वह जी भर कर हंसती, खिलखिलाती, बात-बात पर चुटकुले सुनाती. उस दिन जब हम सभी बैठे थे, चाचीजी ने नौकरों की समस्या का ज़िक्र छेड़ दिया, छूटते ही वह बोली, "आजकल ढंग के नौकर मिलते ही कहां हैं आंटी? मैं तो इसीलिए शादी कर रही हूं." हम सब जानते थे कि इस मज़ाक के पीछे आंसुओं का एक पूरा समंदर है, लेकिन जान-बूझकर हम सभी उस सुने हुए चुटकुले पर फिर हंस पड़े.
"भैया, यह आइज़ाबेला कौन थी?" पढ़ते-पढ़ते किताब में से गर्दन उठाकर छवि ने मुझसे प्रश्न किया. छवि मेरे चाचा की लड़की है, जिनके यहां मैं पिछले दो दिनों से ठहरा हुआ था. हालांकि लेखक सम्मेलन में भाग लेने आए लेखकों के ठहरने-खाने का प्रबंध साहित्य अकादमी ही करती है, लेकिन चाचाजी का आदेश था कि घर होते हुए मैं अन्यत्र नहीं ठहरूं. मैं इस आदेश का अनुपालन करने के अलावा और कर ही क्या सकता था?
दोपहर की संगोष्ठी के दौरान ही मेरे सिर में दर्द होने लगा था. संगोष्ठी समाप्त होते ही मैं सभा स्थल से घर चला आया. घर आकर अभी लेटा ही था कि छवि ने अपना प्रश्न दाग दिया. आइज़ाबेला का नाम शायद उसकी किताब में कहीं आया था.
"यह उन्नीसवीं सदी की बात है." मैने बताना शुरू किया. "आइज़ाबेला और मेरी लुइसा स्पेन की दो राजकुमारियां थीं. उन दिनों फ्रांस पर लुई फिलिप का शासन था,
लुई फिलिप चाहता था कि आइज़ाबेला की शादी उसके बेटे से हो. लेकिन इंग्लैंड ने राजनीतिक कारणों से इस विवाह का विरोध किया. फ्रांस इस दबाव के आगे झुक गया और लुई फिलिप ने इंग्लैंड की इच्छानुसार अपने बेटे की शादी आइज़ाबेला की छोटी बहन मेरी लुइसा से कर दी. लेकिन इस विवाह के पहले इंग्लैंड ने यह भी शर्त रखी थी कि मेरी लुइसा की शादी भी तभी हो सकेगी जब आइज़ाबेला कहीं और विवाह कर ले और उसके संतान हो जाए.
लुई फिलिप ने आइज़ाबेला की शादी डॉन फ्रांसिस नाम के एक बीमार राजकुमार से करा दी. लुई फिलिप की मंशा थी कि आइज़ाबेला के कोई संतान न हो, ताकि स्पेन की राजगद्दी उसके बेटे अर्थात् मेरी लुइसा के पति को ही मिले, क्योंकि स्पेन की राजगद्दी पर इन्हीं राजकुमारियों का उत्तराधिकार था."
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मैं आइज़ाबेला के बारे में छवि को जानकारी दे ही रहा था कि कमरे में एक सांवली सी, दुबली लड़की घुसी. घुसते ही छवि से बोली, "अरे यार तेरे पास शेक्सपीयर की 'एज यू लाइक इट' के नोट्स हैं ना, मुझे दे दे. मेरी कॉपी पता नहीं कहां खो गई है." फिर जैसे उसे कमरे में मेरी उपस्थिति का भान हुआ, दोनों हाथ जोड़कर शोखी से बोली, "जी, नमस्ते."
उसकी नज़रों का कौतूहल शायद छवि से छिपा नहीं रह पाया था, इसलिए उसने हम दोनों का परस्पर परिचय कराना ही उचित समझा, "ऋचा, ये हैं मेरे भैया विभोर, जिनकी मैं अक्सर चर्चा किया करती हूं, और भैया ये है मेरी सहेली ऋचा."
मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही ऋचा बोल पड़ी, "वही भैया हैं ना आप, जो कहानियां लिखा करते हैं." फिर स्वरों में मनुहार घोलकर बोली, "भैया, मुझ पर भी कोई कहानी लिख दो ना."
"पागल, ऐसे भी कोई कहानी लिखी जाती है क्या?" छवि ने कहा और हम तीनों ठठाकर हंस पड़े. थोड़ी देर तक बतियाने के बाद ऋचा छवि से नोट्स लेकर चली गई. उसके बारे में छवि ने बाद में बताया कि वह एक मध्यमवर्गीय परिवार की सबसे बड़ी लड़की थी. तीनों भाई-बहनों में भाई सबसे छोटा है और पिताजी भी रिटायर हो गए हैं. दो साल पहले तक जिस लड़के की चाह में यह दीवानी थी, उसी लड़के ने कुछ महीनों पहले उसी की छोटी बहन से शादी कर ली है. वह बेचारी अपने मुंह से आह तक नहीं निकाल सकी, सिर्फ़ इस भय से कि कहीं लोग उसे स्वार्थी न कह दें. उस पर यह आरोप नहीं लग जाए कि उससे छोटी बहन का सुख देखा नहीं जा रहा है.
ऋचा साधारण स्नातक थी. नयन-नक्श भी साधारण ही थे. माता-पिता उसके दहेज के लिए भारी रकम जुटा नहीं सकते थे. इधर छोटी बहन की शादी पहले हो जाने की वजह से रिश्तेदारी-बिरादरी में तरह-तरह की बातें होने लगी थीं. उसके विवाह के बहुतेरे प्रयास किए गए, लेकिन हर बार मामला दहेज पर आकर अटक जाता. हार कर उसके पिताजी ने उसकी शादी एक ऐसे आदमी से तय कर दी,जो उम्र में उससे सोलह साल बड़ा था और छह महीने पहले ही विधुर हुआ था.
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"बेचारी की मजबूरी यह है कि वह अपनी पीड़ा को ज़ाहिर करके अपने असहाय माता-पिता को दुखी भी नहीं करना चाहती. बस, अंदर ही अंदर घुटा करती है और जब दिल बहुत भर आता है तो कमरा बंद करके घंटों रोया करती है." छवि ने एक निःश्वास छोड़ते हुए कहा था.
"यानी यह ऋचा नाम की लड़की तुम्हारे परिवेश की आइज़ाबेला है." मैंने वातावरण को हल्का करने की गरज से कहा, लेकिन छवि 'हां' कहकर चाय बनाने चल दी. शायद वह अपनी पनियाई आंखें मुझसे छुपाना चाहती थी,
मैं कुल तीन दिन वहां रुका. इस बीच ऋचा से भी दो-तीन बार मिला, लेकिन उससे बतियाते समय कहीं ऐसा नहीं लगता था कि इस लड़की की हंसी आकंठ आंसुओं में डूबकर निकली है. यह अनुमान भी उसकी बातों से बहुत आसानी से लगाया जा सकता था कि वह एक महत्वाकांक्षी लड़की है. लेकिन हालात ने उसके पर कतर दिए थे मानो. मैं अक्सर ऋचा को देखने के बाद यही सोचा करता था कि परिस्थितियों के सामने महत्वाकांक्षाएं किस तरह से दम तोड़ देती हैं.
लेकिन ऋचा शायद ऐसा कुछ नहीं सोचती थी. ज़िंदगी के कई कटु अनुभवों ने शायद उसे भी यह सिखा दिया था कि जो पल सामने हैं, उन्हें पूरे उल्लास के साथ जी लिया जाए, यदि ऐसा करना संभव हो तो.
