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कहानी- दोस्त बस और कुछ नहीं… (Short Story- Dost Bas Aur Kuch Nahi…)

इस अपमान पर प्रसून और रचना दोनों ही स्तब्ध रह गए. स्त्री-पुरुष में पवित्र और मर्यादित सखा भाव वाला शालीन रिश्ता भी हो सकता है यह तो समाज सोच ही नहीं सकता. स्त्री पुरुष को साथ देखा नहीं कि सबकी शक भरी उंगलियां ही उठती है उनकी ओर. कोई स्वस्थ नज़रिए से तो देख ही नहीं सकता. दो लोगों के बीच इंसानियत का रिश्ता भी हो सकता है यह समाज पचा नहीं पाता.

रचना ने दरवाज़े का ताला खोला और अंदर आ गई. पीछे-पीछे सामान का थैला उठाए प्रसून भी अंदर आ गया. रचना पूरे महीने का सामान इकट्ठा नहीं लाती थी, दुकान से वापस आते हुए हफ़्ते में एक बार जितना ज़रूरी होता था उतना सामान ख़रीद लाती थी.
प्रसून ने थैला किचन में जाकर प्लेटफार्म पर रख दिया और रचना से बोला, "तुम फटाफट चाय बनाओ तब तक मैं प्रियांशु को ले आता हूं."
"जी ठीक है." कह कर रचना हाथ-मुंह धोने बाथरूम में चली गई.
प्रसून प्रियांशु को लेने चला गया. दो-तीन घर छोड़कर ही एक घर में बच्चों का झूला घर था, जिसमें छह महीने से लेकर तेरह-चौदह वर्ष तक के बच्चे रहते थे. यह एक वृद्ध दंपति का घर था. उनके दोनों बच्चे अमेरिका में सेटल हो चुके थे और अपनी-अपनी गृहस्थियों में पूरी तरह से रम गए थे और ख़ुश थे. यह उनकी ख़ुशी का ही परिणाम था कि यह वृद्ध दंपति नाती-पोतों से खेलने की उम्र में यहां अकेले एकाकी रह गए थे. अपना एकाकीपन काटने के लिए उन्होंने झूला घर खोल लिया. इस मोहल्ले में वे चालीस वर्षों से रह रहे थे. स्वभाव के भी अच्छे थे. सब लोग उन्हें जानते और मानते थे. एक-एक कर दूर पास के कई बच्चे उनके पास आ गए. घर विभिन्न उम्र के नाती-पोतों से भर गया, साथ ही अतिरिक्त आय भी हो जाती. समय एक अच्छे काम में व्यतीत हो जाता. बच्चों को प्यार से संभालने वाले दादा-दादी मिल गए और माता-पिता को बच्चों की अच्छी और सुरक्षित देखभाल का आश्वासन. सबकी समस्याओं का समाधान हो गया.
प्रसून मिश्राजी के घर पहुंचा, तो प्रियांशु उनकी गोद में बैठा कहानी सुन रहा था. बाकी बच्चे दरी पर आसपास बैठे थे. प्रियांशु तो मिश्रा दंपति का ख़ास लाड़ला था. प्रसून को देखते ही प्रियांशु चहक उठा, "अंकल आ गए."
प्रसून ने हंसकर उसे गोद में ले लिया, "घर चलें बेटा?"
"हां चलो." प्रियांशु ने उसके गले से लिपटते हुए कहा. प्रसून ने प्रियांशु का स्कूल बैग लिया, मिश्राजी को नमस्ते कहा और घर की ओर आ गया.

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रचना ने चाय तैयार रखी थी और प्रियांशु के लिए दूध भी. प्रियांशु दूध पीने में नखरे करने लगा, तो प्रसून ने थैली में से आज लाए हुए तरह-तरह के बिस्किट दिखाकर दूध पीने को राजी कर लिया. क्रीम वाले बिस्किट देखकर प्रियांशु ख़ुश होकर दूध पी गया. रचना और प्रसून चाय पीने लगे.
