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कहानी- गृहिणी (Short Story- Grihinee)

"… मैं नहीं कहती कि शोभा या रंजिता भाभी घर से बाहर मौज-मस्ती करने जाती हैं, इनके काम की भी उतना ही महत्व है और इनके कार्यों का मूल्यांकन तो हम सब हमेशा करते आए हैं. बस मैं यह कहना चाहूंगी कि जो महिला घर-परिवार संभालती है, उसकी सेवाओं और उपलब्धियों का भी आंकलन करें. उसको भी उतना ही सम्मान तथा आदर दें, तब उसमें यह हीनभावना नहीं आएगी कि उसकी गृहिणी की भूमिका दूसरों की तुलना में किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है. घर की सार संभाल अपने आपमें ही एक फुल टाइम जॉब है."

दरवाज़े पर लगातार आ रही थपथपाहट की आवाज़ सुनकर रजनी जब हड़बड़ाकर जागी, तो निग़ाहें सीधे घड़ी पर पड़ी. सात बन गए थे. दिव्या दरवाज़े के बाहर से ही रुआंसी होकर चिल्ला रही थी, "मम्मी, आप अभी तक सो रही हैं? मेरी स्कूल बस आने वाली है. अभी तक न तो मुझे नाश्ता मिला है और ना ही मेरे टिफिन का कुछ पता है." बेटी की आवाज़ सुनकर रजनी की घबराहट और भी बढ़ गई, हमेशा तो छह बजे उठ जाती थी, पर रात को रमेश के दोस्तों के देर तक बैठे रहने के कारण सोने में देर हो गई थी. वह तत्काल बिस्तर छोड़कर बाथरूम की ओर बढ़ते हुए बोली, "सॉरी बेटा, आज मेरी नींद न खुलने से कुछ देर हो गई. में पांच मिनट में हाथ-मुंह धोकर नीचे आ रही हूं." रजनी दैनिक कार्यों से निवृत्त हो साड़ी बदल कर बाहर निकली, तो दरवाज़े के बाहर खड़ी दिव्या का फूला हुआ चेहरा देखकर उसे मनाने के लिए प्यार से उसका गाल थपथपाते हुए बोली, "गुडमॉर्निंग दिव्या, तुम नाराज़ क्यों हो रही हो? अभी तुम्हारा नाश्ता और टिफिन तैयार कर देती हूं. आज पता नहीं नींद कैसे नहीं खुली. पर रामू तो आ गया होगा, तुम उसको कहकर कम-से-कम अपना दूध-नाश्ता तो ले लेतीं."
"रामू किचन में हो, तो उसको नाश्ते के लिए कहूं ना. वह तो कितनी देर से ताऊजी के कमरे में न मालूम क्या कर रहा है. मैंने उसको आवाज़ दी, तो बड़ी मां बोलीं कि अभी वह उनका काम कर रहा है, कुछ देर बाद आएगा." बड़बड़ाते हुए दिव्या अपना स्कूल बैग तैयार करने लगी.

रजनी नीचे पहुंची, तो लगा सारे घर में अफ़रा-तफ़री मची हुई थी. अम्माजी का भी मूड ख़राब लग रहा था. उसको देखते ही पास में अख़बार पढ़ते हुए बाबूजी को सम्बोधित करके बोली, "आजकल क्या ज़माना आ गया है. पहले तो रात को बारह बजे तक टीवी देखने या दोस्तों
से फ़ुर्सत नहीं मिलती, फिर सुबह समय पर उठा नहीं जाता. क्या हाल कर रखा है घर का? व्यवस्था नाम की कोई चीज़ ही नहीं है. हमारे ज़माने में मजाल नहीं थी कि इतनी देर तक सोते रहे. सुबह चार बजे उठकर सात बजे तक चाय-नाश्ते का सारा काम निपटा देते थे. अब तो हालत यह है कि सुबह समय पर चाय भी नसीब नहीं होती. क्या करें, लाचारी है, पांव में इतना दर्द रहता है कि उठा नहीं जाता, वरना चाय के लिए इतनी देर तक इंतज़ार क्यों करना पड़ता?" अखबार पढ़ते-पढ़ते ही उसके ससुरजी बोले, "सुबह-सुबह भाषण देना बंद करो, आज रजनी को उठने में कुछ देर हो गई, तो इतना बवंडर खड़ा करने की क्या ज़रूरत है? तुम्हारी दूसरी दो बहुएं भी तो हैं, उनको कहकर चाय बनवा लेती या रामू को आवाज़ दे देती."


