रुचि ने कहा था, "क्यों चाची, अब तो तुम डॉक्टर की मम्मी हो गई."
पूरा मोहल्ला बधाई देने आया था और उसी भीड़ में रुचि ने चिल्लाकर कहा था, "चाची इससे कह दो दिल का डॉक्टर बनेगा. हड्डियों और दांतों वाला नहीं."
अब रुचि को हार्ट स्पेशलिस्ट का तो पता नहीं था, सो वह दिल का डॉक्टर ही बन गया.
पायल की झंकार रस्ते रस्ते, ढूंढें तेरा प्यार रस्ते रस्ते…
वह हंसा न जाने कहां से आज भी पुराने गाने बज जाते हैं. अचानक उसने ओला ड्राइवर से बात शुरू कर दी.
"आप कहां रहते हैं?"
यह थोड़ा अलग हट कर सवाल था. अमूमन लोग उससे कहीं आने-जाने या रास्ते की बात करते हैं.
वह बोला, "यहीं पास में एक कालोनी है हरौला."
वह बोला, “जी जानता हू."
ओला वाला थोड़ा चौंका तो ज़रूर, इस लहज़े में कोई बात नहीं करता.
फिर वे बोले, “गाड़ी अपनी है?“
"हां फायनेंस कराई थी. अभी छह महीने पहले इंस्टॉलमेंट पूरी हुई है."
"चलिए अच्छा है, इंस्टॉलमेंट में बड़ी दिक़्क़त होती है."
"आप सही कह रहे हैं साहब.“ इसके बाद उसे लगा अब उसके कमाई की बात होगी या ज़िंदगी कैसी चल रही है पूछा जाएगा, लेकिन अचानक सवारी यानी राजेशजी ने कहा, "आपने गाने बहुत अच्छे लगा रखे हैं, कौन सा स्टेशन है?"
उसके चेहरे पर जैसे मुस्कुराहट आ गई.
"साहब, यह पेन ड्राइव से बज रहे हैं. कोई स्टेशन नहीं है. वैसे भी एफएम वाले एक-दो गानों के बाद ढेरों एड करते हैं या फिर फ़ालतू बोलने लगते हैं. मूड ख़राब हो जाता है."
बात तो ठीक थी.
राजेश बोले, "वाक़ई बहुत अच्छे गाने बजा रखे हैं आपने. आजकल तो ये सुनने को ही नहीं मिलते."
वह बोला, "मुझे पुराने गाने ही सुकून देते हैं. ऐसा लगता है इन गानों के सहारे ज़िंदगी का सफ़र भी पूरा होता जा रहा है."
राजेश की आंखों में आंसू आ गए.
उसने गौर से ड्राइवर को देखा. बेहद सामान्य चेहरा, सामान्य सूती कपड़े और ध्यान पूरी तरह ट्रैफिक पर. स्टीयरिंग हाथ में ऐसे घूम रहा था जैसे कोई म्यूजिशियन गिटार बजा रहा हो. क्या मजाल की किसी स्पीड ब्रेकर पर यात्री को झटका लगे. हां, जैसे ही उन्होंने मिरर में देखा दोनों की आंखें मिल गईं. उन्हें लगा आंखों में एक अजीब सी ख़ामोशी छिपी है. कोई दर्द है ज़िंदगी का जो बस छलक जाने को बेताब है. उसने आंख मिलते ही नज़र झुका ली कहीं कोई पढ़ न ले.
गाड़ी, गाने और ज़िंदगी का सफ़र वाक़ई बात तो सही थी. "आप भी कैसी बात करते हैं. भगवान आपको लंबी उम्र दे. ऐसी भी क्या जल्दी है ज़िंदगी का सफ़र पूरा करने की और हां वाक़ई ये गाने हमारी ज़िंदगी के हमसफ़र हैं इसमें कोई शक नहीं.
