बैठी उस महिला की सोने की चूड़ियों की ओर चली जाती थी.
बच्चे सोने लगे थे. अंजुम भी डिब्बे की दीवार का सहारा लिए सो गया था. हुस्ना अपने मन पर नियंत्रण नहीं रख सकी और उसने झिझकते-झिझकते उस औरत से पूछा, "बहन, आज कल सोने का क्या भाव होगा?"
"बहुत महंगा है, हाथ नहीं लगाया जा सकता."
"तो भी."
"यही कोई, अस्सी हज़ार दस ग्राम के."
"एक चूड़ी में कितना सोना लगता है?"
"यही कोई दस पन्द्रह ग्राम." उस महिला ने पहलू बदल कर कुछ अहंकार से उत्तर दिया.
हुस्ना एक गहरी सांस लेकर चुप हो गई. उसकी आंखों में फिर आंसू आ गए. मानो उसके दूसरे बाजू में पड़ी चूड़ियां भी इस घटना के साथ टूट गई हों.
वह स्त्री उपन्यास के पीछे से छिपी-छिपी आंखों से थकी-हारी हुस्ना की ओर देख रही थी, जो अपने आसपास लेटे अपने चार बच्चों को खाली हाथ से थपके जा रही थी. ज़र्द चेहरों वाले बच्चे जिनके चेहरों पर मानो सोने की हल्की परत चढ़ी हो. हुस्ना बच्चों की ओर देखती हुई सोच के समुद्र में डूबती जा रही थी. शायद सोच रही थी कि काश इन बच्चों के चेहरे का सोना कभी उसके बाजुओं पर होता.

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फिर वह सिर झटक कर तन कर बैठ गई मानों विचार आया हो कि सन्तुष्ट लोग एक सीमा के आगे सोच नहीं सकते.
हां, उसकी पलकों पर रुके आंसू उसके गालों पर लुढ़क आए थे, जिन्हें वह अपनी सूती धोती से साफ़ कर रही थी मानो संतोष की झील का बांध टूट गया हो.

- एम. के. महताब

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