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कहानी- गणित रिश्तों का (Short Story- Ganit Rishton Ka)

Lucky Rajiv
लकी राजीव

मैंने डांटते हुए कहा, “बकवास मत करो,
मैं पूछ क्या रही हूं और तुम…”
“वही बता रही हूं मम्मी.” नीलू तड़प उठी थी.
“आप लोगों ने मुझे क्या समझा था? मैं कोई गुड़िया हूं? कितना इंतज़ार, कितने झूठे वादे! कभी सोचा कि मैं पल-पल मर रही हूं. सिर्फ़ आप लोगों की वजह से मैंने आदित्य पर धोखाधड़ी का केस नहीं किया. उन सबकी वजह से मैंने क्या-क्या झेला, पता भी है आपको?”

सुबह की ये तीसरी चाय थी. उतनी ही बेस्वाद जितनी पहली थी. बची चाय किचन सिंक में उड़ेलने के बाद भी कप की तली में निशान लगे हुए थे. तेज़ पानी की धार कप में छोड़ी, तो निशान चला गया, लेकिन महक रह गई थी. मेरे हाथ से कप फिसलकर सिंक में गिर गया था. कुछ भी संभालना अब मेरे बस का नहीं!
“मम्मी, मैं निकलूं? देर हो गई, तो रोहन बड़-बड़ करेगा.”
नीलू ठीक मेरे पीछे खड़ी थी. मेरी पीठ पर फैला रूखापन वो छू नहीं पाती क्या? मैंने बिना देखे पूछा, “रोहन है कहां? नाश्ता भी नहीं किया उसने.”
मेरे सवाल का जवाब बाहर पोर्च में खड़ी कार के हॉर्न ने दे दिया था.
नीलू ‘बाय मम्मी’ कहती हुई तेज़ी से चली गई थी.
किचन की खिड़की से ही झांककर मैंने देखा था, बालों को ठीक करती हुई, पर्स संभालती हुई नीलू आगे वाली सीट पर बैठ गई थी. कुछ तो बोल रही थी वो, जिसको सुनकर रोहन हंसने लगा था. क्या बोली होगी? यही कि मम्मी आज भी चिढ़ी हुई थीं. और रोहन, उसने हंसकर क्या कहा होगा, “कम ऑन भाभी, मम्मी कब नहीं चिढ़ी
रहती हैं?”
नहीं… नहीं… ये नहीं, बल्कि उसने पूछा होगा, “कैसी लग रही हूं?”
रोहन हंसा होगा, “क्या भाभी, तुम कब नहीं अच्छी लगती?”
मेरा दिमाग़ बिल्कुल उसी कप की तरह हो गया था. निशान जाते ही नहीं थे. ज़ोर लगाकर निशान छुड़ा भी दूं, तो महक रह जाती थी. मैंने सिंक में पड़े कप को सूंघा, छी: महक नहीं, बदबू कहते हैं इसे.
दो साल पहले इसी महीने परिवार में नीलू ख़ुशबू का झोंका बनकर आई थी. आदित्य और नीलू मैट्रिमोनियल वेबसाइट पर मिले, एक-दूसरे को पसंद किया. हम दोनों परिवारों ने पहली ही मुलाक़ात में तय कर लिया था कि इससे ज़्यादा अच्छा अब और कुछ नहीं हो सकता था. आनन-फानन में सगाई, शादी सब निपट गया था.
मेरा परिवार पूरा हो गया था. दो बेटों के साथ घर में बहू भी थी, जिसने आते ही बेटी की कमी पूरी कर दी थी. कभी मेरे बिखरे कॉस्मेटिक्स व्यवस्थित करके सजा देती, कभी चुपचाप मेरी आलमारी में एक नई कुर्ती टांग जाती. मैं ग़ुस्सा जाती थी, “चाहिए ही नहीं था. तुम रुपए में आग लगाती हो.”
वो गले में बांहें डालकर झूल जाती, “आपको नहीं, मुझे तो चाहिए था. आपके लिए.”
मैं ज़ाहिर नहीं करती थी, मन तो भीग ही जाता था. आदित्य और रोहन अपने पापा के साथ खड़े दूर से देखते, हंसते फिर छेड़ देते, “क्यों पापा! देख रहे हो आप, टीम बन रही है गर्ल्स की. चलिए हम लोग भी अपना गैंग बना लेते हैं.”