साहब, अब लंबी उम्र ले कर क्या करना है? बस किसी तरह अपने हाथ-पैर चलते-चलते सफ़र पूरा हो जाए, यही मांगता हूं भगवान से. मैं नहीं चाहता कि किसी पर निर्भर होना पड़े. जाने दीजिए, न जाने आपसे कैसी बातें करने लगा. आप मुझे अपने से लगे, तो थोड़ा बहक गया." उसने आंख की कोर में आए आंसू पोंछते हुए कहा.
राजेश को लगा उससे अब अधिक कुछ कहना ठीक नहीं, कहीं वह रो न पड़े. फिर भी इंसानियत के नाते वो पूछ बैठे, “क्या हुआ ज़िंदगी में सब ठीक तो है ऐसे निराश नहीं होते दोस्त.”
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"हां साहब, सब कुछ ठीक है. दो बच्चे हैं उन्हें पढ़ा-लिखा कर शादी कर दी है. दोनों अपना काम करते हैं. हां, वक़्त के साथ बहुत कुछ बदलता है. अब दोनों अलग रहते हैं, लेकिन मुझे बहुत प्यार करते हैं. हर हफ़्ते मिलने आते हैं."
इतना कहकर वह चुप हो गया.
"और कौन कौन है घर में?" राजेश ने पूछा.
"मां थी अभी कुछ दिनों पहले साथ छोड़ गई. रही घरवाली तो उसका साथ बहुत पहले छूट गया था. बहुत अच्छी थी, लेकिन ऊपरवाले को हमारा लंबा साथ मंज़ूर नहीं था. पता नहीं कैसे, हंसता-खेलता परिवार छोड़ कर चली गई. पता नहीं कौन सी बीमारी का नाम बताया था डाक्टर ने… जब वो ही नहीं रही, तो बीमारी का नाम याद रख कर क्या करना है. वैसे अकेला नहीं हूं. मैं हूं और मेरे साथ मेरे ये गाने.”
इतने में देखा तो राजेश का स्टॉप आ गया था. ड्राइवर ने भी गाड़ी साइड में लगा दी.
वे बोले, "आपके साथ सफ़र बहुत अच्छा रहा. सचमुच आपके गाने की कलेक्शन लाजवाब है."
उनके उतरते समय भी कोई गाना बज रहा था- कभी फूलों में ढूंढूं, कभी कलियों में साजन साजन पुकारू गलियों में…
वह हंसा बोला, "थैंक यू सर." फिर बोला, “आपको कभी भी ज़रूरत हो मेरे नंबर पर कॉल कर देंगे, तो मैं आ जाऊंगा. बस थोड़ा पहले बता दीजिएगा."
राजेश ने भी हंसते हुए कहा, “ज़रूर और हां आपके पास भी मेरा नंबर आ गया होगा सेव कर लीजिए. डॉक्टर हूं, कभी भी ज़रूरत पड़े तो कॉल कर सकते हैं. मैं रात-बिरात कभी भी पहुंच जाऊंगा. फीस की चिंता मत करिएगा ज़्यादा नहीं है, बस आपके दो-चार गाने के बराबर."
वह हंसा, “साहब, आप डाक्टर नहीं बहुत बड़े हकीम हैं, जो इंसान को ज़िंदगी देता है. अगर ऐसे गाने आज नहीं मिलते, तो आप जैसे इंसान भी कहां मिलते हैं आजकल, जो किसी गरीब को इंसान समझें.“
“चलो अब मुझे कॉफ्रेंस में जाना है और हां गरीब वो हैं, जिनके पास अपने नहीं हैं, जिनके पास जज़्बात नहीं हैं.. फिर मिलेंगे.“
इतना कहकर वे वैन्यू की सीढ़ियां चढ़ने लगे. ड्राइवर ने उन्हें सेल्यूट किया और वापस चल पड़ा.
