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कहानी- हीनभावना (Short Story- Heenbhavna)

मैंने क्रोध में चिट्ठी को टुकड़ों में बदलकर फ्लश के हवाले कर दिया. फिर किसी कटे हुए वृक्ष की भांति दीवान पर गिरकर बिखर गई. मन-मस्तिष्क में विचारों की तीव्र आंधियां चलने लगीं, 'आख़िर उन्होंने ये सोच कैसे लिया कि मैं इस कठोर कदम के लिए तैयार हो जाऊंगी? कहीं ये कोई चाल तो नहीं चल रहे है. हो सकता है, ये इस तरह मुझे चरित्रहीन साबित करके मुझसे अलग होना चाहते हो…'

उस दिन मैं उन्हें एयरपोर्ट पर सी. ऑफ़ कर वापस अपने फ्लैट पर लौट आई. एयरपोर्ट पर ही मुझसे विदा लेते वक़्त उन्होंने मुझे ये बताकर चौंका दिया था कि मैंने तकिये के नीचे एक चिट्ठी लिख छोड़ी है, उसे जाकर तुरंत पढ़ लेना.
मुझे बेडरूम में तकिये के नीचे से एक चिट्ठी मिल गई, चिट्ठी पढ़कर मेरे मन-मस्तिष्क में भूचाल सा आ गया. सारा जिस्म थर-थर कांपने लगा. दिल और दिमाग़ का कोई भी हिस्सा यह मानने को कदापि तैयार नहीं हो रहा था कि एक पुरुष अपना पौरुष साबित करने के लिए इस स्तर तक भी जा सकता है. पर जो कुछ उन्होंने लिखा था, वो तो अक्षरशः सत्य ही था और इसकी पुष्टि के लिए मैं पुनः चिट्ठी पढ़ने लगी. लिखा था-
प्यारी अरुंधती,
कहने को तो मैं बिज़नेस के सिलसिले में १५ दिनों के लिए न्यूयॉर्क जा रहा हूं, पर सच्चाई ये है कि मैं तुमसे जान-बूझकर अलग हो रहा हूं. संभवतः सच्चाई से अवगत होने के बाद तुम्हारी कोमल भावनाओं को ठेस पहुंचे, पर इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं है. इसलिए तुम्हें अपने मन-मस्तिष्क को मज़बूत करना होगा.
अरुंधती में नहीं चाहता कि कोई मुझे नामर्द या तुम्हें बांझ कहे और ये तभी संभव है जब तुम मां बन जाओ, जैसा कि तुम्हारे चेकअप से स्पष्ट हो चुका है कि तुममें कोई कमी नहीं है, तो ज़ाहिर है कि मुझमें ही कमी है. तुम मां बनने में सक्षम हो, पर मैं पिता बनने में नहीं.
मैंने सुना है कि वंश को आगे बढ़ाने के लिए ऐसी परिस्थितियों में पति के भाई या मित्र का भी सहारा लिया जा सकता है और इसमें कोई पाप नहीं, क्योंकि हिंदू शास्त्रों में भी शायद इस बात का ज़िक्र है. इसलिए तुम्हें भी मजबूरीवश ये कठोर कदम उठाना होगा.
जैसा कि तुम जानती ही हो कि आज शाम की गाड़ी से मेरा छोटा भाई चेतन ग्रेजुएशन की परीक्षा देकर १५ दिनों के लिए घूमने यहां मुंबई हमारे पास आ रहा है. ऐसे में तुम्हें मां बनने के लिए चेतन का ही सहारा लेना होगा. निःसंदेह ये कदम आसान नहीं, पर इसके अलावा कोई और रास्ता भी तो नहीं है. वैसे यदि तुम चेतन से गर्भवती हुई भी तो किसी को कोई शक नहीं होगा, क्योंकि अब तक तो हमने लोगों को यही बता रखा है कि हम अभी बच्चा नहीं चाहते. अब चेतन को तुम कैसे तैयार करोगी, ये तुम्हारा काम है. वैसे ये कोई मुश्किल काम भी नहीं है, क्योंकि तुम काफ़ी ख़ूबसूरत हो, चेतन भी जवान है. उस पर तुम दोनों पहले से ही काफ़ी बेतकल्लुफ़ हो. इसके अलावा अवसर व एकांत सब कुछ तुम दोनों के पक्ष में रहेगा. चि‌ट्ठी पढ़कर तुरंत फाड़
देना.
