"… आज जब शादी के बाद सोम पैदा हुआ है, तो सब तुम्हारा ही है, उस पर मेरा ज़रा सा भी हक़ नहीं रहा. वाह! शादी से पहले हो तो औरत का है और शादी के बाद हो तो पुरुष का हो गया. उस पर औरत का हक़ ही नहीं रहा, जबकि पैदा दोनों को उसी ने किया. दोनों बार वही तकलीफ़ें झेलीं, वही शारीरिक-मानसिक दुख-सुख भोगे, वाह रे पुरुष का न्याय."
हादसा!
एक और हादसा!
शायद जिंदगी हादसों से गुजरने का ही नाम है, पर उसी की ज़िंदगी में इतने हादसे क्यों होते हैं?
मन बड़ा कड़वा हो आया. खिड़की के बाहर रात का अंधियारा बिछा हुआ था. परदा हटा दिया था. कंधे से लगा दो साल का नन्हा सोम सिसकी भरता हुआ न जाने कब का सो गया था, पर वह अभी भी उसे थपकी दे रही थी. छह दिन का बिछड़ा सोम इतने दिनों बाद अचानक मां को पाकर ऐसा टूट कर गले लगा और सिसकी भर कर रोया कि अंकिता के आंसू भी उसके आंसुओं में घुलमिल गए. मां का मुंह अपनी दोनों नन्हीं हथेलियों में भर कर इतने उतावलेपन से चूमता रहा कि इतने बड़े तूफ़ान से गुज़र रही अंकिता, सब कुछ भूल कर उसी में लीन हो गई थी. कमरे में घूम-घूम कर गोदी में झुलाकर चुप कराया उसने सोम को.
खिड़की से बाहर काले अंधकार की तरह ही काल उसका गुज़रा कल भी है, वर्तमान है और शायद भविष्य भी? क्या ताउम्र वह पीछे छूट चुके अतीत के गलियारों में ही भटकती रहेगी? उन हादसे को गुज़रे भी ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ, पर लगता है सदियां गुज़र गईं और वह एकदम बुढ़ा गई है. कितनी बड़ी थी तब वह? सारी स्मृति उसकी आंखों से गुज़रने लगीं.
बाऊजी की सरकारी नौकरी थी. हमेशा ट्रांसफर होता रहता. शहर बदलते, घर-कॉलेज बदलते, पड़ोस बदलते. पर इस बार पहली बार को एजुकेशन वाला कॉलेज मिला, जहां हर कदम पर सीटियां सुनाई देतीं, तरह-तरह के फिकरे सुनाई देते.
इसी कॉलेज में एक दिन निशीथ से टक्कर हो गई. दो साल सीनियर था, पर रैगिंग करने वालों से उसने अंकिता को ख़ूब बचाया और फिर बचाने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि दोस्तों में वह निशीथ की ख़ास मित्र की तरह पहचानी जाने लगी. दोस्ती कब प्यार में बदल गई, दोनों को पता ही नहीं चला.
अब कॉलेज जाने का मक़सद सिर्फ़ एक-दूसरे से मिलना भर ही रह गया था. किताबें एक ओर सरका कर एक-दूसरे का हाथ थामे घंटों बतियाते हुए वक़्त कब गुज़र जाता, होश ही नहीं रहता. पार्क का वह झुरमुट सबकी निगाहों की ओट में था. इसलिए वहां घंटों बातें होती रहती थीं. माथे पर उड़ आई लटों को संवार देना, गालों पर हाथ फेरना सब चलता था, लेकिन उस दिन निशीथ के हाथ उसे जकड़ते गए, कसती हुई गिरफ़्त से छूटने की कोशिश भी की थी उसने, पर गर्म सांसों और लरजते हाथों के आगे धीरे-धीरे रहा-सहा होश भी गंवा बैठी थी. ना-ना करते हुए भी गुनाह के आगे समर्पित होती चली गई थी. किया तो दोनों ने ही था, पर सज़ा उसे मिल गई अगले ही महीने में.
पार्क के जिस झुरमुट में यह गुनाह कर बैठे थे, उसी में सहमते हुए डबडबाई आंखों के साथ उसने निशीथ को सूचना दी थी. पूरा भरोसा था कि वह साथ ज़रूर देगा. पर बात ऐसे पलटेगी, उसे आभास ही नहीं था. वह कहने लगा, "अरे कैसी मॉर्डन लड़की हो? कोई प्रिकॉशन नहीं लिया? एबॉर्शन करा लो, जान छुड़ाओ. अभी तो पढ़ने और मौज-मस्ती के दिन हैं. फिर तो सारी ज़िंदगी कमाने और गृहस्थी चलाने में ही पिस जाएगी."
