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कहानी- ग़लत ट्रैक पर चले गए गालिबान (Short Story- Galat Track Par Chale Gaye Galiban)

सचमुच बेवकूफ़ हूं. उत्तम व्यवहार कर रही गाथा को इतना दख़ल दिया कि उसने व्यवहार में मेरा असर पैदा कर लिया है. वाचाल हो रही है. रोज़ नई-नई ज़रूरतें बता रही है. बचत करने की सलाह देती थी अब सैलरी उड़ा कर दम लेगी.

दांपत्य में तिरोहित होने जा रहा प्रत्येक जोड़ा सोचता है अथवा एक इस जोड़े ने सोचा इसका प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता. दांपत्य में दाख़िल हो रही गाथा बड़प्पन से लैस है- अपनी तीन बड़ी बहनों की तरह दांपत्य को चलताऊ सा नहीं होने देगी. तीन में दो बहनें इस कदर हताश, बल्कि हताहत हैं कि उनमें वीरता होती, तो तलाक़ ले डालतीं. साफ़ झलकता है बहनें, मां-पिताजी की सुध-बुध लेने नहीं, पति निंदा का लक्ष्य लिए कोठार (मायके) आती हैं.
अम्मा दत्त चित्त हो दामादों के अवगुण सुनती हैं, लेकिन गाथा को जीजा त्रय इतने अवगुणी नहीं लगते, जितना सहोदरायें साबित करना चाहती हैं. उसने तभी इरादा कर लिया था अपने दाम्पत्य को ऐसा चलताऊ नहीं होने देगी कि रज़ामंदी दिखाई न दे. बाप राम आलीशान दहेज नहीं देंगे, जिसके बूते लड़की पति को मातहत बनाकर चलती है.
उधर जनक भी बड़प्पन से लैस था. गाथा की पहली झलक देखकर बेक़रार हो गया. ज़ाहिर तौर पर पत्नी को लेकर कोई कल्पना नहीं की है. मनसा, वाचा, कर्मणा को संयुक्त कर गाथा को अपनी कल्पना बनाना है. माहौल को जीवनभर ऐसा मज़ेदार बनाए रखना होगा कि इस लाली दुल्हनिया को मेरी स्थानीय छोटी फैक्टरी की छोटी नौकरी और दो छोटे कमरेवाला छोटा किराए का मकान छोटा न लगे. अम्मा-बाबू पता नहीं क्यों लड़ते हैं? उन मुद्दों पर भी लड़ते हैं, जिन मुद्दों पर सहमत होना अधिक स्वाभाविक होना चाहिए.
जैसा कि आमतौर पर होता है. दांपत्य का श्री गणेश सकुशल अवस्था में हुआ. नएपन का नयापन, नएपन की खुमारी, नएपन का संकोच, नएपन का रोमांच. जनपद में रहते हुए तीसरा साल है, पर जनक को जनपद, घर, दफ़्तर, रास्ते ऐसे चमकदार न लगते थे जैसे गाथा की सोहबत में लग रहे हैं. सब कुछ संपूर्ण और सुहाना है. आमतौर पर रुष्ट सा दिखनेवाला जनक का चेहरा उपकृत सा दिखने लगा है.
“गाथा, लड़कियां बहुत सहती हैं. अपने घर-परिवार, शहर को छोड़कर दूसरे घर-परिवार, शहर को अपनाती हैं. मुझे तो दूसरे का बाथरूम यूज़ करने में द़िक्क़त होती है, घर में रहने में बहुत द़िक्क़त होगी.”
“सामाजिक व्यवस्था है. लड़कियों का अरमान होता है, शादी हो. अपना घर हो.”

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“ऐसा है, तो मैं ख़ुद को थोड़ा बरी हुआ सा पा रहा हूं.”