चाय पीने के बाद प्रसून जाने लगा, तो रचना ने उसे रोक लिया कि वह रात का खाना खाकर ही जाए.
"प्रिया दीदी तो है नहीं अब आप रात का खाना खाकर ही घर जाइए. अकेले के लिए क्या बनाएंगे."
"ठीक है तुम खाने की तैयारी करो, तब तक मैं प्रियांशु को पार्क में झूले पर ले जाता हूं." प्रसून ने कहा और प्रियांशु को लेकर बाहर चला गया.
रचना जाकर मिश्रा दंपति को भी रात के खाने का न्योता दे आई. झूला घर के सब बच्चों के जाने के बाद थोड़ी देर आराम करके मिश्रा आंटी रचना के पास चली आई उसकी मदद करवाने. दोनों रसोईघर में काम करते हुए गप्पे मारने लगी.
मिश्रा आंटी को अपनी दोनों ही बहुओं के साथ रहने, बातें करने का सुख तो मिला ही नहीं. एक बहू तो विदेशी ही थी उसे तो उन्होंने आज तक देखा ही नहीं. उनके बड़े बेटे ने चर्च में शादी कर लेने के बाद अपनी शादी की ख़बर देते हुए फोन कर दिया और फोटो भेज दिए थे. उन्होंने बहुत कहा कि बस एक बार बहू को लेकर भारत आ जाओ, तो वे लोग प्रत्यक्ष उससे मिल लेंगे. लेकिन उनकी अल्ट्रा मॉडर्न विदेशी बहू यहां आने को किसी भी क़ीमत पर तैयार नहीं हुई. दूसरे बेटे के लिए उन्होंने ख़ुद लड़की देखी थी, लेकिन वह भी शादी करके जो अमेरिका जा बसी, तो आज तक कभी चार दिन भी उनके पास आकर नहीं रही.
चार साल में उनका छोटा बेटा-बहू दो बार भारत आए, लेकिन हर बार उन्हें न बताकर चुपचाप बहू के मायके में पूरी छुट्टियां बिता कर दो-चार दिन जाने के पहले उनके पास औपचारिकतावश रह जाते हैं.
अब तो मिश्रा आंटी ने अपना पूरा ध्यान झूला घर के बच्चों पर केंद्रित कर लिया है और अपने दिमाग़ में से बेटे-बहू को पूरी तरह निकाल दिया है. जो भी ख़ुशी है वह इन बच्चों में और मोहल्ले के पुराने परिचितों में ही है. यही उनका सच्चा परिवार है. रचना से मिश्रा आंटी को बहुत स्नेह है. वह भी हालात की मारी हुई और ससुराल से सताई हुई लड़की है. लेकिन उसने हिम्मत और धीरज से काम लेते हुए अपने आप को भी संभाला और अपने बच्चे को भी पाल रही है.
मिश्रा आंटी की मदद से रचना का काम काफ़ी जल्दी हो गया, तब तक मिश्रा अंकल और प्रसून भी प्रियांशु को लेकर आ गए. सबने साथ बैठकर खाना खाया. खाने के बाद आंटी ने फटाफट किचन साफ़ कर दिया. साढ़े नौ बजे प्रसून अपने घर चला गया. थोड़ी देर बाद अंकल-आंटी भी अपने घर चले गए.
रचना ने दरवाज़ा बंद किया और प्रियांशु को लेकर कमरे में आ गई. सुबह सात बजे ही प्रियांशु की बस आ जाती है, तो वह रात में जल्दी ही सो जाता है. उसके सोते ही रचना की भी आंखें झपकने लगी और जल्द ही वह भी सो गई
सुबह पौने छह बजे अलार्म बजने के साथ ही रचना की नींद खुल गई. वह जल्दी से उठी, मुंह-हाथ धोकर प्रियांशु का टिफिन बनाने लगी. एक तरफ़ उसने चाय का पानी चढ़ा दिया. प्रियांशु के लिए दूध गर्म करके उसने उसे उठाया और नहलाकर स्कूल के लिए तैयार कर दिया. दूध-बिस्कुट खिलाकर रचना ने पानी की बोतल और टिफिन उसके बैग में रखा और उसे बस स्टॉप पर छोड़ने गई. पांच-सात मिनट में ही बस आ गई. रचना ने प्रियांशु को बस में बिठाया और घर वापस आ गई.