रजनी बिना कुछ बोले चुपचाप रसोई में आकर दूध चाय की तैयारी करने लगी. दिव्या का दूध उसने ठंडा करके भगोने में डाला और अम्मा-बाबूजी की चाय तैयार कर उनको हॉल में दे आई. दिव्या के टिफिन के लिए दो आलू के परांठे बनाकर रख दिए. इस बीच बड़े भैया भी तैयार होकर नीचे आ गए. आते ही आवाज़ लगाई, "रामू, मेरा नाश्ता दूध लेकर आओ. मुझे आज ऑफिस जल्दी जाना है."
वह सोचने लगी, बड़े भैया भी अजीब हैं. रामू उनके कमरे में ही लगा हुआ था. वे अभी वहीं से आए थे. उन्हें साफ़ दिख रहा था कि वह अकेली ही रसोई में काम कर रही थी, पर जान-बूझकर अनदेखा कर रहे थे.
एक मन तो हुआ कि वह भी करने दे उनको रामू का इंतज़ार, उससे तो उन्होंने नाश्ता मांगा नहीं था. रामू जब उनके कमरे से आएगा, तो अपने आप नाश्ता बनाएगा. फिर सोचा, वह उनकी क्या बराबरी करे. बड़े भैया को नाश्ता पकड़ा वह फिर से रसोई में आ गई. सोच रही थी कि इस घर में सबसे फ़ालतू तो वहीं है, बाकी तो सब कामकाजी हैं. घर में उसके अलावा दो बहुएं और भी हैं. पर चूंकि वे वर्किंग वुमन' हैं, अतः उनसे किसी प्रकार की सहायता की अपेक्षा करना उचित नहीं समझा जाता. बड़ी भाभी लेक्चरार हैं. उनको तो अपने कॉलेज और ट्यूशन से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती. सुबह साढ़े आठ बजे तक तैयार होकर आराम से नीचे उतरती हैं. उनके नीचे आते ही सब सजग हो जाते हैं. अम्माजी फिर से आवाज़ लगाती हैं, "रजनी, शोभा आ गई है, उसका नाश्ता भी मिलवा दो, उसको कॉलेज के लिए देर हो रही है." भाभीजी को स्वयं कॉलेज जाने की इतनी जल्दी नहीं होती, पर अम्माजी उसके सामने कितनी विनम्र हो जाती है.
वह रसोई में घर के दूसरे सदस्यों के चाय-नाश्ते और खाने की तैयारी में लगी है. भाभी के बच्चों का नाश्ता-टिफिन हमेशा वही तैयार करती है. रामू को तो कभी कोई आवाज़ देता है, तो कभी कोई बुलाता है. उसे सुबह-सुबह रसोई में काम करने का समय ही नहीं मिलता. फिर भी सब अनजान बनने का अभिनय करने में माहिर है.
