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कहानी- घर वापसी (Short Story- Ghar Wapsi)

"क्यों जा रही हो? यहीं रहो अपने घर, जो सम्मान कभी-कभी जाने से मिलता है, वो वहां बस जाने से नहीं मिलेगा." दत्ता साहब ने समझाते हुए कहा.
"अरे, मेरे बेटे का घर है, किसी पराए घर थोड़े न जा रही हूं… और… और आप तो मुझे बिना बताए चले गए. मैं आपसे बहुत नाराज़ हू़ं." वे मुंह फुलाते हुए बोलीं.

मिसेज दत्ता मेन गेट पकड़ कर खड़ी अपने घर को निहार रही हैं और आंखों से निरंतर आंसुओं की धार बह रही है. उनके पैर उठ ही नहीं रहे थे, ऐसा लगता था कि मन भर भारी हो गए हैं.
"चलिए मम्मी, जल्दी कीजिए, वरना पहुंचने में बहुत देर हो जाएगी और आप जानती हैं कि हाईवे पर रात को गाड़ी चलाना बहुत मुश्किल होता है." कहते हुए वीरेंद्र ने गाड़ी का पिछला दरवाज़ा खोल कर उन्हें बैठाया.
दोनों बच्चे उनके साथ पिछली सीट पर और प्रिया आगे वीरेंद्र के साथ बैठ गई. वो आंसुओं से धुंधली आंखों से अपनी सखियों को और अपने घर को तब तक हाथ हिलती रहीं, जब तक वो नज़रों से ओझल नहीं हो गए. 
मन बोझिल था और देह थककर चूर हो गई थी. लगातार रोने से आंखें और सिर भी बहुत भारी  हो गए थे. इसी मन और देह की थकान में उन्हें पता ही नहीं चला कि कब सिर पीछे सीट पर टिक गया और नेत्र मुंद गए.
"क्यों जा रही हो? यहीं रहो अपने घर, जो सम्मान कभी-कभी जाने से मिलता है, वो वहां बस जाने से नहीं मिलेगा." दत्ता साहब ने समझाते हुए कहा.
"अरे, मेरे बेटे का घर है, किसी पराए घर थोड़े न जा रही हूं… और… और आप तो मुझे बिना बताए चले गए. मैं आपसे बहुत नाराज़ हू़ं." वे मुंह फुलाते हुए बोलीं.


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"मैं कहां गया हूं. यहीं तो हूं तुम्हारे पास. मेरी बात समझो और यहीं अपने घर में रहो. अब उठो और चलो मेरे साथ.“ कहते हुए दत्ता साहब ने हाथ बढ़ाया, तो उन्होंने उनका हाथ झटक दिया. इसी झटके के साथ उनकी आंख खुल गई, तो उन्होंने देखा कि वीरेंद्र का घर आ गया है. लॉन में गमले टूटकर बिखरे हुए थे, इसी कारण वीरेंद्र को झटके से ब्रेक लगानी पड़ी. ये वही यथार्थ झटका था, जो उन्होंने सपने में महसूस किया था.
घर पहुंचते ही आराम कुर्सी पर बैठकर उन्होंने सिर पीछे टिका दिया. उनके मन में सपना अभी ताज़ा ही था और वो उसे समझने की कोशिश कर ही रहीं थी कि प्रिया उनके हाथ में चाय का कप देते हुए बोली, " मम्मी, आप हाथ-मुंह धोकर चेंज कर लीजिए. मैं खाने की तैयारी करती हू़ं."
बच्चे इतने थके थे कि बिना कुछ खाए-पिए ही सो गए. उन्हें भी भूख कहां थी ? किसी तरह एक परांठा चाय के साथ निगलकर लेटने चली गईं. इस पूरे समय दत्ता साहब का वो सपना उनका पीछा करता रहा और वो उसका अर्थ समझने में असफल रहीं और इसी उधेड़बुन में कुछ उनींदी सी हालत में सुबह हो गई.
अगले दिन आदतन जल्दी नींद खुल गई और वो फिर उसी सपने की सोच में डूब गईं.
