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कहानी- एक खाली पृष्ठ (Short Story- Ek Khali Prishth)

उन्हीं दिनों एक बार मैंने आटोग्राफ बुक खोल कर उनके सामने रखी. वे उस खाली पृष्ठ को देखते रहे, "यह क्या है?"
"खाली पृष्ठ है." मैंने कहा, "इसे भर दीजिए."
"इसमें इतना स्थान है?" बुक पर से दृष्टि उठा कर मेरी ओर देखा. मैं कुछ बोल न पाई और उनके चेहरे की ओर से दृष्टि हटा कर पृष्ठ की ओर देखने लगी.

ऑटोग्राफ बुक का यह पृष्ठ एक अरसे तक खाली रहा. इसके पहले के पृष्ठ भरे हुए थे, फिर इसके बाद के पृष्ठ भी भरने लगे और मुझे लगता है यह खाली पृष्ठ कभी नहीं भरेगा. की बार यह सामने आता, तो इसमें एक शून्यता दिखाई देती. और मुझे लगता जैसे वो मेरे अन्तर की शून्यता हो.
वे भी कैसे दिन थे.
ऑटोग्राफ इकट्‌ठे करने का अब तो वह शौक नहीं रहा है. कुछ शौक पूरे करने के लिए भी एक उम्र होती है. एक उम्र में ही वे शौक जागते हैं. मैंने एक अरसे से किसी का ऑटोग्राफ नहीं लिया है. कभी एकांत क्षणों में मैं ऑटोग्राफ बुक लेकर बैठ जाती. एक-एक करके पन्ने उलटती, उन पर किए हुए हस्ताक्षरों में कई चेहरे दिखाई देते- नेताओं के, अभिनेताओं के, लेखकों के, कवियों के, कुछ और बड़े व्यक्तियों के. फिर जब खाली रहने वाला यह पृष्ठ सामने आता, तो इसकी शून्यता मुझे अपने पूरे जीवन की शून्यता प्रतीत होती. मैं सोचती, इसे देखूं, मैं इससे बचने का प्रयत्न करती, पर शायद इसे देखने के लिए ही तो ऑटोग्राफ बुक लेकर बैठ जाती.
और फिर बैठी रहती. अंगों में उदासी घुलने लगती. उठने को मन न चाहता. उठने की शक्ति भी न होती. यह पृष्ठ कभी सामने की दीवार बन जाता, जिस पर एक चित्र लटका हुआ है. चित्र मुझे दिखाई न देता. बस, सपाट दौवार ही दिखाई देती. कभी यह पृष्ठ खिड़की की चौखट बनते जाता, जिसमें से बाहर कुछ भी दिखाई न देता. गुलमोहर का वृक्ष,‌ सलेटी रंग का नया बना मकान. बस, एक चौरस रिक्तता ही सामने फैली होती.
देर तक खाली रहने वाले इस एक पृष्ठ पर अब हस्ताक्षर हैं. यह पृष्ठ अब खाली नहीं है. फिर भी, यह पहले से ही कहीं अधिक शून्य लगता है.
वे दिन उनसे भी कुछ पहले के दिन. उन्हीं दिनों में उनसे मिली थी. उनका नाम नहीं बताऊंगी. उन्होंने एक बार कहा था, "किसी दिन मेरा नाम सभी लेने लगेंगे. क्या तब कोई ऐसा भी होगा, जो उसे नहीं लेगा? इस नाम की प्रशंसा भी होगी और इस नाम पर कीचड़ भी उछाली जाएगी. क्या तब कोई ऐसा भी होगा जो…"
मैं जब उनसे मिली थी, तब वे अजीब से लगे थे. वे भैया के साथ घर आए थे. भैया ने उनका परिचय करवाया था, "यह मेरे‌ दोस्त है. कविताएं लिखते हैं. लिखते कम है, जीते ज़्यादा हैं."
और मैंने हैरानी से उनकी ओर देखकर सोचा था, भला कविताओं को जिया कैसे जाता है? भला कविताओं को यह कैसे जीते होंगे.