हार्ट स्पेशलिस्ट, डॉक्टर राजेश दिल्ली से ऋषिकेश आए थे किसी मेडिकल कॉन्फ्रेंस में. वैसे भी आजकल चलन हो गया है बड़े-बड़े कॉन्फ्रेंस प्रकृति की मनोरम गोद में आयोजित करने का. दिल्ली में तो जैसे आजकल समय ही नहीं मिलता और जब किसी का प्रोफेशन हार्ट स्पेशलिस्ट का हो, तो बस कहना ही क्या. सुबह से शाम तक पेशेंट्स की भीड़ लगी रहती है. ओपीडी से फ़ुर्सत मिली, तो आईपीडी में बिजी हो गए. घर पहुंचे तो ऑन लाइन कुछ न कुछ संपर्क करनेवाले इंतज़ार करते हैं. वे चाह कर भी किसी को मना नहीं कर पाते. क्या पता मेरी ज़रा सी सलाह से किसी की ज़िंदगी बच जाए. यह तो भगवान की देन है कि उसने मुझे आज इस लायक बनाया है.
ऐसे में जब उन्होंने सालों पुराना गाना- पायल की झंकार रस्ते रस्ते, ढूंढ़ें तेरा प्यार रस्ते रस्ते… सुना तो कहीं खो गए. हम ज़िंदगी में लगातार काम करते-करते किसी मशीन की तरह हो जाते हैं. उन्हें ख़ुद पर हंसी आई. उन्होंने शर्ट के नीचे हाथ लगा कर देखा उनके पास दिल है कि नहीं… हां चल तो रहा है और लोग उन्हें हार्ट स्पेशलिस्ट कहते हैं, भला यह कैसे संभव है कि इंसान दिल के बिना ज़िंदा रहे.
लेकिन उनके भीतर कहीं एक आवाज़ उठ रही थी कि भले ही हार्ट उनके सीने में चल रहा हो, दिल कहीं नहीं है. दिल होता तो धड़कता ज़रूर. इतने सालों से उन्होंने अपने ही दिल की धड़कन नहीं सुनी थी. हां, स्थेस्ट्स्कोप लगा कर सुबह से शाम तक न जाने कितने मरीज़ की हार्ट बीट सुन कर वे बता देते कि किसे टीएमटी करना है, किसे ईको और किसे ईसीजी. आज इस ड्राइवर के गाने ने उन्हें उनके दिल की धड़कन सुना दी थी, जो सो कॉल्ड मेडिकल के हार्ट बीट से अलग थी.
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क्या एक डॉक्टर के पास भी मेडिकल से अलग वाला दिल होता है. हां, होता तो है वरना वो कभी फूलों और कलियों में साजन साजन पुकार कर गली गली अपनी सजनी को न ढूंढ़ता फिरता.
आज उन्हें हार्ट अटैक पर बचाव के संबंध में इस कॉन्फ्रेंस में लेक्चर देना था. अपने हज़ार से अधिक स्टड लगा कर लोगों की ज़िंदगी बचाने के अपने अनुभव के राज़ खोलने थे. लेकिन यहां ऋषिकेश में एक कार ड्राइवर उनका दिल खोल कर रख गया था. जैसे किसी ने भरे बाज़ार उनकी ओपन हार्ट सर्जरी कर दी हो. उनका पूरा का पूरा दिल खुला पड़ा था. यह दिल जैसे झंकृत हो रहा हो. हर तरफ़ स्वर लहरी सी बजती प्रतीत हो रही थी उन्हें. रहा वह रिसोर्ट जिसके कॉन्फ्रेंस हाल में लेक्चर था, वह गंगा के किनारे स्थित नदी की लहरों सा दिल को हिलोरें मारने पर विवश कर रहा था. वे गुनगुनाते जा रहे थे कि किसी से टकराते-टकराते बचे. अचानक उनकी नज़र ऊपर उठी, तो देखा कोई दो-तीन स्टूडेंट उन्हें रिसीव करने चले आ रहे हैं.
कहते हैं, इश्क़ कभी पूरा नहीं होता, जितना यह हक़ीक़त में किया जाता है उससे कई गुना इसके उम्र दिलोदिमाग़ में होती है. डॉक्टर राजेश उस गाने को गुनगुनाते अपने भीतर आज से पचास साल पहले अपने दिल के भीतर के अधूरे इश्क़ को जीए जा रहे थे. जब वे एमबीबीएस की तैयारी कर रहे थे. क्लास ट्वेल्थ का फाइनल एक्ज़ाम था और महीने भर बाद मेडिकल का एंट्रेंस टेस्ट. वे रात-रात भर जाग कर तैयारी करते. कोई भी इंसान भला मशीन कैसे हो सकता है. सामने खिड़की पर रुचि दिखती, जो उन्हें देखकर मुस्कुरा देती.
