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कहानी- एहसास (Short Story- Ehsas)

फिर उसने धीरे से अपना हाथ आगे बढ़ाकर पति का हाथ पकड़ लिया, रूंधे गले से बोली, "मुझे छोड़कर मत जाना… तुम्हारे बगैर मैं नहीं जी सकती… मुझ पर रहम करो, अब यहीं रहो…" उसकी आंखें जार-जार बरसने लगीं. जतिन बाबू के चेहरे के भावों में परिवर्तन आने लगा था. चेहरे की कठोरता कम ही गई थी, जैसे अपनी ग़लती का, ज़्यादतियों का एहसास हो रहा हो. पत्नी का हाथ हौले से दबाकर बोले, "अच्छा ठीक है…"

एक लंबी-चौड़ी विदेशी गाड़ी उनके घर के सामने रुकी. ड्राइवर की सीट पर बैठे ध्रुव ने दरवाज़ा खोला, एक निगाह छोटे भाई सचिन के घर पर डाली और कार में बैठे जतिन बाबू के लिए पिछली सीट वाला दरवाज़ा खोला. अपनी स्टील की मूठ वाली छड़ी संभालते हुए वे धीरे से गाड़ी से बाहर निकले. सफ़ेद कलफ लगे कुर्ते पायजामे, करीने से सजे सफ़ेद बाल और आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा उनके व्यक्तित्व को रौब प्रदान करते हैं. छड़ी टेकते हुए वे ध्रुव के पीछे-पीछे दरवाज़े तक पहुंचे. शायद खिड़की में से सचिन की पत्नी ने देख लिया था, उसने फ़ौरन दरवाज़ खोल दिया.
"कैसी है गायत्री? कहां है?" जतिन बाबू उतावले हो रहे थे.
"मांजी सबेरे से ही आपको याद कर रही हैं. बेचैनी सी महसूस कर रही थीं. डॉक्टर को बुलाया, तो उसने दवाएं-इंजेक्शन दे दिए, लेकिन अभी भी वे सहज नहीं हो पा रही हैं. बार-बार आपको बुलवाने के लिए कह रही थीं, इसीलिए…" सचिन की पत्नी ही क्या, घर का कोई भी सदस्य जतिन बाबू के सामने निर्भीकता और सहजता से बोल नहीं पाता. उनके चेहरे का रौब, आंखों में क्रोध के भाव उनके व्यक्तित्व को सदा ही रुआबदार बनाए रखते थे. पत्नी से लेकर बच्चों तक के ज़ेहन में एक भय की लकीर बनी रहत, पता नहीं किस बात पर कब बुरी तरह प्रताड़ित कर डालें.
उम्र की सांध्यबेला में गायत्री ने उनके कठोर व्यवहार का प्रतिकार किया, तो वे क्रोध से बिलबिला उठे, "अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता…"
गायत्री की आंखें बरसने लगीं, "मैं पिछले चालीस सालों से आपकी ज़्यादतियां, प्रताड़ना सहती आ रही हूं. अगर मैंने कुछ कह दिया, तो आपको इतना बुरा क्यों लग रहा है? क्या मैं इंसान नहीं? मुझे क्रोध नहीं आ सकता..?"
"चुप रहो. अब तुम्हारे मन में मेरे प्रति आदर-मान के भाव नहीं रहे. मैं ध्रुव के साथ रहूंगा, तुम यहीं रहो अपने छोटे लाड़ले के साथ…" क्रोध से उफन रहे थे जतिन बाबू.
"ये कैसी बातें कर रहे है आप? इस उम्र में अलग-अलग रहेंगे? लोग हम पर हंसेंगे…"
"हंसने दो, मुझे परवाह नहीं लोगों की. मेरा फ़ैसला किसी के कहने से बदल नहीं सकता. मैंने जो कह दिया, सो कह दिया."
