“मेरी उस बात को दिल से लगाकर बैठी हो. मेरा वो मतलब नहीं था. तुमको क्या लगता है हम सब तुमसे प्यार नहीं करते?”
मैंने उनकी आंखों में झांककर कहा, “सवाल ये नहीं कि आप सब मुझसे प्यार करते हैं या नहीं. सवाल ये है कि मैंने अपने को प्यार करना बंद क्यों कर दिया? अपने लिए सोचना क्यों बंद कर दिया, अपने को ख़ुश रखना ज़रूरी क्यों नहीं समझा.”
बगल में रखा फोन बार-बार नया मैसेज आने की सूचना देता रहा. मैंने खीजकर डेटा ऑफ कर दिया. मुझे पता था मैसेज नीरू का ही होगा… क्या करूं उसकी तस्वीरें देखकर? वो कहां घूमी, कितने नए डिज़ाइनर से मिली, क्या कुछ नया सीखा… मुझको जानकर करना भी क्या था? एक लंबी सांस खींचकर मैंने ख़ुद से बोले झूठ को सच मानने की कोशिश की.
सच में मुझे कुछ नहीं करना था? मुझे कोई फ़र्क़ नही पड़ता? फर्क़ नही पड़ता तो क्यों बात-बात पर आजकल आंसू आ रहे हैं…आंसू भी तो तब से ही आ रहे हैं, जब से नीरू ने वो सब बताया है…
नीरू, यानी मेरी दूर की देवरानी. शादी के कई सालों बाद हमारा मिलना-जुलना शुरू हुआ. वो भी तब, जब वो मेरे ही शहर में रहने आ गई. मुझे उसके सवाल हैरान कर देते थे.
“अरे बैठिए न भाभी थोड़ी देर और… आप समय से घर नहीं पहुंचेंगी तो क्या शाम नहीं होगी?”
मैं खिसियाकर कहती, “चाभी मेरे पास है. तुम्हारे भइया जल्दी आ गए तो?”
“तो बच्चे होंगे न घर पर?”
“हां, लेकिन वो पढ़ रहे होंगे, बेमतलब डिस्टर्ब होंगे.”
वो हैरान रह जाती थी. उसको लगता होगा कि ये किसी दूसरी दुनिया की बातें हैं. जैसे मुझे उसका घर किसी दूसरी दुनिया में बसा लगता था. घर के सभी सदस्यों के पास एक एक चाभी रहती थी, किसी की दिनचर्या किसी के आने-जाने से बाधित नहीं होती थी… और मेरे यहां? बस मेरे एक के कहीं आने-जाने से सब कुछ अव्यवस्थित होकर बिखर जाता था. उस दिन देर से घर लौटी तो कुणाल उखड़े हुए थे, “दिनभर के थके घर लौटकर आओ, तो पता चले मालकिन नदारद हैं…”
ये शब्द मुझे गुदगुदा गया था, ‘मालकिन’.
मैंने मुस्कुराते हुए चाय का पानी गैस पर रखा.
“मालकिन के बच्चे घर पर थे, उनसे चाय बनवा लेते.”
जवाब में पति ने क्या कहा याद नहीं, लेकिन बच्चों के कमरे में कॉफी देने गई, तो माहौल वहां भी ठीक नहीं था.
“क्या मम्मी,आप नीरू चाची के यहां जाती हो, तो इतनी देर में आती हो? हम लोग यहां अकेले?..”
मैंने हंसते हुए कहा, “अकेले? तुम लोगों के स्कूल से आने के बाद निकली थी, वो भी तब जब ऑनलाइन ट्यूशन शुरू हो गया था… और देखो, ख़त्म होने के दस मिनट में तो आ गई.”
“तो भी… आप यहीं रहा करो आसपास.”