उस उम्र में इश्क़ का शौक तो था, पर वक़्त नहीं. उनके भीतर भी रुचि को देख लहरें उठा करती मगर… एक तरफ़ किताबें होतीं और दूसरी तरफ़ खिड़की. एक दिन उन्होंने टेबल का डायरेक्शन बदल कर पीठ खिड़की की तरफ़ कर दी. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. जो नज़र खिड़की की तरफ़ उठेंगी ही नहीं, तो ध्यान कैसे भटकेगा. वह ज़माना भी और था. रुचि का बड़ी आसानी से घर आना-जाना था. वह राजेश की मां को चाचीजी कहती. राजेश की इस बेरुखी ने रुचि का घर आना-जाना और उसे चिढ़ाना बढ़ा दिया था. वह दिन में कभी भी आ जाती और राजेश को सुना कर कहती, "चाची आप तो शाकाहारी हो और पता है, जो डॉक्टर बनते हैं, वो क्या करते हैं मेंढक चीरते हैं मेंढक!.. चाची, अरे क्या करना है इतना पढ़-लिख कर कि इंसान मां-बाप से दूर चला जाए. अपनों को ही भूल जाए. लेकिन चलो अच्छा है, डॉक्टर साहब कम से कम तुम्हारा और हमारा इलाज तो मुफ़्त कर देंगे. क्यों डॉक्टर साहब हम से तो फीस नहीं लेंगे."
राजेश का चेहरा लाल हो जाता. वह सिटपिटा जाता. कहीं पापा ने देख लिया, तो पिटाई हो जाएगी. उस ज़माने का इश्क़ कुछ ऐसा ही था. और उसकी मां कहती, "अरे, अभी इसे पास तो होने दे. इतना आसान नहीं है डॉक्टर होना." हंसी-मज़ाक़ में वक़्त कब निकल गया पता ही नहीं चला. हां, वे एमबीबीएस में पहले ही एटेम्पट में क्वालीफ़ाई कर गए थे. वह भी अच्छी रैंक से.
रुचि ने कहा था, "क्यों चाची, अब तो तुम डॉक्टर की मम्मी हो गई."
पूरा मोहल्ला बधाई देने आया था और उसी भीड़ में रुचि ने चिल्लाकर कहा था, "चाची इससे कह दो दिल का डॉक्टर बनेगा. हड्डियों और दांतों वाला नहीं."
अब रुचि को हार्ट स्पेशलिस्ट का तो पता नहीं था, सो वह दिल का डॉक्टर ही बन गया.
सिलेक्शन के बाद वह एमबीबीएस और फिर एमडी करके हार्ट स्पेशलिस्ट ही बन गया था. लेकिन रुचि के लिए दिल का मरीज़.
हां, रुचि फेल हो गई थी. वो बोर्ड का एक्ज़ाम भी पास नहीं कर पाई थी. लेकिन वह ज़रा भी उदास नहीं थी.
उसने हंसते हुए कहा था, "मुझे तो बस ये ख़ुशी है कि डॉक्टर साहब फर्स्ट डिवीजन पास हो गए. अरे, अपने को पढ़-लिख कर कौन सा तीर मारना है. इस बार न सही अगले बार पास हो जाएंगे."
वह ज़माना ही ऐसा था कि बोर्ड का एक्ज़ाम पास कर लेना बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी. सीबीएससी एक्ज़ाम की तरह नहीं कि जिसे देखो नब्बे परसेंट से ऊपर नंबर ला रहा है. लोग भी फेल होनेवाले विद्यार्थी को तसल्ली देते, "अरे जाने दो बोर्ड में कौन सी बड़े ईमानदारी से कॉपी जांचते हैं. हिन्दी वाले टीचर को मैथ की कॉपी मिल जाती है. वह तो सब उछाल देता है, जो बिस्तर पर गिरी वह पास जो नीचे गई वह फेल.