गायत्री नहीं जानती थी कि उसके विद्रोह के छोटे से कदम की इतनी बड़ी सज़ा मिलेगी उसे. फिर जतिन बाबू ने अपना ज़रूरी सामान, कपड़े वगैरह समेटा और बड़े बेटे ध्रुव के घर चले गए. गायत्री गिडगिडाती रही, ज़माने की दुहाई देती रही, पर हठी जतिन बाबू का दिल न पसीजा. हालांकि सचिन और ध्रुव के घरों के बीच मात्र एक किलोमीटर की दूरी थी, लेकिन दिलों के फ़ासले इन दूरियों को भी नहीं पाट सके. उम्र के इस पड़ाव पर अपने जीवन सहचर के इस व्यवहार से गायत्री जड़ हो गई. चालीस वर्षों के लंबे साथ को पल भर में झटक देने में उन्हें तनिक भी संकोच, पीड़ा या परेशानी नहीं हुई थी. हालांकि मां की मानसिक अवस्था और तनाव को समझते हुए सचिन व उसकी पत्नी उन्हें अकेला नहीं छोड़ते थे. कभी उनके साथ गपशप करते, कभी बच्चों को उनके पास भेज देते. बच्चों की प्यारी निश्छल बातो में कई बार वे इतना खो जातीं कि सारा तनाव-अपमान भूल जातीं.
"दादी, तुम दांत कैसे खाती हो, दिखाओ ना." पांच वर्षीय भोलू जब गायत्री से मनुहार करता, तो वह अपनी नकली दांतों के ढांचे को मुंह खोलकर बाहर निकालती और भोलू को दिखाते हुए कहतीं, "देख, अब मैं इन्हे खा जाऊंगी." मुंह खोलकर उन्हें अंदर रखती, फिर मुंह बंद कर बोलतीं, "खा लिए ना." भोलू को यह सब
जादुई लगता. वह दादी की इस हरकत पर ताली बजाकर नाचता. उसकी ख़ुशी और हंसी देख वह भी ज़ोर से हंसती, तो आंखों में तरलता तैर जाती.
एकांत पाते ही गायत्री जब अतीत की सीढ़ियों से नीचे उतरने लगती, तो हर दो सीढ़ियों के अंतराल पर कड़वी यादों का काफ़िला नज़र आने लगता और वह कई पत्नों तक उसमें से बाहर न निकल पाती. हालांकि इन कड़वी यादों के साथ कुछ खट्टी-मीठी यादें भी शामिल थीं, लेकिन यह मानव मन की कमज़ोरी है कि परेशानी की घड़ी में उसे अपने बीते हुए सुखद लम्हें याद नहीं आते.
ढाई कमरे के घर में तीन बच्चों के साथ गृहस्थी की गाड़ी तंगी से गुज़ारते हुए गायत्री कई बार अपने भाग्य से शिकायत करती. उसकी दोनों बहने और भाई तमाम सुख-सुविधाओं के साथ ऐश्वर्यपूर्ण ज़िंदगी जी रहे थे. आर्थिक तंगी के साथ-साथ पति का उग्र और क्रोधित स्वभाव कभी-कभी इतनी निराशा, शिथिलता तथा तनाव पैदा कर देता कि जीवन बोझ सा प्रतीत होता. पति द्वारा डाट-फटकार, प्रताड़ना-अपमान मिलने पर कितना-कितना रोई है वो. उनका प्रयास तो यहीं रहता कि बच्चों के सामने उन्हें ऐसी स्थिति से न गुज़रना पड़े, लेकिन दो कमरों के घर में कितनी गोपनीयता बरती जा सकती है. उस पर जतिन बाबू न आगा देखते न पीछा, पूरे आवेश से फट पड़ते, "अभी तक मेरे कपड़े प्रेस नहीं हुए, तुम सारा दिन क्या करती रहती हो? किसी काम का शऊर नहीं तुम्हें…"

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"यहां मेरे ज़रूरी काग़ज़ पड़े थे, हिसाब था उसमें, कहां गए? यह घर है या बूचड़खाना? तुम क्या करती रहती हो?"
गायत्री की आंखें डबडबा आतीं. मन तो करता पति से कहे, "मैं सारा दिन क्या करती हूं, कभी घर रहकर देख लो. मुनीम की नौकरी करते-करते हर बात में मीनमेख निकालना, बेवजह दख़ल देना, हर चीज़ का हिसाब लगाना तुम्हारी आदत हो गई है. नौकरी के बाद ख़ुद तो यार-दोस्तों के साथ ताश खेलने में घंटो बिता आते हो. यहां मैं झाडू, बर्तन, कपड़े धोने, प्रेस करने से लेकर सब्ज़ी सौदा लाने और खाना बनाने तक अकेली खटती रहती हूं. कभी तुम्हें मुझ पर तरस क्यों नहीं आता? क्या मैं थकती नहीं? क्या मै हाड़-मांस से बनी इंसान नहीं, जिसके सीने में दिल धड़कता है? मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं, कुछ सपने हैं, जो दबे-घुटे से पड़े हैं. परंतु तुम्हें इससे क्या मतलब? पुरुष हो न, इसीलिए स्वयं को श्रेष्ठ मानते हो. दंभ, क्रोध, फटकार, आवेश पर केवल तुम्हारा अधिकार है? पर कह न पाती.