इसी बीच विकास और रंजिता भी तैयार होकर नीचे आ जाते है. रंजिता विकास के साथ ही ऑफिस जाती है. रंजिता, एक तो घर की छोटी बहू, ऊपर से बड़े बाप की बेटी, उससे तो कोई उम्मीद करना भी हास्यास्पद है. वैसे भी मांजी का छोटे बेटे और बहू के प्रति बहुत ही सॉफ्ट कॉर्नर है. यूं तो मांजी से अपनी चाय बनाने के लिए भी नहीं उठा जाता, पर जब विकास और रंजिता आते, तो उसके तैयार किए गए नाश्ते या खाने में कुछ फेरबदल कर उन्हें खिलातीं. जितनी देर वे रसोई में रहतीं, उनका मीन-मेख निकालना जारी रहता है. सारे समय इस तरह की टोका-टाकी सुनकर बहुत चिढ़ होती है.
कभी-कभी तो उसका मन करता उलटा जवाब दे दे, पर फिर उसका संस्कारी मन आड़े आ जाता है. बड़ों के सामने बोलना, उनसे बहस करना उचित नहीं होता. फिर रमेश भी तो अम्माजी का श्रवण कुमार है, सारे समय उससे यही उम्मीद रखता है कि वह उसके घरवालों के नाज-नखरे उठाती रहे.

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घर के सदस्यों के चाय-नाश्ते और टिफिन पैक करते-करते दस बज जाते हैं. इस बीच रमेश की फ़रमाइशों को पूरा करने के लिए बार-बार ऊपर-नीचे के चक्कर लगते रहते हैं. कभी उनके कपड़े नहीं मिलते, तो कभी कोई ज़रूरी काग़ज़ या फाइल इधर-उधर हो जाती है, जिसको ढूंढ़ने में ही बहुत समय लग जाता है. रमेश भी पूरी तरह उस पर निर्भर है. अपने छोटे-छोटे काम भी स्वयं नहीं कर सकते. रमेश को खाना खिलाकर जब वह फ्री होती है, तब तक साढ़े दस-ग्यारह बज चुके होते हैं.
चूंकि घर की दोनों बहुएं घर से बाहर रहती हैं, अतः सारे घर की साफ़-सफ़ाई और देखरेख की ज़िम्मेदारी भी उसकी होती है. वह सारे घर के कपड़े एकत्रित करके वॉशिंग मशीन में डालती है. जब रामू बाबूजी के साथ बाज़ार के छोटे-मोटे काम करके और सब्ज़ी लेकर वापस आता है, तो उसके साथ मिलकर वहा कपड़े सूखाने के लिए डालती है. इसी बीच उसे स्वयं भी नहा-धोकर तैयार
होकर पुनः रसोई में आना होता है. बाबूजी-अम्माजी को ठीक बारह बजे तक खाना चाहिए. उनको खाना खिलाकर उठती है, तब तक बच्चे स्कूल से आ जाते हैं. सबको खाना खिलाते-खिलाते दोपहर के दो बज जाते
हैं.
वह सारा समय घर-गृहस्थी में लगी रहती है. जी-जान एक कर देती है, फिर भी किसी को संतुष्ट नहीं कर पाती. कभी उसके काम का अंत नहीं होता. उल्टे मौक़े-बेमौक़े सबसे यही सुनने को मिलता है, "इतना क्या काम है? घर में फुलटाइम नौकर है, बाइयां आती हैं, कपड़े धोने के लिए वॉशिंग मशीन है. इस पर भी कोई सारे समय अपने को व्यस्त दिखाने का ढोंग करे, तो हम क्या कर सकते हैं? दूसरी दोनों बहुएं बाहर खटकर आती हैं, तो भी अपना काम तो वे ही करती हैं." एक तरफ़ इस तरह की उपेक्षा, दूसरी तरफ़ दिव्या की शिकायत, "मम्मी आप सारे समय किचन और घर में दूसरे कामों में लगी रहती हैं, कभी मेरे ऊपर भी तो ध्यान दिया करें. बड़ी मां और चाची बाहर का काम करने के बावजूद अपने बच्चों के लिए शाम को समय निकालती हैं. वे अपने बच्चों के साथ घूमने के लिए भी जाते हैं और एक मैं हूं, मेरी मम्मी के पास मेरे लिए कभी समय नहीं रहता. राहुल भैया, पिंकी दीदी और अतुल सब अपने पैरेंट्स के साथ कभी पिक्चर, तो कभी रेस्तरां में जाकर मौज-मस्ती करते हैं. मैं जब भी आपको बाहर चलने को कहती हूं, तो आपको घर का कोई काम याद आ जाता है."