शुरू के दिन अच्छे थे. प्रिया  हर काम के लिए पूछती थी और बच्चे भी अम्मा-अम्मा कहकर आसपास ही मंडराते रहते थे. वीरेंद्रभी ऑफिस जाने से पहले और लौटने के बाद उन्हीं के पास रहता था. धीरे ही सही मगर उनका रूटीन भी वापिस पटरी पर आने लगा और वो भी घर को अपना समझकर अधिकारों का प्रयोग करने लगीं. वहां सबके बीच उन्हें अच्छा ही लग रहा था पर फिर भी उन्हें वहां बहुत बोरियत होती थी.  सुबह जिस घर में रेलवे प्लेटफार्म सी हलचल रहती थी, नौ बजते-बजते वहां एकदम सूनापन पसर जाता था. फिर वो बालकनी में फूल-पौधों को देखते और सड़क पर आती-जाती गाड़ियों को देखते हुए समय काटतीं और सबके आने का इंतज़ार करती रहती थीं.
उस दिन सबके जाने के बाद जब वो बालकनी में जाकर बैठीं, तो हल्की फुहार पड़ रही थी. ये मॉनसून की हल्की फुहार उन्हें बेहद अच्छी लगती थी. कुछ देर यूं ही उन बूंदों को हाथों से उछालते और उनके कोमल स्पर्श को महसूस करते उनका चाय पीने का मन करने लगा. वो उठीं और चाय का दूध निकालने के लिए उन्होंने फ्रिज खोला, तो वो सामान से ठसाठस भरा था. उसी सामान में दूध का पतीला भी फंसा हुआ था. उन्होंने जैसे ही दूध का पतीला निकाला, तो उसके साथ रखा कांच का कटोरा फिसलकर नीचे गिरा. छन्न की आवाज़ से उसके टुकड़े और मटर पनीर की सब्ज़ी सब तरफ़ फैल गई. अब चाय पीना भूलकर वो पहले साफ़-सफ़ाई में लग गईं.
फ्रिज कई दिन पुरानी सब्ज़ियों, कई तरह के गुथे आटे, पुरानी ब्रेड, खट्टे होते दही और अधसड़े फल-सब्ज़ियों से पटा पड़ा था. उन्होंने सूंघ-सूंघ कर सारी बासी सब्ज़ियों और आटे का अंदाज़ा लगाकर उन सबको हटाया. दोपहर को प्रिया और दिशू के आने तक वो फ्रिज का कायाकल्प कर चुकी थीं.
प्रिया ने आते ही हाथ-मुंह धोकर फ्रिज की तरफ़ बढ़ते हुए बोली, "आप लोग आ जाइए, मैं खाना गरम कर रही हूं."
फ्रिज खोलते ही प्रिया असमंजस की स्थिति में थी. उसने पूरा फ्रिज छान मारा पर उसमें आटा और मटर पनीर की सब्ज़ी कहीं नहीं थी. उसे बार-बार फ्रिज में सामान रखते और निकालते देखकर उन्होंने पूछा, "क्या हुआ! क्यों परेशान  हो? क्या ढूंढ़ रही  हो?"
"मम्मीजी, वो आटा और मटर-पनीर की सब्ज़ी नहीं मिल रही." प्रिया ने कटोरों के ढक्कन उठाकर चेक करते हुए कहा.
"बेटा, वो तो मैंने हटा दिए हैं. सब्ज़ी और पनीर दोनों महक रहे थे."
"महक रहे थे, पर वो तो मैंने संडे को ही तैयार किए थे."
"संडे यानी तीन दिन पहले. पर ये तो ठीक नहीं है. ये तो बीमारियों को न्योता देना है. घर पर पर हम चार ही तो लोग हैं. रोज़ ताज़ा बनाने में अधिक समय नहीं लगेगा." उन्होंने प्रिया को समझाते हुए कहा.

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"मेरे लिए सम्भव नहीं है मम्मी. मैं सुबह की गई, दोपहर में लौटती हूं. फिर मेरी किटी है, मेरा पार्लर है. ये मेरा मी टाइम है. इसके बाद समय ही कहां बचता है. तो मैं रोज़ खाना नहीं बना सकती, इसलिए मैं  पूरे हफ़्ते का खाना एक ही बार तैयार करके रख देती हूं. वैसे दिशू और वीरेंद्र को भी इससे कोई परेशानी नहीं है." प्रिया के स्वर में तल्खी थी.