भौचक्की सी अंकिता उसे ताकती रह गई थी. अस्फुट स्वर में इतना ही कह पाई, "हां, बेवकूफ़ तो हूं ही, मॉडर्न ज़माने की हूं, पर इतनी दूर जाने की नहीं सोच पाई थी."
"फिर भुगतो न अब."
"क्यूं, तुम्हारा कोई भी दोष नहीं?"
"कोई ज़बर्दस्ती तो नहीं की थी और फिर मैं क्यों भुगतूं? और अभी तो मेरी सारी पढ़ाई बाकी है. करियर है. भविष्य है."
"क्या मेरी पढ़ाई, मेरा भविष्य, मेरा करियर कुछ अर्थ नहीं रखते? यह अनचाहा बोझ सिर्फ़ में क्यों ढोऊं?"
"तो फिर निकाल फेंको न." उकताहट भरा स्वर था.
"तो यही तुम्हारा अंतिम निर्णय है? तुम अपना कोई भी दायित्व नहीं लोगे?"
"पैसे की मदद चाहिए तो बोलों देने को तैयार हूं." चौंक कर अंकिता ने सिर उठाया. उसके चेहरे पर अफ़सोस का कोई भाव नहीं था. आंसुओं को निर्ममता से पोंछकर उसने पलट कर कहा, "आपका दिया यह एक दान ही मेरे लिए बहुत है. इसका दायित्व उठाने से तुम पीछे हट सकते हो, पर मैं तो नहीं हट सकती. तुम्हारा फ़ैसला मुझे स्वीकार नहीं, जैसे भी होगा, मैं इस दायित्व को अकेले निभा लूंगी."
और निरुत्तर निशीथ को चुपचाप बैठा छोड़कर वह सदा के लिए उस कुन्ज और निशीथ की दुनिया से बाहर निकल आई थी.
घर में तो कभी न कभी बात खुलनी ही थी. एक आंधी सी उठी थी बंद कमरों में, जहां सिर्फ़ वह थी, मां थी और बाऊजी थे. चुप बैठी वह सुनती रही सब. ना तो अपने फ़ैसले से डिगी, ना ही नाम बताया. क्या फ़ायदा? जो ज़िम्मेदारी लेना ही नहीं चाहता, उस पर थोपने की ज़रूरत भी नहीं. आख़िरकार कॉलेज की पढ़ाई बीच में छुड़ाकर समय से बहुत पहले ही दूर पहाड़ों पर अकेली बसी मां की दूर की विधवा बहन के घर जाकर रहना पड़ा. विधवा का खिताब ओढ़ कर वहीं बच्चे को वहीं विधवा मौसी के पास छोड़कर आना पड़ा.
बाऊजी नए शहर में आ गए थे ट्रान्सफर लेकर, वहीं कुंआरी बन कर आगे की परीक्षाएं पास कर वह बैंक की परीक्षाएं देने लगी. नौकरी करती लड़की की आजकल ज़्यादा डिमा़ड है, यह अनुभवी बाऊजी जानते थे और अपने तगड़े सोर्स से उन्होंने उसे बैंक में अच्छे स्थान पर स्थापित करा दिया. विधिवत घर-वर ढूंढ़ा और सुयोग्य पात्र से फेरे फिरवा दिए गए. वे मुक्त हो गए. रोहित और अंकिता की गृहस्थी सुख से बस गई.
अंकिता ख़ुश थी. उसका अपना घर था, पति था, समाज में सिर उठा कर चलने का वजूद था. मां और बाऊजी ने उसके अतीत के उन पृष्ठों को कसकर बंद कर दिया था और ना खोलने की हज़ारों चेतावनियां दे दी थीं. फिर भी कभी न कभी तो मन पुरानी बातें याद कर व्याकुल हो ही उठता था.