थोड़ी देर अख़बार पढ़ते हुए रचना ने चाय पी और फिर घर के बाकी काम निपटाने लगी. काम भी क्या, रचना ने एक गहरी सांस ली, छोटा सा रसोईघर, थोड़े से बर्तन, बाहर एक छोटी सी बैठक उसी से लगा हुआ डाइनिंग हॉल और एक छोटा सा बेडरूम बस. अपने लिए दो-चार रोटियां बनाई और खाना तैयार. नहा-धोकर उसने लंच पैक किया और तैयार हो गई. साढ़े नौ बजे प्रसून आ जाता था उसे लेने और उसे उसके सुपरमार्केट में ड्रॉप कर देता था जहां वह काम करती थी. उसी मार्केट से आगे प्रसून का ऑफिस था. शाम को लौटते हुए प्रसून उसे वापस ले आता था और घर पर ड्रॉप कर देता था. पिछले चार सालों से उसकी यही दिनचर्या है. मिश्रा दंपति प्रसून और प्रियांशु यही उसकी छोटी सी दुनिया और यही उसका परिवार है. कभी-कभी प्रसून की पत्नी प्रिया और दोनों बच्चे भी आ जाते. प्रिया बहुत सुलझी हुई स्त्री थी.

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आठ बरस पहले पास के शहर में उसकी शादी हुई थी. परिवार ने लड़के के बारे में बड़ी-बड़ी बातें की थी. संपन्न घर था बड़ा सा मकान, गाड़ी. मध्यमवर्गीय माता-पिता ने तुरत-फुरत उसका विवाह कर दिया. विवाह के बाद पता चला लड़का अर्थात आशीष कुछ करता नहीं है, बेरोज़गार है. पिता और बड़े भाइयों की कमाई पर घर में पड़ा रहता है. घर में उसकी कोई इज़्ज़त नहीं है. भाई-भाभियां सारा समय उसे दुत्कारते रहते हैं. जब पति की कोई इज़्ज़त ना हो, तब पत्नी का कौन सम्मान करता है. शादी के छह महीने बाद सास-ससुर का रवैया भी बदल गया. वे रचना को ही ताने देते की, "हमने तो सोचा था कि तुम उसे समझा-बुझाकर काम करने के लिए मना लोगी. ज़िम्मेदारी पड़ने से वह सुधर जाएगा, लेकिन तुम पत्नी होकर भी उसे ज़िम्मेदार नहीं बना पाई, सुधार नहीं पाई, क्या फ़ायदा हुआ तुम्हे घर लाने का. एक की बजाय दो लोगों को बिठाकर खिलाना पड़ता है."
एक-डेढ़ साल तक रचना ससुराल में अपमान के घूंट पीती नौकरों की तरह काम करती रही. आशीष को मनाती रही कोई काम-धंधा या छोटी-मोटी ही सही नौकरी करने को, लेकिन उस निठल्ले के बस में कुछ नहीं था. हार कर रचना ने एक स्कूल में नौकरी कर ली. पैसा ज़्यादा तो नहीं मिलता था, लेकिन कम से कम उसे छोटी-छोटी ज़रूरत के लिए घर में जेठानियों के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ते थे. लेकिन यहां भी दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा. आशीष ने उसके स्कूल के टीचर्स से पैसा उधार लेना शुरू कर दिया. जब आशीष उन टीचर्स को पैसा चुकता नहीं कर पाया, तो उन्होंने रचना को बताया. रचना ने सिर पीट लिया. ख़ुद तो कुछ कमाता नहीं है, रचना कमा रही है तो वहां भी चैन नहीं. रचना की सारी कमाई तो आशीष की उधारी चुकाने में ख़त्म हो जाती. उसने सारे टीचर्स से निवेदन किया कि वह अब आगे से आशीष को कोई पैसा उधार ना दे, लेकिन अब तक की उधारी तो उसे चुकानी ही पड़ रही थी. रचना दोनों तरफ़ से पिस गई. एक तरफ़ घर का सारा काम उसे करना पड़ता, तो दूसरी तरफ़ स्कूल की नौकरी, उस पर भी हालत वैसी ही की हाथ में एक फूटी कौड़ी नहीं आती और घर पर ताने पड़ते सो अलग.