चाय पीते समय वे अधिक बोले नहीं थे, बस कुछ ही बातें की थीं. उन्हें जैसे संकोच सा था. किससे? मुझसे? मुझे भी तो अजीब सा लग रहा था. भैया के और भी दोस्त घर पर आते थे, उनके सामने तो कभी ऐसा नहीं लगा था. आख़िर उनमें क्या चीज़ थी, जिससे अजीब सा लग रहा था? पर उनमें ऐसी कोई चीज़ दिखाई नहीं दी थी. शायद उनकी वह चुप्पी हो, मैंने सोचा था. या कविताओं को जीने वाली बात हो. भैया से इतनों बातें करने वाले आदमी है भला भैया के साथ ये कैसे बातें करते होंगे? क्या बातें करते होंगे? या क्या इसी तरह चुप रहते होंगे? पर उनकी वह चुप वास्तव में चुप नहीं थी. चुप की भी एक बोली होती है उनकी वह चुप बोल रही प्रतीत होती थी. पर मैं उसे पूरी तरह समझ नहीं पा रही थी.
चाय पी चुकने पर भैया ने मुझसे कहा, "इन्हें अपनी कविताएं दिखाओ. पता तो चले कि कितने पानी में हो."

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मैं एकदम घबरा उठी. भला भैया को यह क्या सुझी? बस, जब देखो कोई न कोई उलटी बात कर देते है. मैं जितने भी पानी में हूं इन्हें इससे क्या?
"दिखाओ तो." उनकी आवाज़ सुनी, तो में चौकीं.
"पहले आप अपनी कविता सुनाइए." मेरे मुंह से पता नहीं कैसे निकल गया और मैं बैठी रही.
अब उन्हें घबराहट होने लगी. वे हल्का सा मुस्कुराए और भैया की तरफ़ देखने लगे.
अब पता चलेगा कि कौन कितने पानी में है. आख़िर उन्हें कविता सुनानी पड़ी. सच कहती हूं मैंने मन में कहा भाला कविता ऐसी होती है? मुझे आश्चर्य था. फिर मैंने उन्हें एक और कविता सुनाने के लिए कहा. वह कविता भी पहली की‌तरह समझ‌ में नहीं आई. मन ने कहा, 'बेशक यह कविता लिखते कम है, जीते ज़्यादा हैं. एक बार दिल में आया कि उन्हें भी यह कह दुं, पर नहीं कह पाई.
अच्छा ही हुआ जो नहीं कह पाई. फिर मैं अपनी कविताएं लाईं और उनके सामने रख दी.
उन्होंने कहा, "सुनाओं."
"नहीं, आप पढ़ लीजिए."
उन्होंने कॉपी उठा ली और पन्ने पलटते हुए बीच-बीच में कविताएं देखने लगे. एक-दो बार उनके होंठों पर हल्की सी मुस्कराहट आई. मुझे अजीब सा लगा. दिल में घबराहट सी थी. अब यह देखते ही जाएंगे या कुछ कहेगे भी?
"पहला पड़ाव तो है कर लिया है तुमने."‌उन्होंने कॉपी रखते हुए कहा.
"कैसा पड़ाव?" मैंने आश्चर्य में पूछा.
"कविता का."
"तो कितने पड़ाव होते है कविता में मंजिल तक पहुंचने के लिए?" मैंने उत्सुकता से पूछा.
वे मुस्कुराए, "बस, पड़ाव ही पड़ाव होते हैं, मंज़िल कहीं नहीं होती."
आप किस पड़ाव पर है? मेरे मुंह से अनायास निकला.
वे मुस्कुराए और उत्तर नहीं दिया. मैंने सोचा, जैसी कविताएं, इनकी है, वे तो किसी पड़ाव की कविताएं नहीं है. बीच रास्ते की कविताएं हैं.
मन में आया था कि ऑटोग्राफ बुक पर उनके हस्ताक्षर ले लूं. उनमें एक विचित्र सा आकर्षण प्रतीत हुआ था. पर पता नहीं क्यों, ले न सकी. फिर मोचा, अच्छा भी हुआ, जो हस्ताक्षर नहीं लिए.
वे चले गए.
