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कहानी- एहसास (Short Story- Ehsaas)

"मुझे आपकी यही आदत अच्छी नहीं लगती. हमेशा पैसों के पीछे भागते रहते हैं. मानवता तो आप में है ही नहीं." जानकी कुढ़ते हुए बोली.
"तुम्हें इन फालतू के माथापच्ची में पड़ने की ज़रूरत नहीं. तुम्हारा काम है घर संभालना, घर संभालो. मेरे काम में दख़लअंदाज़ी मत करो. इतनी बड़ी आबादी में दो-चार मरते भी हैं, तो क्या फ़र्क पड़ता है." ग़ुस्से में कहते हुए मोहन भंडारी बाहर निकल गए थे.

पांच घंटे से अस्पताल के बेड पर रोहन बेसुध पड़ा हुआ था. डॉक्टर एवं नर्स के चेहरे के हाव-भाव देखकर साफ़ ज़ाहिर था कि रोहन की हालत ठीक नहीं है.
अस्पताल में रिश्तेदारों एवं जान-पहचानवालों की भीड़ लगी हुई थी. सभी मोहन भंडारी एवं उनकी पत्नी जानकी को धीरज बंधा रहे थे. डॉक्टर ने चौबीस घंटे का समय दिया था. जानकी का तो रोते-रोते बुरा हाल हो गया था. वह बार-बार भगवान से मन्नते मांग रही थी.
मोहन भंडारी की तो ऐसी हालत हो गई थी मानो काटो तो खून नहीं. उनकी तो बोलती ही बंद हो गई थी. उनके मुख से एक शब्द भी नहीं निकल पा रहे थे.
उन्हें ऐसा लग रहा था मानो उनके गुनाहों की सज़ा उनके बेटे को मिली है. उन्हें अंदर से आत्मग्लानि-सी होने लगी.
आज उन्हें किसी की जान की क़ीमत समझ में आई, जब ख़ुद उनके बेटे की जान पर बन आई. कहते हैं न, जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई.