दांपत्य के प्रथम वर्ष में इस कदर त्याग, समर्पण, महानता, उपकार का दौर चलता है कि प्रथम वर्ष को सद्भावना वर्ष घोषित किया जाना चाहिए. गाथा और जनक एक-दूजे को प्रभावित करने पर उतारू. प्रभावित कर रहे हैं, हो रहे हैं, बल्कि एक-दूजे को प्रभावित उतना नहीं कर रहे हैं, जितना अपनी इमेज को उत्कृष्ट बनाना चाहते हैं. कोशिश रहती है ग़लतियां, बेवकूफ़ियां न करें. दूसरे की ग़लतियों, बेवकूफ़ियों पर ध्यान न दें. ध्यान चला जाए, तो दिल से न लगाएं.
जनक को गाथा का चुप रहना अच्छा लग रहा है, गाथा को जनक का बहुत बोलना. जनक को गाथा की शालीनता सुहा रही है, गाथा को जनक की लापरवाही और फिज़ूलख़र्ची. जनक नहाने के बाद स्नानगृह में शैंपू का फेन छोड़ देता. गाथा बहा देती. गीला तौलिया बिस्तर पर फेंक देता. गाथा धूप में फैला देती.
पहने हुए पजामे को दो गोले की शक्ल में भूमि पर उतार, खूंटी में टंगा पतलून पहन कर जनक फैक्टरी चला जाता. पजामे की पोज़ीशन देख मुस्कुराती गाथा पजामा तह देती. जनक फैक्टरी से लौटकर पतलून खूंटी में टांगता और दो गोलों के आकार में धराशायी पड़े पजामे के गोलों में एक-एक पैर रखकर पजामा पहन लेता था. अब पजामे को यथास्थिति न पाकर लजाता कम, हैरान अधिक होता.
“पजामा ज़मीन पर न मिले, तो मुझे लगता है किसी दूसरे सज्जन के घर में घुस आया हूं. गाथा, पड़ा रहने दिया करो. मैं हॉस्टल में यही करता था.”
“यह हॉस्टल नहीं घर है.”


उम्दा क़िस्म के कोआर्डिनेशन के साथ दाम्पत्य का प्रथम वर्ष, जो वस्तुतः त्याग वर्ष माना जाना चाहिए, सम्पन्न हुआ. दूसरे वर्ष के ज़ोर पकड़ते ही नएपन का नयापन काफ़ी हद तक कम हो गया. दोनों को एक-दूसरे की वो कमियां, ख़राबियां, ग़लतियां दिखाई देने लगीं, जो अब तक दिखाई नहीं दे रही थीं. तरीवाले मसालेदार भोजन के प्रलोभी जनक को गाथा द्वारा रचित सादा भोजन अत्याचार की तरह लगने लगा.
दांपत्य को अक्षत रखने के लिए वह अपने गांव में अक्सर पधारनेवाले एक तपसी महाराज के फॉर्मूले- एक  थाली में खाने से पति-पत्नी में प्रेम बढ़ता है का डे वन से पालन करते हुए गाथा के साथ एक थाली में खा रहा है. लेकिन अब लगने लगा है थाली में रखा खाना गोबर जैसा हो, तो प्रेम नहीं मतभेद बढ़ता है.
बाबू, भोजन में इतना नुक्स निकालते थे कि सीखते-सीखते अम्मा गुणी रसोइया बन गईं, खाते-खाते वह स्वादपारखी बन गया है. जान पड़ता है गाथा ने कोठार में खाना बनाने का अभ्यास नहीं किया है. पापड़, अचार या सलाद परोसना जानती ही नहीं. इसे सोचना चाहिए दिनचर्या को सुचारु रखने के लिए दो व़क्त का स्वादिष्ट भोजन कितना ज़रूरी है. यदि गोबर जैसे स्वाद वाला खाना खाता रहा, तो एक दिन तत्काल प्रभाव से नौकरी से रफ़ा-दफ़ा कर दिया जाएगा. गाथा से कहना पड़ेगा- कोई चेतना सम्पन्न बड़े अनुसंधान के बाद कह गया होगा पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है. इस पथ को पहचान लो, वरना दांपत्य में गफ़लत बहुत होती है.