आठ-साढ़े आठ साल लगे थे राजेश को मेडिकल पूरी कर हार्ट स्पेशलिस्ट बनने में. उसके बाद इंटर्नशिप और फिर न जाने कितने नियम-क़ानून तब जा कर एम्स में पोस्टिंग हुए थी. और अब कोई चालीस साल बाद कहीं इस उम्र तक आकर वे नाम और शोहरत की दहलीज़ पार कर पाए थे.
अपनी ज़िंदगी में रुचि नामक जिस दिल की बीमारी को डॉक्टर राजेश सालों पहले भूल गए थे, आज ओला ड्राइवर के गानों और ऋषिकेश की वादियों ने उन्हें वही बीमारी याद दिला दी थी.
इक उम्र की कोशिश से भुला दी है तेरी याद
लेकिन अभी उन यादों के साये नहीं जाते…
डॉक्टर राजेश रुचि को तो भूल गए थे. भूलना क्या, सवाल यह कि वह याद भी थी क्या? और होती भी तो क्यों?.. कोई इश्क़ तो नहीं था उन्हें रुचि से, मगर कुछ नहीं था यह भी तो नहीं था.
उन्हें याद है जब फर्स्ट ईयर के एक्ज़ाम के बाद वो हॉस्टल से घर आए थे, तो रुचि ने हंसते हुए कहा था, "डाक्टर साहब, इस साल हम पास हो गए हैं. डिवीजन मत पूछिएगा. हां, इस बार जाने से पहले अपनी फोटो हमें दे दीजिएगा. हम भी तो अपनी सहेलियों को बता सकें कि जिस डॉक्टर साहब की फोटो पेपर में छपी थी, वो हमारे पड़ोसी हैं. हमें जानते हैं."
वह मोबाइल और सेल्फी का ज़माना नहीं था और एक एक फोटो मिलना भारी होता. वह भी ब्लैक एंड व्हाइट पासपोर्ट वाली.
यह एक हयूमन नेचर है कि इंसान ऐसी बातों को अपने भीतर जीने लगता है और न जाने क्या-क्या कल्पना करता रहता है. रुचि जो इतनी मुंहफट थी पता नहीं कहां लुप्त हो गई. जब वो पांच साल बाद अपने मोहल्ले आए, तो वह वहां नहीं थी. उसके पैरेंट्स का ट्रांसफर हो गया था और किसी तरह ग्रेजुएशन पूरा होते ही घरवालों ने कोई ढंग का रिश्ता देख कर उसकी शादी कर दी थी. यह बात उसे मां से पता चली थी.
वे अपने ख़्यालों में खोए हुए थे कि अचानक उन्होंने देखा कुछ स्टूडेंट्स उन्हें विश कर रहे हैं और रिसीव करने आए हुए हैं.
ओह उन्होंने भी जवाब देते हुए सिर उठाया और देखा. वे मेडिकल कॉलेज के इटर्न स्टूडेंट्स थे, जो एमबीबीएस पूरी कर आगे की पढ़ाई कर रहे थे. कोई चार-पांच लोग थे. तीन लड़के और दो लड़कियां. अचानक उनकी नज़र किसी पर टिक गई. उनके मुंह से 'रुचि' निकलते-निकलते बचा. फिर अचानक उन्हें हंसी आ गई. रुचि अगर आज मिल भी जाए, तो वह भी तो कोई ५५-५६ की होगी.
यह २८ की लड़की रुचि कैसे हो सकती है… अक्सर इंसान अपने ख़्यालों में कुछ इस तरह खो जाता है कि उसे अपने भीतर समय और उम्र के बोध का पता ही नहीं चलता.
उन्होंने सभी का परिचय प्राप्त किया. जैसे वह एक सामान्य व्यवहार हो. सभी से हाथ मिलते हुए एक-एक का नाम पूछा. जो उन्हें रुचि लग रही थी वह भावना थी.