प्रभात


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मैंने क्रोध में चिट्ठी को टुकड़ों में बदलकर फ्लश के हवाले कर दिया. फिर किसी कटे हुए वृक्ष की भांति दीवान पर गिरकर बिखर गई. मन-मस्तिष्क में विचारों की तीव्र आंधियां चलने लगीं, 'आख़िर उन्होंने ये सोच कैसे लिया कि मैं इस कठोर कदम के लिए तैयार हो जाऊंगी? कहीं ये कोई चाल तो नहीं चल रहे है. हो सकता है, ये इस तरह मुझे चरित्रहीन साबित करके मुझसे अलग होना चाहते हो… पर ये ऐसा क्यों करेंगे… जबकि कमी सभवतः इन्हीं में है. और फिर ये मुझ पर पूरी तरह जान भी छिड़कते हैं… पर क्या इस कठोर कदम से मैं स्वय अपनी ही दृष्टि में नहीं गिर जाऊंगी? क्या ये सारी बाते भविष्य में हमारे दांपत्य पर प्रतिकूल असर नहीं डालेंगी? पर यदि मुझे एक बांझ के रूप में नहीं जीना है, तो इसके अलावा और कोई रास्ता भी तो नहीं. पर क्या चेतन इस कदम के लिए तैयार हो जाएगा? और यदि इन १५ दिनों में हम दोनों के बीच वैसा कुछ नहीं हुआ, तो क्या उन्हें विश्वास होगा?
स्वयं से सवाल जवाब करते-करते न जाने कब थोड़ी देर के लिए आंख लग गई. जब आंख खुली, तब मन-मस्तिष्क ने अतीत के पन्नों को पलटना शुरू कर दिया.
५ साल पहले मेरी शादी दिल्ली में प्रभात से हुई थी. प्रभात का मुंबई में गारमेंट्स का इम्पोर्ट एक्सपोर्ट का काम था. शादी के बाद मैं कुछ महीनों तक दिल्ली अपनी ससुराल में रही. फिर प्रभात मुझे मुंबई ले आए. इन्होंने पहले से ही वर्सोवा में एक सुंदर फ्लैट ले रखा था. हमारी ज़िंदगी बड़े मज़े से कटने लगी. हम दोनों कम से कम तीन साल तक कोई बच्चा नहीं चाहते थे. तीन साल का लंबा समय हंसी-ख़ुशी के साथ न जाने कब पर लगाकर उड़ गया. हमने देश-विदेश के ख़ूब सैर-सपाटे किए. इस दौरान कभी-कभी जब सास-ससुर चेतन के साथ चले आते, तब वे हमसे एक पोता या पोती की इच्छा के बारे में ज़रूर बताते. चेतन से मेरी बहुत अच्छी बनती थी. वह मेरा देवर कम, दोस्त ज़्यादा हो गया था.
तीन साल के बाद हम दोनों को भी एक बच्चे की इच्छा हुई, पर सारी इच्छाओं के बावजूद मैं और एक साल तक गर्भवती न हुई, तो हम दोनों चितित हो उठे. हमने आपस में विचार-विमर्श किया और डॉक्टर के पास गए. सबसे पहले मेरी जांच हुई. जांच रिपोर्ट आने के बाद भीतर चल रहे अंतर्द्वंद्व को संतुष्टि मिली कि मुझमें कोई भी कमी नहीं है, अर्थात् में मां बनने में सक्षम हूं. जबकि प्रभात चिंताग्रस्त हो उठे. उन्हें स्वयं पर संदेह हो गया. उन्होंने अपनी जांच कराने से साफ़ इंकार कर दिया और ये बात मुझे किसी को भी न बताने की सख़्त हिदायत दी.