वह अक्सर बेगैरत सा चेहरा बनाकर खाता है कि गाथा उसकी अरुचि समझ ले, लेकिन मूढ़मती वैसे तो चुप रहती है, पर खाते समय नियमपूर्वक पूछती है, “खाना कैसा बना है?” विरक्त मुंह बनाए कहना पड़ता है, “ठीक बना है, तभी न खा रहा हूं.”
गाथा इस प्रतिक्रिया पर पता नहीं क्या सोचती है. इतना चुप रहती है कि सुराग नहीं मिलता कि कुछ सोचती है. वैसे वह स़िर्फ एक वर्ष पुरानी पत्नी है. उसकी त्रुटि बताना मानवीय, “प्यार का बुखार उतर गया मियां.” समझाना पड़ेगा. न उतरे इसीलिए थोड़ा निर्देशित करना है.
पति-पत्नी एक-दूसरे के अनुरूप बनें, एक-दूसरे के हित, रुचि, आराम का ख़्याल रखें, यह ग़लत अथवा अनोखी बात नहीं है. महिलाओं को पति, परिवार, परिजन के मुताबिक़ ख़ुुद को बदलना चाहिए. यह बदलना न ख़ुद पर अत्याचार है, न पति पर उपकार.
सुयोग देखकर गाथा से इस संदर्भ में बात करनी है. वक्त रहते विरोध न करो, तो विरोध विद्रोह बन जाता है. त्रुटि बताना बलवा करना नहीं है. इस तरह निर्देशित करेगा, जो आपत्ति जैसा नहीं इसरार जैसा लगेगा.
जनक ने कूट तरीक़ा अपनाया, “गाथा, मेरी कमियां बताओ.”
“सब ठीक है.”
“मतलब कुछ है, जो ठीक नहीं है.”
“सब ठीक है.”
“तुम अपनी कोई कमी बताओ.”
“मुझे नहीं मालूम. तुम बताओ.”
“हां एक-दूसरे की कमी न बताने का मतलब होगा हम एक-दूसरे को जागरुक नहीं करना चाहते. उदासीन रहना चाहते हैं, उदासीन रहने का अर्थ नज़रअंदाज़ करना होता है. परिष्कार और परिहार हमें ऊंचा उठाते हैं. मैं चाहता हूं तुम ऐसी प्रेजेंटेबल बनो कि लोग सराहना करें.”
“कमी बताओ.”
“इतना चुप रहती हो. बात करना सीखो.”
“मैं बहुत नहीं बोलती.”
“मेरे मित्र आते हैं, तुम चुप रहती हो.”
“क्या बोला करूं?”
“पूछना चाहिए अकेले हैं, वाइफ को क्यों नहीं लाए?”
“पूछ लूंगी.”
“क्या?”
“वाइफ को क्यों नहीं लाए.”
“मेरा चार-पांच मित्रों का ग्रुप है. हम लोग शनिवार या रविवार को किसी एक के घर मिलते हैं. भाभियां अच्छा खाना खिलाती हैं. अच्छा विचार-विमर्श करती हैं. माहौल बनता है. वहीं तुम हां… हूं… बस… मित्रों को लगता है तुम गु्रप में ईज़ी नहीं रहती हो. घमंडी हो या उन्हें अपने स्तर का नहीं मानती हो. मुरारी कहता है- जनक, तुम गूंगी गुड़िया को ब्याह लाए हो.”

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“लगता है जत्था (मित्र समूह को गाथा जत्था कहती है) हर किसी को टाइटिल देता है. मैं गूंगी गुड़िया, जबकि सुवास कहता है- जनक तुम इतना बोलते हो जैसे सियार हुआ-हुआ करने लगे, तो फिर चुप नहीं होता.”