रचना को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे. उसके माता-पिता अलग अपराधबोध से घिरे रहते थे की ज़ल्दबाज़ी में यह कैसे नकारा से ब्याह दिया उन्होंने अपनी बेटी को. जैसे-तैसे आशीष के लिए हुए कर्ज़ से मुक्त हो ही पाई थी वह कि पता चला वह मां बननेवाली है. जैसे-तैसे रचना कुछ महीनो तक अपने शरीर को और खींचती रही, लेकिन फिर तकलीफ़ बढ़ जाने से उसे नौकरी छोड़नी पड़ी.
घर में आशीष की वजह से उसे हर कदम पर बेइज़्ज़त होना पड़ता था. रात-दिन ताने सुनने पड़ते थे. घर-बाहर दोनों मोर्चों पर पिसकर भी हासिल कुछ नहीं था. तंग आकर वह अपनी मां के यहां आ गई. पिता अपने अपराधबोध में घुलते हुए अचानक एक दिन हार्ट अटैक से चल बसे. मां के ही घर प्रियांशु का जन्म हुआ. आशीष दो-तीन बार उसे घर वापस ले जाने के नाम से वहां आया और ख़ुद भी वही टिक गया. पिता तो रहे नहीं मां स्वयं ही बड़े भाइयों पर आश्रित थी. भाई तो फिर भी कुछ कहते नहीं थे, मगर भाभियों की ज़ुबान खुलने लगी. वे दोनों रात-दिन ताने मारने लगीं. आशीष की वजह से ससुराल में रचना को जेठानियों के ताने सुनने पड़ते थे और अब मायके में भी उसे चैन नहीं. बच्चे को लेकर अगर वह ससुराल वापस जाती, तो भी आशीष की बेरोज़गारी और आवारागर्दी उसे त्रस्त कर डालते. प्रियांशु की देखभाल के बहाने वह मायके में ही रही और जैसे तैसे उसने आशीष को वहां से चलता किया और स्पष्ट बोल दिया कि अगर ढंग की नौकरी मिले तो ही उसे लेने आए, वरना उसे और बच्चे को उनके हाल पर छोड़ दे.
रचना ने फिर एक स्कूल में नौकरी कर ली. प्रियांशु की देखभाल मां कर ही लेती थी. लेकिन दुर्भाग्य ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा और प्रियांशु साल भर का हुआ ही था कि मां चल बसी. अब तक मां के कारण जो भाभियां जैसे-तैसे रचना को बर्दाश्त कर रही थी उन्होंने मां की तेरहवीं होते ही रचना को अपनी ससुराल वापस चले जाने का फ़रमान सुना दिया. रचना किसी भी क़ीमत पर ससुराल वापस जाना नहीं चाहती थी. वह अब और जिल्लत से भरी ज़िंदगी नहीं जी सकती थी. उसने ठान लिया कि अब वह अपने पैरों पर खड़ी होकर आत्म सम्मान के साथ ही जीएगी. उसने भाभियों से थोड़े दिनों की मोहलत मांगी और अपने नन्हें बच्चे के साथ दर-दर भटकते हुए काम की तलाश करने लगी. कोई ऐसा काम, जिसमें इतना पैसा मिले कि वह एक कमरा किराए पर लेकर प्रियांशु को किसी अच्छे झूला घर में रख सके.
