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कहानी- हाथ की लकीरें (Short Story- Hath Ki Lakiren)

"नहीं, मुझ में इतनी हिम्मत ही नहीं. न जाने पिताजी मेरी बात पर विश्वास करें या न करें. इसका कुछ और ही निष्कर्ष निकाल लें. वे मुझे ही अपराधी कहने लगे और मैं उनकी नज़रों में गिर जाऊं.”
"परन्तु तुम्हारे माता-पिता को भी तो अपनी समस्या का समाधान करना है. जब तक यह नहीं होगा, वो तो तुम्हें अशुभ ही कहेंगे." मैंने कहा.

गुंजन हमारे मोहल्ले की सबसे सुंदर लड़की है. मैं उसकी बोली की मिठास, उसके लहकते-बहकते बदन और सूर्य की किरणों में नहा रहे उसके यौवन का वर्णन करके आपकी पत्रिका का एक पन्ना भरना नहीं चाहता, क्योंकि गुंजन के बारे में कहने को और भी बहुत कुछ है.
हां, इतना अवश्य कहूंगा कि इस लड़की ने मुझे डस सा लिया है और यह इसी का प्रभाव है कि जाड़ा हो या गर्मी, वर्षा हो या पतझड़, मेरा यही प्रयास रहता है कि मैं समाचार पत्र देखने, फूलों को पानी देने या किसी और
काम से प्रातः सात बजे अपने द्वार पर खड़ा रहूं, जब गुंजन उधर से गुज़रती है. जिस दिन इस क्रिया में विघ्न पड़ जाए, उस दिन दफ़्तर में बैठे-बैठे मुझे यूं अनुभव होता है, मानो‌अफीम के आदी किसी व्यक्ति ने उस रोज़ गोली न खाई हो. हालांकि मुझे उस युवती से कुछ लेना-देना नहीं है. बस एक मानसिक लगाव सा हो गया है.
प्रातः सात बजे जब वह लम्बी डोरी वाला चमड़े का बैग कंधे से लटकाए साड़ी की सिलवटें ठीक करती और अपने घुंघराले केशों को कन्धे पर झटकती बस पकड़ने के लिए मेरे मकान के सामने से गुज़रती है, तो मानो एक छोटा भूचाल सा आ जाता है. संभव है कि गली के और लोग भी उस समय अपनी खिड़कियों से चोरी-छिपे उसे देखते हों, किन्तु बहुत से लोग ऐसी बातें छिपाए रखते हैं, जो मैंने आपसे कह दी है.
गुंजन एक पब्लिक स्कूल में टीचर है. स्कूल की बस निश्चित समय पर जाती है. एक बात जो मैं समझ नहीं पाया, वह यह है कि इस आयु में तो यौवन ही यौवन का श्रृंगार होता है. फिर उसे इतना बन-संवर कर निकलने की क्या आवश्यकता है. प्रत्येक दिन एक नया रंग जूते से बिंदिया तक उसे घेरे रहता है. प्रत्येक फूल को अपनी सुगन्ध तथा सुंदरता के प्रदर्शन का पूरा अधिकार है, इसलिए किसी को गुंजन के बन-सेवर कर निकलने पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती. और यह बात भी है कि यदि अजीब सी भौंडी शक्ले, उलटे-सीधे चेहरे, नाना प्रकार की केश और वेशभूषा में दिनभर वातावरण को दूषित करते रहते हैं, तो गुंजन की अदाओं, उसकी इस चाल पर तो कोई आपत्ति होनी ही नहीं चाहिए, बल्कि प्रसन्नता होनी चाहिए.
गुंजन से मेरा कोई निजी परिचय नहीं है. संभव है, वह मुझे जानती हो, क्योंकि उसके पिता दीनानाथ जानते हैं कि मैं कोयला मंत्रालय में काम करता हूं. दीनानाथ का ईंटों का व्यापार है. एक बार मेरी कोशिश से उन्हें कोयले की एक गाड़ी का परमिट उस समय मिला था, जब उन्हें कोयले की बड़ी आवश्यकता थी. उनके भट्ठे लगे हुए थे, वर्षा आनेवाली थी और कोयला न मिलता, तो उनका व्यापार चौपट हो जाता. कुछ दिनों के पश्चात् दीनानाथ और उनकी पत्नी शान्ता मेरा धन्यवाद करने के लिए हमारे घर आए थे. कुछ मिठाई और फल दे गए थे.
उस दिन शान्ता मुझसे बहुत प्रभावित हुई थी. बेशक़ उसकी मेरी पत्नी से अच्छी जान-पहचान थी, किन्तु उस दिन वह मेरे पास भी कुछ देर बैठी रही. संयोग ऐसा हुआ कि उस समय मैं हस्तरेखा की एक किताब देख रहा था. शान्ता पुस्तक में बने हाथ के चित्रों को देखकर कहने लगी, "भाईसाहब, क्या आपको हस्त रेखाओं
का भी ज्ञान है?"


