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कहानी- गुलाबी सर्दी (Short Story- Gulabi Sardi)

पूर्ति वैभव खरे

"हां… हां… रोज़ यही तो कहते हो तुम सब. तुम सबकी फ़िक्र है मुझे. सो कहती रहती हूं, पर किसी को मेरी बात सुननी ही कहां है. तुम लोगों की पीढ़ी को तो 'प्यास लगने पर ही कुंआ खोदने की आदत है', मैं ही फ़ालतू में टर्र-टर्र करती रहती हूं."

दिवाली के बाद की हल्की गुलाबी सर्दी अपनी दस्तक़ देने ही वाली थी, तभी सासू मां के अपने गर्म शॉल, स्वेटर आलमारी से आज़ाद होकर आज धूप सेंक रहे थे.
हफ़्तेभर से लगातार वे सबको एहतियात देने में लगी थीं, "गर्म कपड़ों को धूप दिखा दो… रजाइयां निकाल लो, न जाने ये गुलाबी सर्दी कब सुर्ख़ हो जाए?.."
हर बात पर उन्हें जल्दी रहती. हम सब यही सोचकर उनकी बात को अक्सर टाल देते और अभी तो दिवाली गई थी. घर पर सभी दिवाली की थकान से चूर थे. सबको लम्बी छुट्टी के बाद अपने रूटीन पर आना था.
सबकी तरह मैं भी रोज़ उनकी बात को टालती रहती. मैं उन्हें अक्सर यह कहकर ऑफिस निकल जाती, "मांजी, कल दिखा दूंगी धूप, आज लेट हो रही हूं, सॉरी."
"हां… हां… रोज़ यही तो कहते हो तुम सब. तुम सबकी फ़िक्र है मुझे. सो कहती रहती हूं, पर किसी को मेरी बात सुननी ही कहां है. तुम लोगों की पीढ़ी को तो 'प्यास लगने पर ही कुंआ खोदने की आदत है', मैं ही फ़ालतू में टर्र-टर्र करती रहती हूं."

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मैं फिर से उनकी बात को टालकर ऑफिस निकल गई. सुबह मौसम ठीक ठाक था, पर आज दोपहर होते-होते बिन मौसम हल्की-हल्की बारिश होने लगी. मौसम का मिज़ाज अचानक से कुछ बदल गया. हमेशा की तरह मुझे आज भी ऑफिस से निकलने में शाम हो गई. बारिश ठहर तो गई पर सर्दी बढ़ा गई.
मैं कंपकपाती हुई स्कूटी लेकर घर को चली ही थी कि मेरा फोन घनघनाया. स्कूटी रोककर देखा, तो सासू मां का फोन था. मैं समझ गई कि फिर से वही डांट सुननी पड़ेगी कि "बोला था मैंने की गर्म कपड़े निकाल लो, पर तुम लोग मेरी सुनो तब न… ये-वो… अब न जाने क्या-क्या ज्ञान देंगीं." यही सोचते हुए मैंने फोन उठाया, "जी मांजी."
"बेटा, कल मैंने तुम्हारे एक स्वेटर को धूप दिखाकर तुम्हारी स्कूटी की डिक्की में रख दिया था. उसे पहनकर ही आना, सर्दी बढ़ गई है आज."
मैंने तुरंत स्वेटर निकाला और पहनकर घर को चल दी.
घर आते ही मैंने देखा तो देवर, देवरानी और बच्चे सभी स्वेटर में थे. मेरे पीछे ही मेरे पतिदेव आए. वे भी गोल्डन रंग के स्वेटर में चमक रहे थे. हम सब घर आ चुके थे. मां की बात को न मानकर हम सब पछता रहे थे. उनकी डांट सुनने को हम सभी तैयार थे. हम जानते थे कि अगर वो हम सबके स्वेटर को निकलकर धूप न दिखातीं, तो हम सब आज बीमार पड़ सकते थे.
अब रात को भी कंबल और शॉल की ज़रूरत पड़ी. मां ने वह भी सबके लिए तैयार रखे थे.
सब रात गहराते ही अपने-अपने कमरों में जाकर सो गए. मैं तभी मांजी के कमरे में गई और गीता पढ़ती हुई सासू मां पर नया ग़ुलाबी शॉल डाल दिया, जो मैंने उनके लिए आज ही ख़रीदा था.

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"मांजी, आप अपनी टर्र-टर्र कभी भी बंद मत करना. आप हो, तो ज़िंदगी हल्की गुलाबी सर्दी-सी लगती है. आपके होते हुए कोई भी मौसम सुर्ख़ हो ही नहीं सकता." यह कहते हुए मैं कसकर उनके गले लग गई.

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