फिर वे आते रहे. तब देखा कि उनकी यह चुप वैसी चुप तो नहीं थी, जैसी पहले दिन देखी थी. वे बातें करते, तो ख़ूब बातें करते. पर इतनी नहीं कि सुन कर मन उकताए. हमेशा एक नई सी बनी रहती.
उनकी अधिकांश कविताएं ऐसे स्थान पर आकर समाप्त होती थी, जहां साधारणत उन्हें समाप्त नहीं होना चाहिए था. यह बात शुरू में मैंने अनुभव की थी. पर बाद में जाना कि उन्हें वहीं समाप्त होना चाहिए था. कुछ चीज़ें बहुत साधारण और स्पष्ट होने पर भी कितनी देर में समझ आती है. हां, अब उनकी कविताएं मेरी समझ में आने लगी थी. वे पहले पड़ाव से बहुत आगे की कविताएं थीं. कभी तो मुझे लगता कि वे मंज़िल के उस पार की कविताएं हैं. पर उन्होंने कहा था कि पड़ाव ही पड़ाव होते है, मंज़िल कहीं नहीं होती. क्या वे किसी मंज़िल तक पहुंचना नहीं चाहते? क्या उनकी कोई मंज़िल नहीं है? मैं सोचती. आख़िर एक बार मैंने उनसे पूछ ही लिया, "यह पड़ाव आप कब तक करते रहेंगे? क्या कहीं मंज़िल दिखाई नहीं देती?"
"मंजिल है कहां?" उन्होंने मुस्कुराकर कहा.
"है क्यों नहीं? हर रास्ते की मंज़िल होती है"
"कहां है?"
अब भला मैं कैसे बताती? मैंने उनकी ओर से दृष्टि हटा कर कहीं दूर देखा, पर मंज़िल कहीं दिखाई न दी.
उन्होंने फिर पूछा, "कहां है मंज़िल?"
"मैं क्या जानू?" मैंने कहा
"मैंने तो अभी पहला पड़ाव ही तय किया है." मेरे लहजे में व्यंग्य था.
पर उन्होंने जैसे जान-बूझकर उस व्यंग्य की ओर ध्यान नहीं दिया और कहा, "पहला पड़ाव ही?"
"ही, आप ही ने तो कहा था."
"वह तो तब कहा था. क्या अब तक कोई और पड़ाव तय नहीं हुआ? वहीं हो क्या?" एकाएक मुझे लगा कि में वहां नहीं थी. मैं आगे आ गई थी. बहुत आगे आ गई थी और अब समझ नहीं पा रही थी कि आगे क्या होगा.
वे जैसे मेरे उत्तर की प्रतीक्षा में थे. मैंने उनकी आंखों में देखा, तो लगा कि उनकी वे आंखें एक लंबा रास्ता भी थीं और वह मंज़िल भी थीं, जहां मैं पहुंचना चाहती थी. वे आंखें बहुत पास थी, वे आंखें बहुत दूर थी.
"तुमने और कोई पड़ाव तय किया ही है." उन्होंने मेरा उत्तर न पाकर कहा, "पर में तो अब जैसे मंज़िल के निकट पहुंच गया हूं."
"किस मंज़िल के निकट?" मैंने पूछा.
"आप तो कहते हैं कि मंज़िल कही नहीं है."
"पहले दिखाई नहीं देती थी, अब दिखाई दे रही है, जो लगा कि मंज़िल है."
"कितनी दूर है?"
"पास भी है. दूर भी है."
सचमुच कुछ चीज़ें कितनी पास होती हैं… मैंने उनकी आंखों की ओर देखते हुए सोचा. फिर मन में कहा, पर वे चीज़ें कई बार बहुत दूर भी होती हैं.
उनकी कविताओं में अपने चेहरे को देखती, तो आश्चर्य होता. आईने में देखने पर कभी मुझे अपना चेहरा वैसा दिखाई नहीं दिया था या बस वैसा ही था, जैसा था. पर उनको कविताओं में वैसा होकर भी कुछ और तरह का था. उस चेहरे के अन्दर भी झांका जा सकता था. वह चेहरा टूट कर फिर से जुड़ गया था.