बच्चे ठुनक गए थे और मैं एक बार फिर अपने साम्राज्य पर इतरा उठी थी! सच ही तो है, महारानी ही तो हूं मैं! मेरे बिना यहां कुछ भी तो नहीं होता! कभी-कभी तो ये भी यक़ीन होने लगता था कि मैं न जागूं, तो सवेरा नहीं होगा और जब तक मेरी आंख न लगे, रात का कालापन अधूरा ही रहेगा. सास-ससुर दूर शहर में बैठे आशीर्वाद की झड़ी लगा देते, “तुम तो हमारे घर की अन्नपूर्णा हो. देवी हो! तुमसे ही सब कुछ है.”
मैं नाराज़ होकर कहती, “तब भी तो आप लोग यहां रहने नहीं आ रहे. अकेले रहते हैं.”
“अब क्या बताएं बहू, जिस शहर में सालों साल रस लिए, वहां से हट नहीं पा रहे और अकेले कहां हैं, रिश्तेदार भी तो हैं यहां.”
उन्हीं में से एक रिश्तेदार की बहू थी नीरू, जिससे मेरा देवरानी-जेठानी का रिश्ता भी था, सहेलियों का भी! शुरू में तो सब ठीक चलता रहा, समस्या पता नहीं कब दबे पांव आई और हम सबके बीच आकर बैठ गई…सच में, हम सबके बीच!
उस दिन नीरू घर आई, तो चौंक गई थी,
“ये पेंटिंग्स किसकी हैं भाभी?”
“ये? ये सब तो मैं बनाती थी पहले…”
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मैं हंसकर टाल गई थी. वो गौर से देखती रही, “अमेजिंग! आप कितनी टैलेंटेड हैं. और क्या-क्या करती हैं?”
उसने इतने उतावलेपन से पूछा कि मैं रुक नहीं पाई. कहीं भीतर रखी स्केच बुक, पेंटिंग्स भी निकाल लाई और अपने अंदर छुपे कलाकार को भी. नीरू हर स्केच, हर पेंटिंग को गहराई से समझती रही और मैं विस्तार से समझाती रही… अचानक नीरू हंसने लगी थी.
“क्या भाभी! मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा कि मैं आपसे बात कर रही हूं. कौन सोच सकता है कि यू आर एन अमेज़िंग आर्टिस्ट! क्यों इस टैलेंट को बाहर नहीं लाती हैं?”
मैं झेंप गई थी.
“क्या करना अब? उम्र चली गई इन् सब की. वैसे भी इनमें कमाई तो है नहीं, बस बेमतलब का…”
नीरू ने मुझे टोक दिया था, “हर काम रुपए के लिए नहीं किया जाता भाभी! मेरी बड़ी बहन को देखिए, राइटर है. बहुत अच्छा लिखती हैं. कितनी गोष्ठियों में जाती हैं, कितना नाम है उनका.. इसमें रुपए नहीं आते, लेकिन बेहद ज़रूरी है ये उनके लिए!”
मैं समझ नहीं पाई थी, “क्या ज़रूरी है?”
नीरू ने मुस्कुराते हुए मेरी हथेली थपथपा दी थी, “अपने को ख़ुश रखना ज़रूरी है. अपने आप को प्यार करना ज़रूरी है…”
शायद उसी दिन शुरुआत हो गई थी! मेरे शांत मन की सतह पर कंकड़ मारकर कोई हलचल तो वो मचा ही गई थी. मैंने अपने आप से पूछा था, ‘क्या तुम ख़ुुश हो? कोई कमी नहीं?’
अनगिनत जवाब आकर मेरे इर्दगिर्द खड़े हो गए थे… साथ ही कई सवाल भी! असंतोष भी सिर उठाकर विद्रोह पर आमादा हो गया था, जिसके चलते उस दिन मैंने ये बात घर पर छेड़ दी थी.
नीरू की कितनी हेल्प करते हैं सब, कितनी फ्री रहती है. उसका हसबैंड भी सपोर्टिंग है, बच्चा भी, एक हमारे यहां देखो… एक चाय का प्याला भी इधर से उधर नहीं होता, जब तक मैं न करूं!