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"यूं ही थोड़ी-बहुत जानकारी किताबें देखते-देखते हो गई है."
"आप किसी दिन इनका हाथ भी देखे. क्या कारण है कि लगातार चार वर्ष से इन्हें व्यापार में घाटा पड़ रहा है. हम तो गुंजन के हाथ भी पीले नहीं कर पा रहे."
मैंने पुस्तक रख दी और कहा, "शान्ताजी, इन किताबों में क्या रखा है. मनुष्य का भाग्य उसकी मु‌ट्ठी में होता है, लकीरों में नहीं."
"नही भाईसाहब, मैं आपसे सहमत नहीं."
दीनानाथ कह रहे थे, "मनुष्य का कार्य तो कर्त्तव्य करते जमा है, किन्तु जब प्रत्येक कदम ही उल्टा पड़े एवं प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया उल्टी हो जाए, तो वह इसे भाग्य कहने पर विवश हो जाता है. यदि इस बार भी आप कोयला न दिलवाते तो हमारा भट्ठा बैठ गया होता और हम मकान बेचने पर मजबूर हो जाते."
इस भेट के पश्चात् दीनानाथ और शान्ता से हमारी जान-पहचान बढ़ती गई. मैंने कई बार शान्ता को गली में अपनी पत्नी के साथ बातें करते हुए देखा, किन्तु मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन गुंजन भी हमारे यहां आएगी.
रविवार का दिन था. मैं कुछ फ़ाइलें काम करने के लिए घर ले आया था. खिड़की खोले इन फ़ाइलों पर काम कर रहा था कि मेरी पत्नी गुंजन को साथ लिए मेरे पास आई और कहने लगी, "आप नित ऊटपटांग प्रकार के लोगों के हाथ देखते रहते हैं. आज गुंजन का हाथ भी देखिए. आज प्रातः शान्ता जी मन्दिर में मुझे मिली थीं. बेचारी बहुत परेशान दिखाई देती थीं. कहने लगीं, आप भाई साहब से कहें- गुंजन का हाथ भी देखें. संभव है, कुछ पता चले कि भगवान मेरी प्रार्थना कब स्वीकर करेंगे?"
गुंजन अपनी गुलाब की पंखुड़ी जैसी हथेली मेरे सामने रखी मेज़ पर खोले बैठी थी, जिसे मैं हाथ लगाने से झिझक रहा था. उसकी आंखें मधुशालाएं सी दिखाई दे रही थीं, जिनमें न जाने कितने भावुक लोग डूब चुके होंगे. मेज़ पर रखें चाय के प्यालों में से भाप उठ रही थी. गुंजन के सीने में भी कुछ ऐसी ही भाप उठने का गुमान हो रहा था, क्योंकि उसके नयनों के गुलाबी गुलाबी किनारे भीगते हुए दिखाई दे रहे थे. मैं हाथ देखने का शीशा उसकी हथेली पर घुमाता हुआ लकीरों के जंगल में खो सा गया था. गुंजन चाय नहीं पी रही थी. चुप बैठी थी.
मैं मन ही मन में सोच रहा था कि गुंजन जैसी सुन्दर युवती को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. ईश्वर ने उसे सब कुछ दे रखा है. रही शादी की बात, सो ऐसी लड़की को ग्रहण करने के लिए तो लोग कतार बांधे खड़े होने चाहिए. वह खाते-पीते घराने से संबंध रखती है. हथेली पर दिल-दिमाग़, आयु, स्वास्थ और भाग्य की लकरि बहुत अच्छी है. सूर्य के उभार पर लकीर, जिससे भाग्य चमकता है, और भी सुन्दर है. बुध, बृहस्पति, के उभार बहुत अच्छे हैं. शनि का उभार भी दबा हुआ है और उससे होती हुई कोई रेखा दिमाग़, दिल या जीवन रेखा से भी नहीं टकराती. मस्तिष्क की लकीर भी न कहीं टूटी है न वीनस के उभार पर गई है, जो इस लड़की के लिए कोई समस्या खड़ी हो. फिर इसके माता-पिता इसके लिए परेशान क्यों हैं, इसलिए मैंने गुंजन से पूछना ही उचित समझा.
"गुंजन तुम ही कहो, समस्या क्या है?" वह कुछ मुस्कुराई और कहने लगी,
"अंकल, कोई विशेष बात तो नहीं है. यह बताएं कि मेरे घर के लोग मुझे अशुभ या मनहूस क्यों समझते हैं? गत तीन-चार वर्षों से तो मैं मानो इस घर पर बोझ बन गई हूं, जिसे वे कहीं न कहीं उतारना चाहते हैं. मेरे पिता तो यह समझने लगे हैं कि उनको जो भी कठिनाई आ रही है, वह मेरे कारण ही है."