और ऐसे में आया गर्भ में सबकी निगाहों में उसका पहला शिशु, जो था तो दूसरा ही. वही उबकाइयां, वही सिर का भारी होना. पर अबकी बार कितना फ़र्क था. मनुहारों की कमी नहीं थी. दूर बसी सास पास आ गईं. पांचवां महीना लगते ही हर कदम पर सीख देतीं. स्नेह करतीं. डॉक्टर के पास जाने के हर मौक़े पर रोहित साथ होता. फल और टॉनिक ले आता, "तुम आराम करो, नौकरी छोड़ दो. मैं हूं ना." की सिफ़ारिश करता, मम्मीजी भी साथ देतीं, "अरे भई घर बैठो, आराम करो, कहीं घूमो-फिरो, फिर तो छोटे बच्चे के साथ कहीं जाना-आना मुश्किल हो जाएगा. जितनी मौज करनी है, कर लो."
कभी स्टोर रूम में रखे पुराने संदूक खोल अपने ब्याह के कपड़े दिखातीं, धूप लगवातीं, तो कभी चाव से एलबम निकाल लातीं और दूरदराज़ के सभी संबंधियों से जो शादी में आए थे और जो न आ सके थे, उनका परिचय फोटो से ही कराने लगतीं.
"देखो बहू, यह है रोहित. जब दस महीने का था. यह है नंदगोपाल भाईसाहब का बड़ा बेटा संजय और यह रही उनकी छोटी बेटी सुमिता, यह उसका पति निशीथ है. ये बोस्टन में रहते हैं. दो बच्चे हैं. वहीं सेटल हो गए हैं." ठंडी सांस लेकर मम्मी अगला पृष्ठ पलटने लगीं. निशीथ का फोटो देखकर धक्क सी रह गई. अंकिता बाहर आ गई. लेकिन यह सोचकर कि इतनी दूर बसा ब्याहा अब यहां क्या पलट कर आएगा. उसने ख़ुद को सांत्वना दी. रोहित के बार-बार कहने पर भी वह नौकरी करती रही थी. उसकी मनुहार लेने वाले, हर इच्छा को पूरी करने वाले चारों ओर छाए हुए थे. और वह थी कि बेटे को गोद में लेते ही पहले को याद करके फूट-फूट कर रो पड़ी थी. उसे तो जी भर कर देख भी नहीं पाई थी. अब तो शक्ल भी बिसर गई है, "होता है… होता है…" सासू मां ने अनुभवी गर्दन हिलाई थी.
"पहलौठी के बेटे पर ख़ुशी के मारे आंसू निकल ही पड़ते हैं."
धीरे-धीरे अंकिता ने गोद में आए इस दूसरे बेटे के साथ पहले को जीना सीख लिया. इसने अब करवट ली पहली बार तो उसने भी इसी महीने में ली होगी, अब यह घुटने चलने लगा तो उसने भी इन्हीं दिनों में सीखा होगा. पर इसे वो क्या-क्या नहीं खिलाती. कभी जूस, तो कभी दूध-बिस्किट. वह बेचारा तो ये सारे स्वाद जानता भी नहीं होगा. और तब उसके इतने सालों से रुके आंसुओं का बांध टूट जाता.
उसका तो वह कुछ भी नहीं जानती, नाम तक नहीं. उसके एक-एक रुपए का हिसाब रोहित रखता है. चाहकर भी वह कभी कुछ कर नहीं पाई. मां की सख्त हिदायत थी.
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"गांव है, जो कहानी गढ़ी गई है, उसी पर कायम रहना है. ऐसा कुछ न करना कि लोगों की आवाज़ें खुले." जाने वह किस पहाड़ी मदरसे में जाता होगा. किसकी छवि उस पर होगी, कितना जी चाहता कि चार दिन की ही छुट्टी लेकर एक बार वह गायब हो जाए और उसे देख आए. पर हर छुट्टी में रोहित साथ होता. लिहाज़ा इस बारे में सोचने का तो सवाल ही नहीं उठता था. इतने दिन साथ रहकर वह रोहित का ज़िद्दी अड़ियल स्वभाव बखूबी समझ गई थी. जो ढंका है, ढंका ही रहे, इसी में सबकी भलाई है.
ऐसे ही दिन बीत रहे थे. और ऐसे में फिर दूसरा हादसा हुआ.
मां-बाऊजी सिंगापुर गए थे, दस-बारह दिन के लिए किसे ख़बर दे की ऊहापोह से निबटती छोटी बहन ने घबराकर अंकिता को ही फोन लगा दिया.