सब कुछ तो परफेक्ट था, क्या कहते हैं आइडियल फैमिली, बिल्कुल वही. कुछ ऐसा कि जिसको देखकर दूसरों के मन में डाह उठती. पता नहीं किसकी डाह सब कुछ लील गई… मैंने सिरहाने रखी बाम की शीशी खोली और सूंघ ली. भीतर तक पहुंची लिंसीड ऑयल की महक पूरे दिमाग़ को काबू में करती हुई सुस्त करती जा रही थी. मैंने आंखें मूंद लीं, लेकिन दिमाग़ पल भर के भीतर फिर दौड़ने लगा था. कब, कहां, कौन-सी ग़लती हो गई? और किससे?

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कुछ महीने पहले ही तो उस शाम को हम सब साथ थे. उसी तरह हंसते, एक-दूसरे को चिढ़ाते हुए, जब मैंने नीलू को वो डिब्बी पकड़ा दी थी, “अरे, ये तो वही है मम्मी.”
डिब्बी खोलते ही उसकी आंखें भर आई थीं. कुछ दिनों पहले ही शोरूम में इन ईयरिंग्स पर उसकी आंखें बार-बार अटक रही थीं, उसी वक़्त मैंने तय कर लिया था, यही होगा इसका बर्थडे गिफ्ट.
नीलू बच्चे की तरह ठिनठिना गई थी, “देखा आदित्य, सब लाए हैं गिफ्ट. बस तुम ही…”
आदित्य हंसने लगा था, “मेरे पास भी एक सरप्राइज़ है. वो प्रोजेक्ट अप्रूव हो गया है, मोस्ट प्रोबैबली नेक्स्ट मंथ तक हम दोनों यूके के लिए उड़ जाएंगे.”
कहते हुए उसने हाथ से हवाई जहाज उड़ने का इशारा कर दिया था. हम सब भौंचक्के रह गए थे. अचानक ये सब! बात तो वो करता था इस प्रोजेक्ट की, लेकिन ये सब इतनी जल्दी! मेरा मन ख़राब होने लगा था. आदित्य ने तुरंत कहा, “सुनो तो मम्मी, एक साल का प्रोजेक्ट है बस. पहले मैं जाऊंगा, उसके बाद नीलू के आने का अरेंजमेंट होगा. फिर हम दोनों साथ में वापस. पता भी नहीं चलेगा आपको. तब तक ये लंगूर रोहन है न आपके पास.”
जितना भी उसने कहा था, सब झूठ नहीं तो सब सच भी नहीं था. वो अगले महीने चला गया था, ये सच था, लेकिन उसके आगे? नीलू के वहां जानेवाला महीना तो आया ही नहीं. पहले दो महीने टला, फिर चार महीने, पांच भी पूरे हो गए, लेकिन कहीं कुछ प्रोग्रेस नहीं.
कभी कहता कि मेरा ख़ुद रहने का ठिकाना नहीं, नीलू को कैसे बुला लूं? फिर कहने लगा कि हो सकता है मेरे ही वापस आने का हो जाए, अब क्या करेगी नीलू आकर?

बात सिर्फ़ इतनी सी नहीं थी. इससे कुछ ज़्यादा थी. नीलू की चंचलता गायब होती जा रही थी. आंखों के नीचे बढ़ते डार्क सर्कल्स भी चुगली करने लगे थे.
एक दिन इन्होंने पूछ लिया, “नीलू, कोई बात है क्या? आदित्य ठीक है वहां? कुछ टेंशन है क्या?”
नाश्ता करती नीलू एक पल को ठिठकी, फिर संभलकर बोली, “हां पापा, सब ठीक है. आदित्य भी ठीक है. मेरे ऑफिस में इतना काम है आजकल…”
मैं चुपचाप सुनती रही, उसको देखती रही. शोर मचाकर, दुनियाभर की बातें बताकर खाना खानेवाली लड़की एक-एक टुकड़ा निगल रही थी. बीच-बीच में कहीं खो जाती थी. ये ऑफिस वाली टेंशन तो नहीं थी.
“नीलू, सच सच बताओ, बात क्या है?”