बहुत तलाशने के बाद उसकी मुलाक़ात मिश्रा दंपति से हुई. उन्होंने उसे मानसिक संबल दिया तथा पास ही एक कमरा किराए पर दिलवा दिया. उन्होंने ही उसे प्रसून से मिलवाया. प्रसून ने रचना को अपने दोस्त के सुपर मार्केट में नौकरी दिलवा दी. रचना प्रियांशु को लेकर यहां आ गई. उसने किसी को भी अपना पता नहीं बताया था. वह अतीत के सारे अपमान, सारी तकलीफ़ें, कड़वाहट सब भूल जाना चाहती थी. भाई-भाभियों ने भी राहत की सांस ली और अपने हाथ झटक लिए. उन्हें क्या परवाह थी कि वह कहीं भी रहे किसी भी हाल में रहे. दो साल में अपनी मेहनत और ईमानदारी से रचना ने असिस्टेंट मैनेजर का पद प्राप्त कर लिया. अब एक कमरे की जगह उसने यह छोटा सा पोर्शन किराए पर ले लिया था, जिसमें छोटा सा किचन, बेडरूम, ड्रॉइंगरूम सब था. इतने सालों में प्रसून ने हर तरह से हर कदम पर उसका भरपूर साथ दिया था. सुख में दुख में हर परेशानी में, चाहे कभी प्रियांशु बीमार पड़ा हो, चाहे वह ख़ुद. डॉक्टर को दिखाने से लेकर दवाइयां लाने तक हर ज़िम्मेदारी पूरे अपनेपन और ईमानदारी से निभाता है प्रसून. दोनों में एक अव्यक्त अनाम मगर बहुत ही गहरा रिश्ता बन गया था. प्रिया ने भी कभी प्रसून को रोका नहीं रचना की मदद करने से या उसके यहां आने-जाने से, बल्कि जब भी होता वह ख़ुद भी रचना की मदद करती. अब तो रचना अपने बेटे के साथ अपने इस नए परिवार और नए जीवन में पूरी तरह से रम गई थी. पुरानी यादें रात के बुरे सपने की तरह बीत चुकी थी. अब जीवन की नई सुबह आ गई. मिश्रा अंकल-आंटी कभी माता-पिता की कमी महसूस नहीं होने देते.
एक बार जब प्रियांशु बहुत बीमार पड़ गया था, तब आंटी दिन-रात उसे गोद में लेकर बैठी रहती थी. रचना को कभी लगा ही नहीं कि उसकी मां नहीं है. रचना के घाव भर चुके थे. वर्षों के संघर्ष के बाद अब वह आर्थिक एवं मानसिक रूप से समर्थ और स्वतंत्र व्यक्ति थी, पूरी तरह आत्मनिर्भर थी.
पेपर समेटते हुए रचना की नज़र घड़ी पर पड़ी, उफ़! आज तो वह काफ़ी देर तक पेपर पढ़ती रह गई. बाकी काम उसने काफ़ी स्फूर्ति से निपटाए. वह तैयार होकर लंच बॉक्स रख ही रही थी कि नीचे से प्रसून की बाइक का हॉर्न सुनाई दिया. जल्दी से उसने अपनी पर्स संभाली और ताला लगाकर बाहर आ गई.
प्रसून ने बाइक स्टार्ट की और रचना को लेकर सुपर मार्केट में ड्रॉप करके अपने ऑफिस चला गया.

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रचना की दिनचर्या और जीवन सुख से चल रहा था. दिन बीत रहे थे. सब कुछ व्यवस्थित था कि एक दिन अचानक उसके जीवन में एक भूचाल आ गया. एक दिन वह प्रसून के साथ शाम को घर वापस लौटी, तो दरवाज़े पर आशीष को खड़ा देखकर बुरी तरह चौंक गई. प्रसून ने उसे चौंकते हुए देखकर पूछा कि यह व्यक्ति कौन है.