इधर रमेश भी एक ओर उससे अपेक्षा रखते हैं कि घर की दोनों बहुएं जब घर से बाहर रहती हैं, तो कम से कम वह तो घर को संभाले. अब अम्माजी की उम्र थोड़े ही गृहस्थी संभालने की है. फिर रमेश उससे यह अपेक्षा भी रखते हैं कि वह रात को उनके साथ उनके मित्रों से मिलने-जुलने भी जाए. वह समझ नहीं पाती कि वह रमेश को कैसे समझाए कि वह भी इंसान है, कोई मशीन नहीं, जो लगातार चलती रहे. सुबह से लेकर रात दस बजे तक घर के कामों में व्यस्त रहने के बाद, उसकी न तो हिम्मत होती है और ना ही मन करता है कि वह उनके साथ कहीं जाए. बस उसकी इसी अनिच्छा के कारण वे अक्सर उससे नाराज होकर अनबोला कर लेते हैं और हर बार उसे ही हाथ जोड़कर मनाना पड़ता है.
जब अपनी बेटी और अपने पति को ही वह संतुष्ट नहीं कर पाती, तो दूसरों से क्या अपेक्षा रखे. कभी-कभी मन में हीनभावना आने लगती है कि उसने अपनी हाउसवाइफ की कैसी इमेज बना ली है. उसे स्वयं विश्वास नहीं होता कि वह शादी से पहले वाली ही रजनी है, जो अपने कॉलेज में हमेशा टॉप करती थी और उसकी गणना बहुत बुद्धिमान और स्मार्ट लड़कियों में होती थी. वह स्वयं एक करियर माइंडेड लड़की थी, पर रमेश की ख़ुशियों के लिए ही उसने अपनी महत्वाकांक्षाओं को दबा दिया… तभी अचानक फोन की घंटी बजने से उसकी तंद्रा भंग हो गई. फोन उसकी बड़ी ननद वंदना जीजी का था. जीजी ने जब बताया कि जीजाजी अपने किसी काम से एक सप्ताह के लिए मुंबई जा रहे हैं, तब जीजी ने भी इस बीच राखी के अवसर पर पीहर आने का प्रोगाम बना लिया है. वे बहन-भाइयों में सबसे बड़ी और सबसे संपन्न होने के कारण घर में आज भी अपना विशेष स्थान है. सभी सदस्य उनको बहुत आदर-सम्मान देते हैं. उसे स्वयं भी लगता है कि इस घर में एक वंदना जीजी ही हैं, जो उसको भी बहन सा प्यार और स्नेह देती हैं. वह अम्मा-बाबूजी की जीजी के आने का समाचार सुनाने चल दी.


दूसरे दिन जीजी के आते ही घर में ख़ासी चहल-पहल हो गई थी. घर के सब सदस्य उनको घिर कर बैठ गए थे. उसने जीजी की पसंद का खाना बनाया था. गाजर का हलवा, समासे, मटर पनीर, भरवा बैंगन, दम आलू, दही बड़े, पुलाव आदि. जीजी अपनी पसंद की इतनी चीज़ें देखकर बहुत ख़ुश हो गईं. उसकी ओर स्नेह से देखते हुए बोली, "भाभी, कमाल है. तुमने तो मेरी पसंद की सारी चीज़ें एक साथ ही बना दी."