मिसेज दत्ता का मन एक सप्ताह का रखा खाना खाने की कल्पना मात्र से खिन्न हो गया, पर उन्होंने स्थिति को संभालते हुए कहा, "कोई बात नहीं प्रिया पहले तुम अकेली थी. अब मैं भी हूं, तो खाना  बनाने में तुम्हारी पूरी मदद करुंगी."
प्रिया ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और उस समय सबने मैगी खाई. उस दिन रात का खाना भी प्रिया ने बाहर से ही ऑर्डर किया. मिसेज दत्ता को ये सब सामान्य ही लगा, वो प्रिया की नाराज़गी समझ नहीं पाईं. वो तो बेटे-बहू के घर को अपना मान रही थीं, जहां उन्हें भी कहने और करने का अधिकार था.
अगले दिन भी सबके जाने के बाद वो किचन की सफ़ाई में जुट गईं. उन्होंने चीनी, चायपत्ती और मसालों के डिब्बों को अपने हिसाब से लगाया, ताकि ये रोज़मर्रा का सामान उनकी पहुंच में रहे. ये सब काम निपटाते तक प्रिया और दिशू के आने का टाइम हो गया. एक बार उन्होंने चमचमाती किचन को देखा और अपने आप से कहा, "आज तो मुझे समय का पता ही नहीं चला." वो मन ही मन घर का हिस्सा बनकर बहुत ख़ुश थीं.
तभी दरवाज़े की घंटी बजी, उन्होंने बड़े उत्साह से दरवाज़ा खोला और दिशू के हाथ से बस्ता लेते हुए प्रिया से बोलीं, "तुम लोग हाथ-मुंह धो लो. आज मैंने खिचड़ी बनाई है."
प्रिया ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और  वो सीधे किचन में चली गई. मिसेज दत्ता भी दो बोल प्रशंसा के सुनने की ललक में प्रिया के पीछे हो लीं.
वे खाने की प्लेट निकालते समय बार-बार प्रिया की तरफ़ देख रही थीं कि शायद वो कुछ कहे, पर उसने कुछ नहीं कहा. वे मन मसोस कर रह गईं.
खाने के बाद वे कमरे में आराम करने चली गईं. वो दिनभर की इतनी थकी थीं कि लेटते ही कब आंख लग गई उन्हें पता ही नहीं चला और जब पता चला, तो शाम के सात बज चुके थे. प्रिया और वीरेंद्र के बीच तेज बहस हो रही थी और शायद उसी से उनकी नींद खुल गई थी.
"तुमने आज भी खाना बाहर से ही मंगवाया है. मैं ये रोज़-रोज़ बाहर का खाना नहीं खा सकता." वीरेंद्र झल्ला रहा था.
"ये बात तुम अपनी मां को समझाओ." प्रिया ने भी तेज आवाज़ में कहा.
"इसमें मां कहां से आ गईं और उन्होंने क्या किया है."
"क्या किया है? ये तुम उन्हीं से पूछो."
"उनसे क्या पूछना है, तुम ही बता दो. क्यों बात को बढ़ा रही हो."
इसके आगे सुनना उन्हें अच्छा नहीं लगा कि उनकी वजह से बहू-बेटे में कलह हो रही है. पर उसके बाद घर में और सबके व्यवहार में कुछ तो बदल गया था, जो वो समझकर भी नहीं समझ पा रही थीं. उस दिन के बाद रविवार तक घर में खाना बाहर से ही आता रहा और फिर रविवार वाले दिन प्रिया ने महरी के साथ मिलकर फिर सप्ताह भर का खाना बनाकर फ्रिज में भर दिया और किचन का सामान यथावत कर दिया. इस पूरे समय न प्रिया ने उनसे कुछ कहा और न ही कोई शिकायत ही की. वो वैसे भी कम ही बोलती थी, जो कुछ भी मुखर था वो उसके हाव-भाव और काम थे, जो उसकी नाराज़गी दर्शाते थे.
मिसेज दत्ता को दिशू से बहुत स्नेह था. शायद उसे भी हो, पर वो कच्ची उम्र की बच्ची थी और उस पर उसकी मां का प्रभाव इतना अधिक था कि उस वृत्त के बाहर उसे कुछ ज़्यादा समझ नहीं आता था.
