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कहानी- फ़र्ज़ी (Short Story- Farzi)

"तू सच बता के तो देख. वो तेरी ख़्वाहिश हो सकती है, मगर तू उसकी ख़्वाहिश नहीं, उसका प्यार नहीं… उसकी मजबूरी होगा… विवाह की नींव ही विश्वास है. तू शुरूआत ही धोखे से करेगा. बाद में जब उसे पता चलेगा तो पछतावे के सिवाय कुछ नहीं बचेगा तेरे पास… कहांं रह जाएगा तेरा प्यार. तेरी ख़्वाहिश से कितने जुड़े रह पाएंगे तेरे रिश्ते… मैं ऐसा कभी नहीं करने दूंगा. पहले वसुधा को तेरा सच पता होना चाहिए, जो दिख रहा है तू, वो फ़र्ज़ी है."

"आ गए दद्दा, हमारे गाऽलीऽऽप मियां." हा हा सब हंसे और एक एक कर खिसक लिए. गौरव, मुकेश, यश, अक्षय…
अब कौन बोर होने के लिए बैठता.
"अरे रे रे रुको भई!"
जय को पकड़ ही लिया आदित्य उर्फ़ गाऽलीऽप ने. गाने को लीपकर बकवास शायरी गाने के कारण सब दोस्तों ने उनका नाम गालिब को बिगाड़ कर गा और लीप यानी के गालीप बना दिया. वे उसे इसी नाम से पुकारते. उसका कर्णभेदी उच्चारण अब मस्तिष्क भेदी बनता जा रहा था.
"अरे सब भाग गए… तू तो सुन ले यार‌ मेरा नया ताज़ातरीन सेर… आगोस में तुम जो आए… "
"तो बेहोस हो गए हम…" जय ने उस पर गिरते हुए आंखें बंद कर कहा और हंसने लगा.
"उड़ा ले तू भी मेरा मज़ाक तू ही तो कहता था तुझे तो पसंद है सेरो सायरी."
जय ने कानो में उंगली डाल कर कस कर घुमाया मानो कोई कीड़ा घुस गया हो.
"यार  ग़लती हो गई, बक्श दे मुझे मेरे बाप…" कहना चाहता था, हर बार पर उसका दिल न दुखे इसलिए इस बार भी नहीं कह पाया.

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"देख भई रमन्ना सर की क्लास है चल चलते हैं, वरना बड़ी झाड़ पड़ेगी. सब चले गए. फिर सुनूंगा आराम से… जब शाम को अपने टीटी खेलेंगे. अभी रख अपनी डायरी पास."
सारे पीजी मेडिकल के छात्र वहीं हाॅस्टल के साथी थे. दूसरी ओर गर्ल्स हाॅस्टल था, जिसमें चारों साल की बस गिनी चुनी पंद्रह लड़कियां थीं.
गौरव और जय रूम मेट थे. देर रात दोनों पढ़ाई के बाद गप्पें मारा करते.
"यार आदि की के… मिनी मिली थी." गौरव अर्थ का अनर्थ इशारा कर मुस्कुराया.
"ग़लत बात. सही से बोला कर प्यारा सा कामिनी नाम है उसका." जय आशय समझ गया था उसका.
"पर स्पेलिंग तो देख उसकी बुक पर… ख़ुद ही लिखा है उसने… के के बाद डबल ए तो करना था. गज़ब फैन हैं तेरे भी…" वह हंंसा था.


"कॉलेज के पहले फंक्शन में ग़ज़ल क्या गाई तब से पीछे ही पड़ गए हैं ये दोनों. जहांं कहीं से पाते हैं ग़ज़ल और शेरों की किताब मुझे थमा जाते हैं. यहां तक तो ठीक है, मगर जब सुनाने बैठते हैं तो उनकी सो कॉल्ड 'सायरी' पर सिर धुनने को मन होता है."
"अरे यार किस धुन की बात कर रहा है…" सहपाठी वीरेंद्र अपने रूम से उठ कर जय-गौरव के रूम में आ गया था.
"वो बस तुम्हारी कमी थी, तूने भी फिर कुछ ताज़ातरीन बना लिया होगा मुझे सुनाने को… सबको मैं ही मिलता हूं…"
"देख यार मूड बहुत अच्छा है, बोर मत कर… तूने कहा था ना ऐसा कोई गाना लिख जैसे बंजारे को घर या आज से तेरी सारी गलियां…"
"बता यार तू भी सुनाए बिना मानेगा नहीं." जय ने कानों में ईयर फोन को लगा लिया था.