फिर एक-एक व्यंजन खाते-खाते तारीफ़ों के पूल बांधने लगी. अम्माजी ने अपनी आदतानुसार उसके खाने में जैसे ही कोई मीनमेख निकालना शुरू किया कि दूसरे सदस्यों को भी जैसे मौक़ा मिल गया. किसी को सब्ज़ियों में नमक ज़्यादा लग रहा था, तो किसी को दही बड़े सख्त लग रहे थे.
सबकी आलोचना सुनते-सुनने उसकी आंखें भर आईं. दीदी ने उसके आंसुओं को देख लिया था. रमेश को संबोधित करते हुए और दूसरे सदस्यों को अप्रत्यक्ष सुनाते हुए बोल पड़ीं, "तुम लोग बेमतलब खाने में नुक्स निकाल रहे हो. एक तो इसने इतनी मेहनत से इतना कुछ बनाया है, उसकी प्रशंसा करने की बजाय उसमें खामियां निकालना बहुत ग़लत बात है."
फिर अम्माजी से बोली, "मां आप इस उम्र में खाने-पीने का इतना विचार करती हैं? आप तो इतना पूजा-पाठ करती हैं, फिर अन्न का इतना अनादर करना क्या उचित है?" उनकी बात सुनकर सब एकदम चुप हो गए. उस दिन जीजी को सबके समक्ष अपने पक्ष में बोलते देखकर उनकी उपस्थिति सारे घरवालों के विरुद्ध एक रक्षा कवच सी प्रतीत हुई.
इस बार राखी का दिन भी पिछले वर्षों में अलग रहा. रविवार होने के कारण सब की छुट्टी भी थी. जीजी से राखी बंधवाने के बाद सभी उनके साथ बैठकर गपशप कर रहे थे.

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जीजी सबसे उनके काम, उपलब्धियों के विषय में पूछ रही थीं. बड़ी भाभी और रंजिता भी बहुत उत्साह और गर्व से क्रमशः‌ अपने कॉलेज और ऑफिस की बातें बता रही थीं. दोनों के पति भी अपनी पत्नियों की तारीफ़ में प्रशंसा के पुल बांध रहे थे. बड़े भैया कह रहे थे, "जीजी, शोभा सारे समय इतनी व्यस्त रहती है, इतनी मेहनत करती है कि इसने अपने कॉलेज का नाम रौशन कर दिया है. पूरे कॉलेज में इसकी सबसे ज़्यादा इज़्ज़त है. अपने स्टाफ और छात्राओं में यह बहुत ही लोकप्रिय है. पे कमीशन की सिफ़ारिशों के लागू होने के बाद इसकी पे स्केल (तनख्वाह) भी अच्छी-खासी हो गई है. कॉलेज के साथ-साथ घर में भी बच्चों और सारे कामों को करती है. यह इसी के बूते की बात है." बड़े भैया की बात सुनकर छोटा भाई विकास कैसे पीछे रहता. वह भी रंजिता की प्रशंसा करने लगा, "जीजी, जब से रंजिता ऑफिस में मेरा हाथ बंटाने लगी है, मुझे तो बहुत जाराम मिल गया है. मैं फैक्ट्री में प्रोडक्शन का काम देखता हूं और यह ऑफिस में मार्केटिंग देखती है. सच जीजी, मुझे लगता है किसी प्रोफेशनल करियर माइंडेड लड़की को अपना जीवनसाथी बनाने का मेरा निर्णय बहुत सही रहा."