"मां की बहन चंदा मौसी जो अलमोड़ा के पास किसी गांव में रहती हैं, उनका ऐक्सीडेंट हो गया है. असल में उनका बेटा शिव कार की चपेट में आ गया था. उसे बचाने की कोशिश में मौसी ज़्यादा घायल हो गई हैं. वे और शिव शहर के अस्पताल में सीरियस कंडीशन में लाए गए हैं. वे मां को याद कर रही हैं और आपको भी. अभी सिंगापुर मां से बात की है. मां तो दस दिन से पहले नहीं आ सकेंगी. उनका हाल सुनकर कह रही हैं कि आपको जाना हो तो चली जाए."
जल्दी-जल्दी सूटकेस में सामान डालती परेशान हाल अंकिता को तब रोहित ने ही संभाला, "मौसी और उनका बेटा इतने भयानक वक़्त से गुज़र रहे हैं, तुम ज़रूर जाओ. सोम को मम्मी और आया संभाल लेंगे. मैं भी साथ चलता हूं, शायद मेरी ज़रूरत हो वहां."
साथ सफ़र करते, स्टेशन पर उतरते, अस्पताल साथ-साथ पहुंचते रोहित को लेकर जितनी घबराहट उसके मन में हो रही थी, वही समझ रही थी.
मन में कौंधा- मौसी ने नाम कितना सही रखा है, दुनिया का ज़हर पीकर वह भी नीलकंठ जैसा ही होगा.
बाऊजी के कस कर बांधे गए पृष्ठ समय की मार से फड़फड़ाकर खुलते दिख रहे थे. स्टेशन से सीधे अस्पताल ही पहुंचे. यंत्रों से घिरी मौसी के बेसुध तन के पास में बेहोश लेटे छह साल के शिव को देखकर अंकिता के आंसुओं का बांध टूट गया. उससे लिपटती-रोती अंकिता पर रोहित को प्यार के साथ-साथ ताज्जुब भी हो आया और ताज्जुब तब और भी गहराया, जब साथ बैठी महिला ने अंकिता को संभालते हुए उसे बार-बार सांत्वना दी, "बिटिया, तेरा बेटा बच जाएगा, इतनी दुखी मत हो. प्रभु है. बहनजी ने अपनी जान की परवाह ना कर उसे बचाया है. भगवान उनकी ज़रूर सुनेंगे."
तेरा बेटा!.. तेरा बेटा! हज़ारों डंक रोहित के कानों में चुभने लगे. स्तम्भित सा वह पास में ख़ामोश बैठा रहा.
जाने किसकी पुकारों से शिव बच गया. अगली सुबह मौसी को भी होश आ गया. रोहित ने मौसी के होश में आते ही पहला सवाल पूछा. "मौसी, यह शिव किसका बेटा है?"
भगवान के दरवाज़े पर जाती-जाती मौसी चुप ठिठक गईं. झूठ बोला नहीं जा रहा था और सच कैसे कहे?
"रोहित, शिव मेरा ही बेटा है." अंकिता ने आख़िरकार सच्चाई बता ही दी.
"तुम्हारा?" शंका को सच का बाना मिल गया. रोहित के मन में उठती हुई आंधी ने बवंडर का रूप ले लिया.
गुमसुम सा रोहित लौटने लगा. चुप सी अंकिता भी साथ हो ली. पूरे सफ़र में अंकिता के मन में वही उमड़-घुमड़ होती रही. जाते वक़्त शिव का चेहरा अनजाना था. अब चेहरा परिचित हो गया था, पर रोहित क्या सोच रहा है. आगे क्या होगा? मन में विचारों का बवंडर चल रहा था. उधर रोहित अलग भरा बैठा था. ब्याह को चार साल होने को आए. एक बार भी अंकिता के स्वर से यह सच नहीं खुला. पेट की कितनी गहरी है. इतने बड़े झूठ के साथ आने वाले साल कैसे कटेंगे? बड़ा मुश्किल लगने लगा सब कुछ.
घर पहुंचते ही छह दिन का बिछड़ा सोम टूट कर मां के गले लग गया. उसे पुचकारती बेहाल होती जा रही थी वह. विद्रुप सा उसे दखता हुआ रोहित बाथरूम में फ्रेश होने चला गया. बाहर आया तो पाया कि मम्मीजी अपने कमरे में जा चुकी थीं. अंकिता खिड़की के पास पत्थर सी खड़ी चुपचाप बाहर अंधेरे में किसी को ढूंढ़ती टटोलती सी खड़ी थी. सोम गोदी में कब का सो चुका था. आया मेज पर कब की चाय रख गई थी. चुपचाप पलंग पर बैठकर रोहित ने मेज पास में खींच ली. उसने निर्णय ले लिया था.