यह इंसान की फितरत के सिवाय और क्या है कि वह किसी को अपने सोच के अनुसार सोचने लगे. अपने आप ही कोई कहानी बनाने लगे, जिसका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई नाता ही न हो.
वह अब भावना और रुचि के बीच का फ़र्क़ भूल गए थे और भावना के प्रति जज़्बाती होते जा रहे थे. न जाने क्यों उन्हें भावना में रुचि का अक्स दिख रहा था. और जिस रुचि को उन्होंने कभी अपने डॉक्टर बन जाने के ख़्वाब को पूरा करने के लिए इग्नोर कर दिया था. आज उसे ही डॉक्टर बन कर हासिल कर लेना चाहते थे.
अपने तीन दिन के कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्होंने भावना को अपने ही जुनून में रुचि कहकर बुला भी लिया था, जिसे सुन वह चौंक गई थी.
"सर, ये रुचि कौन है?" उसने मज़ाक-मज़ाक में डॉक्टर राजेश से ब्रेकफास्ट के दौरान पूछ भी लिया था. और राजेश ने हंसी-हंसी में कहा था, "वो क्या है कि मैं तुम्हारा नाम भूल जाता हूं, इसलिए ग़लती से रुचि निकल जाता है."
"वही तो सर, मैं समझ रही हूं, तभी तो मैंने पूछा यह रुचि कौन है. कहीं आपकी कोई सीक्रेट फ्रेंड तो नहीं." उसने हंसते हुए कहा.
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डॉक्टर राजेश का चेहरा लाल हो गया. आजकल के बच्चे भी कितने तेज हो गए हैं. कोई बड़ी बात नहीं कल को उनका बेटा ही पूछ बैठे, “पापा कॉलेज में आपका कोई चक्कर था क्या?.. फलाने अंकल जब कुछ बतानेवाले होते हैं, तो आप उन्हें बहुत ज़ोर से बोल के चुप करा देते हैं." राजेश को लगा हो न हो हाथ मिलाते समय उन्होंने जब भावना का हाथ कुछ ज़्यादा देर तक सहलाया और दबाया, तो उसने कुछ फील कर लिया हो…
वैसे इस लम्हे को डॉक्टर राजेश भी बड़ी ख़ूबसूरती से एंजॉय कर रहे थे. कारण यह कि डाइनिंग हॉल में जिस टेबल पर वे बैठे थे, वहां वे दोनों अकेले थे.
इस स्टेज पर भावना भी बच्ची नहीं थी और न ही डॉक्टर राजेश पिता की मानसिक स्थिति में जी रहे थे. वे अपने भीतर रुचि को लेकर अपने युवा अवस्था की भावना में बातें कर रहे थे.
फिर बोले, "ऐसी कोई बात नहीं है भावना. बस यूं ही तुम्हें देखकर मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आ गए. बहुत से साथी होते हैं कॉलेज में जिन्हें दूर हुए भी अब एक अरसा हो गया है."
इस बार भावना थोड़ा आगे बढ़ते हुए बोली, "कोई बात नहीं सर, यदि आपको मेरी कंपनी अच्छी लग रही है और आप मेरे सहारे अपनी मैमोरीज़ री कॉल कर हैप्पी फीलिंग एंजॉय कर रहे हैं, तो क्यों न हम लोग आज के सेशन के बाद कहीं घूमने चले और डिनर बाहर करें?.."
अब डॉक्टर राजेश को सोचना पड़ा. वैसे तो उन्होंने कहा, “नॉट ए बैड आइडिया.“ और हाथ मिलाकर नाश्ता ख़त्म कर रेडी होने चल पड़े. उनका दिल बल्लियों उछल रहा था. तो आज वे अपने बचपन की इग्नोर्ड फीलिंग्स को जीने जा रहे थे.