उन्हीं दिनों एक बार मैंने आटोग्राफ बुक खोल कर उनके सामने रखी. वे उस खाली पृष्ठ को देखते रहे, "यह क्या है?"
"खाली पृष्ठ है." मैंने कहा, "इसे भर दीजिए."
"इसमें इतना स्थान है?" बुक पर से दृष्टि उठा कर मेरी ओर देखा. मैं कुछ बोल न पाई और उनके चेहरे की ओर से दृष्टि हटा कर पृष्ठ की ओर देखने लगी.
"अभी इसे खाली ही रहने दो."

"अच्छी बात है."
उस पृष्ठ को मैंने खाली ही रखा. जब भी कभी किसी के हस्ताक्षर लिए आगे के पृष्ठों पर ही लिए. समय बीतता गया और उस पृष्ठ के बाद के कई पृष्ठ हस्ताक्षरों से भरते गए.

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इस बीच पिताजी की बदली हो गई. हम सब ख़ुश थे. इस बात की भी ख़ुशी थी कि पिताजी तरक़्क़ी पा कर बड़े ओहदे पर जा रहे है. इस बात की भी ख़ुशी थी कि हम अब उस बड़े शहर में रहेंगे, जहां वैभव था और विशालता थी. उस शहर में पहुंच कर सचमुच लगा कि मैं एक बहुत बड़ी दुनिया में आ गई. यहां कितने सिनेमा थे और कितने बड़े-बड़े होटल. कितने विभिन्न प्रथा के सांस्कृतिक प्रोग्राम, बड़े-बड़े आदमियों से भरा हुआ शहर… इतनी सारी ख़ुशी के साथ मन में एक उदासी भी थी. उनसे अलग होने की उदासी. वैसे उन्होंने कहा था कि वे भी मौक़ा पाकर उसी शहर में बस जाएंगे.
पर वे नहीं आए. काफ़ी समय तक नहीं आए. कभी-कभी उनके पत्र आते, मुझे नहीं, भैया के नाम. उनमें मेरे बारे में भी कुछ पंक्तियां लिखी होतीं. वे पंक्तियां ऐसे स्थान पर ख़त्म होती थीं, जहां कसाव में ख़त्म नहीं होती थी. वहां से उनकी अनकही बातें शुरू होती थीं और मैं उन पंक्तियों के ख़त्म होने पर देर तक पत्र में अनकही बातें पढ़ती रहती.
उनकी कविताएं भी पढ़ती रहती. उनमें अपने चेहरे को पहचानने का यत्न करती. वे मेरे दिल में से होकर गुज़रती थी. कैसे टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होकर गुज़रती थीं वे. फिर एक बार उन्होंने अपने आने की सूचना दी. इस शहर में कवि सम्मेलन हो रहा था, उसी के सिलसिले में वे आ रहे थे. मुझे ख़ुशी हुई और मैंने सोचा, एक बार आएं, फिर जा नहीं पाएंगे नहीं ही जा पाएंगे.
उनका आना भी कैसा आना था. कवि सम्मेलन के पश्चात् उन्होंने कई कवियों से परिचय कराया और मैंने उन सब के हस्ताक्षर लिए. अन्त में, मैंने वही खाली पृष्ठ उनके सामने किया उन्हें कुछ घबराहट सी हुई.
"क्या ज़रूरी है?"
"क्या अब भी ज़रूरी नहीं है?" मैंने कहा.
"अब?" उन्होंने जैसे स्वयं से पूछा और फिर कहा, "फिर कभी सही."
"फिर कब?"
"फिर जब भी कहोगी. वैसे क्या मेरा इन सब में होना ज़रूरी है?"
वे मुस्कुराए. कैसी मुस्कुराहट थी वह.
मैं उस मुस्कुराहट को समझ न पाई.
मैंने कहा, "इस बार आप टाल जाइए, पर अगली बार टाल नहीं पाएंगे."
"अच्छा." उन्होंने कहा.
"अब आप इस शहर से जाएंगे भी नहीं."
"अच्छा, " उन्होंने कहा, "पर यहां क्या काम करेंगे."
"मुझे कविता सिखाएंगे."