उन्हें दिशू की सहेलियां भी बिल्कुल पसंद नहीं थीं, वो नाइट स्टे के नाम पर हर कुछ दिन में आ धमकती थीं और दिशू की अनुपस्थिति में उसकी बुराई करती थीं. उन्होंने दिशू को समझाने का प्रयास किया, तो उसने कहा, "आजकल ऐसी ही सहेलियां होती हैं. जिन सहेलियों और दोस्तों की बात आप करती हैं, वो कहानियों में होते हैं."
बहुत कोशिश के बाद भी ये बात उनके गले नहीं उतरी थीं. उन्हें तो मिसेज शर्मा, सरोज और अपनी बाकी सखियां याद आने लगीं, जो सुख-दुख में उनके साथ खड़ी रहती थीं.
अब वे सबसे ज़्यादा स्नेह दिशू से करतीं थीं, तो वे चाहती थीं कि वो सौंदर्य के उनके सारे नुस्खे़ दिशू को बताएं. उनके इन उपचारों और नुस्ख़ों की बड़ी धूम थीं. आसपास की सभी लड़कियां उनसे टिप्स लेने आती थीं.
उन्हें याद है कि टीना शादी से पहले रंगत निखारने के लिए उनसे कोई नुस्ख़ा लेने आई थी और उनके बताए मसूर दाल और चंदन के उबटन ने कमाल कर दिया था. मुरझाई सी रंगत वाली टीना अपनी शादी तक पहचान में ही नहीं आ रही थी. इस उबटन ने उसकी रंगत को निखार दिया था.
… पर यहां दिशू पर उनकी दाल नहीं गलती थी. एक बार उन्होंने बड़े जतन से आंवला मेथी का तेल उसके लिए बनाया था, जिसे उसने बड़ी रुखाई के साथ नकार दिया था. उनका मन एकदम रुआंसा हो आया था. उन्हें टीना, शर्लिन और आमना ये सब लड़कियां याद आने लगीं, जो उनके पास इन्हीं उपचारों के लिए मंडराती रहती थीं.
वीरेंद्र भी अब कभी-कभी ही उनके पास आता था और वो भी औपचारिक हालचाल ही पूछता था. गोलू को भी उनका समझाना पसंद नहीं था, तो वो भी उनसे कन्नी काटने लगा था.
इस पूरे घर में सिर्फ़ रानी का आना ही उनके लिए राहत का समय होता था. रानी घर का काम निपटाते हुए उनसे बातें करती रहती थी, पर वो ज़्यादा देर के लिए नहीं रुकती थी. वो रोबोट की तरह अपना काम  निपटाती थी. उसे बाकी घरों में भी काम करना होता था.
ऐसे में उन्हें टीकाराम याद आता था, जो दत्ता साहब के क्लब चले जाने के बाद सर्दियों में लॉन की गुनगुनी धूप में और गर्मियों में एसी की ठंडक में उनकी कुर्सी के पास बैठा उनके पांव दबाता हुआ अपने गांव और बचपन की बातें करता रहता था.
पर यहां वीरेंद्र के यहां तो अकेलापन और रुखाई ज़्यादा थी.
उन्हें अच्छे से याद है वो रविवार का दिन था. वो हमेशा की तरह कमरे में अकेली रामायण पढ़ रही थीं. धीरे-धीरे दिन बीतने लगा. वीरेंद्र, प्रिया, दिशू और गोलू सब व्यस्त थे. सबके अपने-अपने प्रोग्राम थे और वो किसी में भी फिट नहीं होती थीं. दिशू की सहेली के जन्मदिन की पार्टी थी, गोलू का क्रिकेट मैच था, प्रिया की किटी थी और वीरेंद्र को क्लब जाना था. मतलब सबके कार्यक्रम सुबह से तय थे. मिसेज दत्ता अकेले बैठे-बैठे ऊब गईं, तो बाहर आकर हॉल में बैठ गईं कि कोई तो दिखेगा. घर की हलचल में प्रत्यक्ष न सही परोक्ष ही शामिल होंगी. बाहर आकर देखा, तो सब तैयार थे," मम्मी दरवाज़ा बंद कर लीजिए और हां, आपका खाना रखा है, अगर ठीक लगे, तो रोटी बना लीजिएगा, मुझे लेट हो रहा है. हम शाम तक लौट आएंगे." प्रिया ने कहा और बिना उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार किए चारों निकल गए.