कभी कभार जब जतिन बाबू का मूड कुछ अच्छा होता, तो पत्नी और बच्चों के साथ हंसी-मज़ाक भी कर लेते, लेकिन ऐसे अवसर बहुत कम ही आते. गायत्री उस वक़्त अपने तमाम शिकवे-शिकायत भूल जाती और बहुत उदार हो उठती. पति से मीठी शिकायत भी कर देती, "आप हमेशा इस तरह क्यों नहीं रहते? कितना अच्छा लगता है सबको हंसते, ख़ुश होते देखकर. छोटी-छोटी बातों पर डांटना-डपटना अब बंद कर दो. बच्चे भी बड़े हो रहे हैं." जतिन बाबू झट बोल पड़ते, "पगली, डांटा भी उसे ही जाता है जिसे हम प्यार करते हैं, अपना मानते हैं. किसी गैर को भला कोई डांट-डपट सकता है? और क्या वह ये सब सहन कर सकता है?" गायत्री उदास हो जाती. यह कैसा अपनापन हुआ, जिसमें प्रेम-स्नेह इतना कम और डांट-फटकार, क्रोध इतने ज़्यादा, लेकिन घर के माहौल को बिगड़ने से बचाने के लिए वह सब सहन कर लेती.
अपनी पड़ोसन शीला के सुखी दांपत्य जीवन से कभी-कभी गायत्री अपनी तुलना कर बैठती, तो उसे बहुत तकलीफ़ होती. शीला शक्ल-सूरत में साधारण थी और केवल आठवीं तक शिक्षित थी, फिर भी उसका जीवन कितना सुखी था. कितनी ही बार गायत्री ने खिड़की में से देखा था, बरामदे में बैठी शीला से उसके पति को हंसी-ठिठोली करते हुए, कभी उसके बालों में फूल लगाते हुए, कभी उसके गाल पर चिकोटी काटते हुए, कभी शीला डार्लिंग, रानी साहिबा कहकर पुचकारते हुए. ये सब देखकर उसे अपने भाग्य पर ग्लानि होने लगती. वह तो शक्ल-सूरत से आकर्षक थी. और मैट्रिक तक पढ़ी हुई भी थी, लेकिन बावजूद इन सबके जतिन बाबू ने उसके गुणों की कद्र नहीं की. वे उन पुरुषों में से थे, जिनकी सोच होती है कि नारी को अधिक लाड़-प्यार करने से वह हावी हो जाती है. सिर पर बैठ जाती है, इसलिए उस पर लगाम रखना चाहिए. जैसे नारी इंसान न होकर कोई पशु हो जिस पर लगाम, अंकुश लगाए जाएं.
शादी के तीन वर्षों के पश्चात् गायत्री ने बेटी को जन्म दिया और अगले चार वर्षों में दो बेटों को. तीनों बच्चों को संभालने की पूरी ज़िम्मेदारी उसी पर थी. आर्थिक स्थिति साधारण होने के कारण नौकर-चाकर तो रखे नहीं जा सकते थे. एक महरी सफ़ाई तथा बर्तन-कपड़े धो देती थी.
शेष सारे कार्य तथा बच्चों की सार-संभाल करके गायत्री बेहद थक जाती. पति के छूते ही जब वह थकान की बात करती तो वह क्रोधित हो उठते. कई बार वह क्रोध दोनों के बीच अबोले के रूप में परिवर्तित हो जाता, जो कई दिनों तक चलता. कभी-कभी यह क्रोध उफ़ान का रूप भी ले लेता, तब जतिन बाबू पत्नी को दो-चार हाथ जड़ अपनी मर्दानगी दिखाकर तृप्त हो लेते. गायत्री के पास चुपचाप रोकर सब कुछ सहन कर लेने के अलावा कोई चारा नहीं था. किसे कहती यह सब? वह तो ऐसे संस्कारों के बीच पली-बढ़ी थी, जहां पति ही पत्नी के लिए परमेश्वर होता है. उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ कहना या कदम उठाना वर्जित होता है.