वह जी भर कर हंसती, खिलखिलाती, बात-बात पर चुटकुले सुनाती. उस दिन जब हम सभी बैठे थे, चाचीजी ने नौकरों की समस्या का ज़िक्र छेड़ दिया, छूटते ही वह बोली, "आजकल ढंग के नौकर मिलते ही कहां हैं आंटी? मैं तो इसीलिए शादी कर रही हूं." हम सब जानते थे कि इस मज़ाक के पीछे आंसुओं का एक पूरा समंदर है, लेकिन जान-बूझकर हम सभी उस सुने हुए चुटकुले पर फिर हंस पड़े. मैं हंसते समय भी उस लड़की की ज़िंदादिली पर अवाक था. ज़िंदगी के इतने क्रूर मज़ाक को भी कितनी सहजता से स्वीकार कर लिया था उसने.
जब मैं अपने शहर के लिए रवाना हुआ तो प्लेटफार्म पर मुझे छोड़ने के लिए सबके साथ ऋचा भी आई थी. अचानक रेल सरकने के साथ ही वह धीरे से बोली, "भैया, वो मुझ पर कहानी लिखनी थी ना आपको? लिखेंगे ना." ऋचा शायद समझ चुकी थी कि तीन दिनों के इस प्रवास में मैं उसकी परिस्थितियों से परिचित हो चुका हूं.
मैंने कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ़ मुस्कुराकर रह गया. रेल ने गति पकड़ ली और खिड़की के पास बैठा मैं दूर तक प्लेटफार्म पर हिलते हुए हाथ देखता रहा.
घर आकर एक बार फिर मैं अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया. डाक में एक दिन ऋचा की शादी का निमंत्रण पत्र मिला तो मन पता नहीं क्यों एक विचित्र वितृष्णा से भर उठा.
ऋचा और छवि के लाख आग्रहों के बावजूद में व्यस्तता का बहाना ओढ़कर ऋचा की शादी में शरीक नहीं हुआ. हां, तार द्वारा उसे सुखी और स्थायी वैवाहिक जीवन के लिए शुभकामनाएं अवश्य भेज दी.
चार महीने बाद ही छवि अपनी छुट्टियां बिताने मेरे यहां आई. एक दिन यूं ही चाय पीते-पीते मैंने उससे पूछ लिया, "अरे छवि, तुम्हारी उस सहेली ऋचा के क्या हाल है?"
"क्या बताऊं भैया, वो तो शादी के कुछ दिनों बाद ही किसी के साथ बिना कुछ बताए पता नहीं कहां चली गई." छवि ने विचित्र से स्वर में कहा.
मैं अचानक बोल पड़ा, "... तो आखिर उसने ऐसा कर ही डाला."
मेरे वाक्यांश ने छवि को चौंका दिया. उसने आश्चर्य से पूछा, "क्या इस संबंध में उसने आपको कभी कुछ बताया था भैया?"
"नहीं, लेकिन मैं जानता था कि ऐसा हो सकता है." मैंने कहा.
"वो क्यों भला?" छवि हैरान थी.
"... क्योंकि वो जो आइज़ाबेला थी ना, परिस्थितियों ने उसे स्पेन की महारानी बना तो दिया था, लेकिन एक दिन वह भी इसी तरह सिंहासन छोड़कर कहीं चली गई थी." मैंने कहा और फिर चाय पीने लगा.
मैं चुप था, छवि भी चुप थी. मेरी तरह वह भी शायद यही सोच रही थी कि इतिहास के क्षण स्वयं को किस-किस तरह, कहां-कहां, कब, कैसे और किन-किन संदर्भों में दोहराते हैं और.... दोहराते ही रहते हैं. अचानक मैं बुदबुदाते हुए खड़ा हो गया, "मैं तुम्हारी कहानी लिखूंगा आइज़ाबेला, ज़रूर लिखूंगा."
- अतुल कनक
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