शाम को उसके लौटते ही मैंने आंखों में आंखें डालकर पूछ लिया था. मुझे पता था मुझसे वो कुछ नहीं छुपा सकती. थोड़ी देर ज़मीन में आंखें गड़ाए वो टाइल्स की फिलिंग को, पैर के अंगूठे से छूती रही. फिर एकदम से बोली, “मम्मी, कुछ अजीब सा लग रहा है मुझे. आदित्य ठीक से बात भी नहीं करते और…”
अंगूठे की हरकत रुक गई थी. टप टप दो आंसू उसके कुर्ते पर गिरे.
“और मम्मी… उसके कुलीग से बात की तो वो मतलब जो कह रहा था, ज़रूरी नहीं कि सच हो, लेकिन उसने कहा कि आदित्य की लाइफ में कोई और लड़की…”
बस इतना बोलकर वो बिखर गई थी. मेरे पेट के इर्द-गिर्द बांहें लपेटकर, फफक-फफक कर रोती हुई मेरी बहू मुझे शर्मिंदा कर गई थी. इस तरफ़ हम सबने सोचा कैसे नहीं? ये भी तो हो सकता था. हम सब कैसे इस डर से आज़ाद रहे?
आदित्य को गए क़रीब आठ महीने होने को आए थे, वो नीलू को वहां नहीं बुला पा रहा था या फिर बुलाना ही नहीं चाह रहा था. इस अंतर को समझ क्यों नहीं पा रहे थे?
फिर शुरू हुआ पूछताछ का दौर. कई लोगों से बात की. रोहन के भी एक सीनियर वहां थे, उनको फोन किया गया. आदित्य के कॉन्टैक्ट्स खंगाले गए, सब कुछ सामने आता जा रहा था. फिर एक-एक करके हम सबने आदित्य से बात करनी शुरू की. मुझसे और अपने पापा से तो बात करना तो ‘बाद में बात करता हूं’ कहकर टाल गया. रोहन ने पीछा नहीं छोड़ा.
दोनों भाइयों में खुलकर बात हुई और वो बातें जब हमारे सामने खुलकर आईं, तो लगा कि पैर के नीचे ज़मीन ना होकर दलदल हो, पल-पल अपने पास घसीटता हुआ, हमारा दम घोंटता हुआ.
“भइया ने कहा है कि वो अब पीछे नहीं लौट सकते. मतलब वो सीरियसली इंवॉल्व्ड हैं.” अगले दो दिनों तक मैं बिस्तर से उठ नहीं पाई थी. सलाइन चढ़ती रही, दवा भी, लेकिन ब्लड प्रेशर नॉर्मल हो ही नहीं पा रहा था. अपनी कमज़ोरी पर रोना भी आया. जिस समय मुझे नीलू को संभालना चाहिए था, उस समय मैं ख़ुद ही पड़ गई थी. नीलू के पैरेंट्स भी आए, मुझे देखने आ रहे हैं, कहा तो ऐसा था. लेकिन आते ही असली बात भी कह दी, “देखिए, अब सब कुछ साफ़ है… ऐसे में नीलू के यहां रहने का कोई मतलब नहीं है. दिल्ली ऑफिस में ट्रांसफर हो जाएगा नीलू का.”
मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था. आदित्य के पापा ने हाथ जोड़ दिए थे, “ट्रांसफर में भी टाइम लगेगा ही, थोड़ा रुक जाइए. बस एक बार सामने बैठकर बात हो जाए. फिर आपकी जो मर्ज़ी. दो-तीन महीने में आदित्य वापस आ रहा है, क्या पता सब कुछ सही ही हो जाए. तब तक प्लीज़…”

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नीलू के मन में भी शायद यही था. एक बार फिर शुरू हुआ इंतज़ार का एक और दौर, पल-पल डराता हुआ, डरावना… दिन खींच-खींच कर लंबे करता हुआ, बोझिल…
नीलू की ओर मैं देखती, तो लगता इत्र की शीशी किसी ने खुली छोड़ दी, भीतर कुछ भी नहीं रह गया. न तो ठीक से खाती, न कहीं जाती. घर से ऑफिस, ऑफिस से घर, बस इतना ही. कभी शॉपिंग की बात की, तो सफ़ाई से टाल गई. न मूवी, न रेस्टॉरेंट… मेरा अपराधबोध बढ़ते-बढ़ते मुझको ही लीलने लगा था.