“हम लोग एक-दूसरे को बोर करते रहते हैं, लेकिन तुम इतना चुप रहती हो… अम्मा मोबाइल पर मुझसे पूछती हैं इतना चुप रहती है, लगता है ख़ुश नहीं है!”
“मैं ख़ुश हूं.”
“इतना चुप रहती हो. कैसे पता चले ख़ुश हो? अच्छा बोलना, विमर्श करना स्मार्टनेस है.”
“जत्था दफ़्तर की बुराई करता है, भाभियां अपनी पीठ ढांकती हैं, आज ये रेसिपी ट्राई की… ये स्मार्टनेस है?”
“भाभियां अच्छा खाना बनाती हैं, ख़ुश होकर खिलाती हैं.”
“तुमने कभी नहीं कहा मैं अच्छा खाना बनाती हूं.”
“सादा बनाती हो. मुझे चटपटा पसंद है.”
“तेल-मिर्च सेहत ख़राब करते हैं.”
“बाबू हट्टे-कट्टे, मज़बूत हैं.”
“मेरे पिताजी सादा खाने की सलाह देते हैं, क्योंकि उन्हें डायबिटीज़, हाई बीपी कई रोग हैं. चटपटा खाने से उनकी तबियत नासाज हो जाती है.”
“लेकिन तुम सादे भोजन का प्रयोग मुझ पर मत करो.”
“मैं प्रयोगधर्मी नहीं हूं.”
“अच्छा खाना बनाना कठिन नहीं है. सीख लोगी. मेरा वश चले, तो मैं भी सीख लूं.”
“मेरा वश चले तो खर्राटे लेना सीख लूं.”
जनक विमूढ़ हो गया. समझौते पर आना चाहता है, लेकिन यह खर्राटे लेने जैसा वैमनस्य दिखाना चाहती है.
“अपना बोरिया-बिस्तर बैठक में समेट ले जाऊंगा.”
“मैं समेट लूं, लेकिन माचिस की डिबिया जैसे छोटे बैठक में चार कुर्सियां मुश्किल से समाई हैं, खटिया नहीं समाएगी.”
“खटिया किचन में रख लो.”
“चूहे और झींगूर तादाद में हैं. तुम्हारे खर्राटे और झींगूर की चिंचियार में फ़र्क़ नहीं है.”
“मतलब?”
“हुडुक्का (हुक्का जैसी गड़गड़ की आवाज़ करते खर्राटे) बजाते हो. कई रातों से नहीं सोई.”
“मैं खर्राटे नहीं लेता.”
“नींद में नहीं जान पाते हो. कई बार मैं पैंताने सिर करके सोती हूं.”
“किसी दिन मेरी नींद खुल गई थी. देखता हूं सिराहने की ओर आपके चरण हैं. भारतीय संस्कृति का कुछ ख़्याल करो. पति परमेश्‍वर को पत्नी का पैर धोखे से भी लग जाए, तो पत्नी का रौरव नरक में जाना तय है.”
“मैं फर्ज़ी बातों को नहीं मानती.”
“मैंने ज़रा सी आलोचना क्या कर दी तुम बात का बतंगड़ बनाने लगी.”
“बतंगड़ न बने, इसलिए ध्यान रखो कि गीला तौलिया बिस्तर पर, बाथरूम में झाग न रहे. एक बार मैं झाग में फिसल गई थी. कमर चटकते बची. जूते, कपड़े, बेल्ट कुछ भी सही जगह पर नहीं रखते हो. बड़ी भारी आलमारी ख़रीद लाओ. तुम्हारी सामग्री उसमें ठूंस कर ताला जड़ दूं.”
“आलमारी… ख़्वाइशें बताती चलो. तनख़्वाह कम है, लेकिन ग़ुलाम पूरी करने की कोशिश करेगा.”