उसके बाद प्रभात गंभीर व परेशान रहने लगे. मैंने उन्हें एक बार समझाया भी कि आप अपनी भी जांच करा लें. यदि कोई कमी निकली, तो उसे दूर किया जा सकता है. लेकिन ये इस प्रकार तिलमिला उठे थे मानो मैंने इनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. फिर मैंने इस संवेदनशील विषय को उघाड़ने का कभी दुस्साहस नहीं किया. धीरे-धीरे हमारे जीवंत संबंधों में मुर्दनी सी छाने लगी. इसी तरह एक साल और गुज़र गया. अब तो जब भी कोई इनसे बच्चे के बारे में सवाल करता ये बौखला जाते. मानो इनकी चोरी पकड़ी गई हो. आख़िरकार थककर वे इस समस्या का हल ढूंढ़ने में गंभीरता से लग गए.


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अचानक कॉलबेल बज उठी, तो मैं अतीत से वर्तमान में आ गई. मैंने उठकर दरवाज़ा खोला. सामने चेतन को मुस्कुराते देख दिल ज़ोरों से धड़कने लगा.
"नमस्ते भाभी." चेतन अंदर आकर दीवान पर बैठ गया, "कैसी हो, भइया कैसे हैं?"
"सब ठीक है. वे १५ दिनों के लिए आज ही न्यूयॉर्क गए हैं."
"भइया भी बिल्कुल भोले हैं भाभी. अरे, उन्हें तो मुझसे डरना चाहिए. सोचना चाहिए कि चेतन स्मार्ट है, फ्लर्ट है… है न भाभी…" चेतन हंसा तो मैं धीरे से मुस्कुरा दी.
शाम को हम दोनों घूमने निकल पड़े. फिर तो ये सिलसिला सा बन गया. देर रात तक हम मुंबई घूमते, होटलों में डिनर लेते, फिर अपने-अपने कमरे में आकर सो जाते. कभी-कभी पल दो पल के लिए ही मेरा झुकाव चेतन की ओर होता, पर अगले पल ही मेरी अंतरात्मा मुझे झकझोर कर वापस खींच लाती.
चेतन मेरे चंचल स्वभाव से भली-भांति वाक़िफ था, पर इस बार उसे मेरी ख़ामोशी विचलित किए दे रही थी. कई बार वह इसका कारण चाहकर भी न जान सका, पर जब मेरी ख़ामोशी उसके लिए असहनीय हो गई, तब उसने मुझे प्रभात की क़सम दे दी. मुझे उसे सच्चाई बतानी पड़ी. सब कुछ जानने के बाद उसके मस्तिष्क पर सन्नाटा छा गया. मैं मुंह फेरकर सिसकने लगी. अचानक चेतन के इस सवाल ने मुझे चौंका दिया, "इस बारे में तुमने क्या फ़ैसला किया है?"
"मैं क्या फ़ैसला करूं? मैं तो इस वक़्त उस दो राहे पर खड़ी हूं, जहां से एक रास्ताक्षगहरी खाई की ओर और दूसरा रास्ता अंधे कुएं की ओर जाता है. मैं जाऊं तो कहां जाऊ?"
"एक तीसरा रास्ता भी है भाभी. आप दोनों चाहें, तो अनाथालय से एक बच्चा गोद ले सकते हैं."
"पर वो ऐसा नहीं चाहते. चाहती तो मैं भी नहीं!"