रचना पिछले सालों में बुरे अतीत के साथ आशीष को भी पूरी तरह से भूल चुकी थी. उसके नाम को, व्यक्तित्व को पूरी तरह से अपने जीवन से अलग कर चुकी थी. अब अचानक उसे सामने देखकर उसके मन में संदेह के कांटे चुभने लगे. उसने धीरे से प्रसून से कहा कि यह आशीष है.
बेचारा प्रसून हकबका गया इस नई परिस्थिति से सामना होने से. वह भी रचना के जीवन में आशीष नाम के किसी प्राणी के अस्तित्व के बारे में भूल ही गया था. आज आशीष को देखकर उसे रचना के साथ जोड़कर देखने की कल्पना से ही उसे अजीब सा लग रहा था. कुछ पलों तक सब किंकर्तव्यविमुढ से खड़े रह गए.
"क्या हुआ रचना दरवाज़ा खोलो तुम्हारा पति आया है, उसे अंदर भी नहीं बिठाओगी क्या?" आशीष ने ही चुप्पी तोड़ी.
आशीष के मुंह से पति शब्द सुनकर रचना के शरीर में वितृष्णा की एक लहर दौड़ गई. प्रसून के चेहरे के भाव भी सख्त हो गए, क्योंकि वह रचना के दुखद और संघर्ष भरे अतीत से भलीभांति परिचित था.
"मैं प्रियांशु को लेकर आता हूं."
और कुछ समझ ना आने पर उसे असमंजस से उबरने का यही एक तरीक़ा समझ आया, लेकिन अचानक रचना सख़्त लहज़े में बोली, "नहीं आप कहीं नहीं जाएंगे."
आशीष की ओर कठोर दृष्टि से देखते हुए रचना ने उससे पूछा, "आप यहां क्यों आए हैं?"
"क्यों आया? क्या मतलब? मैं पति हूं तुम्हारा. प्रियांशु का बाप हूं." आशीष ने अपने स्वर में भरसक अधिकार भाव भरते हुए कहा.
"वाह इतने सालों बाद आपको याद आया है कि आपका हमसे क्या रिश्ता है?" रचना के स्वर में व्यंग्य था.
प्रसून ने रचना से कहा कि अंदर बैठकर बातें करते हैं यहां आस-पड़ोस वाले सुनेंगे तो क्या कहेंगे. आशीष को प्रसून की उपस्थिति नागवार लग रही थी. रचना ने ताला खोला और सब अंदर आ गए. जब  प्रसून भी अंदर आ गया और सोफे पर बैठ गया, तो आशीष रोष भरे स्वर में बोला, "यह महाशय कौन है? हम पति-पत्नी के बीच में इनका क्या काम?"
बार-बार आशीष के मुंह से पति शब्द सुनकर रचना झल्ला पड़ी, "कौन पति, कैसा पति, किसका पति?"
"मैं तुम्हारा पति." आशीष उसके चिल्लाने से अचकचा गया.
"कोई रिश्ता नहीं है मेरा तुमसे. आज तुम्हें याद आ रहा है कि तुम मेरे पति हो, तब क्यों नहीं याद आया जब मैं नौकरों की तरह तुम्हारे घर पर काम करती थी और तुम्हारा कर्ज़ चुकाने के लिए स्कूल की नौकरी में पिसकर भी पैसे-पैसे को मोहताज थी... तब कहां थे तुम जब मैं अपने दूधमुंहे बच्चे को लेकर नौकरी की तलाश में दर-दर भटक रही थी." रचना क्षोभ से भर कर बोली. "कोई रिश्ता कैसे नहीं है, धर्म को साक्षी मानकर विवाह हुआ है हमारा. मैं तुम्हारा पति हूं." आशीष ने फिर अपने स्वर में अधिकार भाव लाकर रचना पर हावी होना चाहा.