उम्र की सांध्यबेला में पहुंचने तक व चालीस वर्ष साथ रहने के बावजूद गायत्री अपने पति जतिन के ग़ुस्सैल और अड़ियाल स्वभाव का कारण नहीं जान पाई. पता नहीं यह उनके घर के वातावरण का प्रभाव था या उनकी परवरिश में कोई कमी रह गई. जब उनकी शादी हुई, उससे साल भर पहले ही जतिन की मां का देहांत हो चुका था. एक बड़ी बहन थी, जो शादीशुदा थी. उनकी शादी के कुछ ही समय बाद एक दुर्घटना में पिता की भी मृत्यु हो गई, शायद छोटी उम्र में ही मां-पिता के बिछोह और प्यार से वंचित होने के कारण उनका स्वभाव ऐसा बन गया होगा, यही मानकर गायत्री अपनी भरपूर कोशिश करती उन्हें ख़ुश रखने की. वो सदा ऐसे कार्य करने से बचती, जिससे उन्हें जल्दी क्रोध आ जाता था. पर कहां बदल पाई उनके चिड़चिड़ेपन को. बात-बात पर आवेश में भर डांटने-डपटने की प्रवृत्ति को और उनकी हठधर्मिता को. इसे भी जीवन का एक हिस्सा मानकर ज़िंदगी सहजता से जीने की कोशिश करती रही थी.
तीनों बच्चे आपस में खेलते हुए सब लड़-झगड़ पड़ते या शोरगुल करते, तो जतिन बाबू चीख पड़ते, "क्या तूफ़ान मचा रखा है. तुम लोगों से चुप नहीं बैठा जाता?" बच्चे सहम जाते, तो गायत्री धीरे से कहती, "बच्चे है, इतनी समझ उनमें थोड़े ही होती है. क्यों डांटते हैं?"
इस पर जतिन बाबू गायत्री पर टूट पड़ते, "क्या दूसरों के घर में बच्चे नहीं होते? तुम इनका शह दे देकर इनका सत्यानाश कर रही हो." गायत्री की आंखें डबडबा जातीं. क्या हर समय बच्चों के सिर पर डंड़ा लेकर सवार रहना चाहिए? उन्हें खेलने-कूदने, हंसने-बोलने की भी आज़ादी नहीं मिलनी चाहिए.
पिता की बंदिशों और खौफ़ के साथ ही बच्चे किशोरावस्था में पहुंच गए. बड़े बेटे पूर्व ने उस दिन टी-शर्ट और पैच वाली जींस पहन रखी थी, जिसे वह दोस्तों के साथ ख़रीदकर लाया था. शाम को जतिन बाबू ने देखा व, तो दहाड़ उठे, "यह आवारा लफंगों वाले कपड़े कहा से लाए?"

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"जी, बाजार से ख़रीदे हैं." ध्रुव हकलाते हुए बोला.
"बाजार में तुम्हें कोई ढंग का कपड़ा नहीं मिला, जो ये उठा लाए? जाओ इसे वापस करके पेंट-शर्ट ले आओ,"
"पिताजी, अब तो यह पहन ली है. अब वापस नहीं होगी. दुकानदार ने भी कहा था वापस नहीं होगी." किसी तरह हिम्मत जुटाकर ध्रुव बोला. जतिन बाबू क्रोध में खा जाने वाली नज़रों से उसे घूरते हुए भीतर के कमरे में चले गए.
"मां, पिनाजी बेवजह अपनी मर्ज़ी हम पर लादते हैं, डांटते-फटकारते है़. अब हम बच्चे नहीं. यह सब कब तक चलेगा?" ध्रुव अपना आक्रोश गायत्री पर उतारते हुए बोला.
"बेटा, मैं इतने सालों तक कोशिशें करके भी इन्हें नहीं बदल पाई. शायद हमारे भाग्य में यही लिखा है." गायत्री उदास हो गई‌ थी. उसकी सजल आंखों को देख ध्रुव चुप हो गया.