"भाभी, तुम भइया को समझाओं कि वह तो चाहते हैं, यह बिल्कुल अनुचित है. इस कदम से तुम ख़ुद अपनी ही नज़रों में गिर जाओगी और उन्हें भी आजीवन ये एहसास कचोटता रहेगा कि वे बच्चे के असली पिता नहीं है और मां बनने के लिए तुमने किसी गैर पुरुष का सहारा लिया है. भविष्य में ये बातें आप दोनों के दांपत्य को तबाह भी कर सकती हैं, इसलिए मेरी मानो तो आप दोनों किसी अनाथालय से एक बच्चा गोद ले लो. वैसे मुझे इस बात का बहुत दुख है कि भइया ने मेरे और तुम्हारे बारे में इतनी घृणित बात कैसे सोच ली. काश, उन्हें ये एहसास होता कि में तुम्हें सिर्फ भाभी नहीं, मां समान भी समझता हूं."
चेतन के शब्दों ने मुझे ग्लानीवश पुनः रोने पर बाध्य कर दिया.
धीरे-धीरे १५ दिन गुज़र गए. प्रभात न्यूयॉर्क से लौट आए. उनके आने के एक दिन बाद चेतन दिल्ली लौट गया. चेतन के जाने के बाद हम सामान्य रूप से रहने लगे. उनके व्यवहार से ऐसा लग रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो. मैंने अवसर देखकर उस चिट्ठी के बारे में ज़िक्र करना चाहा कि वे जैसा लिखकर गए थे वैसा कुछ नहीं हुआ. पर ये कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे, शायद इन्हें ग्लानी हो रही थी.
अचानक अगले महीने मुझे एक दिन दो-तीन उल्टियां हुईं और कई बार ज़ोरो से चक्कर आया. इन्होंने फौरन डॉक्टर बुलवा लिया. मुझे देखने के बाद डॉक्टर ने जो कुछ कहा, उससे ऐसा लगा जैसे मेरे ऊपर कोई ख़ुशियों भरा बम फट पड़ा हो. मैं गर्भवती थी. ऐसे समय पर गर्भवती होने का इत्तेफाक मेरी समझ में नहीं आ रहा था.
ये भी ऊपर से तो ख़ुश दिख रहे थे, पर अंदर से संशय से घिरे हुए थे. मैंने उनके संशय को शीघ्र ही दूर कर देना ठीक समझा और एकांत मिलते ही इनका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा "अगर आप ये समझ रहे है कि मेरे गर्भ में जो अंश है, उसकी वजह कोई और है तो ये आपकी भूल है. इस अस्तित्व के जन्मदाता आप ही है. चेतन व मेरे दरमियान वैसा कुछ नहीं हुआ. और फिर आपने ये सोच भी केसे लिया कि मैं मातृत्व सुख के लिए अपनी पवित्रता और पतिव्रता को दांव पर लगा सकती हूं."
"भला तुम्हें सफ़ाई देने की क्या ज़रूरत है. इसके लिए तो तुम्हें मैंने स्वयं ही प्रेरित किया था."
"पर सच्चाई तो यही है कि मेरे गर्भ में पल रहा अस्तित्व आपका ही है."
"और उसे अभी ही अस्तित्व में आना चा. है न." ये व्यंग्य से मुस्कुरा दिए, "अच्छा इत्तेफ़ाक है."
"हां, इस इत्तेफ़ाक पर मुझे भी घोर आश्चर्य है, पर ये इत्तेफ़ाक ही है और कुछ नहीं."
"बकवास कर रहीं हो तुम." अचानक इनका स्वर तेज हो गया.


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"इस तरह तुम शायद ये साबित करना चाहती हो कि तुमने गर्भवती होने के लिए कोई अनुचित कार्य नहीं किया. साथ ही मेरी कमी को जानते हुए भी उस पर ज़बर्दस्ती पर्दा डालने का एहसान मुझ पर करना चाहती हो."
"मुझे दुख है कि आपके मन-मस्तिष्क में हीनभावना घर कर गई है और ये सब उसी की उपज है. आपके मन में यह हीनभावना घर कर गई है कि आप अधूरे पुरुष है."
"इसमें ग़लत ही क्या है? अगर सक्षम होता तो क्या? दो साल कम होते हैं, जिसके दौरान हमने लाख चाहा, पर तुम गर्भवती नहीं हुई."