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"नहीं गुंजन, तुम्हारे हाथ की लकीरों में तो ऐसी कोई बात दिखाई नहीं देती. तुम जहां भी जाती हो, तुम्हें मान-सम्मान मिलता होगा. लोग तुम्हारी ओर झुकते होंगे. तुम्हारे मित्र अधिक और शत्रु शायद ही कोई हो. नेकी और नेकदिली तुम्हारे स्वभाव में है. जीवन के आरंभ से अन्त तक तुम्हें कोई आर्थिक कठिनाई नहीं आएगी, इसलिए मैं समझ नहीं सका कि दीनानाथ और शान्ता बहन तुम्हें अशुभ क्यों समझते हैं?"
"शायद इस कारण कि मैं २५ वर्ष की हो चुकी हूं और अभी मेरी शादी नहीं हो पाई."
"किन्तु तुम्हारे हाथ में तो ऐसा कोई संकेत नहीं, जिससे पता चले कि तुम्हारी शादी में कोई विघ्न पड़ सकता है."
"इसका एक कारण हो सकता है अंकल कि मेरे माता-पिता जिस प्रकार से मेरी शादी करना चाहते हैं, उस प्रकार के साधन उनके पास नहीं है. जैसा दूल्हा वे चाहते हैं, वैसा उन्हें मिल नहीं रहा. गत कुछ वर्षों से पिताजी के साधन बढ़ने की अपेक्षा कम हुए हैं और जिस प्रकार की शादी मै चाहती हूं, वह संभव नहीं हो रही."
"तुम किस प्रकार की शादी चाहती हो?" मैंने पूछा.
"दौलत की नहीं, दिल की."
मैंने शीशा उठा कर फिर गुंजन की हथेली की छानबीन की. सभी रेखाएं और उभार ठीक थे. किन्तु सकारात्मक और नकारात्मक मंगल के दोनों उभार बहुत ही चपटे थे. और सकारात्मक मंगल के स्थान पर तो मानो एक गड्‌ढा सा बना हुआ था, जिस का अर्थ था कि इस लड़की में न प्रहार का साहस है और न अपना बचाव कर सकती है. शायद उसने इसी वजह से मार खाई है, इसलिए मैंने गुंजन से कहा, "यूं प्रतीत होता है, मानो तुमसे धोखा होता रहा है, जिसे तुम रोक नहीं सकी और न ही तुममें उसे बताने का साहस है. तुम्हारी यदि कोई समस्या है, तो यही उसका मुख्य कारण है. नहीं तो तुम्हारे हाथ में मुझे कोई अन्य त्रुटि दिखाई नहीं दी."
गुंजन ने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया. हां, उसकी धुली-धुली आंखों से आंसू अपनी कहानी कहने के लिए उसके गालों पर बह निकले. वह कुछ कहना चाहती थी, किन्तु होंठ कंपकंपा रहे थे. ज़ुबान में बोलने का साहस नहीं था. मैंने उससे कहा कि वह पहले चाय पी ले, फिर बात करेंगे.
कुछ क्षण के पश्चात् उसके मस्तिष्क पर छाए हुए बादल उसके नयनों द्वारा बरस कर चले गए थे. पलकें अभी भी भीगी हुई थीं, किन्तु सीने का ज्वार-भाटा थम गया था. मैंने कहा, "गुंजन, साहस से काम लो. जो कुछ तुम्हारे मस्तिष्क में है, उसे थूक दो. सीने में भरा विष उगल देने से तुम्हें राहत मिलेगी और यदि यह कोई भेद है, तो सच जानों कि वह कभी तुम्हारे माता-पिता तक नहीं पहुंचेगा."
गुंजन ने अपने कंधों पर बिखरे बालों में उंगलियों से कंघी की और धीरे-धीरे किसी लिपटे हुए फीते की भांति खुलने लगी.