"ये अपना कान घुसेड़ू निकाल… यह तो चीटिंग है यार."
वीरू ने उसके कानों से इयर फोन खींच दिया था.
"तू मानता नहीं अब अपनी तो पहले ही हिट जोड़ी फेमस है जय-वीरू की… अब म्यूज़िक वर्ल्ड में भी धमाके करते हैं. देख मैंने लिखा है- तू मुझे ऐसे मिला जैसे खानाबदोश को खाना…"
"अबे सा..!" जय हंसते हुए वीरू की ओर लपका.
"तेरी तो गर्दन ही दबा देता हूं अभी. ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी… तुझे किस हकीम ने कहा डाॅक्टरी पढ़ने को?"
"अरे छोड़-छोड़ जय, क्या कर रहा है. अपने इकलौते अच्छे दोस्त की जान लेगा तू…" वीरू हंसते हुए चीखा था.
उसने जय का शरारत से पकड़ा हाथ गर्दन से अलग कर चैन की सांस ली.
"अबे इस बार छोड़ दिया. आख़री बार है. फिर कोई ऐसा वैसा गीत बनाया, तो छोडूंगा नहीं स्सा…" कहकर जय पेट पकड़कर हंसने लगा.
"…जैसे किसी खानाबदोश को खाना… यार खाने के सिवा तुझे कुछ सूझता भी है?"
"बंजारे को घर हो सकता है, तो खानाबदोश को खाना क्यों नहीं…"
"हां, सोच सोच कुछ दिमाग़ है, तो ज़ोर डाल पर इतना भी नहीं कि वह बचा खुचा भी निकल ही जाए."
"मारूंगा तुझे अभी." वीरू ने पेपर का रोल बनाया और तड़ा तड़ जय को जमाने लगा.
"अबे क्या करता है, लगता भी है." जय हंसता जा रहा था.
"ये देख मैं क्या लाया हूं म्यूज़िकल नाइट की दो टिकटें हैं."
सभी बड़े बड़े सिंगर आ रहे हैं और म्यूज़िक डायरेक्टर भी… क्या पता अपना भी काम बन जाए या कोई आइडिया ही मिल जाए."
"यार तेरे गाने से तो मेरे को बेचारी बड़ी सी गाय याद आने लगी. इतना बड़ा पेट लेकर खानाबदोश सी घूमती है. कुछ भी डालो कुत्तों से बचते बचाते बेचारी झटपट खाने लगती है. यार तुझे ऐसे गाने के आइडिया आते कहां से हैं?"
"कुछ स्पेशल तो है अपन में. अब यह सॉन्ग सुन…"
"हे भगवान!"
"सुनो ना मेडिकल की मोटी किताबें, कुछ भी नहीं समझ आतीं हमारे…"
"हां हां अक्ल मोटी है ना तेरी, तो बैठ जाएगा तेरे ऊपर बिल्कुल फिट तेरा गाना."
"बड़ा दिमाग़ लगता है गाना बनाने में, उसकी भी थोड़ी वर्जिश किया कर. खाली पीली दंड पेलता रहता है…"
"हां हां बस रहने दे तेरा लेक्चर… आए देर नहीं हुई कि शुरू हो गया."


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जय एक्साइज़र बेड के एक ओर रख कर उठ खड़ा हुआ.
"क्या खू़ब, डोले-शोले तो अच्छे बना लिए हैं. पर खाली इन सब से कुछ नहीं होता कॉमेडी मैटर्स. आदमी को थोड़ा ह्यूमरस होना चाहिए लड़की तभी पटती है. मुझे देखो ना चुटकी में पटा लेता हूं."
"अरे ऐसी वैसी ही चुटकी में पटती है. कोई सही बंदी तुझे मिली तो समझूंगा. अभी पढ़ लिया कर. पता नहीं कैसे तूने एमबीबीएस कर लिया और पीजी एन्टरेंस भी निकाल लिया, समझ नहीं आता."
"राज़ की बात है प्यारे, तेरी समझ में आएगा भी नहीं… आर्थो में वह कमाल की इन्टर्न, मेरी ख़्वाहिश आई है. मैं तो चला."