मैंने एक दिन अस्त-यस्त घर देखकर शिकायत कर ही दी थी. बच्चे मुंह बनाकर बिना कुछ बोले रह गए थे, लेकिन कुणाल ने चौंककर कहा था, “अरे! नीरू से क्या बराबरी कर रही हो? वो वर्किंग है. बाहर खटती है, चार पैसे कमाती है. घर की आर्थिक स्थिति सुधारती है, तो घर के कामों उसकी मदद भी लोग करते हैं. तुम घर में रहकर थकती थोड़ी हो.”
मैं तो सन्न रह गई थी! ये कौन सा हिसाब हुआ? जो घर में रहता है, वो थकता नहीं… या फिर जो घर की ज़िम्मेदारी संभाले हुए है उसको थकने का हक़ ही नहीं?.. जितनी बार भी ये बात दिमाग़ में गूंजती, आंखें भर आतीं. आंखें भरने का एक कारण और भी था. लगी लगाई अच्छी-खासी नौकरी मैंने ख़ुद ही छोड़ी थी. जुड़वां बेटों की किलकारी से जब घर गूंजा, तब कुणाल ने ही तो कहा था, “तुम घर संभालो, बच्चों को देखो, मैं कमा रहा हूं न! तुम घर पर रहोगी तो मुझे ज़्यादा सपोर्ट रहेगा. पति-पत्नी दोनों बाहर रहते हैं, तो घर बिखर जाता है.”
सच ही तो था. घर संभलता गया, मैं बिखरती रही! बात केवल नौकरी छोड़ने की ही नहीं थी. पति-बच्चे ही मेरी दुनिया का केंद्र बिंदु बन चुके थे. कहीं सहेलियों के साथ जाना हो, तो मैं साफ़ मना कर देती. सोचती कि संडे को बाहर नहीं निकलूंगी, कुणाल घर पर बोर हो जाएंगे. शाम को कहीं जाना होता, तो टाल जाती, यह सोचकर कि बच्चे घर आएंगे, तो मुझे नहीं पाएंगे.
सहेलियां हंसती भी, “क्या यार, सोलह साल के बेटे हैं, बड़े बच्चे हैं.”
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कुणाल की बात से मन उस दिन ख़राब हुआ. अगले दिन थोड़ा संभला फिर वापस ढर्रे पर आ गया था. मैं ख़ुुद को समझाती रही. बात तो सच ही थी. नीरू वर्किंग है, कमाती है… मेरी उससे क्या बराबरी?
वो कहते हैं न कि जब बेचैनी भीतर से फूटती है, तो आसपास बहुत कुछ बदलने पर आमादा हो जाता है. समझ ही नहीं आता कि बाहर के बदलाव से बेचैनी बढ़ रही है कि भीतर की बेचैनी ही बाहर सब कुछ बदल रही है! ऐसा ही कुछ बदलना मेरे साथ भी तय था, उस दिन नीरू घर आई, तो चेहरा चमक रहा था. आते ही गले लग गई, “भाभी.. आख़िरकार वो दिन आ ही गया. रिज़ाइन करके आ गई.”
“हैं? जॉब छोड़कर?”
मैं हैरान थी, नीरू बेहद ख़ुश.
“हां भाभी, बहुत हुआ वो सब.. अब वो करूंगी, जो मुझे करना पसंद है, जो सबसे ज़रूरी है…”
मैं समझ गई थी. मुझे देखकर ही प्रेरित हुई होगी. अब मेरी तरह घर संभालेगी. सौ प्रतिशत समय घर में देगी, बच्चे-पति में सब कुछ भूल जाएगी. एक बार दुख सा हुआ, ‘बताओ ज़रा अच्छी-ख़ासी नौकरी गृहस्थी के चक्कर में छोड़ आई… फिर मन के कोने में उभरी ईर्ष्या मुझे ख़ुश भी कर गई. अब ये भी मेरी ही तरह है… नॉन वर्किंग! जलन क्या कुछ नहीं करवा सकती.. मैं भी वही कर ही रही थी, ख़ुश थी, मुस्कुरा रही थी.
मेरे भीतर का बवंडर शांत हो चुका था. मुझे क्या पता था कि ये तूफ़ान से पहले की शान्ति थी. उस दिन दोपहर में फोन किया. तो नीरू ने बड़ी देर में उठाया, “हैलो भाभी.”