“तनख़्वाह कम है, लेकिन जत्थे के साथ महफ़िल सजानी है, पिकनिक मनानी है… थोड़ा बचत करो.”
“नुस्ख़ा बता दो.”
“मुझे एक नया पैसा नहीं देते, नुस्खा कैसे बताऊं? जान पड़ता है पूरी सैलरी वॉलेट में ठूंसे रहते हो. खूंटी में टंगे तुम्हारे पैंट की मुझे निगरानी करनी पड़ती है. किसी दिन बूटन (कामवाली बाई) जेब में रखे वॉलेट से सेलरी उड़ा लेगी.”
“उड़ा ले. तुम्हारे भरण-पोषण में कमी न आने दूंगा.”
“भरण-पोषण की बात न करना. कुकिंग गैस सिलेंडर की होम डिलीवरी हुई. मुश्किल से पेमेंट कर सकी.”
“मैं पैसे नहीं देता, तो पेमेंट कैसे किया?”
“चोरी किया रे… वॉलेट से सौ-पचास रुपए चुराने जैसी गिरी हरकत करनी पड़ती है. लेकिन तुम्हें उम्दा खाना चाहिए. मैं…”
“माफ़ करो देवी. दो शब्द कह क्या दिए तुमने मोर्चा खोल दिया.”
जनक होश खो देगा. अनुमान नहीं था. यह उसकी कमियों, ख़राबियों, ग़लतियों पर पैनी नज़र रखती है. ऐसी कमियां गिना रही है, जिनके लिए सोचता था उसमें है ही नहीं. वह इसरार कर रहा था, यह शीलवती कन्या तकरार पर उतर आई. ऐसे अपरिचित से कारण बता रही है, जिन्हें ग़लतियां बिल्कुल नहीं कहा जा सकता.
इसके साथ इतनी औपचारिकता नहीं बरतनी चाहिए थी. औपचारिकता अब तो बेवकूफ़ी, बल्कि ढोंग लग रही है. क्या पता था जिस कंठ में मधु भरा रहता था, उस कंठ से धतूरे जैसा स्वर निकालेगी. स्थिति का लाभ उठाने में माहिर लगती है. न निर्देश मानेगी, न सलाह सुनेगी. गीला तौलिया बगराने, झाग बहाने में सुकुमारी की कमर पिराती है. दांपत्य में बेवकूफ़ी के अलावा कुछ नहीं रखा. ज़ोर का झटका धीरे से नहीं ज़ोर से लगा है.
झटके पर झटका. फैक्टरी ले जाने के लिए गाथा ने असावधानीवश लंच बाक्स में पराठों के साथ नमक रहित सब्ज़ी रख अगला झटका दे दिया. जनक ने इसे षडयंत्र माना. फैक्टरी से लौट कर लंच बॉक्स गाथा के सम्मुख उलट दिया.
“टीवी पर पुरानी फिल्में देखने से ़फुर्सत मिले, तो सब्ज़ी में नमक डालने का होश रहे.”
“मैंने सब्ज़ी खाई, तब पता चला नमक डालना भूल गई हूं.”
“अच्छा खाना न मिले, तो मेरी बुद्धि काम नहीं करती.”
“हाथ-मुंह धो लो. चाय लाती हूं.”
तिर्यक तेवर में जनक स्नान गृह में चला गया. झुककर बाल्टी से पानी लेते हुए शर्ट की ऊपरी जेब में रखा सेल फोन बाल्टी में गिर गया. सराबोर मोबाइल लिए रसोई में चाय बना रही गाथा के सम्मुख पहुंचा, “अच्छा खाना न मिले, तो मेरी बुद्धि काम नहीं करती, सेल फोन पानी में गिर गया.”
“नमक का ध्यान रखूंगी.”
“नमक को ध्यान रखने से मेरा सेल फोन रिपेयर नहीं हो जाएगा.”