"अभी तो देख तेरे दिवाकर सर का टाइम नौ बजे से है… अभी टाइम साढ़े आठ हो चुके  हैं… पागल! किसी भी लड़की के लिए… इम्पार्टेंट क्लास मिस करेगा?"
"27- 28 का हो रहा हूं, मर जाऊंगा. घरवाले बहू का चेहरा देखने को तरस रहे हैं, कुछ कोशिश तो करूं…" वह उसके तौलिए से हाथ-मुंंह पोंछकर कर निकल गया. जय के होंठों पर दोस्त के लिए हल्की सी मुस्कान तैर रही थी.
"कोई ख़ास नहीं हल्का सा स्प्रेन है, हड्डी-वड्डी नहीं टूटी, बस चोट आई है. क्रेप बैंडेज ही काफ़ी है." मरीज़ से कहते हुए वह बार-बार खिड़की से बाहर देख रहा था. नई इंटर्न वसुधा अभी तक आई नहीं. पीजी थर्ड ईयर हूं भाई, फर्स्ट ईयर की नई इंटर्न है,‌ वो डांट लगाऊंगा. आने दो… वह प्लान बना रहा था.
"डॉ. वीरेंद्र आप उधर देख कर इधर कैसे पेशेंट अटेंड कर रहे हैं काम पर ध्यान रखिए." सीनियर ने घुसते ही वीरू को डपट दिया.
"सॉरी सर, इंटर्न को मैंने कल ही बोला था." फिर से सिस्टर से ठीक से बंधवाए… सिस्टर भी जाने कहां गई… मुझे ही दोबारा करना पड़ेगा."
"दर्द में थोड़ा आराम हुआ?" सीनियर डाॅ. दिवाकर ने मरीज़ से पूछा.
"आपकी पेन किलर से चैन की नींद सो पाया."
"डॉ. वीरेंद्र इनकी डिस्चार्ज स्लिप बना देना… हफ़्ते बाद आकर आप दिखा देना. दो दिनों तक दवाइयां लेते रहेंगे, फिर यदि दर्द अधिक बढ़े, तो लेना वरना नहीं." कहकर डॉक्टर दिवाकर चले गए थे.
"सिस्टर भी लापता है, उनके काम मुझे ही करने पड़ रहे हैं." वह अपना रुतबा बनाते हुए पेशेंट से बोला.
"अभी भिजवा देता हूं डिस्चार्ज स्लिप." वह चला गया था.
"सर, कैसे हैं आप?" वसुधा इमरजेंसी वार्ड में पहुंची थी. उसने पेशेंट से पूछा था.
"ठीक हूं डॉक्टर अभी तो दर्द कम है. डॉक्टर वीरेन्द्र ने पट्टी फिर से बांध दी. डिस्चार्ज स्लिप भिजवा रहे हैं.
"वेरी गुड!" वसुधा इंटर्न थी, पर किसी बड़े डॉक्टर के अंदाज़ में दूसरे बेड की ओर बढ़ गई. तभी इंटर्न संजना मिल गई
"अच्छा हुआ संजू तू यहां आ गई, वरना मैं ही आर्थों में अकेली फीमेल थी. रैन्क वाले पढ़ाकू डॉक्टर हैं यहां. अपनी तो बैंड बजनी है. चल अटेंडेंस लगवा कर थोड़ी देर में चल लेंगे, एग्जाम सर पर है. उधर रूम पर जाकर पढ़ाई करेंगे. थोड़ी देर में एचओडी को बोल देंगे."
"क्या हो रहा है मिस वसुधा, मिस संजना… आते ही  आप दोनों की गुटर गूं शुरू हो गई. वार्ड 3, 4, 6 में कितना काम पड़ा है."
अचानक अकड़ में खड़े डॉ. वीरेंद्र को सामने पाकर वे घबरा गईं.
"कोई बात नहीं, पर आगे से ध्यान रखा कीजिए. डॉक्टर संजना आप फौरन वार्ड 4, 5 के पेशेंट को अटेंड कर लीजिए."
"मिस वसुधा!" संजना के साथ जाती हुई वसुधा को  आवाज़ दी थी.
"जी."