“कब से मिली नहीं… क्या कर रही हो नीरू ?”
मेरे पूछते ही वो चहककर बोली, “वही कर रही हूं भाभी, जो अब तक नहीं कर पाई. फैशन डिजाइनिंग इंस्टीट्यूट में एडमिशन लेने आई हूं.”
मुझे तो जैसे करंट लग गया था! ये… ये सब क्या था?
“मैं कुछ समझी नहीं नीरू…”
“कल घर आकर बताती हूं भाभी. आराम से…” हंसते हुए उसने तो फोन रख दिया था, लेकिन मेरी हंसी नदारद हो चुकी थी. इस दोपहर से उस दोपहर का समय इतना भारी कटेगा. मैंने सोचा ही नहीं था कि उसके आते ही मैं हड़बड़ा गई थी.
“तुम कहां एडमिशन लेने गई थी. तुम तो कह रही थी अब तुम आराम करोगी मतलब घर संभालोगी…”
हड़बड़ाकर मैं पता नहीं क्या-क्या कह गई थी. नीरू मुझे एकटक देखे जा रही थी, “ये मैंने कब कहा था भाभी? मैंने कहा था कि अब वो करूंगी, जो करना चाहती हूं… पहले नौकरी, गृहस्थी में फंसी रही. अब लगता है, बहुत हुआ घर-नौकरी. अब इधर फोकस करूं… घर भी सेट है. बेटी भी बड़ी हो गई है.”
मैं अवाक बैठी उसको सुनती जा रही थी. इसकी दस साल की बेटी बड़ी हो गई. मेरे सोलह-सत्रह साल के बेटों को अभी छोटा ही मान रही हूं मैं? सवाल तो ऐसे-ऐसे मुंह में आ रहे थे जैसे दीन-दुनिया से बेख़बर मैं कोई अनाड़ी हूं.
“क्यों नीरू? अभी तो सालों कोर्स चलेगा. कमाई थोड़ी होगी. मतलब बाद में होगी, है न?”
“हां भाभी… अभी तो बहुत कुछ सीखना है. वैसे भी ये सब कमाई के लिए थोड़ी कर रही हूं. बस सीखना है, जानना है.”
उसकी आंखों में दीप टिमटिमा रहे थे. दीप आशा के, सपनों से भरे हुए. पता नहीं क्यों मेरी आंखों में ठीक उसी व़क्त से कुछ बुझ गया था!
“कितना मन था मेरा पेंटिंग सीखने का. थोड़ा-बहुत सीखा कि तभी नौकरी लग गई, फिर शादी-बच्चे और फिर…”
नीरू बोलती जा रही थी.
“भाभी, सीखने की कोई उम्र थोड़ी होती है. जब जागो, तभी सवेरा.”
नीरू की हर एक बात से मैं चकित ही थी. किन् सपनों की बात करती है ये? वो सपने जिनको हम ख़ुुद ही थपकी देकर सुला चुके होते हैं. उस दिन के बाद से तो जैसे मैं बुझ ही गई थी. न नौकरी कर पाई, न सपने पूरे कर पाई. हालांकि मन के एक कोने से अभी भी किसी तारीफ़ की आवाज़ आती थी, कोई तो था, जो मेरी पीठ थपथपा देता था.
“तुम दिल छोटा न करो. तुमने कितना कुछ किया है सबके लिए, कहते तो हैं न सब, तुम अन्नपूर्णा हो, गृहलक्ष्मी हो…”
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बार-बार उठते बवंडर ख़ुद ही शांत होते रहे. मैं जान-बूझकर किसी ख़्याल को सिर उठाने ही न देती. तभी तो आज, बार-बार नीरू के मैसेज आते रहे मैं टालती रही… रात को क़रीब दस बजे फोन बज गया. नीरू का ही कॉल था.
“हां नीरू, क्या हुआ?”