"अंकिता आख़िर तुमने मुझे धोखा क्यों दिया? आज शादी को चार साल हो गए. एक बार भी तुमने ज़रा सा इशारा तक नहीं किया कि तुम्हारी ज़िंदगी में कोई और इस हद तक आ चुका था. इतना बड़ा धोखा? लोग समझौता कर लेते हैं कि वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा, पर मैं इस इंतज़ार में पड़ने की बेवकूफ़ी नहीं कर सकता. मैं दो टूक बात करना जानता हूं. मैं इस तरह की दोहरी ज़िंदगी नहीं जी सकता कि हर वक़्त तुम्हारी ओर निगाहें उठते ही मेरे मन में नफ़रत उठने लगे, शंकाएं सिर उठाने लगे. तुम्हारा विश्वासघात में नहीं कह सकता, अतः रास्ते भर मैंने ख़ूब सोचा.
मुझे तुम्हारे अतीत से कोई मतलब नहीं, तो वर्तमान और भविष्य से भी नहीं है. तुम अपनी ज़िंदगी जैसे चाहो, जीयो. अभी तो ज़िंदगी का पूरा सफ़र सामने पड़ा है और ऐसे के साथ यह सफ़र तय करना मेरे लिए नामुमकिन है."
सोम को छाती से लगाए अंकिता चुप बैठी रह गई. उसे इस बात का हमेशा डर था. मां-बाऊजी भी इसी सहम से भरे थे. पुरुष का अहं बड़ा कड़ा होता है. भले ही उसकी ज़िंदगी में पत्नी से पहले या बाद में कितनी ही आती रहे, पर अपनी पत्नी की ज़िंदगी में उसे पहला पुरुष ही होना है और अंतिम भी. इन चार सालों में ही वह रोहित की आदत व स्वभाव समझ गई थी और इसी से ख़ामोश बनी रही थी. पर भेद ऐसे खुल जाएगा, किसे पता था.
सच्चाई पता चलने पर एक बार राहत की सांस आई थी. लगा था पत्थर सा बोझ छाती पर से हट गया है, पर रोहित का गंभीर होता चेहरा देख-देख कर वही बोझ चौगुना बढ़ रहा था. अब इन दो टूक बातों के आगे मनुहार की क्या गुंजाइश है? क्या पांव पकड़कर रोने पर भी माफ़ी मिलने की उम्मीद है? ठंडी सांस से बदन सिहर गया.
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सिर उठाकर उसने पूछा, "यह हादसा मेरी ज़िंदगी में क्यों हुआ? किसने किया, इस सबसे तुम्हें कोई सरोकार नहीं? शायद तुम्हारी निगाह में मैं अपवित्र, झूठी, मक्कार हो गई. तुम्हारे लिए मुख्य बात यह हो गई है कि तुम अब मेरे साथ ज़िंदगी नहीं बिता सकते. जो यह तूफ़ान मेरी ज़िंदगी में लाया, वह आराम की ज़िंदगी जी सकता है, सिर्फ़ इसलिए कि वह पुरुष है. खैर तुम्हें मेरे अतीत से कोई सरोकार नहीं… जबकि यह तुम भी जानते हो कि औरत के गर्भ में बच्चा कोई पुरुष ही डालता है. चाहे रेप करके या प्यार का झूठा दिलासा देकर, पर तुम्हें उस सबसे तो कोई मतलब है ही नहीं न. खैर तुम जब भी कहोगे, मैं तुम्हारे इस घर से चली जाऊंगी. तुम्हारे डाइवोर्स पेपर्स में कोई अड़चन नहीं आएगी. सोम और मेरा गुज़ारा तनख़्वाह में मजे से हो जाएगा." एक मिनट सन्नाटा सा छाया रहा. फिर रोहित का ही कड़वा स्वर था, "सोम? भला वह तुम्हारे साथ क्यूं जाएगा? जिस स्त्री के साथ मैं ज़िंदगी नहीं काट सकता, उसके पास रहने की इजाज़त अपने बेटे को कैसे दे सकता हूं. उस पर तुम्हारा कोई हक़ नहीं है. वह इस कुल का है, वह यहीं रहेगा. तुम्हें अपने लिए कुछ चाहिए तो हर महीने वे दूंगा."