वह बड़प्पन तिरोहित हो गया, जिससे यह जुगल जोड़ी लैस थी.
दोनों एक-दूजे की त्रुटियां ढूंढ़ते पाए जाते हैं. तकरार का सिलसिला थम नहीं रहा है. कितनी बार जंग हुई, कितनी बार जनक ने हंगामा किया, गाथा ने क्रंदन, इसका मुक़म्मल प्रमाण नहीं मिलता. क्रंदन करती पराजित गाथा बिस्तर पर पड़ी रहती.
जनक वैसा नहीं रहा जैसा ओपनिंग में था. वेदना होती है. मैं बेगैरत इंसान पर न्योछावर हुई. मुझे एक थाली में खाना असहज करता है, फिर भी थाली शेयर करती हूं. यह बड़े-बड़े कौर जल्दी-जल्दी चबाते हुए मेरे हिस्से का काफ़ी कुछ उदरस्थ कर लेता है, लेकिन मैं चुप रहती हूं. शालीनतापूर्वक छोटे-छोटे कौर खाते हुए अक्सर भूखी रह जाती हूं, लेकिन इसे उम्दा भोजन चाहिए. मैं क्या करूं, कैसे रहूं, मेरी कमियां बताकर पर्यवेक्षक बना जा रहा है. मैं अपनी कुलीनता में रहना चाहती हूं, यह मेरी छवि बिगाड़ रहा है. विवश होकर मुझे इसकी त्रुटियां बतानी पड़़ीं.

अब स्थिति यह है कि मैं इसकी त्रुटियां ढूंढ़ने में व़क्त बर्बाद करने लगी हूं. इसकी त्रुटि ढूंढ़ते हुए ख़ुद चार त्रुटियां कर डालती हूं. नहीं सोचा था इतना लाचार हो जाऊंगी.
दांपत्य के जोख़िम पहचान में आने लगे हैं. नक्षत्र न बदले, तो दांपत्य को चलताऊ सा होना ही है. व़क्त ऐसा आ गया है जब बात-बात पर तलाक़ हो रहे हैं. ऐसा होता है, तो सहोदराएं मंगल मनाएंगी.
गाथा बड़ा संकल्प करती थी. तलाक़ लेकर हमसे दुइ कदम आगे निकल गई. अब? कुछ सोचना होगा. चिंतन से रास्ते निकलते हैं. मुझे लाचार नहीं कल्पनाशील बनना चाहिए. छोटी-छोटी लड़ाइयां जनक की तन्मयता नष्ट कर देंगी. मोबाइल ख़राब हुआ है, आगे न जाने क्या-क्या ख़राब होगा. प्राइवेट बॉडी में जॉब करता है. ध्यानपूर्वक काम न करेगा, तो निकाल दिया जाएगा.
अभी अक्सर भूखी रहती हूं, तब दाना नसीब न होगा. मैं समन्वय बनाऊंगी. समन्वय आसान और सुविधाजनक नहीं है, तो कठिन और असुविधाजनक भी नहीं है. सच पूछो, तो चटपटा भोजन पसंद करना गुनाह नहीं है. पिताजी घर के मुखिया हैं. कोठार में उनकी पसंद का खाना बनाना पड़ता है. इस घर का मुखिया जनक है. मुझे उसकी पसंद को प्राथमिकता और महत्व देना चाहिए. वह वाचाल है, लेकिन इसे खता नहीं कहा जा सकता. सच यह है, वह उतना नहीं बोलता, जितना मैं चुप रहती हूं. गूंगी गुड़िया- जत्थे ने सही टाइटल दिया है. इतना कम बोलती हूं कि महफ़िल में असामाजिक तत्व की तरह लगती हूं. बोलना चाहती हूं, लेकिन मौ़के पर उपयुक्त शब्द नहीं मिलते.