उन्होंने फोन कर शाम को सात बजे उसी ड्राइवर को बुला लिया था, जो पहले दिन उन्हें यहां ड्रॉप कर गया था. सुहानी शाम थी ऋषिकेश की ताज़ी हवा उन्हें भाव विभोर कर रही थी और उनका दिल न जाने कहां के सपने देख रहा था.
इंसान भी न ज़रा सी घटना से न जाने क्या-क्या सपनों के जाल बुन लेता है. नियत समय पर ड्राइवर आ चुका था और भावना भी तो एकदम फ्रेश लहराते बालों में एक आकर्षक गुलाबी साड़ी में सजी-धजी गुड़िया की तरह सामने खड़ी थी व, जिसे देख डॉक्टर राजेश के मुंह से उफ़्फ़!.. निकलते निकलते रह गया. वे बस इतना बोले, "तुम्हें इस साड़ी में देख कर पहचानना मुश्किल हो गया." भावना भी कहां पीछे रहनेवाली थी, "क्या सर, आप भी तो इस जींस और जैकेट में कितने स्मार्ट लग रहे हैं. मैं तो सोच रही हूं आप कॉलेज के ज़माने में कितने स्मार्ट होंगे."
डॉक्टर राजेश ने हंसते हुए कहा, "इज इट!“
“आई मीन इट.. यूअर पर्सनैलिटी इज़ सो अट्रैक्टिव.. आप अगर मेडिकल में न आते तो कहीं मॉडलिंग कर रहे होते." भावना हंसते हुए बोली.
"आइए चलें, नहीं तो लौटने में देर हो जाएगी. पहाड़ों पर रात बहुत जल्दी होती है."
इतना कहकर दोनों गाड़ी में पीछे बैठ गए.
जैसे ही गाड़ी चली कि ड्राइवरवाले भाईसाहब की प्ले लिस्ट चालू हो गई- रहें न रहें हम महका करेंगे, बन के सबा बन के कली बागे वफ़ा में…
गाना शुरू होते ही डॉक्टर राजेश की आंखें जैसे बंद हो गईं और वे अपने भीतर एक नई ज़िंदगी जी उठे. उसके एमबीबीएस में सिलेक्शन के समय हॉस्टल जाते समय रुचि ने यही गाना तो बजाया था अपनी खिड़की पर उन्हें सुना के फुल वॉल्यूम में.
हां, उस दिन वो इस गाने को सुनने के लिए अपनी टेबल हटा कर ख़ुद खड़े हो गए थे. इसके बाद जब वे अपना बैग पैक कर घर से निकल रहे थे, तो रुचि भी विदा करने आई थी. बोली थी, "जाओ राजेश मेडिकल में टॉप करोगे, तो मुझे ख़ुशी होगी. हां, हो सके तो मुझे भी याद कर लिया करना अपनी किताबों के बीच में. एक स्टूडेंट के सफल होने के बाद न घरवाले चिंता करते हैं कि कौन उससे मिल रहा है और क्या कह रहा है." उसने चलते-चलते राजेश के हाथ में चुपके से यह कैसेट पकड़ा दी थी, "मेरी तरफ़ से एक छोटी सी गिफ्ट है रख लो."
और ओला वाले भाईसाहब के तीनों गाने उस कैसेट को जैसे रीवाइंड कर रहे थे. अपने कॉलेज में स्टडी के दौरान वह रोज़ ही तो इन गानों को सुनता था, जिसे सुन कर उसे लगता कोई उसे मेडिकल में टॉप करने के लिए कह रहा है. यह हुआ भी. वह फाइनल एक्ज़ाम में टॉप पर था, तभी तो हार्ट स्पेशलिस्ट बन सका. उसकी आंखें नम थीं. क्या वह भी रुचि को प्यार करता था..? इस सवाल का जवाब शायद उसे पूरी ज़िंदगी नहीं मिल सका.