मैंने अनमने ढंग से पूछा, वो हमेशा की तरह चहक रही थी, “आपको कितने मैसेज किए, देखे ही नहीं आपने… देखो तो कितने फेमस डिज़ाइनर से मिली आज मैं, एक इवेंट था.”
मैं झुंझला गई थी. अपनी उपलब्धि दिखाने के लिए इसको इतनी रात ही मिली थी, “कल बात करते हैं नीरू. आंख लग गई थी मेरी…”
मेरा साफ़ झूठ भी उसके उत्साह को कम नहीं कर पाया. फोन रखने की बजाय वो फिर बोली, “अच्छा सुनिए भाभी, एक हफ़्ते की वर्कशॉप है पेंटिंग की. पता है उन्हीं लोगों के लिए है जिन्होंने लंबे समय से ब्रश थामा नहीं, जो फिर से शुरू करना चाहते हैं! आज मुझे पता चला, तो मुझे आप याद आईं. डिटेल्स भेजे हैं देख लेना आप… गुड नाइट, लव यू.”
उसका स्नेह मुझे भीतर तक झकझोर गया. कितनी तो प्यारी है, अपनी व्यस्त दिनचर्या में भी मेरे लिए सोच पा रही है. क्या इतना काफ़ी नहीं? मैं क्यों नहीं इस देवरानी-जेठानी वाली प्रतियोगिता से निकलकर उसको देख सकती हूं?
ठीक उसी समय ध्यान से उसकी तस्वीरें देखीं. सब पर कुछ न कुछ लिखा. उसका मनोबल बढ़ाया. अंत में पेंटिंग वर्कशॉप वाले मैसेज पर नज़र गई, तो एक उदास मुस्कान मेरे चेहरे पर फैल गई. ये नीरू भी न… दिल्ली में है ये वर्कशॉप. मैं भला कैसे दूसरे शहर जाकर अटेंड कर सकती हूं? और तारीख़ भी तो देखो, सात फरवरी से चौदह फरवरी… दो मार्च से बच्चों के एग्जाम हैं.
ठीक एक महीना पहले ही तो बच्चे ज़्यादा पढ़ते हैं, उसी बीच मैं दूसरे शहर जाकर कूची थाम लूं? एक बार फिर अपने त्याग का मुकुट अपने माथे पर रखकर मैं अकड़ गई. ये क्या ही समझेगी ये सब? घर के लिए सब छोड़ दो तो कितना नाम होता है, कितनी तारीफ़ मिलती है, इतनी तारीफ़ कि उसके आगे सब कुछ बौना लगने लगता है.
मन में हलचल तो थी, लेकिन अपने आप को समझाने की मैं अभ्यस्त हो चुकी थी. मैं ही क्या हर हाउसवाइफ ढकने में तो प्रवीण होती ही हैं. टेबल पर दाग़ लगा हो, तो कवर डालकर ढक दो, आलमारी अस्त-व्यस्त हो तो पर्दा लगा दो, किचन गंदा हो, तो दरवाज़ा बंद कर दो और मन अगर ज़्यादा फड़फड़ाने की सोचे, तो झट से पिंजरे में डालकर ताला मार दो! मैं भी सब कुछ बंद करके आंखें मूंदकर लेटी ही थी कि कुणाल ने आकर पूछ लिया, “सो गई हो क्या? देखो, जो फैमिलीवाला ग्रुप है उस पर नीरू की कितनी सारी तस्वीरें आई हैं. कितने बड़े डिज़ाइनर से मिली आज, फोटो खिंचवाई… वैसे है बड़ी टैलेंटेड.”
कुणाल फोन निहारकर मुस्कुरा रहे थे. मैं हैरान रह गई थी. ईर्ष्या फिर मेरे ऊपर हावी होने लगी थी.
“इसमें टैलेंट क्या है? घर छोड़-छोड़कर हर जगह जा रही है, घूम रही है, मिल
रही है…”
कुणाल चिहुंक कर बोले, “हां तो हर कोई ये काम नहीं कर सकता. बोल्डनेस, कॉन्फिडेंस चाहिए होता है.”
मेरे अचानक आंसू आ गए थे, “अच्छा? मैं करूं इस तरह तो चलेगा आपको?