"आख़िर मुझे भी तो मंज़िल तक पहुंचना है." वे मुस्कुराए. इस बार उनकी मुस्कुराहट में उदासी थी और पीड़ा भी. फिर उन्होंने जैसे निराश भाव से कहा, "मंज़िल कहां है?"
"यहीं हैं," मैंने दृढ़ता से कहा.
वे इस शहर में छाने लग गए. छोटी सी नौकरी पा गए और सन्तुष्ट हो गए. कभी-कभी ये घर आते, पर बहुत कम पहले की तरह नहीं. पहले तो भैया घर में थे, तो उनसे मिलने आ जाते थे. पर अब किससे मिलने आते? भैया को बहुत दूर मद्रास में नौकरी मिल गई थी. केवल मुझसे मिलने तो आ नहीं सकते थे. बस, सभी घरवालों से मिलने आते. मै भी घरवालों में से एक थी. वे जैसे अन्य घरवालों से बातें करते, वैसे ही मुझसे भी बातें करते. घर के वातावरण में एक विचित्र सा अदृश्य सा परिवर्तन आ गया था. उस वातावरण में वे मुझसे अधिक बातें न कर पाते. घर में मित्रता का आभास होने पर भी ऐसा लगता था, जैसे दरवाज़े या खिड़की की आड़ से दो आंखें झांक रही हैं. वैसे वे जब भी आते, माताजी उनके पास तब तक बैठी रहतीं, जब तक वे चले न जाते. फिर धीरे-धीरे उनका घर में आना कम हो गया. अब मैं जब भी उनकी कविताएं पढ़ती, मुझे घबराहट सी होती. उन कविताओं में मुझे अपना चेहरा टूटा हुआ दिखाई देता. शब्दों में बंधा हुआ चेहरा बिखरा हुआ प्रतीत होता. वह मुझे अपना चेहरा न लगता. आख़िर यह किसका चेहरा है? मैं सोचती और उस ओर ध्यान से देखती. मन में आता कि कभी उनसे मिलूं और पूछूं, "आख़िर यह कौन है, जिसे तुमने इस शहर में आकर पाया है? या क्या मैं ही इतनी बदल गई थी कि स्वयं को पहचान नहीं सकती थी? कभी-कभी ऐसे ही लगता था. आदमी कितना बदल जाता है. वे भी तो कितने बदलते जा रहे थे, जैसे किसी दर्द में से गुज़र रहे हों और कुछ न बोलना चाहते हो. जैसे एक शुन्यता में समा गए हों और उसी में डूब जाना चाहते हों. अपनी कविताओं में वे जैसे दुर्गम रास्तों में भटक रहे थे. वे जब भी घर आते, मैं निःसंकोच उनकी कविताएं मांग लेती. अपनी कविताएं दिखाती, पर अब पता नहीं क्या हो गया था कि मुझसे ज़्यादा कविताएं लिखी नहीं जा रही थीं. कई बार तो महीने में एक कविता भी पूरी न कर पाती जैसे मन के अन्दर कविता का स्रोत सूख गया था. पर वे अपनी कविताओं में दुर्गम रास्तों में क्यों भटकने लगे. कविताएं पढ़तीं और सोचती. कई बार उन्हीं दुर्गम रास्तों में खो जाती.
एक बार वे काफ़ी अरसा घर नहीं आए.


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एक बार मिलकर जानना चाहती हूं… क्या जानना चाहती हूं?.. मुझे खाली पृष्ठ का ख़्याल आया. क्या उसे भरवाना चाहती हूं? नहीं, वह अब खाली ही रहेगा. अब उसमें किसी और के हस्ताक्षर नहीं होंगे.
फिर भैया के पत्र से ज्ञात हुआ कि वे मद्रास में हैं. फिर उनके एक पत्र में पढ़ा कि वे मद्रास में दक्षिण की ओर चले गए है. फिर पता लगा कि वे दिल्ली में हैं और वहां रेडियों में नौकरी करने लगे हैं, पर कुछ ही देर बाद वे वहां से भी चले गए. वे क्यों इस तरह भटक रहे हैं? मैं सोचती. कहां जाना चाहते हैं? किस मंज़िल पर पहुंचना चाहते है? बस, पड़ाव ही पड़ाव होते हैं, मंजिल कहीं नहीं होती. आख़िर उनका कहां पता लगता? मेरा रिश्ता तय हो गया था. सगाई हुई और फिर विवाह की भी तारीख़ तय हो गई. मैं उन्हें निमंत्रण भेजना चाहती थी. पर कहां भेजती? बस, पड़ाव ही पड़ाव होते हैं, मंज़िल कहीं नहीं होती… कोई एक निश्चित पड़ाव भी तो हो, कहां पता लगाती?