जब वह स्टडी पूरी कर वापस आया था, तो रुचि खो चुकी थी और वह भी शादी करके एक डॉक्टर बन गया था परफेक्ट डॉक्टर हार्ट स्पेशलिस्ट, जिसके पास दिल तो था मगर चीर-फाड़ करनेवाला इमोशनल होनेवाला नहीं. अचानक गाने में खोए-खोए ही उसे होश आया, जैसे रुचि उससे कुछ कह रही हो, “राजेश आई लव यूं…“ मगर यह क्या रुचि तो वहां कहीं नहीं थी. फिर यह कौन है, जो उससे बातें कर रहा है. उन्होंने देखा भावना बड़े गौर से उसे देख रही है.
“सर, आप रो रहे हैं?” भावना ने कहा.
यह क्या बिना कहे ही उनकी आंखों से आसूं बह रहे थे. वे सचमुच बहुत इमोशनल हो चुके थे.
उन्होंने रुमाल से अपने आंसू पोंछे और शांत हो कर बैठ गए.
उन्हें होश आ चुका था. यह भावना है रुचि नहीं. हो सकता है वह रुचि को प्यार करते हों, लेकिन प्यार क्या शरीर से होता है. नहीं… किसी इंसान को प्यार किसी के व्यक्तित्व से होता है उसकी अच्छाइयों से होता है. उसकी फीलिंग्स से होता है. शरीर तो बस कुछ देर बीच में आता और चला जाता है. यहां तक कि कई बार प्यार में शरीर का होना ज़रूरी नहीं होता. वह बस, एहसास से ही पूरा हो जाता है. वे अचानक बदल चुके थे. इंसान शरीर से नहीं मन से बदलता है.
होटल आ चुका था और उनके खाने की टेबल बुक थी. भावना के साथ वे गाड़ी से उतरे, तो उन्होंने ओला के ड्राइवर को भी बुलाया, “क्या दोस्त मेरे साथ खाना नहीं खाओगे?”
और यह सुन वह चौंक गया, "सर, आप बड़े आदमी हैं. प्लीज़ आप खाना खाइए. मैं कहीं बैठ कर खाना खा लूंगा."
डॉक्टर राजेश ने कहा, "इतनी जल्दी अपनी कही बात भूल गए. कल ही तो तुम मुझे लेकर आए थे और कह रहे थे कि साहब, आप डॉक्टर नहीं बहुत बड़े हकीम हैं, जो इंसान को ज़िंदगी देता है. अगर ऐसे गाने आज नहीं मिलते, तो आप जैसे इंसान भी कहां मिलते हैं…"
इतना कह कर जब डॉक्टर राजेश ने उसका हाथ पकड़ा, तो भावना भी देखती रह गई. सचमुच डॉक्टर राजेश तो बहुत बड़े इंसान निकले. वह कुछ नहीं बोली. उसे समझ में आ चुका था कि आज इन्टरन्शिप का एक बहुत बड़ा लेसन इस इंसान से मिलनेवाला है.
वे तीनों रिजर्व डाइनिंग टेबल पर बैठे थे और तब डॉक्टर राजेश ने कहा, “भावना, क्या कहूं भगवान ने मुझे दो बेटे दिए हैं. कभी-कभी सोचता हूं वह मुझे बेटी देता, तो वह बिल्कुल तुम्हारी तरह होती.“
इतना कहकर जब उन्होंने स्नेह से भावना के हाथ का स्पर्श किया, तो इस बार भावना की आंखों में आसूं आ गए.
"सर, न जाने क्यों आज एक लंबी ट्रेनिंग के बाद मुझे एहसास हो रहा है कि एक डॉक्टर भी इंसान होता है. जिसके सीने में दिल होता है. यह अलग बात है कि हार्ट का ऑपरेशन करते समय उसे अपने जज़्बाती दिल को ऑपरेशन थिएटर के बाहर छोड़ना होता है."
हां, यह बात सिर्फ़ डॉक्टर राजेश जानते थे कि वे एक डॉक्टर हैं, हार्ट स्पेशलिस्ट, जो अच्छी तरह समझ रहे हैं कि रुचि और भावना में बुनियादी फ़र्क़ है. हृदय की झंकार और हार्ट बीट्स एक नहीं होतीं. हमें हार्ट बीट्स के साथ जीना होता है, झंकार के साथ नहीं.
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