दिनभर पुरानी फिल्में देखती पड़ी रहती हूं. पुरानी फिल्में अर्हता नहीं बढ़ाएंगी. ज्ञान बढ़ानेवाले कार्यक्रम देखूंगी. विमर्श करना सीखूंगी. अपने व्यवहार में संशोधन करूंगी. ऐसी चेष्टा करनी होगी, जो प्रयत्नपूर्वक किया जा रहा उपक्रम नहीं स्वाभाविक लगे. यह त्याग नहीं, एक अच्छा तरीक़ा है. मेरी कुलीनता वापस लौटेगी, साथ ही जनक में ओपनिंग वाला बड़प्पन थोड़ा भी बचा होगा, तो ग्लानि के तलाब में डूब जाएगा कि सकारात्मक भाव उसने क्यों न दिखाया?
ख़ुद को आमूल चूल बदलकर गाथा ने जनक को एक झटका और दे दिया. जनक को चिंतक की मुद्रा में आना पड़ा. गाथा न्यूज़ चैनल देखती पाई जाती है. रसोई में नाना विधि प्रयोग कर चटपटे व्यंजन बनाती है. महफ़िल जमाने के लिए वीकेंड पर जत्थे को आमंत्रित करती है. जत्थे से इस तरह वार्ता करती है मानो दिनभर अच्छे वक्तव्य की तैयारी में लगी थी. जत्था उसकी ओर केन्द्रित होता जा रहा है. शक होता है लाइन मार रहा है. मैं बोलना चाहता हूं, तो जत्था दिल्लगी करता है- गाथा से मिलने आए हैं, तुम्हें झेलने नहीं… गीला तौलिया बिस्तर पर फेंक, बाथरूम में झाग छोड़ मैं घर का नजारा बिगाड़ता हूं, यह त्यागमयी मुद्रा बनाए व्यवस्था बना देती है. मुझे अंदाज़ है एक थाली में खाते हुए इसे सहूलियत नहीं लगती, लेकिन चेहरे के भाव यूं बनाए रखती है मानो धन्य हो रही है.
पता नहीं क्यों लगने लगा है उसने बाजी मार ली है. मैं हार रहा हूं. पराजय की बात न भी हो लेकिन पछतावा सा हो रहा है. पता नहीं क्यों गाथा का तरीक़ा उचित लगने लगा है. सादा खाना उत्तम होता है. छुट्टी-छपाटी पर कुछ स्पेशल बने वह अलग बात है.
जब से रेसिपी ट्राई करने लगी है, रसोई में एक न एक सामग्री का टोटा पड़ा रहता है. जत्थे के लिए कड़ाही भर बनाने में मेरा अल्प वेतन होम हो रहा है. तरीवाला भोजन मैं लपलपा कर खाता हूं, जबकि मिर्च की अधिकता से गाथा हिचकती है या बार-बार पानी पीती है. हिचकती है, लेकिन बोलना जारी रखती है. सच कहूं तो चुप रहती थी, तब स्वाभाविक लगती थी. ख़ूब बोलते हुए बनावटी लगती है. दरअसल चुप रहना उसका स्वभाव है. संस्थागत पारिवारिक अनुशासन से आई है. उसके पिताजी लड़कियों का लड़कों से मेलजोल नहीं होने देते थे. उसकी चुप रहने की आदत हो गई.

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सच यह भी है गाथा को बोलने का मौक़ा नहीं देता हूं. इतना बोलता हूं कि बीच में किसी का बोलना दख़ल की तरह लगता है. तुरंत बॉस टोक देते हैं, “जनक कम बोलो, काम अधिक करो. बातूनी लोग अक्सर ऐसी बातें करते हैं, जो किसी का भला नहीं करती.” जत्था अलग दिल्लगी करता है, “जनक बहुत बोलते हुए तुम बेहतरीन बेवकूफ़ लगते हो. एक दिन ख़ूब बोलते हुए ख़ुद को आईने में देखो, कितने बेवकूफ़ लगते हो.”