"आप ये क्यों भूलते हैं कि आपने अभी तक अपना चेकअप नहीं करवाया, हो सकता है हम दोनों की कुछ कमियां रही हो, जो इन दो वर्षों में स्वतः ही दूर हो गई हो या…"
"पर ये इत्तेफ़ाक कभी भी मेरे गले नहीं उतर सकता, देखो अरु… मैं तुम्हें दोषी नहीं ठहरा रहा. मैं तुम्हारे बच्चे को अपना ही नाम दूंगा, बस तुम ये मान लो कि इसका बाप मैं नहीं, चेतन है. अगर तुम इसे स्वीकार कर लोगी तो मैं कभी इस बात का ज़िक्र तक नहीं करूंगा."
"पर जो असत्य है, उसे में कैसे स्वीकार कर लूं. तुम.. तुम ज़बरदस्ती मुझे दोषी ठहरा रहे हो. प्रभात हीनभावना से तुम्हारा विवेक खो गया है. मैं सतयुग की सीता तो नहीं. जो अग्निपरीक्षा दे सकूंगी. पर सच्चाई क्या है ये तुम अपने भाई से भी पूछ सकते हो."
"इसकी ज़रूरत भी क्या है, जब सच्चाई सामने है. उसके १५ दिन यहां रहने के बाद ही तुम गर्भवती हुई. क्या इससे भी बड़ा कोई सबूत है?"
वक़्त गुजरने लगा. हमारे बीच ये विवाद तूल पकड़ता गया, जो दीमक की भांति हमारे दांपत्य को चाटने लगा. ये अब जब भी दफ़्तर से आते अलग कमरे में जाकर सो जाते और मैं रातभर तन्हाई में करवटें बदलती रहती . सुबह ये देर से उठते और जल्दी ही ऑफिस के लिए रवाना हो जाते.
डॉक्टर ने मुझे तनावग्रस्त रहने की बजाय ख़ुश रहने की हिदायत दी थी, ताकि बच्चे पर इसका प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. पर मैं तो दिन-ब-दिन अधिक तनावग्रस्त होती जा रही थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है? कैसे इनके दिलोंदिमाग़ से हीनभावना और शक का ज़हर निकाला जा सकता है?
धीरे-धीरे जब इनकी बेरुखी की पीड़ा असहनीय हो गई, तब एक दिन इन्हें ऑफिस जाते वक़्त मैंने रोक लिया, "आख़िर इस तरह कैसे और कब तक चलेगा? क्यों बेवजह मुझे और स्वयं को सज़ा दे रहे हो. क्या हो गया है आपको? क्यों अपने ही हाथों अपना बसा बसाया आशियाना उजाड़ना चाहते हो? ये कैसी हीनभावना है, जो आपको अपनी ही वास्तविकता से दूर किए जा रही है." काफ़ी देर तक मैं सिसकती रही और ये शून्य में निहारते रहे. फिर न जाने किस भावना से वशीभूत होकर इन्होंने मुझसे कहा, "सुनो, तुम दिल्ली चली जाओ. तुम्हें वैसे भी अब देखभाल की ज़रूरत है. वहां सभी लोग हैं. मां सुनेंगी, तो तुम्हें यहां रहने भी नहीं
देंगी."
"और आप… आप यहां अकेले रहेंगे?"
"मैं रह लूंगा…" कहते कहते पुनः इनका स्वर भर्राया था.
मैं न चाहते हुए भी दिल्ली आ गई, सास-ससुर, देवर-ननद सभी ने पलकों पर बिठाया था. मैं जैसे सभी की आशाओं का दीप बन बैठी. चेतन ने मुझसे एक साथ कई सवाल कर डाले, जिसके जवाब में मुझे सब कुछ बताना पड़ा था. सुनकर उसके कोमल हृदय को गहरी ठेस लगी थी. एक समय तो उसने मुझसे यहां तक कह दिया कि मैं भझ्या को सच्चाई बताकर रहूंगा, पर मैंने उसे मना कर दिया.