“रोहन, कल हम सब लोग मूवी चलेंगे. कुछ और प्लान मत बनाना और हां, ऑफिस से आकर अपने कमरे में मत घुसे रहा करो, नीलू से बात किया करो, घुल रही है वो…”
मेरे ही दिए गए सुझाव थे ये सब. कौन सा ग्रह आकर जमा था मेरी कुंडली में, जो मुझे डाल पर बैठाकर हाथ में कुल्हाड़ी थमा गया था. अगले दिन मूवी जाने से तुरंत पहले मुझे भयंकर पेटदर्द उठा. अपनी क़सम चढ़ाकर मैंने दोनों बच्चों को ही भेज दिया.
कभी सब्ज़ी का झोला थमाकर बाज़ार भेज देती, कभी हम तीनों टीवी देख रहे होते, तो मेरी आंख लगते ही मैं उठ कर अपने कमरे में आ जाती. ये सब कोई मुझसे करवा रहा था या अपने आप हो रहा था? सबसे बड़ी ग़लती तो मैंने उस दिन कर दी, जब नीलू ऑफिस कैब का वेट करती हुई झुंझला रही थी. मैंने बहुत अच्छी मां बनते हुए ऐलान कर दिया था, “देखो रोहन, मना मत करना. लगभग एक ही टाइम है तुम दोनों का, साथ क्यों नहीं आते-जाते?”
रोहन ने एक बार भी मना नहीं किया था. मेरे मन का बोझ उतरने लगा था. नीलू थोड़ी नॉर्मल होने लगी थी. हल्की सी महक फिर घर को घर बनाने लगी थी. आदित्य के आने का इंतज़ार अब उतना कठिन नहीं रहा था. देखा जाए तो मौसम बदल रहा था, हवाएं थीं. लेकिन ये नहीं पता था कि आंधी भी आने वाली थी. दोनों को साथ ऑफिस जाते महीना भर हो गया था. उस दिन क़रीब घंटे भर देरी से ये लोग लौटे.
“देर होनी थी, तो एक फोन तो करते मुझे. तुम दोनों में से कोई देर से निकला होगा, है न?”
दोनों का चेहरा ध्यान से देखते हुए मैंने पूछ लिया था. सकपकाया रोहन मुझसे आंखें चुराते हुए बोल दिया था, “हां, मैं फंस गया था.”
ये भी आधा सच ही था. फंस ये दोनों गए थे और अब मुझे फंसा रहे थे अपने झूठ के मकड़जाल में. हालांकि ये जाल भी मुझे कल शाम ही दिखा और ठीक तब से ही, नीलू के पास आते ही मुझे एक अजीब सी महक घेरने लगी थी. नहीं महक नहीं, मैंने क्या कहा था, बदबू.
कल शाम को मॉल में मेहंदी लगानेवाली लड़की को मैंने फोन किया था, “त्योहार आ रहा था. सोचा कि नीलू को भी अच्छा लगेगा.” वो लड़की तुरंत बोली थी, “हां आंटी एड्रेस याद है मुझे. आपको और भाभी को अच्छे से पहचानती हूं… भाभी से मिलती रहती हूं. हाय-हेलो होती रहती है.”
अचानक मैं सनक गई थी, “भाभी तुमको कहां मिलती रहती हैं?”
“यहीं मॉल में… छोटे वाले भइया और भाभी अक्सर दिखते हैं.”
मुझे लगा था छत पर घूमता पंखा मेरे सिर पर गिर चुका था. क्या कह रही थी ये लड़की? अक्सर दिखते हैं? कब जाते हैं? और… और सबसे बड़ी बात, जाते हैं तो मुझे क्यों नहीं पता रहता? यही है क्या वो काम जिसमें रोहन फंस जाता है? अब दिखी जाकर वो डाल, जिस पर मैं बैठी थी और कुल्हाड़ी भी दिखी, जो इन दोनों को मैंने थमा दी थी. घिर-घिर चलती हुई कुल्हाड़ी, घिस-घिसकर कटती हुई डाल… लगा कि अभी चक्कर खाकर गिर पडूंगी मैं बड़बड़ा रही थी… मेरी आवाज़ कांप रही थी.