"आप रुकिए आपसे काम है… डरने की कोई बात नहीं… डॉक्टर वसुधा मैंने देखा है आपको पढ़ते हुए. काफी मेहनती हैं. कुछ ज़रूरत हो, तो आप मुझे भी पूछ सकती हैं. कुछ बुक्स-वुक्स एमसीक्यूज़ चाहिए, तो आप मेरे को बताना…"
"मेरे पास तो पिछले सारे नोट्स पड़े हैं. अब मेरे किस काम के…"
"जी नहीं सोच रही थी कहीं से आसानी से अगर अभी पहले वर्ष के ही मिल जाते तो…अच्छा रहता, थोड़ी गायडेंस मिल जाएगी."
"चलिए अभी मतलब जाते समय मुझे आप कैंटीन में मिलें, तो मैं आपको हॉस्टल से लाकर दे दूंगा."
"अरे सर, आप परेशान न हो. मेरा वो मतलब नहीं सर, मैं काम चला लूंगी."
"अरे, इसमें क्या प्रॉब्लम है. एक ही पेशेवाले हैं. मदद तो करनी ही चाहिए. आज मैं करूंगा कल आप से मेरा कोई काम पड़ सकता है."
"मगर…"
"अगर-मगर कुछ नहीं पांच बजे मैं वेट करूंगा." वह अंदर ही अंदर उछलता हुआ कॉरीडोर में निकलते हुए एक नर्स से टकराते-टकराते बचा.
मस्त मौला वीरेंद्र और संजीदा बगैर स्टाइल वाला जय पता नहीं कैसे कब दोस्त बन गए थे. जय भी अपने तरीक़े का है. सधे हुए बालो में हमेशा चमेली की भीनी सुगंध आती रहती, गहरी आंखों पर वही काले फ़्रेम का चश्मा, लंबी खड़ी बादामी कद-काठी, क्लीन शेव्ड सा चेहरा, सिंपल पहनावा… तो उसके विपरीत वीरेंद्र छरहरी गोरी बॉडी वाला गुलाबी चेहरे पर फ्रेंच कट दाढ़ी आधे माथे पे स्टाइल से गिराए हुए बाल, स्टाइलिश भड़कीले कपड़े पहनने वाला… और वसुधा  एक ख़ूबसूरत मेहनती लड़की… डीसेंट और ग्रेसफुल सी.
वसुधा और वीरेंद्र लगभग साथ-साथ कैंटीन में दाख़िल होते हैं.
वसुधा को इंप्रेस करने के इरादे से बबीता से बोला, "क्या यार सब यहां खाने-पीने आते है और तूने ये दरवाज़े पर छोटी-छोटी झुग्गियां लगा रखी है …"
"… पर कहां सर?"
"ये देख उसने दरवाज़े की पतली कार्विंग पर दीवारों की निचली सतह पर कीड़ों-मकोड़ों की बनाई छोटी-छोटी झुग्गियां…"
"ओ हा हा… ये जाले, झुग्गियां? आप भी कमाल करते हैं सर." वह हंसा था. वसुधा को भी हंसी आ गई.
वेटर ने तुरंत सफ़ाई कर्मचारी को बुलाकर उसे साफ़ करवा दिया.
"हैं मेडिकल कॉलेज की कैंटीन, पर यह देखिए दिन में भी मच्छर गाने गा रहे हैं." उसने पटाक से एक मच्छर मारा था.
वेटर को फिर आवाज लगाई,
"जी सर!" वह ऑर्डर लिखने को तैयार हो गया.
"आपके पास आदम दानी होगी."
"जी मैं समझा नहीं…"
"चूहे दानी जानते हो न भाई?" वसुधा भी हैरान थी कि वह पूछ क्या रहा है।
"जी मगर…"
"जब चूहा अंदर रहता है तो चूहेदानी और जब आदमी अंदर रहता है तो आदम दानी हुई न?" वह मच्छर दिखाते हुए बोला, "… क्यों?"
"ओह मच्छरदानी सर..! आप तो बहुत मज़ाक करते हो साहब." वसुधा भी हंस पड़ी. वीरेंद्र का यही तो उद्देश्य था वसुधा को हंंसाना.
"जी अभी ऑल आउट लगवा देता हूं इधर की ऑल आउट पता नहीं किधर गई…"
"ठीक है… महोदय अब कृपा कर ऑर्डर लिखिए… बताएं मोहतरमा क्या लेना पसंद करेंगी." उसने इस अंदाज़ में कहा कि वसुधा पुनः हंसी रोक न सकी.