बच्चों को?”
कुणाल ठहाका मारकर हंस दिए, “तुम? तुम छत पर जाने से पहले तो चार बार बच्चों के कमरे में झांकती हो कि बच्चे कुछ खाने को तो नहीं मांग रहे. तुम बाहर जाओगी? मैं अगर देर तक सोता रहूं, तो चार बार आकर माथा छू जाती हो कि बुखार तो नहीं है. ग्रोथ करनेवाली औरतें थोड़ा बड़ा सोचती हैं. तुम्हारे बस का नहीं ये सब. तुम्हें तो सनक है घर संभालने की.”
कुणाल एक बार फिर हंसने लगे थे. बड़ी मुश्किल से अपना रोना रोककर मैं बाथरूम की ओर दौड़ी और फफक पड़ी! ये सब मेरा पिछड़ापन है कि परिवार के सिवा मुझे कुछ सूझता ही नहीं? बच्चों की भूख की परवाह करना मेरी सनक है? पति की चिंता करना ग़लत है? जैसे-जैसे मैं रोती जा रही थी, वैसे-वैसे पिछला समय याद आता जा रहा था. मैं यादों में भटकती हुई ढूंढ़ती जा रही थी. स्कूल-कॉलेज की टॉपर लड़की, अपने ओजस्वी भाषण से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देनेवाली लड़की, दुनिया बदलने का हौसला लिए लड़की, सपनों से भरे झोले को कंधे पर टांगे हुए लड़की… वो लड़की आख़िर गई कहां? किसी और ने उसको लीप-पोत कर नया रूप दे दिया या फिर वो ख़ुद ही नए रंग के डिब्बे में कूद पड़ी?
रात गहरा चुकी थी. सब लोग सो चुके थे. मैंने बाहर निकलकर एक बार फिर फोन देखा. फैमिली ग्रुप में सचमुच धूम मची हुई थी. नीरू के सास-ससुर के साथ-साथ मेरे सास-ससुर भी प्रशंसा के पुल बांधे हुए थे.
अजीब सा मन हुआ जा रहा था. घड़ी देखी, साढ़े दस बज चुका था. ख़ुद को रोकते हुए भी सासु मां को फोन मिला ही लिया. मुझे पूरा यक़ीन था कि मलहम की जिस बूंद की मुझे सख्त ज़रूरत थी, वो मुझे यहीं से मिलेगी.
“हैलो मम्मी, सो तो नहीं गई थीं?”
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“नहीं… नहीं… नीरू की फोटो देख रहे थे, बड़ी मेहनत कर रही वो तो.”
मेरे अंदर कुछ चटका, तब भी मैंने पूरी कोशिश की. एक बार अपने को श्रेष्ठ सुन तो लूं, अपने त्याग का एक प्रमाणपत्र ले तो लूं. “मम्मी, देखी फोटो. नीरू की तो मेहनत है ही, लेकिन उसका हसबैंड कितना सपोर्ट कर रहा, बच्ची को संभाल रहा. कभी-कभी तो उन सब पर तरस आने लगता है, नीरू पर गुस्सा भी. ऐसा भी क्या कि घर-बार छोड़कर…”
मेरी पूरी बात सुने बिना ही उन्होंने काट दी, “ऐसा कुछ नहीं है! बच्ची बड़ी है. नीरू कभी कभार ही तो जाती है. अब इस तरह सोचा जाए, तो कोई औरत आगे ही न बढ़े. देखो, कितना नाम हो रहा उसका.”
मैं अचंभित थी. नीरू हर महीने कहीं न कहीं जा रही थी. मेरी तो मायके की सालाना ट्रिप भी गिल्ट के तले दबा दी जाती थी, ये पूछ पूछकर कि कुणाल घर कैसे मैनेज कर रहा होगा? मैंने गला खंखार कर कहा, “तब भी मम्मी. वैसे भी ये कोई नौकरी तो है नहीं. मतलब अपने शौक हैं उसके.”