कोई नहीं कह सकता कि ये मेरा वहम है. सब सच है. रोहन उससे तुम तुम कहकर बात करने लगा है, बात-बात पर यार बोलता है, कभी-कभी भाभी कहने की बजाय उसको नीलू भी कहता है…


मेरा गला रुंध गया था, एक हिचकी आई कसकर. अब इस सिरदर्द को इसके मायके वापस भेजना ही पड़ेगा. नहीं तो कुछ भी नहीं बचेगा.
इसके ठीक बाद से ही भीषण सिरदर्द उठा था. माइग्रेन की दवा निगली, बर्फ़ सिर पर मली, दालचीनी का लेप लगाया… सब फेल! एक गंदी सी बदबू घर भर में फैली रही, न कुछ खाते बन रहा था, न पीते. चाय तक अपना स्वाद खो चुकी थी.
मेरा दिल मानने को तैयार नहीं था कि मेरे घर में ऐसा हो रहा था. छी… छी… देवर भाभी के रिश्ते में ये गंदगी? जितना सोचती, उतना ही परेशान होती जाती. दिमाग़ में सारी बातें आती जा रही थीं. इसीलिए तो अपने मायके नहीं गई. सोचा होगा कि यहीं रहकर अपना खेल खेलती रहेगी.
नीलू के बारे में सोचती, तो लगता कि कोई मुखौटा लगाकर बैठी है भोलेपन का, बस उतारने भर की देर थी. भीतर से निकल आएगी एक चंट, चालाक, शातिर लड़की. बस अब हो गया, इसके मायके फोन करती हूं और कहती हूं कि अब सब कुछ ख़त्म. जब बेटे से ही रिश्ता नहीं रहा, तो इससे कैसा रिश्ता? दूर टेबल पर रखा फोन उठाने के लिए उठी ही थी कि ज़ोर से पूरा घर
गोल-गोल घूम गया. एक सेकंड रुककर फिर आगे बढ़ी, तो सब कुछ काला-काला… चीखकर घरेलू सहायिका को आवाज़ दी, उसके बाद क्या हुआ कुछ याद नहीं.
जब धीरे-धीरे आंखें खुलीं, तो जगह बदली-बदली सी थी. नहीं ये मेरा कमरा था ही नहीं. पर्दे, बेड, ये मशीनें? बगल में नर्स खड़ी थी, उसके बगल में रोहन अपने पापा के साथ और मेरे सिरहाने बैठी नीलू. ओह, मैं अस्पताल में थी क्या?
“मम्मी, अभी कैसा लग रहा है?” रोहन मेरे चेहरे के पास आता हुआ बोला. पल भर के भीतर सब कुछ याद आने लगा था. मैं गिर पड़ी थी, घर में. क्यों गिर पड़ी थी. अच्छा हां वो सब जो हुआ था… वो सब, जिसमें रोहन था, नीलू थी… मैंने फिर आंखें मूंद ली थीं. नीलू मेरा सिर सहला रही थी, मेरे अंदर ताक़त होती, तो इस लड़की का हाथ झटक देती. मैं चुपचाप पड़ी रही.
“घर कब तक जाएंगे?”
बस इतना ही मैंने पूछा. नर्स ने चुप रहने का इशारा करते हुए मुझे लेटे रहने को कह दिया. रोहन नाराज़ हो रहा था, “जब आपको पता है कि शुगर कम हो जाती है, तो टाइम से खाना-पीना क्यों नहीं चलता आपका?”
मैं कहना चाहती थी, बेहोश मैं मीठे की कमी के चलते नहीं, बल्कि तुम दोनों की बढ़ती मिठास के कारण हुई थी. मेरा थका शरीर मुझे कुछ बोलने नहीं दे रहा था. शाम हुई, रात हुई, मैं कितना थक गई थी कि इतनी ड्रिप चढ़ने के बाद भी अभी तक सामान्य नहीं हो पा रही थी? मैं सच में थक गई थी… अपने आपसे, अपने घर के लोगों से, अपने ही बच्चों से. आदित्य का ख़्याल कड़वाहट भर गया. कोई मतलब ही नहीं रखा उसने. यहां क्या हो रहा है, उसकी कोई ख़बर उसको है ही कहां? और अब ये दोनों… आंखों से दो बूंदें लुढ़ककर चेहरा भिगो गई थीं. नीलू ने चेहरा साफ़ करते हुए कहा, “कुछ टेंशन मत लीजिए मम्मी. कुछ नहीं हुआ है आपको.”