सचमुच बेवकूफ़ हूं. उत्तम व्यवहार कर रही गाथा को इतना दख़ल दिया कि उसने व्यवहार में मेरा असर पैदा कर लिया है. वाचाल हो रही है. रोज़ नई-नई ज़रूरतें बता रही है. बचत करने की सलाह देती थी. अब सैलरी उड़ा कर दम लेगी.
तो अब? लगता है बात कुछ नहीं है, बस इतनी है कि बाबू की तरह पुरुष अहम् से कंठ तक भरा हुआ हूं. अम्मा, ख़ुद को बाबू के अनुकूल बनाती गई, बाबू रत्तीभर न झुके. सोचना होगा, अहम् दांपत्य का सत्यानाश कर देता है.
गीला तौलिया खूंटी में टंगा दूं, झाग बहा दूं तो दफ़्तर के लिए विलंब न हो जाएगा. किसी दिन कोई रपट गया, तो हाथ-गोड़ खंडित हो जाएंगे. प्रत्येक व्यक्ति की अलग प्रकृति और स्वाभाविकता होती है. प्रकृति बदलते हुए गाथा सचमुच टॉर्चर से गुज़री होगी. मैं ख़ुद को बदलूंगा, ताकि वह अपनी स्वाभाविकता को वापस पा ले. आख़िर दांपत्य साझा भागेदारी है. प्रयास, प्रयोजन, परिणाम साझा होना चाहिए. मैं नम्र बनूंगा, वरना गाथा को अहंकार हो जाएगा कि दांपत्य उसके प्रयास से गतिमान है.
तो अब? गाथा से दूर नहीं गया हूं कि क़रीब आऊं. फिर भी और क़रीब आने का जतन करूंगा. ख़ुुद को बदलूंगा. वह तो बदल ही गई है. दो कदम चलूंगा. वह तो चल चुकी है. गाथा की तरह ख़ुद को खूफिया तरी़के से यूं बदलूंगा कि मोहतरमा को ख़बर न होगी. मेरे व्यवहार पर हतप्रभ हो न हो, ख़ुश तब भी होगी.
“गाथा खाना लगाओ.”
गाथा एक थाली में परोस लाई.
“कटहल की सब्ज़ी तुम्हें पसंद है. देखो कैसी बनी है.”
“एक थाली में न परोसा करो.”
“प्रेम बढ़ता है.”
“लालच बढ़ता है. अंदाज़ नहीं मिलता कौन अधिक खा गया, कौन कम. मैं गले तक ठूंस लेता हूं.”
“ख़ूब खाओ. चटपटा बनाने लगी हूं.”
“सादा बनाओ. सेहत ठीक रहती है.”
“मुझे अच्छा लग रहा है. पता नहीं था अच्छा खाना बनाना और खाना इतना संतोष देता है. कल इतवार है. जत्थे को लंच पर बुलाओ. दाल, बाटी, चूरमा बनाऊंगी.”
“बेकार थकोगी.”
“वीकेंड पर एंजॉय करो. तुम्हारी वर्किंग एफीशिएंसी बढ़ेगी.”
“रेस्ट के लिए एक इतवार ही तो मिलता है. दोपहर में टीवी पर पुरानी फिल्म देखेंगे.”
“मुझे न्यूज़ चैनल पसंद है. बहुत जानकारी मिलती है. किसी भी टॉपिक पर बोल सकती हूं.”
जनक ने गाथा को देखा.
गाथा ने जनक को देखा.
समन्वय पर आते-आते ग़लत ट्रैक पर चले गए गालिबान. साझे प्रयास, साझे प्रयोजन का परिणाम कितना विपरीत. परिणाम पर हंसना अथवा लड़ना स्वाभाविक होता, पर दंपति इतने हतप्रभ हुए कि न हंसने की सुध आई न लड़ाई की.

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