बड़े शहर में ससुराल का बड़ा घर था, पर वहां जाकर मुझे एक अजीब सी घुटन प्रतीत हुई. पहले वह घुटन मेरे बाहर थी. फिर वह घुटन मेरे अन्दर आने लगी. पति की एक दुनिया घर में थी, एक दुनिया घर के बाहर थी. वे अधिकतर उस बाहर की दुनिया में ही रहते, दफ़्तर की दुनिया में और क्लबों-पार्टियों की दुनिया में. उन क्लबों-पार्टियों के वातावरण में मैं और भी घुटन प्रतीत करती. वहां से घर आने पर ऐसे लगता, जैसे मन में गीली लकड़िया सुलग रही हो. मैं पति को बांधना चाहती, पर वे बंध नहीं पाते. जीवन एक केन्द्र पर खड़ा होकर भंवर की तरह घूमने लगा.
काफ़ी अरसे के बाद पता लगा कि वे इस शहर में हैं. दो महीने से यहीं हैं. यहीं हैं और मुझसे मिले नहीं? मैंने कटुता से सोचा. अपनी वह कटुता मुझे अच्छी नहीं लगी. तब मुझे अपने चारों तरफ़ और भी घुटन प्रतीत हुई और वह घुटन मेरे दिल से बाहर निकलने लगी.
एक बार मिलूंगी ज़रूर... मैंने मन में कहा. बस, एक बार मिल कर जानना चाहती हूं... क्या जानना चाहती हूं? मुझे खाली पृष्ठ का ख़्याल आया. क्या उसे भरवाना चाहती हूं.
नहीं, वह अब खाली ही रहेगा. अब उसमें किसी और के हस्ताक्षर नहीं होंगे. शहर में फिर कवि सम्मेलन होने वाला था.
हां, कवि सम्मेलन में ही मैंने उन्हें देखा. कवि सम्मेलन ख़त्म हुआ, तो मैं स्टेज पर गई. उनसे सामना हुआ. ज़्यादा बातें नहीं हो पाई. अवसर भी उपयुक्त नहीं था. कुछ ऐसा भी लगा, जैसे वे बचना चाहते हो. मैं भी कुछ बचना चाहती थी. वहां बातें हो भी कितनी सकती थी?
उन्होंने मेरे हाथ में ऑटोग्राफ बुक देखी, तो बोले, "अभी भरी नहीं यह? आओ, कुछ नए कवियों से परिचय कराऊं."
वे परिचय कराते गए और मैं उनके हस्ताक्षर लेती गई.
फिर उन्होंने कहा, "लाओ, देखूं मेरे बाद किस-किस के हस्ताक्षर लिए है."
ऑटोग्राफ बुक मेरे हाथ से लेकर उसके पन्ने पलटने लगे. जब वे उस बीच के खाली पृष्ठ पर पहुंचे, तो रुक कर उसे देखने लगे. मेरे दिल में आया कि उनके हाथ से ऑटोग्राफ बुक खींच लूं, पर मेरे दोनों हाथ निर्जीव बने नीचे लटकते रहे. तभी उन्होंने जेब से पेन निकाला और उस पृष्ठ पर अपने हस्ताक्षर कर दिए. फिर वे मेरी ओर देखकर हल्का सा मुस्कुराए और ऑटोग्राफ बुक मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले, "अब तो इसे खाली नहीं रहना चाहिए."
सहसा मुझे लगा, यह क्या हो गया है? फिर मैंने उस पृष्ठ को देखा, तो मुझे लगा वह और भी खाली बन गया था, और भी शून्य और वह शून्यता जैसे मेरे दिल में भर गई.

- सुखबीर

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