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रह-रहकर उन्हें अपनी पत्नी की कही हुई बातें याद आने लगी. एक सप्ताह पहले की ही तो बात है, वे जैसे ही घर में दाख़िल हुए जानकी सुबह की अख़बार दिखाते हुए ग़ुस्से में कांपते हुए बोली, "आपके द्वारा बनाई गई सड़क पर कल फिर एक मासूम की जान चली गई और पता नहीं कितनी जानें और जानी बाकी है."
"तो मैं क्या करूं?" मोहन भंडारी खीज भरे स्वर में बोले.
"आप नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? आपके द्वारा बनाई गई सड़कें एक साल भी नहीं टिकती. पहली ही बारिश में उसमें चेचक के समान बड़े-बड़े गड्ढे हो जाते हैं, जिसमें फंस कई मासूमों की जान चली जाती है." जानकी बिना डरे अपनी ही रौं में बोले जा रही थी.
"चुप रहो, जब समझ में नहीं आता, तो बोला मत करो. तुम्हें क्या मालूम कि ठेका प्राप्त करने के लिए मुझे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं. ख़र्चा भी बहुत हो जाता है. ऐसे में मैं अगर मज़बूत एवं टिकाऊ सड़क बनाऊंगा, तो मुझे कितना प्रॉफिट होगा? कभी सोचा है? और ऐसे भी हर साल सड़कें बनेंगी, तो मुझ जैसे ठेकेदारों को काम मिलता रहेगा." मोहन भंडारी लापरवाही से बोले.
"मुझे आपकी यही आदत अच्छी नहीं लगती. हमेशा पैसों के पीछे भागते रहते हैं. मानवता तो आप में है ही नहीं." जानकी कुढ़ते हुए बोली.
"तुम्हें इन फालतू के माथापच्ची में पड़ने की ज़रूरत नहीं. तुम्हारा काम है घर संभालना, घर संभालो. मेरे काम में दख़लअंदाज़ी मत करो. इतनी बड़ी आबादी में दो-चार मरते भी हैं, तो क्या फ़र्क पड़ता है." ग़ुस्से में कहते हुए मोहन भंडारी बाहर निकल गए थे.
"काश, उस समय मैं जानकी की बात मान लेता और कम से कम टूटी हुई सड़क की मरम्मत ही करा देता, तो आज मेरा बेटा ज़िन्दगी और मौत के बीच में नहीं झूलता…"मोहन भंडारी अपने आप से बोले.
"कैसा है रोहन?" गुप्ताजी ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, तो वे वर्तमान में लौट आए. जवाब में वे बेबस नज़रों से गुप्ताजी को देखने लगे.
"हौसला रखिए, रोहन जल्द ठीक हो जाएगा " गुप्ताजी सांत्वना भरे स्वर में बोलते हुए बगल की कुर्सी पर बैठ गए.
रात आंखों ही आंखों में बड़ी बेचैनी से कटी. सुबह तो हुई, पर निराशा के बादल नहीं छटे. रोहन की हालत में अभी भी कोई सुधार नज़र नहीं आ रहा था. मोहन भंडारी का मन अंदर से बहुत बेचैन हो रहा था. पता नहीं उन्हें क्या सूझा कि अचानक वे कुर्सी से उठकर हॉस्पिटल परिसर में रखे भगवान गणेश की मूर्ति के सामने जाकर खड़े होकर मन ही मन अपने पापों का प्रायश्चित करने लगे- 'हे भगवान, मेरी गुनाहों की सज़ा मेरे बेटे को मत देना. उसे बचा लो भगवान. मैं वादा करता हूं कि अब से जो भी काम करूंगा पूरी ईमानदारी एवं निष्ठा से करूंगा…'
प्रायश्चित करने के बाद उनका मन थोड़ा हल्का हो गया था. वे आकर पुनः कुर्सी पर बैठ गए. दस मिनट के अंदर ही डॉक्टर ने आकर बताया कि रोहन अब ख़तरे से बाहर है. उसे होश आ गया है.
सभी के मुरझाए हुए चेहरे एकाएक खिल उठे. सभी एक साथ रोहन को देखने के लिए दौड़ पड़े.
डॉक्टर ने सबको बारी-बारी से मिलने की हिदायत दी.
अपने बेटे को एक नज़र देखकर मोहन भंडारी अस्पताल से बाहर निकल गए. जानकी से भी कुछ नहीं कहा.
थोड़ी देर पहले पसरा मातम अब ख़ुशियों में बदल चुका था. नाते-रिश्तेदार बुके एवं मिठाइयां लेकर हॉस्पिटल पहुंच रहे थे. जानकी की तो ख़ुशी की कोई ठिकाना ही नहीं था.
"अरे भाई, मोहन भंडारी-कहां हैं? कहीं दिख नहीं रहे हैं." गुप्ताजी ने पूछा, तो जानकी अपने पति को इधर-उधर ढूंढ़ने लगी.
'लगता है काम पर निकल गए. इन्हें तो हमेशा काम की ही पड़ी रहती है. ये नहीं सुधरेंगे.' सोचते हुए जानकी ने अपने पति को फोन लगाया.

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पर उनका मोबाइल बंद आ रहा था, तब उसने उनके असिस्टेंट तिवारीजी को फोन लगाया, तो तिवारीजी ने बताया, "साहब तो सड़क की मरम्मत करवा रहें हैं. बोल रहे थे कि भगवान ने मेरे बेटे की जान बख्श दी है. मुझे एहसास हो चुका है कि अपनों से बिछुड़ने का दर्द क्या होता है? अब मैं नहीं चाहता कि मेरी बेईमानी और लापरवाही का ख़ामियाजा कोई और भुगतें."
"सच!" हर्षतिरेक से जानकी की आंखें नम हो गईं. अपने पति के प्रति उसके मन में जो नफ़रत और ग़ुस्सा भरा हुआ था उसकी जगह अब श्रद्धा एवं प्रेम ने ले लिया था.
आज उसे दोहरी ख़ुशी मिल गई थी. आभार स्वरूप भगवान गणेश की मूर्ति के सामने उसके दोनों हाथ स्वत: ही जुड़ गए.

- शीला श्रीवास्तव

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