वो चुपचाप उठीं और दरवाज़ा बंद कर लिया. सिर उठाकर घड़ी की तरफ़ देखा, तो दो बज रहे थे. अब उन्हें तेज भूख लग रही थी. आज सुबह से उन्होंने सिर्फ़ चाय ही पी थी, एकादशी का व्रत जो था. उन्हें लगा शायद किचन में प्रिया कुछ व्यवस्था करके गई होगी. जाकर देखा तो फलाहार का कोई प्रबंध नहीं था. आलू-मटर की सब्ज़ी कुकर में थीं और थोड़ा आटा गुथा रखा था. उनका मन भर आया और वो मुंह में थोड़ी चीनी डालकर और पानी पीकर वापस अपने कमरे में लौट आईं.
पता नहीं कब बैठे-बैठे आंख लग गई और जब खुली, तो घंटी की आवाज़ से जो लगातार बज रही थीं.
उन्होंने किसी तरह दरवाज़ा खोला, तो देखा दिशू और प्रिया थे. गुलाबी ड्रेस और खुले बालों में दिशू बहुत सुंदर लग रही थी. उसे देख उन्हें काजल की याद आ गई, उन्होंने बढ़कर उसके गाल सहलाने चाहे, तो उसने चेहरा दूसरी तरफ़ करते हुए कहा, " ममा, कितनी बार कहा है कि एक चाबी अपने या मेरे पास रखा करो और आप है कि सुनती ही नहीं और किसी को भी चाबी देकर चल देती है."


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"किसी को भी!.. मैं किसी को भी हूं?" वो अवाक् प्रिया का चेहरा देख रही थीं. प्रिया के चेहरे पर कोई भाव न देख कर उनका मन कसैला हो गया.
वो चुपचाप अपने कमरे में चली गईं. सुबह से भूखे पेट अब सिर दर्द करने लगा था, तो वो मन मारकर उठी कि बहू से कुछ फलाहारी बनाने को कहें. बाहर निकली, तो देखा कि तब तक गोलू और वीरेंद्र भी लौट आए थे. सब शायद कहीं जाने के लिए तैयार हो रहे थे.
"कहीं जा रहे हो वीरु?" उन्होंने पूछा.
" हां, मम्मी हम मूवी जा रहे हैं, आने में देर हो जाएगी. आप रानी से काम करवाने के बाद दरवाज़ा बंद कर लीजिएगा." वीरेंद्र की जगह प्रिया ने जवाब दिया.
उनसे कुछ और पूछते नहीं बना और रानी के जाने के बाद वो वहीं हॉल में सोफे पर बैठ गईं. उनका मन बेहद उदास था और कई तरह के सवाल-जवाब उनके मन में उठ रहे थे. "क्या इसी उपेक्षा और अकेलेपन के लिए वो यहां आईं थीं!" ये सवाल बार-बार उनके मन में कौंध रहा था.
शाम के छह बज रहे थे. उन्होंने अधिक देर करना ठीक नहीं समझा और तुरंत घर वापसी की टैक्सी बुक करके मिसेज शर्मा को फोन किया, "मिसेज शर्मा मैं रात 9 तक पहुंच रही हूं. मैं आज व्रत हूं, क्या तब तक कुछ हो पाएगा."
"कुछ नहीं, बहुत कुछ हो पाएगा. मैं और सरोजजी भी व्रती हैं. आप तो बस जल्दी से आ जाइए साथ में व्रत खोलेंगे." मिसेज शर्मा की आवाज़ में उत्साह स्पष्ट था.
उनके उत्साह और स्नेह ने मिसेज दत्ता के मन को मिठास से भर दिया और फिर तो उनके हाथों को जैसे पंख लग गए और उन्होंने झटपट अपना सामान बांधा और टैक्सी की राह देखने लगी. आज उन्हें सपने का अर्थ समझ आ गया था.

- कविता राय

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Photo Courtesy: Freepik

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