"अरे नहीं नहीं सर, मुझे बस नोट्स दीजिए, मैं चलती हूं." उसने उसी तरह हंसते हुए कहा था.
"अरे ऐसे कैसे, कैंटीन बुरा नहीं मान जाएगी. एक ख़ूबसूरत लड़की बिना कुछ खाए यहां से निकल गई तो…"
"ओके सर बस चाय…" उसने हंसते हुए कहा.
"… और वैसे चाय में डूबा बिस्किट तो मैं हूं ही… पर 2 पैकेट सुखे चाॅको बिस्किट लेते आना…" मुस्कुराती वसुधा को देखकर उसका दिल बल्लियां उछलने लगता.
नोट्स थमाने के बाद उसने अपनी ख़्वाहिश से फिर मिलने के बहाना झट ढूंढ़ ही लिया था.


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वीरेंद्र अक्सर वसुधा से मिलने लगा. वह उसकी ख़्वाहिश बन गई थी. हर जतन करके उसके नज़दीक आने लगा. वसुधा पढ़ाई के लिए जी तोड़ परिश्रम करती. बेकार समय गंवाना उसे अच्छा नहीं लगता. वह वीरेन्द्र के चिपकूपन से परेशान थी. वो जल्दी अपना कोर्स पूरा कर लेना चाहती थी. पर उसकी मजबूरी थी. उसके पापा को लंग्स कैंसर डायग्नोस हुआ था, वे लास्ट स्टेज में थे. वह अपने जीते जी उसकी शादी कर देना चाहते थे. वीरेंद्र को मालूम हुआ तो उसका काम और आसान हो गया. वह मदद के बहाने वसुधा के घर भी पहुंच गया और पिता के हस्पताल में भी.
उसके घर उसकी मां व छोटे भाई से भी वह हंसमुख स्वभाव के चलते ख़ूब घुलमिल गया था. इन सब में उसकी पढ़ाई के प्रति रही सही गंभीरता में और भी कमी होती देख जय हैरान होता. कभी समझाता भी.
"क्या कर रहा है. अभी तू ऐसे कैसे पास होगा, फाइनल ईयर है."
"अरे तू मेरी चिंता छोड़ जैसे पहले हुआ अब नहीं कर लूंगा? बहुत रास्ते हैं."
"क्या मतलब?"
"अरे यार बड़े सोर्स वाला है तेरा दोस्त… तुझे अभी तक पता नहीं चला?" वह हंसा था.
"बेवकूफ़ किसी और को बना. वसुधा के पीछे पागल है. फिर डाॅक्टरी तो तू रहने दे…"
"हां, पागल ज़रूर हूं… डाॅक्टरी मेरा ख़्वाब है, तो वो मेरी ख़्वाहिश है यार! अब तो उसका घर भर मुझ पर जान छिड़कता है. तुझे क्यों जलन हो रही है तू भी उसे चाहता है क्या?"
"सीधी-सादी नेक दिल मेधावी सुंदर लड़की को मैं तू क्या सभी पसंद करेंगे उसे. इसका यह मतलब तो नहीं  तेरी तरह सब अपना एऽम छोड़ उसके पीछे पागल हो जाएं… न अपनी चिंता, ना मां-पिता की चिंता."
"तू पढ़ और सारे जहां की चिंता कर मैं तो चला… ख़्वाहिश के पास…"
एक दिन, "तू किसकी चिंता की बात कर रहा है मां-पिता की? या अपनी? आज तुझे बता देता हूं सारा सस्पेंस ख़त्म! यह देख पहचानता है इन्हें…" उसने वालेट से फोटो निकाला था.
"गृहमंत्री… और वो बगल में पिछले स्वास्थ्य मंत्री… जो अपनी कारगुज़ारियों के चलते चर्चा में थे, बर्खास्त भी हुए… तो?"
"बेटा ये मेरे मामा हैं. इन्हीं की छत्रछाया में हूं. कोटे से एडमिशन करवा लिया, फिर कोटे से ही पास…"
"तू यही सब करके उफ़्फ़!.. इतने सालों से यही चक्कर है तेरा… बहुत ग़लत है… ये ऐसे कैसे..? तू ऐसे डाॅक्टर बनकर इलाज करेगा. बेचारे मरीज़ों का… मारेगा क्या सबको, कोई एथिक्स नहीं तेरा. पर तिकड़म अब  नहीं चलेगी, प्रेस्टीजियस मेडिकल कॉलेज है ये तेरा फाइनल ईयर."