"क्यों? वह अकेला इस कुल का कैसे हो गया? पैदा तो उसे इसी कुल की इस अपवित्र मक्कार बहू ने किया है. तुम्हारा उस पर क्या हक़ है? तुमने तो दो क्षण का आनंद भर लिया था, जो अपना योगदान दे गया, पर सारी तकलीफ़ें तो उसके पेट में आने के बाद से मैंने ही झेली हैं. और आज उस पर मेरा हक़ ही नहीं रहा? वाह! क्या खूब है."
एक क्षण रुककर उसने गौर से रोहित का चेहरा देखा. एक निर्णय लिया.
"पता है तुम्हें, शिव किसका बेटा है? सुन लो आज तुम भी. तुम्हारे ही चचेरे बहनोई निशीथ ने मुझे यह सौग़ात कॉलेज के दिनों में दी थी. मेरे मना करने पर भी, कितना कहा था शादी कर लो, पर वह साफ़ मुकर गया. उसे अपनी नौकरी, अपना भविष्य दिख रहा था. तब वह सिर्फ़ मेरी ज़िम्मेदारी थी. मेरी भूल थी. उसे हटा दो या पैदा करना है, तो ख़ुद भुगतो, कहकर वह सब ज़िम्मेदारी से मुक्त होकर अलग हो गया था. और आज जब शादी के बाद सोम पैदा हुआ है, तो सब तुम्हारा ही है, उस पर मेरा ज़रा सा भी हक़ नहीं रहा. वाह! शादी से पहले हो तो औरत का है और शादी के बाद हो तो पुरुष का हो गया. उस पर औरत का हक़ ही नहीं रहा, जबकि पैदा दोनों को उसी ने किया. दोनों बार वही तकलीफ़ें झेलीं, वही शारीरिक-मानसिक दुख-सुख भोगे, वाह रे पुरुष का न्याय."
भौंचक्के रोहित के चेहरे से निगाहें हटा कर अंकिता फफक-फफक कर रो पड़ी. कमरे में सिर्फ़ उसकी सिसकियां गूंज रही थीं. दो मिनट बाद अपने पर काबू पाते हुए अंकिता ने आंसू पोंछ डाले.
"बहुत हो गया. चार पैसे हाथ में दे देने से तुम पुरुष सब कामों से मुक्त हो सकते हो? जो भी चाहे, कर सकते हो? उसने भी मोल चुकाने की बात की थी, सो वही तुम भी कह रहे हो. मैंने ना तब लिया, ना अब लेना है. मैं अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद संभालूंगी. शिव की ज़िम्मेदारी अकेली मेरी थी, जो मैं पूरी नहीं कर पा रही थी डर से. अब गांव से उसे बुला कर अच्छे स्कूल में पढ़ाकर उसका भविष्य संभालने का दायित्व मेरा है और एक भ्रष्ट मां की कोख से जन्मे बच्चे से तुम अपना घर-आंगन क्यों अपवित्र करते हो? सोम की ज़िम्मेदारी भी मेरी ही है. तुम दोनों ने मुझे जो भृण दिए हैं बच्चों के रूप में, वही देना भरपूर है मेरे लिए. मुझे और कुछ भी नहीं लेना है तुमसे." एक क्षण रुककर उसने चुप बैठे रोहित के चेहरे पर आंखें गड़ाते हुए दृढ स्वर में कहा, "किसी भी शर्त पर सोम को मैं नहीं दूंगी ये समझ लो. डाइवोर्स पेपर पर शांति से साइन करने की मेरी यही शर्त है. और तुम उसमें अडंगा लगाओगे, तो मैं तुम्हारी निगाहों में तो नीच, गिरी हुई औरत हूं ही तो फिर कोर्ट में खड़े होकर तुम्हारे खानदान की नीचता साबित करने से मैं भी नहीं हिचकिचाऊंगी." रोहित के उत्तर का इंतज़ार किए बिना ही अंकिता पलंग से उठ खड़ी हुई. दृढ़ कदमों से सोम को छाती से लगाए कमरे के बंद दरवाज़े खोलकर वह बाहर निकल आई.
अब हादसों से गुज़र जाने की ताक़त उसमें और भी आ गई है.
- उषा भटनागर
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