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"कुमार अंकल, वैसे कोई समस्या तो नहीं है. मेरी एक आधा भूल से अड़चन अवश्य उत्पन्न हुई है. एक लड़का भूषण बी.एड में मेरा सहपाठी था. वह मेरे बहुत निकट आ गया था. मुझे भी उसमें कोई कमी दिखाई नहीं दी थी. सिवाय इसके कि वह किसी धनी बाप का बेटा नहीं था.
मैंने सोचा था कि यदि मेरे माता-पिता ने कभी मेरी पसन्द पूछी, तो मैं भूषण का नाम ही लूंगी.
परीक्षा के दिनों में उसकी मां बीमार हो गई, जिसके ऑपरेशन के लिए उन लोगों के पास पैसा नहीं था. उसने मुझ से सहायता मांगी और मैंने भूषण से अपनी निष्ठा प्रकट करने के लिए उसे दो बार पन्द्रह-पन्द्रह हजार रुपाए दे दिए, यह राशि वह थी, जो मैंने जमा कर रखी थी. किन्तु न भूषण को माता बच सकी और न उसने मुझे वह राशि लौटाई. यहां तक कि वह कॉलेज छोड़ कर ही चला गया.


मेरे माता-पिता को पता था कि मेरे पास कितना पैसा है, किन्तु मैं उन्हें कुछ बता नहीं सकती थी. इस कमी को पूरा करने के लिए मैंने परीक्षा के पश्चात् नौकरी कर ली, ताकि अपने खाते में कुछ जमा करके अपने भेद को छिपाए रख सकूं. इस बीच मां ने दो-तीन लड़के बताए, जो बहुत अमीर परिवारों से थे. किन्तु वह व्यापारी क़िस्म के लोग थे, जिन्हें शिक्षा, ज्ञान तथा सुन्दरता से अधिक लेन-देन में रुचि थी. माताजी मुझ से प्रत्येक बार पूछतीं, "गुंजन, तीस-चालीस हज़ार तो तुम्हारे खाते में भी होंगे."
और मैं हर बार उस लड़के को ही ना पसन्द कर देती.
"तो इसका अर्थ यह है गुंजन कि तुमने अपनी भूल को छिपाने के लिए अपना भविष्य ही ख़राब कर लिया."
"अंकल, मुझ में ज़ुबान खोलने का साहस ही नहीं था. इसके साथ मन में अभी तक आशा की डोर लटक रही थी कि संभव है, भूषण जब मुंह दिखाने योग्य हो जाए, तो यहां लौट आएगा. वह तो मुझ पर एक भंवरे की भांति मंडराया करता था. यह तो अभी तक नहीं हो पाया है, इस बीच एक और विस्फोट हो गया."
"वह क्या? क्या उसका भी तुम्हारे माता-पिता को पता नहीं?"
"थोड़ा-बहुत पता है. मेरे स्कूल की प्रिसिंपल श्रीमती नय्यर का भाई रंजन मध्य प्रदेश में फॉरेस्ट ऑफिसर है. एक दिन वह स्कूल आया. मेरी ओर देखता रहा. फिर वह रोज़ ही स्कूल आने लगा. मुझे उसकी नज़रों में वासना के तीर से तैरते दिखाई देते थे. मुझे उसके सामने खड़े होने में बहुत संकोच होता था. किन्तु वह तो अपनी बहन से मिलने आता था और किसी न किसी बहाने बाहर या बहन के कार्यालय में मुझ से बातें करने का प्रयत्न करता था.
एक दिन श्रीमती नय्यर के बेटे का जन्मदिन था. उन्होंने मुझे भी बुलाया था. रंजन भी वहीं आया हुआ था और पार्टी का प्रबन्ध कर रहा था. वह फिर मेरी ओर ही देखे चला जा रहा था. अन्य अतिथियों के सामने मुझे बहुत बुरा लग रहा था. किन्तु वह मेरी ओर ही देखता चला जा रहा था. मैं ऊब कर मुंह-हाथ धोने के बहाने दूसरे कमरे में चली गई. कुछ देर के पश्चात् वह वहां भी आ गया और कहने‌ लगा.
"गुंजन, तुम गुंजन हो और मैं तुम्हारा भंवरा हूं. गुंजन को कोई भंवरे से जुदा नहीं कर सकता. मैंने केवल तुम्हें पाने के लिए एक मास की और छु‌ट्टी ले ली है. मैं तुम्हारे माता-पिता से मिलना चाहता हूं."
"किन्तु मेरा शादी का कोई विचार नहीं है."
"परन्तु मेरा तो हैं." उसने द्वार बंद करते हुए कहा. फिर मेरे दोनों हाथ पकड़ कर चूम लिए मैंने हाथ छुड़ाए, तो उसने मेरी बांहें मरोड़ दीं. मैंने भागना चाहा, तो उसने मेरी साड़ी खींच ली. मेरा ब्लाउज़ फट गया. इसी संघर्ष में एक
ड्रेसिंग टेबल उलट गई, खिड़की का शीशा टूट गया. श्रीमती नय्यर भागी-भागी आईं और बोलीं, "रंजन, यह क्या हो रहा है?"
"कुछ नहीं. गुंजन से कुछ प्यार हो रहा."
मैं कुछ नहीं कह सकी और साड़ी उठाकर बांधने लगी. श्रीमती नय्यर बोलीं, "प्यार बाद में होता रहेगा. पहले मेहमानों का स्वागत तो कर लो."
मैं कुछ नहीं कह सकी. इसी परेशानी की अवस्था में बाहर निकल कर टैक्सी पकडी और घर चली आई.
एक सप्ताह के पश्चात् श्रीमती नय्यर अपने भाई को साथ लेकर मेरे माता-पिता से मिलीं. उन्होंने कहा, "आपकी गुंजन और मेरा भाई रंजन एक-दूसरे से प्यार करते हैं. मेरा भाई फॉरेस्ट ऑफिसर है. गुंजन को अपने बागों की रानी बना देगा, हमारे पास किसी प्रकार की कमी नहीं है और न हमें लड़की के अतिरिक्त कुछ और चाहिए, हम केवल गुंजन चाहते है."