"यहां पहुंच और पैसे से सब कुछ हो सकता है प्यारे, यह भारत है, जहां डाॅक्टरों की बहुत ज़रूरत है, तमाम सीटें खाली हैं."
"ओ अब समझ आ रहा है… तभी तेरे पास तेरे नोट्स कभी पूरे नहीं होते. हर बार तू मेरे ले जाता है एग्ज़ैम्स से पहले… और… और उस दिन मेरे  फर्स्ट ईयर के सारे नोट्स व बुक्स रौब में अपना बताकर अपनी ख़्वाहिश को तो नहीं दे आया?"
"हां, उसे ही दे आया. बेचारी को घर में भी बहुत टेंशन है. कुछ मदद कर सकूं… वो मेरा प्यार, मेरी ख़्वाहिश है. बहुत जल्द हमारी इंगेजमेंट होने वाली है. ये देख सगाई कार्ड भी. इतनी जल्दी मनपसंद लड़की पटाना मेरे ही बस की बात है तेरी नहीं… देखा मैं जीत गया."
"इसे जीत कहता है तू… मैं उसे सब बता दूंगा… उसे धोखा देने नहीं देने दूंगा."
"क्या बताएगा उसे… जल्द ही हम विवाह बंधन में भी बंध जाएंगे तू देखना, उसका घर भर सब पसंद करता है मुझे. अंकल जी अपने जीते जी हमारी शादी कर देना चाहते हैं. दुनिया से जाने से पहले वो उसका भविष्य मुझ जैसे सुयोग्य वर को सौंप देना चाहते हैं." स्टाइल से पाॅकेट में हाथ डाल वो हंसा.


"वह एक मेडिकल की मेधावी छात्रा और तू फ़र्ज़ी डॉक्टर बनकर उससे ब्याह रचाएगा? तेरा ज़मीर तुझको ज़रा भी धिक्कारता नहीं?"
"कौन सी पैसे की कमी है अपने पास जो उसे होने दूंगा. कई तरह के बिज़नेस हैं अपने यहां. बस मैं ही अपने घर में थोड़ा ठीक पढ़ने में था, सो सबने मिलकर ख़्वाब देख लिया मुझे डाॅक्टर बनाने का. घरवालों ने जुगाड़ भी करवा दिया अपना.
वसुधा को देखा तो जैसे मुझे मेरी ख़्वाहिश भी मिल गई, सोने पे सोहागा. उसका बड़ा भाई पायलट है और छोटे का एनडीए में सेलेक्शन हो गया, ट्रेनिंग पर गया है. अपना तो रौब ही रौब. उसके पिता अपनी तबियत के मारे वसुधा की जल्दी से जल्दी शादी करने पर तुले हैं. बस अपनी तो निकल पड़ी."
"छि तुझे शर्म नहीं आती ऐसा कहने में भी… सोच तू क्या है? कहां है? कुछ तो बराबरी होनी चाहिए रिश्ते में. उसके पिता भी डॉक्टर थे. मां भी. उनसे सच तो बोल कि तू फ़र्ज़ी डाॅक्टर है फिर करना उससे ब्याह."
"तू जलता है मेरी क़िस्मत से. वह मुझे पसंद करती है मैं उसे… प्यार में ऐसी बातें मैटर नहीं करती… वह मेरी ख़्वाहिश है मेरा प्यार है!"
"तू सच बता के तो देख. वो तेरी ख़्वाहिश हो सकती है, मगर तू उसकी ख़्वाहिश नहीं, उसका प्यार नहीं… उसकी मजबूरी होगा… विवाह की नींव ही विश्वास है. तू शुरूआत ही धोखे से करेगा. बाद में जब उसे पता चलेगा तो पछतावे के सिवाय कुछ नहीं बचेगा तेरे पास… कहांं रह जाएगा तेरा प्यार. तेरी ख़्वाहिश से कितने जुड़े रह पाएंगे तेरे रिश्ते… मैं ऐसा कभी नहीं करने दूंगा. पहले वसुधा को तेरा सच पता होना चाहिए, जो दिख रहा है तू, वो फ़र्ज़ी है."