मुझे क्या हुआ था, वो सब उसको मालूम ही कहां था? जब मालूम पड़ेगा, तब इसका क्या हाल होगा, झूठी कहीं की. लेकिन सब कुछ पूछना तो पड़ेगा ही जल्दी से जल्दी.
मैंने रात को ऐलान कर दिया, “रोहन अपने पापा को लेकर घर जाओ. मेरे पास नीलू रुकेगी.”
इससे अच्छा मौक़ा मुझे नहीं मिलेगा. घर पर तो कभी रोहन, कभी उसके पापा इसका पक्ष लेने लगेंगे. मुझ पर ही हावी हो जाएंगे. अभी किसी को कुछ नहीं पता है, अब मैं शुरुआत करूंगी.
रात को लैपटॉप पर काम करती नीलू का चेहरा एकदम शांत था. मैं ध्यान से उसको देखती रही. उसने चौंककर मेरी ओर देखा, “मम्मी, कुछ चाहिए? अच्छा एक मिनट में आ रही हूं बस.”
जल्दी से कुछ लिखकर वो मेरे पास आकर बैठ गई थी. मेरा मन ख़राब होने लगा था. क्या ये सचमुच इतनी अच्छी है, जितना नाटक करती है.
मैंने कोशिश करके पूछा, “एक बात पूछनी थी तुमसे, सच-सच बताओगी?”
“हां मम्मी, क्या हुआ?”
नीलू घबरा गई थी, एकदम छोटे बच्चे की तरह.
“देखो नीलू, झूठ बोलने का फ़ायदा है नहीं अब. मुझे सब पता चल चुका है.”
अस्पताल के कमरे में मेरी गंभीर आवाज़ थोड़ी और गंभीर सुनाई दे रही थी. नीलू तटस्थ बैठी थी, “क्या पता चल चुका है आपको?”
मैंने एक निगाह उसको देखा, फिर अपनी आंखें फेर लीं.
“मुझे… तुम… मतलब तुम्हारे और रोहन के बीच जो कुछ भी… नीलू, तुमको शर्म नहीं आई?”
मैंने चिल्लाकर पूछा था. थोड़ी और ताक़त होती, तो और चीखकर पूछती.
नीलू ने मुझे लिटाते हुए कहा, “घर चलकर बात करेंगे मम्मी. अभी आप लेट जाइए.”
मैं थोड़ा और टूट गई थी. क्या ढिठाई थी. यानी ये सब कुछ स्वीकार रही थी. मना तो किया ही नहीं इसने, वाह!
“घर चलकर नहीं. मुझे अभी बात करनी है नीलू! तुमको हम लोगों ने कितना माना और तुमने…”
कहते हुए मेरी आवाज़ भर आई थी. नीलू कुछ नहीं बोली, चुपचाप बैठी रही. मैं इतना बोलकर हांफने लगी थी. नीलू ने मुझे सहारा देकर बैठाया. फिर बगल में रखा स्टूल खींचकर बैठ गई.
“मैंने क्या किया मम्मी? बोलिए न?”
“रोहन तुम्हारा देवर है… और तुम उसके साथ?”
“मैं उसके साथ क्या?”
वो सब कुछ सुनना चाहती थी, मैं क्या कहती? कुछ सोचकर मैंने कहा, “तुम लोग चोरी-छुपे घूमते हो. मुझसे झूठ बोलकर ये सब करते हो. कुछ गंदगी नहीं है इसमें? कुछ ग़लत नहीं है?”
नीलू ने एक लंबी सांस खींची, “मेरे साथ जो हुआ, वो सब सही था? आदित्य को कभी कठघरे में खड़ा करके आप पूछ पाईं? आदित्य को तो ये तक नहीं पता कि यहां कौन ज़िंदा है, कौन नहीं?”
कहते हुए उसकी आंखें भर आई थीं, थोड़ा रुककर बोली, “मेरे पापा लेने आए थे न. आप लोगों ने ही रुकने को बोला, ये सच है कि नहीं?”
मैंने डांटते हुए कहा, “बकवास मत करो, मैं पूछ क्या रही हूं और तुम…”
“वही बता रही हूं मम्मी.” नीलू तड़प उठी थी.