गायत्री वह घटना भी कहां भूल पाती है, जब पति ने उसे सरे राह अपमानित और प्रताड़ित किया था. किसी विवाह समारोह से वे लौट रहे थे. रात ग्यारह बजे का समय रहा होगा. स्कूटर पर पीछे बैठी गायत्री उस दिन स्वंय को ख़ुश और तनावरहित महसूस कर रही थी. चांदनी रात थी और ठंड का मौसम. मन ही मन वह हसीन मौसम का आनंद उठा रही थी. गाडी गति में थी कि अचानक सामने के स्पीड ब्रेकर पर ज़ोर का झटका लगा, जतिन को स्पीड ब्रेकर शायद नहीं दिखा था. गायत्री गिरते-गिरते बची. उसके मुंह से निकल पड़ा, "क्या कर रहे हैं? अभी मैं गिर जाती तो…" जतिन बाबू ने गाड़ी रोक दी और चीख पड़े, "चलो नीचे उतरो… मेरे पीछे मत बैठा करो… आ जाना अपने आप रिक्शे से…"
गायत्री की आंखें भर आईं. कोई पति अपनी पत्नी से ऐसा व्यवहार भी करता है? दुख और अपमान से वह केवल आंखें पोंछती रही. जतिन बाबू ने खरीखोटी सुनाकर अपनी भड़ास निकाली. फिर स्कूटर स्टार्ट करके बोले, "चलो बैठो."
यह तो बच्चों की क़िस्मत अच्छी थी, जो इतने प्रतिबंध व डांट-फटकार खाने के बाद भी मेधावी थे. ध्रुव इंजीनियर बन गया था और एक अच्छी कंपनी में उसकी नौकरी लग गई थी. छोटा सचिन भी एक प्रतिष्ठित कंपनी में अधिकारी के पद पर कार्यरत था.
जब बेटी की शादी के लिए रिश्ते देखे जा रहे थे, तो वह धीरे से गायत्री से बोली थी, "मां, मैं बहुत दिनों से कहना चाह रही थी. दरअसल, कॉलेज में मेरा एक सहपाठी है… में और वह…"
"बस बस, आगे कुछ मत कहना. तुम्हारे पिताजी को पता लग गया न तो आफत टूट पड़ेगी. कॉलेज तो दूर घर से बाहर भी नहीं जाने देंगे. बेटा, जैसा चल रहा है चलने दो. इस घर में तो विद्रोह की बात सोचना भी व्यर्थ…"
फिर जतिन बाबू के पसंद किए लड़के से ही बेटी की शादी हो गई थी. परिवार के सदस्यों को अपने आदेशानुसार चलाने, उन पर रौब जमाने और डांटने-फटकारने से जतिन बाबू के अहं को तुष्टि मिलती थी. उनके समक्ष कोई जवाब दे या उनकी किसी बात का प्रतिकार करे, यह उनसे सहन नहीं होता था, इसीलिए उनकी उपस्थिति में घर में चुप्पी व आतंक छाया रहता. गायत्री ने अपने व्यवहार तथा समझदारी से पिता-पुत्रों के बीच कड़वाहट नहीं आने दी थी. जब कभी ऐसी स्थिति आती, तो यह पुत्रों को समझा-बुझाकर स्थिति को सामान्य कर देती.


परिस्थितियां चाहे कैसी भी हो, समय का चक्र तो निर्बाध गति से चलता ही रहता है. दोनों बेटों की अच्छी नौकरी लग जाने से घर की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गई थी. दोनों बेटों की शादियां भी जतिन बाबू ने अपने हिसाब से जांच-परखकर कीं. बहुएं भी भली निकली. अन्य सदस्यों की ही तरह वे भी जतिन बाबू के आगे नहीं बोल पाती थीं. उम्र बढ़ने के साथ जतिन बाबू का रौब, क्रोध और कठोरता बढ़ी ही थी. बेटों के कहने पर नौकरी उन्होंने छोड़ दी थी. समय काटने के लिए वे अपने यार-दोस्तों के पास चले जाते, तो कभी वे उनके घर आ जाते. फिर घंटों गपशप, ताश के बीच चाय-नाश्ते के दौर चलते. कभी-कभी गायत्री और बहुएं परेशान हो उठती उनकी फ़रमाइशों से.