फिर एक नज़र उसकी ओर देखकर, व्यंग्यात्मक स्वर में बोला, "रमेश भैया की बातों में आकर मैं भी रजनी भाभी जैसी होमली और सीधी-सादी लड़की ले आता, तो कभी इतनी प्रोग्रेस नहीं कर पाता." विकास की बात पर जीजी को छोड़कर सभी ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे. सबके सामने उसका इतना अपमान होने पर भी रमेश चुप थे. उनमें तो इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वे सबके सामने यह स्वीकार कर पाते कि उनकी इच्छा के कारण ही उसने घर संभालने का दायित्व स्वीकार किया था. उसे विकास की बात से इतनी ठेस नहीं पहुंची, जितनी कि स्वच के प्रति रमेश की उदासीनता खली थी. अम्माजी भी क्यों चुप रहतीं, वे भी बोल पड़ीं, "भई आज तो ज़माना ही ऐसा आ गया है कि पति-पत्नी दोनों काम करें, तभी गृहस्थी की गाड़ी सुचारू रूप से चलती है. फिर आजकल लड़कियां भी पढ़-लिखकर हर मामले में लड़कों के समान कंधे से कंधा मिलाकर घर और बाहर की ज़िम्मेदारियां निभाने में सक्षम हो गई हैं, ती वे घर में क्यों बैठें? मैंने तो इसीलिए शोभा और रंजिता को बाहर काम करने की छूट दे दी है. यदि रजनी भी चाहती, तो इन दोनों की तरह नौकरी या व्यवसाय कर सकती थी, पर इसकी स्वयं की ही बाहर निकलने की इच्छा नहीं है, तो मैं क्या कर सकती हूं. घर के कामों के लिए तो नौकर-चाकर हैं."
सबकी बातें सुनकर एक बार तो उसका मन किया कि आज सबके सामने यह अच्छी तरह से जतला दे कि यदि वह भी घर के कामों को अनदेखा कर कहीं चली जाए, तो सबको पता चल जाएगा कि गृहस्थी चलाना कोई आसान काम नहीं है.
अम्माजी तो शायद भूल गई होंगी, पर वह आज भी नहीं भूली है वे दिन, जब शादी के दो-चार दिनों बाद ही अम्माजी ने उसके समक्ष अपना दुखड़ा सुनाते हुए कहा था, "बेटी, शोभा तो कॉलेज में पढ़ाती है, अतः उसे घर के कामों में हाथ लगाने की फ़ुर्सत नहीं है. मेरी अब उम्र नहीं है कि दौड़-दौड़ कर सबकी फरमाइशें पूरी करूं. कहने को नौकर भी हैं, पर नौकरों के भरोसे घर कैसे चलता है, तुम स्वयं ही देख रही हो. अब तुम आ गई हो, तो सारे दायित्व तुम्हें सौंपकर में निश्चिंत होना चाहती हूं, ताकि बुढ़ापे में तो कम-से-कम पूजा-पाठ में अपना समय बिता सकूं. बड़ी बहू को तो मैं कुछ नहीं कह सकती, वह सदा अपनी मर्ज़ी की मालिक रही है. अतः तुमसे कह रही हूं कि इस परिवार की ज़िम्मेदारियां संभाल लो, तो मेरा बुढ़ापा चैन से कट जाए." अम्माजी की इच्छा और रमेश की मर्ज़ी के कारण ही उसने घर संभालने का दायित्व लिया था. पर आज वही अम्माजी अपनी कही हुई बातें भूलकर दूसरे शब्दों में बोलने लगी थीं.
उसका स्वाभिमानी मन आज उसे सबके सामने अपने मन की बात कहने को बार-बार झकझोर रहा था. वह कुछ कहती, उससे पूर्व ही जीजी का स्वर गूंज उठा, "अम्मा, आज सबने उपलब्धियां, अपने कामों के विषय में बताया, सुनकर मुझे बहुत ख़ुशी भी हुई. मुझे ख़ुशी है कि बड़ी भाभी तथा छोटी भाभी दोनों अपने क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं. हम सभी उनकी सफलताओं को सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं. साथ ही उनकी उपलब्धियों पर हमें गर्व भी है. पर आप सबने कभी यह सोचने का भी कष्ट किया है कि आज यह घर सुचारु रूप से जिस तरह चल रहा है, उसके पीछे किसका सार्थक श्रम और निःस्वार्थ समर्पण लगा है. मैं पिछले पांच दिनों से घर के प्रत्येक सदस्य की गतिविधियों का अवलोकन कर रही हूं, सब अपने-अपने कामों और व्यक्तिगत हितों को ही प्राथमिकता देते हैं. पर इस घर में एक इंसान ऐसा भी है, जो चुपचाप मौन भाव से सारा दिन सबकी ज़रूरतों को पूरा करने में ही लगा रहता है, क्या आपमें से एक व्यक्ति ने भी उसकी भूमिका को बराबर का सम्मान देने का प्रयास किया है?" सबकी नज़रें जीजी की ओर उठ गई थी.