फिर वो दिन भी आ गया जब मुझे मातृत्व सुख मिला. मेरा हृदय तृप्त हो गया, पर इनकी अनुपस्थिति हृदय के एक कोने में टीस बनकर चुभ रही थी. बच्चा बिल्कुल इन पर गया था. सास का कहना था कि जब ये पैदा हुए थे, तब बिल्कुल ऐसे ही थे. मैं भी इस बात से काफ़ी आश्वस्त थी. मानो वह मेरी पवित्रता का सबसे जीवंत परिचायक. घर के लोगों ने फोन पर इन्हें ये ख़ुशख़बरी दी, पर ये बिज़नेस का बहाना बनाकर नहीं आए. मैं रो पड़ी. मेरी पीड़ा चेतन से देखी नहीं गई, तो वह मुझसे इन्हें साथ लेकर आने का वादा कर मुंबई रवाना हो‌ गया.
दो दिन बाद जब वह आया, तब वह अकेला और बिल्कुल टूटा हुआ प्रतीत हो रहा था. वह मेरे समीप बैठकर रो पड़ा, "भाभी, न जाने वह कौन सी मनहूस घड़ी थी, जब मैं मुंबई गया था. न मैं मुंबई आपके पास जाता, न भइया आपकी पवित्रता पर संदेह करते. भइया बहुत ज़िद्दी हैं भाभी, लेकिन मैंने भी उन्हें साफ़-साफ़ सब कुछ कह दिया है कि अगर उनमें ज़रा सी भी गैरत होगी, तो वे आएंगे, ज़रूर आएंगे.
तीन दिन बाद ही ये आ गए. इनके आने की ख़बर से मेरा दिल एकबारगी धड़क उठा था. जब ये मेरे कमरे में आए, तो इनकी स्थिति देखकर मेरा कलेजा मुंह को आ गया. काफ़ी कमज़ोर हो गए थे और चेहरे से बिल्कुल विचलित लग रहे थे.
ये पालने में सोए बच्चे को काफ़ी देर तक देखते रहे. इनके चेहरे पर कई रंग आते और चले जाते. फिर इनके चेहरे की उदासी मुस्कान में तब्दील होने लगी और बरबस ही इन्होंने बच्चे को उठाकर सीने से लगा लिया. "देखा प्रभात बेटे." मांजी ने पीछे से आते हुए कहा, "मेरा पोता हुबहु तुम पर गया है. जब तू छोटा था, तब बिल्कुल ऐसा था."
इन्होंने स्वीकृति में सिर हिलाते हुए चेहरा ऊपर उठाकर पलकें भींच लीं. आंसुओं की दो बूंदें गालों पर छलक पड़ीं.


मेरे समीप बैठकर ये फफक उठे, "अरु… मुझे माफ़ कर दो. मैं भटक गया था. हीनभावना का शिकार हो गया था मैं. पागल हो गया था, जो तुम पर संदेह किया… काश! मैं पहले ही अपनी जांच करा लेता, पर मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही थी. तुम्हारी जांच के बाद मुझे अपने आप पर संदेह हो गया था. और ये यक़ीन भी कि मैं पिता बनने में अक्षम हूं, लेकिन परसो मैंने अपनी जांच कराई तो पता चला कि मुझमें कोई कमी नहीं है. डॉक्टर के अनुसार ऐसा कभी-कभी हो जाता है कि पति-पत्नी की इच्छा के बावजूद सालों साल कोई बच्चा नहीं होता. इसके कई कारण हो सकते हैं और इत्तेफ़ाक भी. मैंने तुम्हें बहुत दुख दिया है अरु, एक बार माफ़ कर दो अरु… अब मैं तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं दूंगा."
मेरी गोद में सिर रखकर ये बच्चों की भांति बिलखने लगे.

- अनिल गुप्ता

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