"गायत्री, ऐसा करो बहू से कहो पांच लोगों के लिए खाना बना लें. आज हम देर तक बैठेंगे."
"छोटी बहू, जरा पकौड़े तो बना लाओ गरमा गरम…"
"बड़ी बहू, आज मेरे दोस्त आने वाले हैं, नाश्ते में क्या बना रही हो? ऐसा करो समोसे या आलू टिक्की बना लो, सबको पसंद आती से…."
भले ही उस समय घर में नाश्ते में लगने वाले सामान नहीं या किसी की तबियत ठीक न हो अथवा उन्हें बच्चों के कोई काम निबटाने हों. जतिन बाबू को वे इंकार नहीं कर सकती थीं, बेशक मन-ही-मन खीझती रहें, लेकिन उनके आदेशानुसार चाय-नाश्ते, खाने का प्रबंध करना ही पड़ता था. बड़ी बहू ने धीरे-धीरे पति के समक्ष अपना आक्रोश प्रकट करना आरंभ कर दिया. ख़ुशक़िस्मती से ध्रुव को कंपनी की ओर से फ्लैट मिल गया और इस बहाने उन्हें अलग रहने का अवसर हाथ लग गया. जतिन बाबू तथा गायत्री सचिन के साथ रह रहे थे.
उस दिन सचिन और उसकी पत्नी आख़री शो में फिल्म देखने गए. लौटने में उन्हें देर हो गई, अतः सबेरे नींद भी देर से खुली. गायत्री से अब घर के कार्य होते नहीं थे, फलतः नाश्ता बनाने में देर हो गई. नाश्ता लगाकर बहू ने आवाज़ लगाई, "पिताजी, नाश्ता कर लीजिए."
"ये कोई नाश्ते का समय है. साढ़े नौ बज रहे हैं…" जतिन बाबू दहाड़े.
बहू रुआंसी हो गई. गायत्री ने बात संभालने की गरज से कहा, "रात को देर से लौटे थे, नींद देर से खुली. कभी कभार देर होने से क्या फ़र्क़ पड़ता है."
"तुम चुप करो… बच्चों की ग़लतियों पर पर्दे डालकर उन्हें और बिगाड़ रही हो."
गायत्री को बहुत बुरा लगा. बेवजह बात का बतंगड बनाकर उसे ही अपमानित करने लगे. वह भी कुछ उत्तेजित हो उठी, "हर समय डांट-फटकार, भाषण के अलावा तुम्हें कुछ नहीं सूझता. कभी प्यार से बात‌ नहीं कर सकते? अपने दोस्तों के साथ तो भले-चंगे रहते हो, घर के लोग तुम्हें क्यों नहीं सुहाते…"
जतिन बाबू आपे से बाहर हो गए, "तुम हो न सबको प्यार करनेवाली, मैं तो हमेशा तुम सबको पीटता रहता हूं. सबका दुश्मन हूं न. तुम इनको शह दे-देकर सत्यानाश करोगी. तुम्हें कोई दो घूंट पानी भी नहीं पूछेगा देखना…"
गायत्री का क्रोध भी पता नहीं कैसे सारी सीमाएं पार कर गया, "पता नहीं कैसी कड़वी ज़ुबान है. जब बोलेंगे आग ही उगलेंगे. तुम्हारी मां ने नीम के पत्ते खाकर तुम्हें जन्म दिया होगा… पत्थर‌ दिल कहीं के…"
जतिन बाबू गरजते हुए बोले, "मैं कठोर हूं, मैं पत्थरदिल हूं, कड़वी ज़ुबान का हूं? तो ठीक है, तुम रहो अपने इस लाड़ले साथ. मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता. मैं जा रहा हूं…" गायत्री के साथ बहू-बेटा भी जड़ हो गए. तीनों ने जमाने का वास्ता दिया, अपने कहे की माफ़ी भी मांगी, लेकिन जतिन बाबू टस-से-मस नहीं हुए. अपना सामान अटैची में डाला और ध्रुव के घर चले गए.
उस दिन परिवार के किसी सदस्य के गले से नीचे कौर नहीं उतरा था. शारीरिक रूप से अशक्त हो रही गायत्री जल्दी ही बिस्तर से लग गई. सचिन, हालांकि उसकी पत्नी और बच्चे यथासंभव उसके मन बहलाव की कोशिशें करते थे, फिर भी पति के व्यवहार से वह स्तब्ध थीं. उसने स्वयं को बेहद आहत और अपमानित महसूस किया था.