"वो मुझे मैं उसे, दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं, बस!.. तुझे क्या? तुझे मिर्ची लग रही है, तो मैं क्या करूं. तुझे जो उखाड़ना है उखाड़ ले, मैं तो चला..!"… हा हा "आय एम द विनर." उसने बाहर निकलते ही अपनी नई स्टाइलिश बाइक स्टार्ट कर तेज़ी से भगा दी.
इतना बड़ा झूठा, सबको धोखा देने वाला वीरेंद्र कैसे उसका दोस्त बन गया. जय को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह वीरेंद्र को कैसे रोके? इश्क़ का भूत सवार है उस पर. समझना ही नहीं चाह रहा. लंच ब्रेक में वसुधा से ही बात करता हूं… शायद यही ठीक रहेगा.
दो घंटे बाद ही गौरव ने भयानक ख़बर दी.
"जय, जल्दी चल वीरू आईसीयू में है. उसका ट्रक से ज़बरदस्त एक्सीडेंट हुआ. उसकी बाइक के तो परखचे उड़ गए. उसकी हालत बेहद सीरियस है चल जल्दी चल."
ख़बर मेडिकल काॅलेज में आग की तरह फैल गई. वसुधा और संगीता भी उसे देखने पहुंचीं. तब तक डाॅक्टर ने हाथ खड़े कर दिए थे. सभी इस अनहोनी के सदमे में थे.
"कुछ ही मिनट है उसके पास आप दो लोग अंदर जा सकते हैं, वो कुछ कहना चाह रहा है."
जय और वसुधा अपने को सम्हालते हुए अंदर हो लिए, पर  वसुधा से उसकी क्षत-विक्षत हालत देखी नहीं जा रही थी, वह रोती हिचकियां लेती बाहर चली गई.
जय को देखते ही वीरेंद्र के होंठ कांपे उसने अटकते हुए टूटे-फूटे शब्दों में कहा, "ज… जय यार.. म मैं हार… गया. तूने… सच क… हा था… वसु मेरी ख़्वाहिश हो सकती, पर मैं हमेशा उसकी मजबूरी ही होता… फ़र्ज़ी… मेरी तरह ही मेरी ख़्वाहिश भी फ़र्ज़ी थी… ज़बरदस्ती पीछे पड़ा था वसुधा के. पर असली प्यार तो… तू उसे करता है… और लायक भी… तू ही है उसके… मैं ये जानता था. मन ही मन जलता भी था तुझसे…
वसुधा को… बुला दो… मैं मांफ़ी… मैंने उसे… धोखे में रखा. …उसने जो कविता की किताब… तुम्हारे लिए दी थी मैं… अपने पास ही रख ली. उसमें एक ख़त था तुम्हारे नाम, जिसमें उसने अपने पिता की उसकी जल्दी शादी की इच्छा बताई थी. और ये भी कि वो तुम्हें पसंद करती है. लिखा था कि क्या वो चाहेगा उसका जीवनसाथी बनना. अगर जवाब नहीं में होगा, तो हम दोनों मिलने पर इस विषय में कभी कोई बात नहीं करेंगे… उसकी इसी बात का मैंने फ़ायदा उठाया और किताब छिपा दी… तुमको दी ही नहीं और उसे कहा कि दे दी…" जय हैरान-परेशान सा उसे सुन रहा था.
वसुधा ने भी सब सुन लिया. वह हिम्मत करके दोबारा अंदर आ चुकी थी, "मुझे माफ़… करना वसुधा… तुम दोनों को ही धोखा दिया…‌दुनिया को धोखा देने चला  था… बड़ा गुनहगार हूं, फ़र्ज़ी मैं… दे… देखो… इसकी  सज़ा… मिल गई… जय वीरू… की जोड़ी तो टूट… रही है, लेकिन तुम दोनों की जोड़ी ज़रूर बनेगी वादा करो…" उसने हाथ जोड़ने का प्रयास किया, पर गर्दन एक तरफ़ झूल गई.
वसुधा के कदम लड़खड़ाए, गिर ही जाती यदि जय ने उसे सम्भाल न लिया होता. दोनों किंकर्तव्यविमूढ़ से वीरेन्द्र के निष्प्राण शरीर को देखते रहे, जो अब कहीं से फ़र्ज़ी नहीं था, सच था.

डाॅ. नीरजा श्रीवास्तव 'नीरू'

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Photo Courtesy: Freepik

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