"अगर धर्म को साक्षी मानकर तुम्हारे जैसा पति मिलता है, तो मैं आज उस धर्म को ही मानने से इंकार करती हूं. मैं तुम्हें बहुत अच्छे से पहचानती हूं. ज़रूर उस घर से तुम्हें धक्के मार कर बाहर निकाल दिया गया होगा, तभी मुझे तलाश करते हुए यहां आ धमके हो. मगर कान खोलकर सुन लो अब यहां तुम्हारी दाल नहीं गलेगी. बरसों की मेहनत के बाद मेरे जीवन में इज़्ज़त और चैन के दिन आए हैं. मैं अब किसी को भी उन्हें छिनने नहीं दूंगी. बहुत मेहनत से यह छोटा सा नीड बनाया है मैंने. अब इसे किसी क़ीमत पर बर्बाद नहीं होने दूंगी. तुम अभी के अभी इस घर से निकल जाओ और फिर ज़िंदगी में कभी मुझे अपनी सूरत मत दिखाना." रचना तल्ख स्वर में बोली.
"क्यों निकल जाऊं मेरा पूरा हक़ है तुम पर. क़ानूनन भी मैं ही तुम्हारा पति हूं." आशीष अब भी अपनी बात पर बेशर्मों की तरह अड़ा रहा.
"कोई हक़ नहीं है तुम्हारा मुझ पर. मैं तुम्हारे जैसे निकम्मे नकारा आदमी के साथ रहना तो दूर सूरत तक देखना नहीं चाहती. और क़ानून की धमकी मुझे मत दो. मैं वैसे भी सात साल से तुमसे अलग रह रही हूं. ये शादी तो वैसे भी टूट चुकी है. और जल्दी ही मैं काग़ज़ी कार्यवाही भी कर दूंगी अब तो." रचना का स्वर दृढ़ था.
"तो इसके कारण तुम मुझे दुत्कार रही हो. अच्छा यार फंसा कर रखा है. पति को छोड़ दिया इसको रख लिया." जब रचना पर ज़ोर नहीं चला, तो आशीष प्रसून की और इशारा करके अभद्र तरीक़े से उस पर लांछन लगाते हुए बोला.
इस अपमान पर प्रसून और रचना दोनों ही स्तब्ध रह गए. स्त्री-पुरुष में पवित्र और मर्यादित सखा भाव वाला शालीन रिश्ता भी हो सकता है यह तो समाज सोच ही नहीं सकता. स्त्री पुरुष को साथ देखा नहीं कि सबकी शक भरी उंगलियां ही उठती है उनकी ओर. कोई स्वस्थ नज़रिए से तो देख ही नहीं सकता. दो लोगों के बीच इंसानियत का रिश्ता भी हो सकता है यह समाज पचा नहीं पाता.
"तुम जैसा बेशर्म और गिरा हुआ इंसान और सोच भी क्या सकता है. जब मनुष्य की स्वयं की दृष्टि ही कीचड़ से सनी हो, तो उसे सब ओर गंदगी ही नज़र आती है. इससे पहले कि मैं तुम्हें धक्के मार कर बाहर निकालूं चुपचाप यहां से चले जाओ." प्रसून कठोर स्वर में बोला.
आशीष प्रसून को नीचा दिखाने और रचना को अपमानित कर उस पर हावी होने की आख़िरी कोशिश करने में दोनों के संबंधों को लेकर अनर्गल और अनाप-शनाप बोलने लगा. प्रसून का मन किया कि आशीष को दो-चार तमाचे जड़ दे, मगर वह संयम रखकर खड़ा रहा. लेकिन रचना का और अधिक अपमान उससे सहा नहीं गया.
"मेरा दोस्त शहर का एसपी है. अगर तुम चुपचाप यहां से दफा नहीं हो गए, तो मैं अभी तुम्हें थाने में बंद करवा दूंगा. सारी ज़िंदगी जेल में सड़ते रहोगे. जाओ यहां से और आइंदा रचना के आसपास नज़र भी मत आना." प्रसून ने जबड़े पीसते हुए कहा.