लगभग सप्ताह भर पश्चात् जतिन बाबू ध्रुव के साथ आए. चेहरे पर वही अकड़, वही रौब और दंभ. बच्चों को पुचकारा, फिर गायत्री के बिस्तर के क़रीब बैठ गए.
"क्या हुआ तुम्हारी तबियत को…" गायत्री की आंखें सजल हो आईं, "इस उम्र में मुझे छोड़ अलग रहने चले गए और पूछते हो, तबियत को क्या हुआ. भगवान के लिए अपना सामान वापस ले आओ जितनी ज़िंदगी बची है, इज़्ज़त से जीने दो. जीवन के आख़िरी पड़ाव पर जगहंसाई तो मत करवाओ…"
"बस यही कहना था? मैं वहीं रहूंगा, वहां तुम्हारी तरह मुझे कोई जवाब नहीं देता. सब आदर-मान करते हैं… तुमने यहां सबके सामने मुझे बेइज़्ज़त किया…"
"अब उस बात पर मिट्टी डालो. ध्रुव बेटा, तू ही इन्हें समझा…" गायत्री की रुलाई फूट पड़ी थी, लेकिन जतिन बाबू उठ खड़े हुए. उनके जाने के बाद गायत्री की आंखें कितनी ही देर बरसती रहीं, बहू-बेटे ने किसी तरह सांत्वना देकर चुप करवाया.

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रातभर गायत्री सो न सकी, उम्र का तकाजा, उस पर पति का बेरुखा व्यवहार और मानसिक तनाव भला कैसे आंख लगने देते. सबेरे रोज़ की बनिस्बत देर से उठीं. चाय पीने के पश्चात् उसे घबराहट बेचैनी सी महसूस होने लगी. डॉक्टर को बुलाया, तो उसने इंजेक्शन देकर आराम करने की सलाह दी. लेकिन वह स्वयं को सहज महसूस नहीं कर रही थीं. बार-बार जतिन बाबू को बुलाने के लिए कह रही थी. आख़िर बहू ने फोन पर उन्हें बता दिया. कुछ देर में ही वे वहां पहुंच गए. गायत्री का चेहरा बेहद उदास, शिथिल था.
"अब कैसी तबियत है?" जैसे गहरे कुएं में से आवाज़ प्रतिध्वनित हुई. गायत्री ने देखा, जतिन बाबू का चेहरा भी उतरा हुआ है. वह रौब, अकड़ हल्की सी उदासीनता, चिंता के नीचे दब गए थे. क्या सचमुच उन्हें अपने व्यवहार पर खेद है?
गायत्री के चेहरे पर हल्के से संतोष के भाव उभर आए, "आप आ गए, अब मैं ठीक हूं. वैसे तो सबेरे से घबराहट, भारीपन और बेचैनी महसूस हो रही थी…" फिर उसने धीरे से अपना हाथ आगे बढ़ाकर पति का हाथ पकड़ लिया, रूंधे गले से बोली, "मुझे छोड़कर मत जाना… तुम्हारे बगैर मैं नहीं जी सकती… मुझ पर रहम करो, अब यहीं रहो…" उसकी आंखें जार-जार बरसने लगीं. जतिन बाबू के चेहरे के भावों में परिवर्तन आने लगा था. चेहरे की कठोरता कम ही गई थी, जैसे अपनी ग़लती का, ज़्यादतियों का एहसास हो रहा हो. पत्नी का हाथ हौले से दबाकर बोले, "अच्छा ठीक है…"
गायत्री के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभर आई. संतोष की एक लंबी सांस उसने ली. पति के चेहरे को देखा और गर्दन एक ओर लुढ़क गई. जतिन बाबू घबराए से चीखे, "गायत्री, गायत्री…" पर गायत्री तो उनकी दुनिया से बिदा ले चुकी थी. परिवार के सदस्य इकट्ठे हो चुके थे. इधर जतिन बाबू आहिस्ता-आहिस्ता अपने बहते आंसुओं को पोंछते हुए बुदबुदा रहे थे, "गायत्री, मुझे माफ़ कर दो…"

- नरेन्द्र कौर छाबड़ा

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