मम्मी एक पल ठहरीं. फिर एक वार करके मुझे पूरी तरह ध्वस्त करते हुए चली गईं, “शौक कह लो या हुनर, है तो उसके पास! कोशिश तो कर ही रही. जिसको कुछ आता ही नहीं, वो क्या ही कर लेगा. थोड़ा पॉजिटिव होकर सोचो न.”
गुड नाइट बोलकर मैं फोन रख तो चुकी थी, लेकिन वो नाइट किसी भी तरह फिर गुड न रह सकी. पता नही क्या-क्या सोचकर मैं एक बार फिर रोई. लेकिन इस बार कितना कुछ भीतर था, जो धुलता गया! पूरी रात उधेड़बुन चली. सुबह का सूरज निकला, तो सब साफ़ था. बादल, कोहरा, धुंध कुछ भी नहीं!
“चाय पिलाओ यार, तुम सुबह-सुबह लैपटॉप लेकर बैठ गई?”
कुणाल ने मेरे पास आकर झांका. मैंने बिना देखे जवाब दिया, “वैलेंटाइन वीक मनाने का सोच रही हूं इस बार. दिल्ली जाकर! वहीं की टिकट देख रही थी.”
कुणाल ने अख़बार उठाकर मुंह बिचकाया, “हां हां, मैं वैलेंटाइन वीक के लिए हफ़्ते भर की छुट्टी ले लूं…”
मैंने एक लंबी सांस भरी, नीरू का भेजा मैसेज दिखाया. वर्कशॉप के बारे में बताया. कुणाल सकपकाए हुए थे.
“मज़ाक कर रही हो न? पॉसिबल ही नहीं. बच्चो के पेपर हैं. फिर कभी चली जाना.”
मैंने पूरा सब्र इकट्ठा किया, फिर बोलना शुरू किया, “बच्चों के पेपर बाद में हैं. बच्चों को तो मैं पढ़ाती भी नहीं, ध्यान रखती हूं. कुछ दिन आप रख लेना. और रही बात, फिर कभी जाने की. फिर कभी आता ही कहां है? औरतें एक बार घर में सिमटीं, तो फिर अंगड़ाई ले ही नहीं पाती हैं. कभी घर की टंकी साफ़ करवाती हैं. कभी पर्दे की सिलाई खुली दिख जाती है. कभी किसी रिश्तेदार के घर शादी पड़ जाती है. कभी पति-बच्चे की चार समस्याएं आकर घेर लेती हैं. फिर ये औरतें वही हो जाती हैं, सनकी… या तो बच्चों के लिए खाना बनाती रहती हैं या पति का माथा छूती रहती हैं…”
आख़िरी शब्द बोलते-बोलते मेरी आवाज़ भर्रा गई थी. कुणाल को भी सब समझ में आ रहा था. मेरे पास आकर धीरे से बोले, “मेरी उस बात को दिल से लगाकर बैठी हो. मेरा वो मतलब नहीं था. तुमको क्या लगता है हम सब तुमसे प्यार नहीं करते?”
मैंने उनकी आंखों में झांककर कहा, “सवाल ये नहीं कि आप सब मुझसे प्यार करते हैं या नहीं. सवाल ये है कि मैंने अपने को प्यार करना बंद क्यों कर दिया? अपने लिए सोचना क्यों बंद कर दिया, अपने को ख़ुश रखना ज़रूरी क्यों नहीं समझा.”
कुणाल नज़रें झुकाए हुए खड़े थे. मुझे नहीं पता, वो इस समय भी मुझे समझ पा रहे थे या नहीं! मुझे तो बस इतना पता था कि घर से भागकर नहीं, घर के साथ ही लेकिन अपने आप को भी संभालूंगी ज़रूर. बच्चों और कुणाल के लिए सब इंतज़ाम करके ही सही, लेकिन वहां जाऊंगी ज़रूर. और इस बार वैलेंटाइन डे उसके साथ मनाऊंगी जिसकी मैंने कब से सुध नहीं ली. एक गुलाब लूंगी, अपने आप को थमाकर “आई लव माइसेल्फ” बोलूंगी ज़रूर!
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