“आप लोगों ने मुझे क्या समझा था? मैं कोई गुड़िया हूं? कितना इंतज़ार, कितने झूठे वादे! कभी सोचा कि मैं पल-पल मर रही हूं. सिर्फ़ आप लोगों की वजह से मैंने आदित्य पर धोखाधड़ी का केस नहीं किया. उन सबकी वजह से मैंने क्या-क्या झेला, पता भी है आपको?”
वो अचानक उठी और उसने अपने बैग से कुछ काग़ज़ निकालकर मेरे सामने रख दिए.
“ये… ये सब चल रहा है मम्मी! महीनों से इलाज चल रहा है मेरा. कभी डॉक्टर नींद की दवा देता है, कभी डिप्रेशन न होने की. ये सब जो मेरे साथ हो रहा है, वो पता भी है किसी को?”


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वो अपने आंसू पोंछते हुए थोड़ी देर चुप रही, फिर कांपते हुए बोली, “ये सब रोहन को पता चल गया था. पहले तो वो ख़ूब लड़ा. फिर दोस्त का फ़र्ज़ निभाते हुए मेरी हिम्मत बनता चला गया. मम्मी! मुझे पता ही नहीं चला कि कब मेरे अकेलेपन को दूर करते-करते रोहन और मैं एक-दूसरे का सपोर्ट बनते चले गए.”
वो बोलते-बोलते कहीं खो गई थी. अचानक चौंककर दृढ़ आवाज़ में बोली, “लेकिन आप चिंता मत करिए. मैं जा रही हूं जल्दी ही. मेरा ट्रांसफर कुछ ही दिनों में हो जाएगा. अगर आपको इतने दिन भी मैं बर्दाश्त नहीं, तो बता दीजिए, मैं किसी फ्रेंड के यहां शिफ्ट हो जाऊंगी. बस आपसे इतनी ही रिक्वेस्ट थी कि इस रिश्ते को ख़राब नाम मत दीजिए. आपने गंदगी शब्द इस्तेमाल किया था न? मम्मी, दोस्ती में कभी ये शब्द आता ही नहीं है.”
बस इतना बोलकर वो चुप हो गई थी. दवाओं का असर था या इन बातों का, थोड़ी ही देर में गहरी नींद मुझे आगोश में ले चुकी थी. ऐसी गहरी नींद कि अजीब-अजीब सपने बारी-बारी आते रहे. कभी दिखता कि नीलू पागल हो गई है, फिर दिखता कि आदित्य और रोहन साथ बैठे हैं, मैं पूछ रही हूं नीलू कहां है? वो लोग पूछते हैं कौन नीलू? एक बार देखा कि नीलू की तस्वीर पर माला चढ़ी हुई है, सामने बैठी भीड़ फुसफुसा रही है कि मैंने उसकी जान ले ली है… पता नहीं कब सुबह हुई, कब मेरी आंखें खुलीं. होश आया, तो नर्स दवा दे रही थी.
“मेरे घर के लोग कहां हैं सिस्टर?”
नर्स खीजते हुए बोली, “कौन लोग? तुम्हारी बेटी ही तो है इधर, वो देखो बैठी तो है.”
दीवार से सिर टिकाए नीलू आधी नींद में थी, लेकिन मेरे जागने का समय आ चुका था. इसके साथ हम सबने किया क्या? कहीं न कहीं हम सब दोषी थे. एक-एक करके भूल सुधारनी ही होगी. प्रायश्‍चित अभी नहीं किया, तो कभी नहीं.
रोहन और नीलू एक-दूसरे से जुड़ चुके हैं. एक बार फिर एक और रिश्ता बिखरे, ये ठीक नहीं होगा. मेरा मन साफ़ हो चुका था, वो मैल मेरे मन में था, जो मैं इनके रिश्ते में देख रही थी, सब हल्का-हल्का था. नर्स ब्लड प्रेशर नापते हुए संतुष्ट थी, “सब अच्छा है. नाश्ता करके ये दूसरी दवा लेनी है. बेटी को जगाकर बताऊं?”
“नहीं सिस्टर, उसको सोने दीजिए. मुझे याद रहेगा. वैसे वो…”
सोती हुई नीलू के चेहरे पर एक लट आकर बिखर गई थी, मैंने सिस्टर को थोड़ा और समझाया, “वैसे वो मेरी बहू है… छोटी बहू!”

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