मेरे माता-पिता ने इस प्रस्ताव के विषय में मुझसे पूछा, तो मैंने स्पष्ट कह दिया," मैं इसके साथ शादी करना नहीं चाहती और न ही मुझे उससे कोई लगाव है. वह कुछ दिनों से स्कूल में अवश्य आ रहा है, किन्तु इसका मतलब यह तो नहीं कि वह मुझ पर प्यार का आरोप लगा दे. मैं वहां पढ़ाने जाती हूं, प्यार करने नहीं."
मेरे माता-पिता ने मुझ पर बहुत बल दिया कि लड़का जवान है, सुन्दर है, अमीर है, इतना बड़ा अधिकारी है, माननीय परिवार का सदस्य है, घर की ज़मीन-जायदाद है… इससे अच्छा लड़का हमें और कहां मिलेगा? और सबसे बढ़ कर यह कि लड़केवाले रिश्ता मांग रहे. अधिक लेना-देना भी नहीं होगा. परन्तु मैंने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया. मुझे तो उन लोगों से घृणा सी हो गई थी.
एक सप्ताह के पश्चात् मुझे एक और पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई और मैंने वह स्कूल ही छोड़ दिया."
"क्या तुमने दीनानाथ को उस घटना के बारे में नहीं बताया?"
"नहीं, मुझ में इतनी हिम्मत ही नहीं. न जाने पिताजी मेरी बात पर विश्वास करें या न करें. इसका कुछ और ही निष्कर्ष निकाल लें. वे मुझे ही अपराधी कहने लगे और मैं उनकी नज़रों में गिर जाऊं.”
"परन्तु तुम्हारे माता-पिता को भी तो अपनी समस्या का समाधान करना है. जब तक यह नहीं होगा, वो तो तुम्हें अशुभ ही कहेंगे." मैंने कहा.
"इसीलिए तो आप के सामने हाथ फैलाकर बैठी हूं. आजकल रंजन फिर छु‌ट्टी पर आया हुआ है. मेरे माता-पिता पर फिर दबाव डाला जा रहा है. हमारे किसी भी रिश्तेदार को इस संबंध में कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती. सभी को लड़का और घर-बार पसंद है. सब मेरी ओर ही देख रहे हैं. मानो मैं कोई अशुभ छाया हूं, जिससे वह जितना जल्दी संभव हो, छुटकारा पाना चाहते हैं. आप मुझे यह बताएं कि क्या मेरे भाग्य में कोई भला मनुष्य है या मुझे अपनी गर्दन इस कुत्ते के सामने ही रखनी पड़ेगी?"
गुंजन चली गई है. मेरी पत्नी खाली प्याले उठाकर ले गई है और मैं फाइलों पर नज़रें घुमाता हुआ सोच रहा हूं कि क्या सब कुछ रेखाओं पर ही छोड़ दिया जाए?
रेखाएं रास्ते हैं मंज़िल तो नहीं.

- एम. के. महताब

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