जीजी ने अपनी बात जारी रखी, "हां, मैं रजनी की ही बात कर रही हूं, मैं हैरान हूं कि इसमें इतनी सहनशक्ति कहां से आती है कि वह चुपचाप सबकी आलोचनाओं को सुनते हुए भी अपना कर्तव्य निभाने से पीछे नहीं हटती. एक ओर आप सब का रूखा और उपेक्षित व्यवहार, दूसरी ओर अपनी बेटी और पति को पर्याप्त समय न दे पाने के कारण उनकी चिड़चिड़ाहट और असंतोष दोनों के बीच में फंसकर इसकी क्या मनःस्थिति होती होगी, यही जानती होगी.

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इतना बड़ा घर-परिवार केवल नौकरों-चाकरों के भरोसे नहीं चलता, किसी न-किसी सदस्य को अपने व्यक्तिगत हितों का बलिदान करना ही होता है. गृहस्थी में केवल खाना बनाने या साफ़-सफ़ाई के ही काम नहीं होते, छोटे-छोटे सैकड़ों काम एक गृहिणी को देखने होते हैं. राशन-पानी की व्यवस्था, मेहमानों की आवभगत, बीमारी में मरीज़ की देखभाल जैसे दायित्व कोई भी महिला तभी निभा पाएगी, जब वह सुबह से शाम तक घर पर होगी.
मैं नहीं कहती कि शोभा या रंजिता भाभी घर से बाहर मौज-मस्ती करने जाती हैं, इनके काम की भी उतना ही महत्व है और इनके कार्यों का मूल्यांकन तो हम सब हमेशा करते आए हैं. बस मैं यह कहना चाहूंगी कि जो महिला घर-परिवार संभालती है, उसकी सेवाओं और उपलब्धियों का भी आंकलन करें. उसको भी उतना ही सम्मान तथा आदर दें, तब उसमें यह हीनभावना नहीं आएगी कि उसकी गृहिणी की भूमिका दूसरों की तुलना में किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है. घर की सार संभाल अपने आपमें ही एक फुल टाइम जॉब है."
जीजी की बात सुनकर सबकी नज़रें झुक गई थीं, पर किसी में इतना साहस भी नहीं था कि उनकी बात का प्रतिवाद करता. बड़ी भाभी और रंजिता का तो मूड ऑफ हो गया था. बड़े भैया और विकास के चेहरे पर भी रोष के मिलेजुले भाव थे. हां, अम्माजी को अपनी भूल का पश्चाताप होने का एहसास ज़रूर था.
सबसे ख़ुश तो वह स्वयं थी. आज शादी के पंद्रह वर्षों बाद उसके काम का मूल्यांकन जो हुआ था. जीजी के प्रति उसके मन में श्रद्धा और आदर के भाव द्विगुणित हो गए थे, क्योंकि उन्होंने उसकी गृहिणी की भूमिका को घर भर में वह मान्यता और गरिमा दिलवाई, जिसकी कामना उसने की थी. अब उसे यह स्वीकार करते हुए कभी भी शर्मिन्दगी का एहसास नहीं होगा कि वह केवल एक गृहिणी है. आज वह स्वयं को बहुत हल्का और सहज अनुभव कर रही थी.
- हंसादसानी गर्ग

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