धमकी असर कर गई. आशीष अचानक बुरी तरह बौखला गया. जब उसने देखा कि प्रसून ने अपनी जेब से अपना मोबाइल निकाला और  किसी को फोन करने लगा. आशीष की ज़बान तालू से चिपक गई. वह चुपचाप उठा और वहां से खिसक गया.
प्रसून ने रचना की ओर देखा. किस मुश्किल से रचना ने अपने आपको संभाल कर जीवन को व्यवस्थित किया था, मगर आज आशीष आकर सब अस्त-व्यस्त कर गया. बेचारी आशीष के घिनौने इल्ज़ाम सुनकर प्रसून से नज़र नहीं मिल पा रही थी. प्रसून जानता था कि रचना के मन में उसे लेकर कोई ऐसी-वैसी भावना या इच्छा नहीं है. उसका मन शीशे की तरह साफ़ है.
"छोड़ो रचना, आशीष जैसों की बातों से अपना मन ख़राब नहीं करते. मुझे तुम पर भी पूरा भरोसा है और अपने आप पर भी. हमारे मन पूरी तरह साफ़ है और हमारा रिश्ता भी. हम दोस्त हैं बस और कुछ नहीं, और इसी रिश्ते में सारी पवित्रता है. यह तो कुछ लोगों का नज़रिया ही गंदा होता है कि वह औरत-मर्द के रिश्ते को लेकर कभी स्वस्थ सोच रख ही नहीं सकते, हमेशा गंदा ही सोचते हैं. मगर हमें इन लोगों से क्या लेना-देना. हमारी अपनी एक सुंदर साफ़-सुथरी ख़ुशहाल दुनिया है." प्रसून ने रचना के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे सांत्वना दी.

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"हां बेटी प्रसून ठीक कह रहा है. हमें भी तुम पर पूरा भरोसा है. आशीष की बातों से अपना मन ख़राब मत करो और डरो मत, हम सब तुम्हारे साथ हैं." मिश्रा दंपति प्रियांशु को लेकर अंदर आए. जब देर तक आज प्रसून या रचना उसे लेने नहीं आए, तो उन्हें चिंता हुई और वह ख़ुद ही चले आए. बाहर उन्होंने सारी बातें सुन ली थी.
"तुम्हें लोगों की बातों की परवाह करने की कोई ज़रूरत नहीं. आप भला तो जग भला. दुनिया की सोच की ज़िम्मेदारी तुम्हारी नहीं है, तुम केवल अपने सही-ग़लत की ज़िम्मेदार हो और हम जानते हैं कि तुम सही हो." मिश्रा आंटी ने रचना के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.
रचना के सिर से मानो बोझ हट गया. समाज में आशीष जैसे गिरी हुई सोच वाले व्यक्ति हैं, तो प्रसून और मिश्रा दंपति जैसे परिपक्व व स्वस्थ विचारों वाले व्यक्ति भी हैं. प्रियांशु प्रसून से खेल रहा था. रचना ने कृतज्ञ और संतुष्टि भरी नज़र अपने इस ख़ुशहाल परिवार पर डाली. बाहर अंधेरा घिरने लगा था, मगर उसके जीवन में आज संबंधों का एक नया उजाला छा गया था.
"भई दिमाग़ बड़ा पक गया आज तो, इस समय मुझे तो गर्म चाय की सख़्त ज़रूरत है." मिश्रा अंकल बोले.
"और मुझे भी." प्रसून भी बोला, तो मिश्रा आंटी हंसने लगी.
"अभी लाती हूं मैं सबके लिए गरमा गरम चाय और साथ में कुछ नाश्ता भी. और आप प्रिया दीदी और बच्चों को फोन करके यहीं बुला लीजिए. आज डिनर पूरा परिवार साथ ही करते हैं." रचना मुस्कुराते हुए चाय बनाने किचन में चली गई.

Dr. Vinita Rahurikar
विनीता राहुरीकर

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Photo Courtesy: Freepik

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